बस्तर से घिरे जीजाजी

जीजाजी ने मुझे जोर का धक्का दिया, बहुत धीरे से। प्रेमपूर्वक। आनन्ददायक। 

जीजाजी याने विनायकजी पोतनीस। सुभेदार परिवार के दामाद। हमारी नीलम ताई के जीवन संगी। कोई तीस-पैंतीस बरस से उनसे मिलना और बतियाना बना हुआ है। लेकिन वे ‘ऐसे’ भी हैं, यह कभी महसूस ही नहीं होने दिया। बहुत कम बोलते हैं और धीमी आवाज में। उन्हें सुनने के लिए अतिरिक्त चौकन्ना होना पड़ता है। 


यह बीस दिसम्बर की रात थी। सुभेदार परिवार का उपक्रम ‘आशर्वाद नर्सिंग होम’, अगली सुबह, 21 दिसम्बर 2018 को रतलाम के चिकित्सा व्यवसाय जगत में इतिहास का महत्वपूर्ण पन्ना जोड़ने जा रहा था। (इस पर मैं अलग से लिखूँगा।) इसी प्रसंग पर समूचा सुभेदार कुटुम्ब जुटा हुआ था। कार्यक्रम संचालन का सुख-सौभाग्य मुझे मिला था। इसी सिलसिले मैं वहाँ पहुँचा था। 

काम की बातें हो चुकी थीं। हम लोग बेबात बतिया रहे थे। जीजाजी चुपचाप उठे। अन्दर गए। एक छोटी सी पुस्तिका लिए लौटे। मैं बेध्यान हो, गप्पों में व्यस्त था। जीजाजी सीधे मेरे सामने आए और पुस्तिका मुझे थमाते हुए बोले - ‘इसे देखिएगा विष्णुजी! शायद आपको अच्छी लगे।’ मैंने देखा, कविता संकलन था। कवि का नाम था - विनायक पोतनीस। मेरे लिए यह उल्कापात से कम नहीं था। मैंने जड़ अवस्था में ही पन्ने पलटे। तीस पृष्ठों की, बहुरंगी मुखपृष्ठवाली  इस पुस्तिका में छब्बीस कविताएँ थीं। मैं अवाक् हो गया।

जीजाजी अच्छे-भले सिविल इंजीनीयर हैं। अविभाजित मध्य प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यान्त्रिकी (पी एच ई) विभाग की नौकरी में जिन्दगी खपा दी। बेदाग और निर्विवाद रहते हुए विभाग के सर्वोच्च पद, प्रमुख यन्त्री (इंजीनीयर-इन-चीफ) से सेवानिवृत्त हुए। जब भी मिले, प्रायः चुप ही मिले। लोग अपनी अफसरी के किस्से शेखियाँ बघार-बघार कर सुनाते हैं। लेकिन जीजाजी तो कभी खुद के बारे में भी बताते नहीं मिले! ऐसे ‘चुप्पा’ जीजाजी कवि भी हैं! मुझे अचानक ही निदा फाजली याद आ गए -

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना।

मैंने तो जीजाजी को कई बार देखा लेकिन वे ‘ऐसे’ तो कभी नजर नहीं आए! मेरी नजर का ही दोष है यह। मेरे बोल नहीं फूट रहे थे। घरघराई आवाज में पूछा - ‘आप कविताएँ भी लिखते हैं?’ जवाब लगभग निस्पृह स्वरों में मिला - ‘हाँ। यह चौथी किताब है।’ मैं रोमांचित हो, असहज हो गया था। मुझे सम्पट नहीं बँध रही थी। थरथराते हाथों से मेंने किताब के पन्ने पलटे। दो-एक कविताएँ पढ़ीं। मुझे कविता की समझ नहीं है। लेकिन कविताएँ मुझे अच्छी लगीं। उनके सामने पढ़ी कविताओं पर दो-चार बातें कीं और लौट आया।

घर आकर कविताएँ पढ़ीं। कई बातें मन में आने लगीं।

जीजाजी ने छत्तीस बरस की नौकरी में दस बरस छत्तीसगढ़ में गुजारे। 1996 में सेवा निवृत्ति के बाद भी छत्तीसगढ़ से रिश्ता बना रहा। अभी जीवन के बयासीवें बरस में चल रहे हैं। भोपाल में बस गए हैं। लेकिन बस्तर आज भी उनके मन में बसा हुआ, साथ बना हुआ है। अब भी ‘हाण्ट’ करता है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मुझे दी पुस्तिका के शीर्षक में बस्तर प्रमुख है। यह पुस्तिका दो बरस पहले ही छपी है। सारी कविताएँ तो बस्तर पर नहीं हैं लेकिन बस्तर प्रमुखता लिए हुए है। 

मैं कहूँ, उससे बेहतर है कि दो-एक कविताएँ खुद ही कहें-





हरा सलाम

कोई चालीस साल गुजरे
बस्तर से मेरा तबादला हुए
मेरे रहगुजर थे वो
हरी आस्तीनें हिलाकर सलाम जताते
हरी छत्री धरे साल की
मधुमक्खी के छत्ते जैसे जंगल में बसे
जगरमुण्डा से देर रात में बेखौफ लौटता
बस्तर अभय वरदान था।
हरा सलाम अचानक लाल हो गया
सुरंगों, दुनालियों से निकले लाल फव्वारे
हरा केवल पेड़ पत्तों में बहता रहे
लाल केवल शरीर की शिराओं में
बाहर नहीं।
+ +

स्वप्नदेश

सारी सृष्टि नवजात बालक सी
निर्बोध, निर्विकार, उल्लासमय
युवा तितलियों का स्वानन्द विचरण
मन्द, मादक महुए का वातावरण
तब बस्तर स्वप्नदेश था।
+ +

