मुसीबतों का ‘अपना घर’ याने बैंक ऑफ बड़ौदा


मेरे इस लिखे को बैंक ऑफ बड़ौदा के खिलाफ माना जाएगा जबकि हकीकत यह है कि मैं अपना घर सुधारने की कोशिश कर रहा हूँ।

अब तो यह भी याद नहीं कि इस बैंक में खाता कब खुलवाया था। लेकिन यह बात नहीं भूली जाती कि पहले ही दिन से इस बैंक में मुझे ‘घराती’ जैसा मान-सम्मान और अपनापन मिला। पहले ही दिन से मेरी खूब चिन्ता की जाती रही है। थोड़े लिखे को ज्यादा मानिएगा कि बैंकवालों का बस चले तो बैंकिंग सेवाओं के लिए मुझे घर से बाहर भी न निकले दें। अब, ऐसे में मैं इसके खिलाफ जब सोच ही नहीं सकता तो भला लिखूँगा क्या और कैसे?
मेरा खाता इस बैंक की, मेरे कस्बे की स्टेशन रोड़ स्थित शाखा में है। 

सब कुछ वैसे तो ठीक ही ठीक चल रहा है लेकिन मशीन आधारित ग्राहक सेवाएँ गए कोई तीन-चार बरसों से गड़बड़ हो रही हैं। शाखा के बाहर, मुख्य सड़क पर लगा इसका एटीएम एक बार तो इतने दिनों तक खराब रहा था कि मैं ने फेस बुक पर, अपने पन्ने पर एक पोस्टर चिपका कर लोगों से यह कर चन्दा माँगा था कि बैंक के पास इसे ठीक कराने के लिए पैसा नहीं रह गया है। तत्कालीन प्रबन्धक जैन साहब तनिक खिन्न हुए थे। फेस बुक पर लगाने से पहले मैंने वह पोस्टर औपचारिक पत्र के साथ  उन्हें भेजा था। उन्होंने तत्काल ही मेरे सामने ही ‘ऊपर’ बात कर मेरे पोस्टर का मजमून पूरा पढ़कर सुनाया था। लेकिन कुछ नहीं हुआ।

अपनी नीतियों के अनुरूप बैंक ने पूरे देश में तीन मशीनें (एटीम, रकम जमा करने की तथा पास बुक छापने की) अपनी शाखाओं में स्थापित कीं और ग्राहकों से कह दिया कि ये सेवाएँ अब मशीनों से ही प्राप्त करें। लेकिन ये मशीनेें बराबर चलती रहें इस ओर प्रबन्धन ने ध्यान देना बन्द कर दिया। मैं भली प्रकार जानता हूँ कि प्रबन्धन ने इन मशीनों का रख-रखाव निजी एजेन्सियों को दे रखा है। लेकिन अधिकांश ग्राहकों को यह नहीं पता। इसलिए, स्थानीय अधिकारी और कर्मचारी ही जन-आक्रोश झेलने को अभिशप्त हैं।

मेरे खातेवाली शाखा में तीन मशीनें लगी हुईं हैं और तीनों ही बदहाल हैं। इनका संक्षिप्त ब्यौरा इस प्रकार है -

यह बैंक के बाहर लगा ए टी एम है। इसके सेंसर काम नहीं कर रहे। 06-06 बार अपना कार्ड लगानेके बाद भी इसमें से पैसा नहीं निकलता। हर बार ‘अनेबल टू रीड कार्ड, प्लीज इन्सर्ट एण्ड रिमूव योर कार्ड अगेन’ का सन्देश पर्दे पर आता है। ए टी एम का देखभालकर्ता (केअर टेकर) कर्मचारी भी सहायता करता है। लेकिन उसे भी सफलता नहीं मिलती। वह तनिक झेंप और अत्यधिक विनम्रता से, शाखा के अन्दर लगी, रकम जमा करनेवाली मशीन (जो ए टी एम का काम भी करती है) से रकम निकालने की सलाह देता है।

