कौन किस पर गर्व करे?

यह अभी-अभी, सप्ताह भर पहले की बात है। एक जन समारोह में एक केन्द्रीय राज्य मन्त्री ने दूसरे केन्द्रीय राज्य मन्त्री की उपस्थिति में, भारत सरकार से सम्राट अशोक की जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की माँग की। यह माँग जाति-समाज आधारित थी। मुझे अचरज भी हुआ और पीड़ा भी। मंजूरी देनेवाला सरे बाजार माँग कर रहा है! यदि मन्त्री ही इस तरह माँग करें तो आम आदमी किससे माँगे? लोकतान्त्रिक और साम्विधानिक मर्यादाओं और आचरण के प्रति यह हमारा अज्ञान है या हम ज्ञान-पापी हैं? लेकिन इससे आगे बढ़कर मुझे कष्ट इस बात से हुआ कि सस्ती लोकप्रियता और वोट केन्द्रित राजनीति के चलते ऐसी माँग कर हम अपने महापुरुषों, इतिहास पुरुषों, आदर्शों, नायकों का मान बढ़ाते हैं या कम करते हैं? ऐसी माँग करते समय हम अपने नायकों के बारे में कितना जानते हैं?

सम्राट अशोक के बारे में मैं उतना ही जानता हूँ जितना  मुझे, स्कूल की परीक्षाएँ पास करने के लिए पढ़ना पड़ा था। मैं भी सम्राट अशोक को ‘अशोक महान्’ कहता तो रहा लेकिन कभी नहीं जाना कि भारत के अनेक राजाओं के बीच अशोक को ‘महान्’ क्यों कहा गया। बस! किताब में छपा था इसलिए मेरे लिए ‘अशोक महान्’ बना रहा और अब तक बना हुआ है।
केन्द्रीय राज्य मन्त्री द्वारा यह माँग उठाने के बाद मैंने अपने आसपास के ज्ञानियों के यहाँ हाजरी लगाई तो सम्राट अशोक के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलीं। इन जानकारियों के बाद मैं और ज्यादा चिन्तित हो गया। आखिरकार हम अशोक महान् के किस स्वरूप को अपना आदर्श मानते हैं या मानना चाहेंगे?

चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते और राजा बिन्दुसार के बेटे अशोक वर्द्धन मौर्य को हम लोग सामान्यतः कलिंग विजय हेतु किए गए युद्ध के कारण ही जानते हैं। लेकिन उसने अपने राज्य विस्तार के लिए युद्ध नहीं किए। उसके सामने अपने दादा की तरह न तो किसी राजा नन्द की चुनौती थी और न ही चाणक्य जैसा दूरदर्शी, रणनीतिकार गुरु। उसे देवनाम प्रिय अशोक, प्रियदर्शी अशोक, चक्रवर्ती सम्राट अशोक के साथ ही साथ चण्ड अशोक याने अत्यधिक गुस्सैल अशोक भी कहा गया है। उसके जीवन का अधिकांश समय परिजनों से संघर्ष में बीता, राज्य विस्तार के संघर्ष में नहीं। उसके बड़े भाई ने उससे मुक्ति पाने के लिए और गद्दी की दावेदारी से दूर रखने के लिए युद्ध हेतु भेजा। सोचा था, अशोक असफल हो जाएगा। किन्तु उल्टा हो गया। स्थितियों ने उसे राज गद्दी की प्रतियोगिता में धकेल दिया जिसके लिए उसे अपने भाइयों की हत्या करनी पड़ी।

सब कुछ ठीक ही चलता किन्तु लेकिन कलिंग युद्ध के नतीजे ने सब कुछ बदल दिया। कलिंग युद्ध के बाद, (वर्तमान भुवनेश्वर से कोई दस किलोमीटर दूर स्थित) धौली की पहाड़ियों से दया नदी को देख अशोक का हृदय लज्जा, अपराध-बोध, विरुचि और घृणा से भर गया। जहाँ तक नजर जाती थी, क्षत-विक्षत सैनिकों के शवों के सिवाय कुछ भी नजर नहीं आया। सैनिकों के खून से नदी का पानी लाल हो गया था। कलिंग युद्ध की बर्बरता और नृशंसता देख अशोक की पत्नी देवी उसे छोड़ गई। इन स्थितियों और मनोदशा से मानो एक नए अशोक ने जन्म लिया - यही अशोक, ‘अशोक महान्’ के नाम से जाना गया। युद्ध के नतीजे ने सम्राट अशोक को बुद्ध का श्रेष्ठ अनुयायी बना दिया। उसने खुद को और अपने बेटे महेन्द्र तथा बेटी संघमित्रा को, बुद्ध को और बौद्ध धर्म को अर्पित कर दिया। उसने अपना ‘स्व’ बुद्ध में विसर्जित कर दिया।