जगरगुंडा में एक शाम

कंधे तक ऊँची घास के रास्ते
कटेकल्यान पठार से सीधे उतरे
एक शाम जगरगुंडा में
बितायी एक रात
अठपहरिया की थानागुड़ी में
बस गई यह रात मेरे अवचेतन में।
+ +

मरमेड (मत्स्यपरी)

सोचा भी नहीं कभी मरमेड दिखेगी
अचानक बिजली सी कौंध गई
मछलीनुमा नुकीले पाँव, हीरे टपकाते केश
सुनामी जैसी आयी और
बरबाद कर गई।

पुस्तिका मिले साठ घण्टे से अधिक हो गए हैं लेकिन कविताएँ मेरे साथ ही बनी हुई हैं। जब मेरी यह दशा है तो जीजाजी ने इन कविताओं को तो जीया है! खुद को व्यक्त करने तक जीजाजी की क्या दशा रही होगी? सम्भवतः इसीलिए ‘कवि’ आजीवन आकुल, व्याकुल, व्यग्र बना रहता है। उसकी यह दशा ही समय और समाज को संजीवनी दे पाती है।

इस कविता पुस्तक ने एक और जीजाजी से ही मुलाकात नहीं करवाई, यह भी बताया कि हमारी नीलम ताई का पूरा और वास्तविक नाम नीलप्रभा है और वे सुन्दर रेखांकन भी करती हैं। पुस्तिका के मुखपृष्ठ का रेखांकन उन्हीं का है।

शासक और रचनाकार में यही अन्तर है। दोनों अपनी-अपनी दुनिया बसाते हैं। लेकिन शासक की दुनिया में किसी और के लिए जगह नहीं होती जबकि रचनाकार की दुनिया में सदैव भरपूर स्पेस उपलब्ध रहती है। इतनी कि पूरा ब्रह्माण्ड समा जाए तो भी जगह बची रहती है। जीजाजी की दुनिया में भी भरपूर जगह है।

इस सम्भावना के साथ कि आपको कविताएँ अच्छी लगी हों और उनसे बात करना चाहें, उनका अता-पता, सम्पर्क सूत्र दे रहा हूँ -

श्री विनायक पोतनीस
ए-124, मानसरोवर कॉलोनी,
शाहपुरा,
भोपाल-462039
मोबाइल नम्बर - 94244 07829
ई-मेल:vinayakpotnis124@gmail.com 

बोहरा सा’ब नहीं मिलते तो.....

मैं सचमुच में बड़भागी हूँ जो मुझे बोहरा सा’ब मिल गए। वे
क्या मिले, मुझे जीवन-पाथेय मिल गया। वे नहीं मिलते तो पता नहीं कि मैं ‘हाथ का साफ’ रह पाता या नहीं। बोहरा सा’ब जैसे लोग आत्मा को निर्मल कर देते हैं। 

मैं 1991 में बीमा एजेण्ट बना। उन दिनों विपन्नता के चरम को जी रहा था। एक बार फिर भिक्षावृत्ति के कगार पर आ खड़ा हुआ था। मेरी जीवन संगिनी वीणाजी तो अवलम्ब थीं ही, सहायता करने को उतावले, उदार हृदय मित्र ही मुझे सम्हाल रहे थे मुझे। एजेण्ट बने तीन-चार बरस हो रहे थे। सरकते-सरकते गति पकड़ रहे धन्धे से आत्म विश्वास और हौसला बढ़ता जा रहा था। हम एजेण्ट लोग ग्राहकों से पुराने बीमों की किश्तों की रकम लेने के लिए अधिकृत नहीं हैं। लेकिन पुराने बीमों की किश्तें जमा कराना ही आज भी ‘मुख्य ग्राहक सेवा’ बना हुआ है। इसी कारण, मेरी जेब में हजार-पाँच सौ रुपये बराबर बने रहने लगे थे। दो छोटे-छोटे बच्चों की जरूरतों की भीड़वाली गृहस्थी। जेब में नोट। लेकिन नोट अपने नहीं। परायी अमानत। खुद को संयत और बच्चों को समझदार बनाने का निरन्तर संघर्ष। जेब में पैसे हैं लेकिन बच्चों की इच्छाएँ पूरी न कर पाने से उपजती झुंझलाहट रुला-रुला देती। मन कमजोर हो, बहक जाने को उतावला होता था लेकिन शायद माँ-पिताजी और दादा के दिए संस्कार थाम लेते थे। कुछ ऐसी ही डूबती-उतराती मनोदशावाले दिनों मे बोहरा सा’ब मिले।

पूरा नाम सज्जाद हुसैन बोहरा। सहायक शाखा प्रबन्धक के पद पर जावरा से स्थानान्तरित हो गृह नगर रतलाम स्थानान्तरित हुए थे। हम एजेण्टों को नए बीमे लाने के लिए प्रेरित करना और हमारी मदद करना उनका काम था। इसलिए बोहरा सा’ब के पास रोज दो-चार बार जाना, बैठना होता ही था। इसी तरह मिलते-मिलाते मालूम ही नहीं हुआ कि कब उनसे मानसिक नैकट्य स्थापित हो गया। हम दोनों अपना काम निपटाते हुए बेकाम की बातें करने लगते। आज, बरसों बाद मालूम हो रहा है कि वे बेकाम की बातें कितने काम आ रही हैं!