यह, रकम जमा करनेवाली वही मशीन है जिसकी मदद से रकम निकालने की सलाह हम ग्राहकों को बाहर मिलती है। लेकिन यह मशीन भी मदद नहीं करती। यह भी बन्द रहती है। ‘मशीन बन्द है’ की सूचनावाला कागज प्रायः ही इस पर चिपका रहता है। गए दिनों एक ग्राहक की, जमा की जानेवाली रकम फँस गई। वह रकम उसे, आरटीजीएस के जरिए, किसी दूसरे शहर में जमा करानी थी। उसकी समस्या कैसे सुलझाई गई, यह अलग से सुनाया जानेवाला मसालेदार किस्सा है।

यह मशीन पास बुक की प्रविष्टियाँ छापती है। मुझे यह मशीन बहुत अच्छी लगती है। इसमें मुझे कुछ नहीं करना होता है। अपनी पास बुक अन्दर सरकाने भर का काम ग्राहक के जिम्मे है। उसके बाद पन्ने पलटना और जिस पन्ने से प्रविष्टियाँ छापनी हैं, वह पन्ना तलाश कर छपाई कर देना - सारे काम यह मशीन अपने आप कर देती है। इस मशीन के भरोसे, छोटे बच्चे को भी पास बुक छपवाने के लिए भेजा जा सकता है। लेकिन गए तीन महीनों से यह मशीन बन्द पड़ी है। 

ऐसे में कर्मचारियों की मुश्किल का अन्दाज आसानी से लगाया जा सकता है। कर्मचारियों की संख्या में दिन-ब-दिन होती जा रही कमी के चलते उनके लिए अपने ग्राहकों को सन्तुष्ट करना अब बड़ी चुनौती बनती जा रही है। ग्राहकों से कर्मचारियों के निजी सम्बन्धों के कारण जन-असन्तोष सतह पर नहीं आ रहा लेकिन ‘लिहाज’ भी एक सीमा तक ही साथ देता है। 

मैंने सुझाव दिया कि इन मशीनों पर एक-एक पोस्टर चिपका दें - ‘यह मशीन बैंक की है जरूर किन्तु इसके रखरखाव की जिम्मेदारी फलाँ-फलाँ एजेन्सी की है। इसके खराब रहने की दशा में कृपया फोन नम्बर फलाँ-फलाँ पर कम्पनी से सम्पर्क करें।’ मेरा सुझाव  सबको अच्छा तो लगा किन्तु ‘आचरण संहिता’ (कोड ऑफ कण्डक्ट) के अधीन वे चाह कर भी इस पर अमल नहीं कर पा रहे।

यह समस्या केवल इस बैंक की इसी शाखा की नहीं होगी। इसी बैंक की अन्य शाखाओं और दूसरे बैंकों की भी होगी। स्थानीय स्तर पर तमाम बैंकों के कर्मचारी/अधिकारी ग्राहकों की बातों से सहमत हैं लेकिन वे यथाशक्ति, यथा सामर्थ्य सहायता करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते।

इस बैंक की इस शाखा के बहाने लिखी गई यह पोस्ट शायद कोई जिम्मेदार अधिकारी पढ़ ले और ‘कुछ’ करे, इसी उम्मीद से लिख रहा हूँ। इसकी ओर ध्यान जल्दी जाए, बैंक का प्रतीक चिह्नन (मैं नहीं जानता कि यह ‘लोगो है या ‘एम्ब्लम’ या कि ‘मोनो) सबसे ऊपर लगाने का यही मकसद है।

उम्मीद करता हूँ कि मेरी इस पोस्ट को बैंक के विरोध में अब तो नहीं ही समझा जाएगा।
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4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-09-2017) को "आदमी की औकात" (चर्चा अंक 2717) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. बडी कृपा है आपकी। बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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  2. हम पिछले 15 वर्षों में कभी पासबुक छपवाने नहीं गये, स्टेटमेंट से काम चला लिया, अब पासबुक तो हम लगभग भूल ही गये हैं, आप ऑनलाइन भी देख सकते हैं। मैं इस ब्रांच में पहली बार कम्प्यूटरीकृत करने आया था, शायद 2001 में तब उस समय गोल्डन वीआरएस स्कीम आई थी, मुझे सारा स्टाफ बहुत ही अच्छा लगा था। आपकी सारी समस्याओं का निराकरण हो सकता है बशर्ते ब्रांच से मैनेजर बहुत सख्त हो, और ऊपर वालों पर कोई रहम न करे, उसे अच्छे से एस्केलेशन करना आता हो। वरना तो आप चेयरमैन को भी सीधे लिख सकते हैं।

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