यह सब जानकर मैं उलझन में पड़ गया। अशोक महान् की जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करनेवाले आखिर अशोक के किस स्वरूप को मानेंगे? सत्ता के लिए प्रतियोगिता में धकेल दिए गए अशोक को? उसके योद्धा स्वरूप को? या फिर युद्ध की विभीषिका से उपजी विरुचि के अधीन, राज सिंहासन को त्याग कर बौद्ध भिक्षु बने स्वरूप को? 

मध्य प्रदेश मुख्य मन्त्री शिवराज सिंह चौहान से मध्य प्रदेश के ब्राह्मण बहुत खुश हैं। ब्राह्मणों की प्रदेशव्यापी माँग को मंजूर कर शिवराज ने सन् 2015 से परशुराम जयन्ती का सार्वजनिक अवकाश घोषित करना शुरु कर दिया है। मैंने अपने ब्राह्मण मित्रों से परशुरामजी के बारे में जानना चाहा। मुझे यह देख निराशा हुई कि कुछ अपवादों को छोड़कर सब के सब परशुरामजी को एक ही बात से जानते हैं कि उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रीयविहीन किया था। मैंने इसका कारण जानना चाहा और जानना चाहा कि एक बार क्षत्रीयविहीन हो जाने के बाद धरती पर क्षत्रीय फिर कैसे आ गए? वह भी एक के बाद, इक्कीस बार! किसी के पास कोई जवाब नहीं था। कोई नहीं जानता था कि सहस्रबाहु अर्जुन नामक एक क्षत्रीय राजा  द्वारा परशुराम की माता रेणु से कामधेनु नामक गाय जबरन छीन लेने से कुपित परशुराम ने सहस्रबाहु अर्जुन का वध किया था जिसका बदला लेने के लिए सहस्रबाहु अर्जुन के बेटों द्वारा (परशुराम की अनुपस्थिति में) परशुराम के पिता जमदाग्नि की हत्या कर देने से क्रुद्ध परशुराम ने सहस्रबाहु अर्जुन के समस्त पुरुष रिश्तेदारों को मौत के घाट उतार दिया था। वस्तुतः परशुराम ने, ब्राह्मणों को पीड़ित करनेवाले, आपराधिक प्रवृत्ति के क्षत्रियों का संहार किया था और यह काम उन्होंने लगातार इक्कीस वर्षों तक किया। आज परशुराम की पहचान केवल ‘हाथ में फरसा लिए, क्षत्रियों का वध करने को उद्धत योद्धा’ की बन कर रह गई है। शायद ही कोई जानता  हो कि वे क्षत्रियों के विरुद्ध नहीं, ब्राह्मणों के ब्राह्मण-कर्म में बाधक बननेवाले क्षत्रियों के विरुद्ध थे? वे इतने ‘पितृ आज्ञाकारी’ थे कि कुपित पिता के आदेश पर अपनी माँ का सिर काट दिया था और इतने मातृ प्रेमी कि, अपने आज्ञा पालन से प्रसन्न पिता ने जब उनसे कोई वर माँगने को कहा तो उन्होंने अपनी माँ को जीवित करने को कह दिया। इन्हीं परशुराम की जयन्ती की पहली छुट्टी पर ही मेरे अनेक ब्राह्मण मित्र सैरसपाटे पर निकल गए थे।