इसी तरह बेकाम की बातें करते-करते बोहरा सा’ब ने न जाने कितनी किश्तों में ‘अच्छा बीमा एजेण्ट’ बनने के कुछ गुर दिए। एलआईसी के सारे अफसर हमें ‘सफल एजेण्ट’ बनाने में लगे रहते हैं। लेकिन ‘धर्मनिष्ठ’ बोहरा सा’ब हमें ‘अच्छा एजेण्ट’ देखना चाहते थे। उनका मानना रहा कि एजेण्ट कितना ही बड़ा और कितना ही कामयाब क्यों न हो, वह यदि ‘अच्छा एजेण्ट’ नहीं है तो उसकी कामयाबी और उसका बड़ा होना ‘नीरस, निरर्थक आँकड़ा’ से अधिक कुछ नहीं है। यदि आप ‘अच्छा मनुष्य’ नहीं हैं तो फिर आपकी कामयाबी और बड़ापन, आपकी अचकन में लगा वह कागजी फूल है जो आपको दर्शनीय तो जरूर बनाता है लेकिन उसमें खुशबू नहीं होती। इसलिए वह आपको सार्थकता प्रदान नहीं करता, आपको उपयोगी नहीं बना पाता।

बोहरा सा’ब से बरसों हुई बातों में, खण्ड-खण्ड रूप में मिले ये सूत्र पहली नजर में जरूर बीमा एजेण्ट के धन्धे से जुड़े लगते हैं लेकिन तनिक ध्यान से विचार करें तो वे समूचे जीवन को उदात्तता और प्रांजलता प्रदान करते हैं। अपने पेशे की नैतिकता (प्रोफेशनल ईथिक्स) का ईमानदारी से पालन करना ही इन सारे सूत्रों का आधार और केन्द्र रहा।

पहला सूत्र - ‘आप जिस भी आदमी/औरत का बीमा करें, उसके शारीरिक नाप (ऊँचाई, पेट, सीना/छाती) खुद लें। यदि महिला का बीमा कर रहे हैं तो या तो किसी अन्य महिला की मदद लें और अपने सामने यह प्रक्रिया पूरी करें।’

मेरी एजेंसी का यह अट्ठाईसवाँ बरस चल रहा है। दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि यह काम करने में हमारे एजेण्ट मित्रों को पता नहीं क्यों शरम आती है। बोहरा सा’ब की इस सलाह पर मैंने यथासम्भव पूरा अमल किया। आज भी मेरी जेब में इंची टेप बना रहता है। नाप लेने के लिए मैं जब जेब से इंची टेप निकालता हूँ तो मौके पर मौजूद तमाम लोग ताज्जुब भी करते हैं और हँसते भी हैं। ऐसा करते समय मुझे हर बार (जी हाँ, हर बार) सुनना पड़ा - ‘पहलेवाले (एजेण्ट) ने तो ऐसा नहीं किया था।’ एक अुगल का इंची टेप हर बार मुझे सारे एजेण्टों से अलग बना देता है। ये नाप खुद लेने से ही हमें ग्राहक की शारीरिक दशा की वास्तविक जानकारी हो पाती है। 

दूसरा सूत्र - ‘बैरागीजी! आप बीमा करो तो यह याद रखते हुए करना कि आज बीमा किया और कल उसकी (ग्राहक की) मृत्यु हो जाए तो उसके नामित को दावे की रकम का भुगतान, पहली बार कागज पेश करने पर मिल जाए।’

यह बहुत ही बारीक और महत्वपूर्ण बात है। बीमा होने के तीन वर्ष की अवधि में बीमाधारक की मृत्यु होने की दशा में विस्तृत जाँच होती है। बीमा प्रस्ताव में ग्राहक के स्वास्थ्य-ब्यौरे (जिन्हें, बीमा शब्दावली में ‘मटेरियल फेक्ट’ कहा जाता है) विस्तार से पूछे जाते हैं। यह जगजाहिर तथ्य है बीमा फार्म ग्राहक नहीं भरता है। एजेण्ट ही भरता है। जाँच में ये ब्यौरे यदि झूठे पाए जाएँ तो बीमा कम्पनी मृत्यु दावे की रकम चुकाने से इंकार कर देती है। बोहरा सा’ब इस बात पर हर बार जोर दिया करते थे - ‘एक-एक कर, मटेरियल फेक्ट की पूरी जानकारी लो। कुछ भी गलत मत लिखो।’

तीसरा सूत्र - ‘किश्त की रकम के लिए ग्राहक जो नोट आपको दे, वे ही नोट केश काउण्टर पर जाने चाहिए।’

पहली नजर में यह यह बात हास्यास्पद होने की सीमा तक महत्वहीन लगती है। लेकिन ऐसा है नहीं। कोई नोट कटा-फटा, रंग में सना हुआ, नकली निकल आए तो बदलने के लिए आप ग्राहक से आत्मविश्वास और अधिकारपूर्वक कह सकेंगे। यदि आपने उसके दिए नोट किसी को छुट्टा देने के लिए या अपने काम के लिए बदल लिए तो फिर सारी जिम्मेदारी आपकी होगी और आपको ही आर्थिक भार उठाना होगा।

चौथा सूत्र - ‘ग्राहक ने आपको रकम दी। अगले दिन छुट्टी नहीं है और रकम आपने जमा नहीं कराई तो यकीन मानिए, या तो आपने बहुत बड़ी आफत मोल ले ली है या फिर आपकी नियत में खोट आ गया है। आप इस रकम का उपयोग अन्यत्र करने जा रहे हैं।’

एजेण्ट को रकम देते ही ग्राहक मान लेता है कि उसे बीमा सुरक्षा मिल गई है। यदि उसका बीमा प्रस्ताव अविलम्ब प्रस्तुत/स्वीकृत नहीं हुआ और आपके अभाग्य से कोई अनहोनी हो गई तो उस स्थिति की कल्पना खुद ही कर लीजिए। रकम तो कुछ हजार की होती है जबकि बीमा लाखों का होता है।

सूत्र तो मुझे और भी मिले लेकिन ये चार सूत्र मेरे बीमा व्यवसाय के मजबूत पाये साबित हुए। मैंने इन पर अमल करने की पूरी-पूरी कोशिश की। यह बड़ा कारण रहा कि मैं अपने ग्राहकों का, उनके परिजनों और परिचितों/मित्रों का विश्वास हासिल करने में कामयाब हो पाया। आज जब मैं जीवन के चौथे काल में चल रहा हूँ तो मुझे इस बात का परम आत्म सन्तोष है कि मुझ पर गलत बिक्री (मिस सेलिंग) का, अमानत में खयानत का एक भी छींटा नहीं पड़ा और मटेरियल फेक्ट में विसंगति के आधार पर एक भी मृत्यु दावा अस्वीकार नहीं हुआ। इन सूत्रों ने मुझे भरपूर सार्वजनिक प्रतिष्ठा और पहचान दिलाई।

ये सारी बातें अचानक ही याद नहीं आईं। मेरी आदत है कि जिस भी मुहल्ले में जाता हूँ तो उस मुहल्ले में रहनेवाले अपने अन्नदाताओं (ग्राहकों), परिचितों से मिलने की कोशिश भी करता हूँ। बोहरा सा’ब लक्कड़पीठा मे रहते हैं। बुधवार, 06 दिसम्बर को सुरन्द्र भाई सुरेका से मिलने गया तो बोहरा सा’ब से भी मिलने चला गया। मुझे देखकर वे चकित हुए भी हुए और बहुत खुश भी हुए। मुझे अकस्मात अपने सामने खड़ा देख वे ‘अरे!’ कहकर मानो हक्के-बक्के हो गए। आधा मिनिट तक बोल ही नहीं पाए। उम्र नब्बे बरस के आसपास हो आई है। तबीयत ठीक-ठीक ही है। घर से बाहर निकलना बन्द सा हो गया है। मैं बहुत ज्यादा देर तो उनके पास नहीं बैठा। लेकिन जितनी देर बैठा रहा, लगा किसी विशाल, घने नीम के नीचे बैठा हूँ जो मुझे ठण्डक भी दे रहा है और निरोग भी कर रहा है। 

वे बार-बार मुझे धन्यवाद दे रहे थे कि मैं उनसे मिलने पहुँचा। मैं चलने लगा तो बोले - ‘अब तो लोगों ने मिलना-जुलना बन्द ही कर दिया है। आप आए तो जी खुश हो गया। आते रहो।’ मैं उनसे कैसे कहता कि मैं तो खुद ही अपनी खुशी के लिए उनसे मिलने पहुँचा था। मेरी तो तीर्थ यात्रा हो गई। ईश्वर उन्हें स्वस्थ बनाए रखे। 

ऐसे बोहरा सा’ब सबको मिलें।
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कॅरिअर और परिवार के सन्तुलन का विकट संघर्ष

जीवन अपनी गति से चलता रहता है लेकिन कुछ क्षण ठहरे हुए रह जाते हैं। एक नवम्बर की उस शाम के कुछ मिनिट अब तक ठहरे हुए हैं। आध्या का कुम्हलाया चेहरा आँखों के सामने बना हुआ है और रुचि की भीगी आवाज सुनाई दे रही है। रुचि और अर्पित के बारे में मैं यहाँ लिख चुका हूँ।

वह, मेरे दाँतों के ईलाज का अन्तिम सोपान था। एक तो अपने मित्र के बेटा-बहू और दूसरा, चार महीनों के निरन्तर सम्पर्क में चार-चार, पाँच-पाँच घण्टों की बैठकें। इसके चलतेे मैं अर्पित और रुचि से ‘तू-तड़ाक’ से बातें करने लगा। दोनों की सस्ंकारशील शालीनता यह कि दोनों ने मेरे इस व्यवहार पर असहजता नहीं जताई। व्यक्ति और डॉक्टर के रूप में दोनों ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया। इतनी कम उम्र में दोनों ने डॉक्टरी पेशे में और मरीज के साथ व्यवहार में जो परिपक्वता हासिल कर ली है वह मेरे लिए ‘आश्वस्तिदायक, सुखद, सन्तोषदायक आश्चर्य’ ही है। ये बच्चे निश्चय ही डॉक्टरी के व्यवसाय को प्रतिष्ठा दिलाएँगे। मैं बहुत अधीर और अत्यधिक पूछताछ करनेवाला मरीज हूँ। लेकिन दोनों ने जिस धीरज और विनम्रता से मुझ जैसे अटपटे मरीज की चिकित्सा की उससे मुझे एकाधिक बार खुद पर ही झेंप आई। दोनों के हाथ इतने सध गए हैं कि आँखें बन्द कर, बातें करते हुए ईलाज करते लगते हैं। 

जब मेरा ईलाज शुरु हुआ था तो मित्रों-परिजनों ने बहुत चिन्ता की थी। ईलाज के दौरान एक-एक करके सबने मुझसे कम से कम एक बार तो पूछा ही पूछा - ‘दर्द कितना हुआ? बेहोश तो नहीं हुए? हर बार साथ में कोई न कोई था या नहीं? (चार महीनों के ईलाज के दौरान हर बार मैं अकेला ही गया था।) रात को सो पाए या नहीं? भोजन बराबर कर पा रहे हैं?’ मेरा जवाब हर बार सवाल पूछनेवाले को निराश करता था। मुझे एक पल भी दर्द नहीं हुआ। दर्द के मारे एक रात भी कष्ट से नहीं गुजरी। भोजन नियमित रूप से, सामान्य रूप से करता रहा। दाँतों का ईलाज कराने का मेरा कोई पूर्वानुभव नहीं रहा। इसलिए, लोगों के सवाल सुन-सुन कर अनुमान लगाया कि मरीज को बहुत तकलीफ होती होगी। बार-बार ऐसे सवाल सुन-सुन कर मुझे हर बार इस बात की तसल्ली हुई कि मैं अच्छे, विशेषज्ञता प्राप्त कुशल डॉक्टरों के हाथों में हूँ।