यह सचमुच में दुःखद और लज्जाजनक है कि हमने अपने राष्ट्रीय नायकों को अपनी आवश्यकता और सुविधा से ‘अपने-अपने महापुरुष’ बना लिए हैं। शहीद हेमू कालानी केवल सिन्धी समाज तक सीमित हो गए हैं। क्या उन्होंने केवल सिन्धियों के लिए खुद को होम किया था? देशी रियासतों और रजवाड़ों का आत्म-समर्पण करवाकर गौरवशाली भारत बनानेवाले लौह पुरुष सरदार पटेल  पाटीदारों/पटेलों में सिमटे जा रहे हैं। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के साथ जो हो रहा है वह तो शायद चरम है। जाति प्रथा को उन्होंने देश की प्रगति का सबसे बड़ा रोड़ा कहा था और इसका नाश करने के लिए जाति तोड़ा आन्दोलन शुरु किया था। लेकिन उनकी जयन्ती और पुण्य तिथि पर कुछ शहरों में अग्रवाल समाज द्वारा आयोजन करने के समाचार चौंकाते हैं। आजादी के बाद गैर काँग्रेसवाद की अवधारणा  और ‘जिन्दा कौमें पाँच साल तक इन्तजार नहीं करतीं।’ जैसे सर्वकालिक आप्त वचन क्या लोहिया ने केवल अग्रवाल समाज के लिए दिए थे?

सच तो यह है कि या तो हमें अपने इरादों, अपने कर्मों, अपने पुरुषार्थ और अपनी क्षमता पर विश्वास नहीं रह गया है या फिर हम अपनी वास्तविकता जानते हैं। इसीलिए हमें अपनी पहचान के लिए कोई एक महापुरुष आवश्यक हो गया है। ऐसे महापुरुषों के विचार को आचरण में उतारने के बजाय हम उनका उपयोग  अपना दबदबा बनाने के लिए करते हैं। जिन महापुरुषों का नाम सुनकर ही मन में श्रद्धा भाव उपजना चाहिए, अपने आचरण से हम उनके प्रति भय और आतंक पैदा करने में ही अपनी सफलता मानने लगे हैं। हम इन पर अपना अधिकार जताते हुए इनके नाम की दुहाइयाँ देते हैं लेकिन इनकी चिन्ता खुद नहीं करते। इनकी मूर्तियाँ लगवाने के लिए और बाद में उन मूर्तियों के रखरखाव के लिए स्थानीय निकायों से माँग करते हैं, दबाव बनाते हैं और (वोट की राजनीति के चलते) सफल होकर गर्व से फूले, इतराते घूमते हैं। लेकिन वास्तव में हम अपने महापुरुषों का कद घटा रहे होते हैं। हम सागर को पोखर में बदलने का आपराधिक दुष्कर्म करते हैं। हम उनके नाम पर सार्वजनिक छुट्टी घोषित करवाते हैं और खुद ही उस दिन पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं।


हम अपने पुरखों पर गर्व करें, यह तो अच्छी बात है। किन्तु क्या अधिक अच्छा यह नहीं होगा कि हम ऐसा कुछ करें कि हमारे पुरखे हम पर गर्व करें?
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8 comments:

  1. क्या कीजियेगा! जातीय राजनीति तो अब वैश्विक रूप ले रही है - ट्रम्पेट अब अमरीका में भी बजने लगे हैं!

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    1. जी। विकृतियां तेजी से फैलती हैं तथा अधिक आसानी से फैलाई जा सकती हैं।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22 -04-2016) को "आओ बचाएं अपनी वसुन्धरा" (चर्चा अंक-2320) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. जाति की राजनीति ,सीमित सोच, क्षेत्रीयता की भावना , दूसरों के प्रति द्वेष की भावना ,जैसे विचारों ने देश व समाज को विखंडन के कगार पर ल खड़ा किया है ,यह भांग पूरे कुँए में ही मिल गयी है , इसलिए सवाल यह भी है कि इस पर रोक कैसे लगे , उल्टा यह लग रहा है कि जितना इसे शमित करने कोशिश की जा रही है उतनी ही बढ़ रही है , वैसे शमित जकरने का ढोंग करने वाले इसे लगाने में भी पीछे नहीं है , और यही दुर्भाग्य पूर्ण है

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    1. शायद इसलिए कि ऐसी विकृतियों के समर्थक सक्रिय और संगठित रहते हैं और इनके विरोधी असंगठित और निष्क्रिय रहते हैं।

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  4. ek katuuu SATYA......sadar pranaam aapko....

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