रुचि की बेटी आध्या अभी लगभग डेड़ बरस की है। माँ की सबसे बड़ी, सबसे पहली चिन्ता अपनी सन्तान और बच्चे की सबसे बड़ी, सबसे पहली जरूरत होती है माँ। इसीके चलते डॉक्टरी पर ममता प्रभावी हो जाती है और रुचि की दिनचर्या तनिक गड़बड़ा जाती है। मुझे यह बात दूसरी बैठक में अच्छी तरह समझ में आ गई थी। रुचि के साथ आध्या भी क्लिनिक पर आती है। इसलिए उससे भी मेरी देखा-देखी की पहचान हो गई। 

एक नवम्बर से पहलेवाली सारी बैठकों में आध्या मुझे हर बार तरोताजा, हँसती-खेलती, खिलखिलाती मिलती थी। लेकिन उस शाम वह सुस्त, चुपचाप, मुरझाई-कुम्हलाई हुई थी। मेरे मन में शंकाएँ-कुशंकाएँ उग आईं। रहा नहीं गया। पूछा बैठा - ‘आध्या सुस्त क्यों है? तबीयत तो ठीक है?’ रुचि ने जवाब दिया - ‘एकदम फर्स्ट क्लास है अंकल। तबीयत बढ़िया है।’ सुनकर तसल्ली तो हुई किन्तु आध्या का चेहरा, उसका गुमसुमपन रुचि की बात की पुष्टि नहीं कर रहा था। लेकिन रुचि की बात पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नहीं था। (वह तो खुद ही डॉक्टर है!) तनिक हिचकिचाते हुए मैंने पूछा - ‘सब कुछ फर्स्ट क्लास है और तबीयत भी ठीक है तो यह बीमार जैसी सुस्त क्यों है?’ रुचि ने जवाब तो दिया लेकिन मुझसे आँखें चुराते हुए - “वो क्या है अंकल, इसकी ‘स्लीप सायकिल’ बदलनी है। चाइल्ड स्पेशलिस्ट ने कहा है।” मैं चौंका। याने आध्या की दिनचर्या बदली जा रही है। ऐसे कामों को मैं प्रकृति के काम में अनुचित हस्तक्षेप मानता हूँ। फिर, बच्चों के मामले में तो मैं तनिक अधिक दुराग्रही हूँ। मेरा बस चले तो पाँच बरस की उम्र तक बच्चे के कान में ‘स्कूल’ शब्द पड़ने ही नहीं दूँ। ढाई बरस की उम्र होते-होते बच्चों को स्कूल भेजने को मैं बच्चों पर ‘क्रूर, अमानवीय अत्याचार’ मानता हूँ। यह बच्चों से उनका बचपन छीनने के सिवाय कुछ भी नहीं है। बच्चों को जब नींद आए तब उन्हें सोने दिया जाए। जब वे जागें तब उन्हें खेलने दिया जाए। मैं दो बच्चों का बाप हूँ। अपनी शिशु अवस्था में मेरे दोनों बच्चे दिन में सोते थे और रात में जागते थे। आधी रात के बाद तक (कभी-कभी भोर तक) उनके साथ जागना पड़ता था। उन्हें कन्धे पर लेकर, थपकते हुए कमरे में घूमना पड़ता था। इसका असर हम पति-पत्नी की, अगले दिन की दिनचर्या पर होता था। दिन में भरपूर काम रहता था। सोने की तनिक भी गुंजाइश नहीं। बिना कुछ सोचे मुझे बात समझ आ गई। आध्या भी दिन में सोती होगी और रात में जागती, खेलती होगी। डॉक्टर माँ-बाप थक कर चूर रहते होंगे। चाहकर भी उसे वक्त नहीं दे पाते होंगे। ऐसे में यही एक निदान हो सकता था। 

रुचि की आवाज में खनक नहीं थी। स्वर भी मद्धिम था। चार महीनों की बैठकों के दौरान आध्या के बहाने बच्चों के प्रति माँ-बाप के व्यवहार को लेकर मेरी मानसिकता से वह भली भाँति परिचित हो चुकी थी। उसे लगा होगा, मैं कोई खिन्नताभरी असहमत टिप्पणी करूँगा। लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। 

यह केवल अर्पित-रुचि की बात नहीं थी। आज की पीढ़ी के, प्रत्येक व्यवसायी दम्पति (प्रोफेशनल कपल) की कष्टदायी हकीकत है। कॅरिअर तथा परिवार की चिन्ता और देखभाल में सफलत सन्तुलन करना ‘डूब कर आग का दरिया पार करना’ जैसा दुसाध्य है। फिर, यह सब वे बच्चों की बेहतरी के लिए ही तो कर रहे हैं!


यह चित्र रुचि की क्लिनिक में ही लिया हुआ है। मेरी इच्छा थी कि रुचि, डॉक्टर का एप्रेन पहन कर ही चित्र में रहे। लेकिन रुचि ने दृढ़तापूर्वक मना कर दिया - ‘नहीं अंकल! आध्या को इनफेक्शन का खतरा मैं नहीं उठाऊँगी।’

ये सारी बातें, कुछ ऐसे युगलों के चित्र एक पल में मेरे मन में उभर आए। मैं कुछ नहीं बोला। बोलता कैसे? बोल ही नहीं पाया। मैं तो चुप हो ही गया था, रुचि भी चुपचाप अपना काम करती रही। काम खत्म करने के बाद बोली - ‘एक महीने बाद आपको फिर आना है अंकल। चेक-अप के लिए।’ उसकी आवाज अब तक सामान्य नहीं हो पाई थी।

मैं कल, चार दिसम्बर को अर्पित-रुचि के पास जा रहा हूँ।  अभी से असहज हो गया हूँ। आध्या मुझे कैसी मिलेगी? हँसती-खिलखिलाती, चहचहाती या सुस्त, मुरझाई-कुम्हलाई? उसकी दशा से ही मैं अर्पित और रुचि की दशा का अनुमान कर पाऊँगा।

ईश्वर अर्पित-रुचि को और तमाम अर्पितों-रुचियों को सदैव सुखी, समृद्ध रखे और यशस्वी बनाए। ये बच्चे ही हमारा कल हैं। ये सेहमतन्द रहें ताकि हमारा आनेवाला समूचा समय सेहतमन्द रहे। कॅरिअर और परिवार में समुचित सन्तुलन बनाए रखते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचना इनका विकट संघर्ष है। लेकिन इनकी उत्कट जिजीविषा इन्हें सफल बनाएगी ही। 

कल शुभेच्छा सहित जाऊँगा - आध्या चहकती मिले। आध्या तो मिले ही, उससे पहले रुचि मिले - चहकती हुई, निष्णात् चिकित्सक और श्रेष्ठ माँ: रुचि।
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ये समझ रहे हैं, रामजी इनके भरोसे हैं

26 नवम्बर सोमवार की दोपहर। चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। भाजपा और काँग्रेस के उम्मीदवार रैलियों के जरिये, कस्बे के प्रमुख बाजारों में मतदाताओं को अपनी शकलें दिखा रहे हैं, उनके हाथ जोड़ रहे हैं। 

चुनाव की रंगीनी और गहमा-गहमी तलाशते हुए, हम सात फुरसतिये बिना किसी पूर्व योजना के, अचानक ही माणक चौक में एक ठीये पर  मिल गए हैं। सातों के सातों सत्तर पार। देश की प्रमुख सभी राजनीतिक विचारधाराएँ इनसे प्रतिनिधित्व पा रही हैं। सबके सब घुटे-घुटाए। सूरदास की ‘कारी कामरियाँ’, जिन पर दूजा रंग चढ़ने की आशंका भी नहीं। प्रत्येक अपने आप में एक मदरसा। कोई डाइबिटिक है तो कोई बीपी का मरीज। सबके अपने-अपने परहेज हैं। लेकिन जैसे गणित में ऋण-ऋण मिलकर धन हो जाता है, उसी तरह यहाँ परहेजियों के सारे परहेज, कुण्ठित चटोरापन बन कर जबान पर आ बैठे हैं। कॉमरेड की दुकान की कचौरियाँ और शंकर स्वीट्स की कड़क-मीठी चाय आ गई है। सबकी जबानें नश्तर तो हैं लेकिन नुकीली नहीं। छिलके उतार रही हैं। चुभ नहीं रहीं। कचौरियाँ कुतरने और चाय चुसकने के बीच बातें होने लगीं - 

- कश्यप जीत जाएगा।

- अभी से क्या कहें! प्रेमलता  जोरदार टक्कर दे रही है।

- क्या टक्कर दे रही है? कश्यप के सामने कहाँ लगती है? खानापूर्ति कर रही है। 

- इस मुगालते में मत रहना। अण्डर करण्ट दौड़ रहा है। बरसों बाद कोई सनातनी उम्मीदवार सामने है। 

- तुम लोग धरम-जाति से कभी ऊपर भी उठो यार! ये क्या जैन-सनातनी लगा रखा है? एक पूरी नई पीढ़ी सामने आ गई है। वो तुम्हारे धरम-जात के चक्कर में नहीं पड़ती। अपने दिमाग से काम लेती है। 

- हाँ! वो तो है। लेकिन उनके सामने आप्शन क्या है? 

- ये ‘नोटा’ को वोट नहीं दे सकते?

- दे सकते हैं लेकिन देंगे नहीं। वे कमिटेड नहीं हैं। तुमसे-हमसे ज्यादा पढ़े-लिखे, समझदार हैं। वोट को बेकार नहीं जाने देंगे। वोट तो किसी न किसी पार्टी को ही देंगे।

- हाँ। किसी न किसी पार्टी को ही देंगे। 

- देखो यार! इतने भावुक और आदर्शवादी मत बनो। अपना शहर, व्यापारी शहर है और व्यापारी कभी घाटे का सौदा नहीं करता। इसलिए जीतेगा तो कश्यप ही। उसके जीतने में ही सबका फायदा है।

- लेकिन कश्यप से नाराज लोग भी कम नहीं। जीत भले ही जाए लेकिन इस बार पसीना आ रहा है। 

- अरे! यार! तुम लोग ये क्या कश्यप-प्रेमलता में उलझ गए! कल अयोध्या में जो हुआ वो मालूम है तुम्हें?

- लो! इससे मिलो! चौबीस घण्टे हो गए हैं। अखबारों और टीवी में सब आ गया। सबने कह दिया कि उद्धव ठाकरे का शो फ्लॉप हो गया। पाँच हजार भी नहीं थे उसके मजमे में।

- य्ये! येई तो सुनने के लिए मैंने इसे उचकाया था। उचक गया स्साला। उद्धव की तो बता दी लेकिन वीएचपी की नहीं बताई। जरा वीएचपी की भी तो बता दे!

- क्यों? वीएचपी की क्या बताना? भव्य प्रोग्राम रहा। 

- अच्छा! कितना भव्य रहा?

- मुझसे क्या पूछते हो? अखबार में पढ़ लो! टीवी में देख लो!

- अरे! शाणे! हमको क्या उल्लू समझता है? तीन बज रहे हैं। हम क्या सीधे बिस्तर से उठ कर चले आ रहे हैं? बिना मुँह धोये? अरेे! दुनिया की खबर ले कर आ रहे हैं! तेरे मुँह से सुनना है। बता! कितना भव्य रहा वीएचपी का मजमा?

- अरे! यार! बुड्डा हो गया है। याददाश्त चली गई है बिचारे की। मगज (बादाम) खाता तो है लेकिन असर नहीं करती। तू ही बता दे।

- वो तो मैं बता ही दूँगा। लेकिन पहले ये, उद्धव के मजमे की गिनती बतानेवाला तो कुछ बोले!

- चल! तू ही बता दे। तेरी आँखों पर तो पट्टी बँधी है। मैं कुछ भी बताऊँगा तो तू मानेगा तो नहीं। तू ही बता।

- बड़ी जल्दी मैदान छोड़ दिया तेने तो रे! अपनी जाँघ उघाड़ने में शरम आती है? चल! मैं ही बताता हूँ। दो लाख लोग इकट्ठा करने का दावा किया था। चालीस हजार भी नहीं पहुँचे! पण्डाल खाली था। 

- नहीं। चालीस नहीं। पचास हजार। लेकिन चालीस हजार भी कोई कम नहीं होते। 

- सवाल कम-ज्यादा का नहीं है रे! सवाल तो तुम्हारे होश उड़ने का है। उद्धव ने तुम्हारे होश उड़ा दिए। उसने तो तुम्हारी दुकान पर कब्जा कर ही लिया था। बाबरी डिमालेशन का क्रेडिट ले ही लिया था उसने तो। वो अयोध्या आने की बात नहीं करता तो तुम लोग ये मजमा लगाते?

- क्यों? क्रेडिट लेने की बात ही कहाँ है। वो तो हमने ही किया था।

- अच्छा! तुमने किया था? लेकिन उद्धव के दावे के जवाब में वीएचपी ने तो कबूल कर लिया कि उस डिमालेशन में केवल वीएचपी का नहीं, देश के दूसरे संगठनों का भी योगदान है!

- ये तो वीएचपी की शालीनता है। देश के सम्पूर्ण हिन्दू समाज को क्रेडिट दे रही है। लेकिन हिन्दू भावनाओं की चिन्ता तो हम ही कर रहे हैं? इसमें क्रेडिट की बात ही कहाँ है। छाती ठोक कर कहते हैं - हाँ हमने किया है। 

- अच्छा! ये छाती ठोकनेवाले तो सबके सब मादा बने हुए हैं। कोर्ट में  तो एक भी सूरमा जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। सबके सब एक भाव से कह रहे हैं कि बाबरी गिराने में उनका हाथ नहीं है। तुममें केवल एक ही मरद है। उमा भारती। उसी ने कहा कि वो बाबरी गिराने में शामिल है। बाकी तो तुम सबके सब मादा हो।

- अरे यार! क्यों इसके पीछे पड़ गया! हकीकत अपन सब जानते हैं।

- यही तो! जानता तो ये भी है लेकिन कबूल नहीं करता। अच्छा चल बता! अभी ये जमावड़ा क्यों किया? क्या प्रसंग था?

- क्या प्रसंग था? अरे! राम मन्दिर तो देश के हिन्दू समाज की आस्था का मामला है। बहुत राह देख ली।  अब नहीं देखेंगे। अभी नहीं तो कभी नहीं। बस! यही तो कह रहे हैं!

- अच्छा! साढ़े चार साल पहले जब एक साथ 282 आए थे लोक सभा में तब आते ही रामजी क्यों याद नहीं आए? चलो कोई बात नहीं। लेकिन उसके बाद अब तक क्या करते रहे? अडानी-अम्बानी के जरिए जेबें भरते रहे। पेट्रोल, नोटबन्दी और जीएसटी से लोगों की जान लेते रहे। अब जब लोग सामने आकर बोलने लगे हैं। हिसाब माँगने लगे हैं तो रामजी याद आ गए? लोग बेवकूफ नहीं हैं। सब जानते हैं। तुम तो लोगों की नब्ज टटोल रहे थे। लेकिन फ्लॉप हो गए। यही तुम्हारी परेशानी है। इसी से तुम घबरा रहे हो। तुम्हें रामजी नहीं, 2019 का चुनाव नजर आ रहा है। 

- ऐसी कोई बात नहीं है। चुनाव, चुनाव की जगह और राम मन्दिर अपनी जगह। मन्दिर बनाना तो हमारे जीवन का ध्येय है। तुम चाहे जितनी बाधाएँ खड़ी कर दो, मन्दिर तो बन कर रहेगा। हम ही बनाएँगे।

- अरे! यार! तुम दोनों ने चाय-कचोरी का नास कर दिया। बन्द करो यह सब। चलो! एक-एक कचोरी और चाय और बुलाओ।

- हाँ! हाँ! बुलाओ। मेरी ओर से। लेकिन एक बात तुम सब सुन लो। ये ऐसे बात कर रहा है जैसे रामजी इसके भरोसे हैं। जरा समझाओ इसे। रामजी इसके भरोसे नहीं, ये रामजी के भरोसे है। और ये ही नहीं, सारी दुनिया रामजी के भरोसे है। इसे समझाओ कि रामजी अपनी चिन्ता खुद कर लेंगे। चुनाव जीतने के लिए कोई और टोटका करे।

तीसरा कोई और बोलता, इससे पहले कॉमरेड की दुकान से कचोरियाँ आ र्गइं। सब उन्हीं में अपने-अपने रामजी देखने लगे।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 29 नवम्बर 2018



न सुधरनेवालों का संघर्ष

इस कलि काल में वह व्यक्ति अभागा भी होगा और दुर्लभ भी जो किसी वाट्स एप ग्रुप में शामिल न हो। प्रेम जताने का दावा करते हुए दुश्मनी कैसे निभाई जाती है, वाट्स एप ग्रुप इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं।  आप हैं कि बार-बार पल्ला छुड़ाना चाहते हैं लेकिन भाई लोग हैं कि हर बार आपको पल्लू में बाँध लेते हैं। आपकी ‘त्राही! त्राही!’ की मर्मान्तक पुकार  ‘वाह! वाह!’ मानी जाती है। आप मित्रता के अत्याचार सहने को अभिशप्त हो घुटने टेक देते हैं और ग्रुप की कोड़ामार पिटाई के लिए अपनी पीठ नंगी कर मुँह मोड़ लेते हैं।

लेकिन यदि आप ग्रुप के एडमिन हैं और सबका भला चाहते हैं तो आपकी पिटाई तो सबसे ज्यादा होती है। दया की भीख माँगने की तरह आप ग्रुप का अनुशासन बनाए रखने के लिए बार-बार गिड़गिड़ाते हैं। आप पर कोई दया नहीं करता। यह सामूहिक पिटाई अचानक ही आपको याद दिलाती है कि आप भी स्वाभिमान जैसी चीज के मालिक हैं। यह याद आते ही आप चेतावनियाँ देते हैं। अंगूठा चिपका-चिपका कर सब आपका सही तो ठहराते हैं लेकिन आपकी सुनता कोई नहीं। तब आप लोगों को ‘रिमूव’ करते हैं। लेकिन ऐसा करते-करते आपको अचानक खयाल आता है कि ऐसे तो सबको रिमूव करना पड़ जाएगा! और यदि सबको रिमूव कर दिया तो फिर आप इन अपनेवालों का भला कैसे कर पाएँगे? तब आप खीझकर, एक दिन या दो दिन का ‘रिमूवल पीरीयड‘ तय कर, रिमूव किए लोगों को झुंझलाते हुए फिर ग्रुप में शामिल कर लेते हैं। रिमूव किए हुए लोग खुद को फिर से ग्रुप में शामिल देख दुगुने उत्साह से ‘अपनीवाली’ पर लौट आते हैं और आप ‘हवन करने में हाथ तो जलते ही हैं’ कह कर, सबकी पिटाई झेलने के लिए खुद को सौंप देते हैं।

मेरे एक अनदेखे मित्र, ग्रुप एडमिन की इसी दशा को भोग रहे हैं। लेकिन उनका धैर्य और हम एजेण्टों के प्रति उनकी चिन्ता देख-देख मैं उन्हें मन ही मन प्रणाम करता हूँ। उनसे मेरा फोन सम्पर्क बना रहता है। कभी मैं फोन कर लेता हूँ। कभी वे।

ये हैं बुर्ला (उड़ीसा) निवासी श्री रवि नारायण मिश्रा। एलआईसी के प्रशासनिक ढाँचे के अनुसार इनकी शाखा सम्बलपुर मण्डल में आती है। उड़ियाई उच्चारण में इन्हें ‘रबि नारायण’ और बंगाली उच्चारण में ‘रोबी नारायण’ पुकारा जाता है। हम एजेण्टों की रक्षा के लिए तो हमारा संगठन ‘लियाफी’ है ही लेकिन बचाव के औजारों का खजाना इन मिश्राजी के पास है। एजेण्टों से जुड़े, एलआईसी के तमाम आदेश, तमाम परिपत्र इन मिश्राजी के पास उपलब्ध हैं। लेकिन चमत्कार तो यह कि सबकी डिजिटल प्रतियाँ इस तरह उपलब्ध करा देते हैं जैसे कोई जादूगर हवा में हाथ लहरा कर कबूतर पेश कर देता है।

लेकिन इन अनदेखे मिश्राजी की यही एकमात्र विशेषता नहीं हैं। इससे बड़ी विशेषता इनकी यह है कि ये प्रत्येक एजेण्ट को जानकारियों, सूचनाओं से लैस, समृद्ध करना चाहते हैं। ये ऐसे अनूठे और उदार ज्ञानी हैं जो प्रत्येक एजेण्ट को अपने जैसा ही ज्ञानी बनाना चाहते हैं। लेकिन मैं देख रहा हूँ कि हम एजेण्ट लोग ज्ञानी बनने के बजाय मिश्राजी पर निर्भर होने में अधिक सुख अनुभव कर रहे हैं। ऐसे मे मिश्राजी हम एजेण्टों के लिए ‘निर्बल के बल राम’ बन गए हैं।

एजेण्टों को सूचना समृद्ध बनाने के लिए मिश्राजी ने ‘ओनली इंश्योरेंस ज्ञान’ तथा ‘ग्रुप मेडिक्लेम नॉलेज’ नाम से दो ग्रुप बना रखे हैं। इनकी इच्छा और कोशिश रहती है कि इन ग्रुपों के सदस्य केवल विषय से जुड़ी बातें और सामग्री ही दें। अधिकांश लोग तो मिश्राजी की बात मानते हैं लेकिन कुछ भाई लोग हैं कि इनकी सुनने को तैयार ही नहीं होते। वे ‘गुड मार्निंग’, ‘हेप्पी टुडे’, ‘हेव ए नाइस डे’ जैसे सन्देश, चित्र चिपकाते रहते हैं। मिश्राजी तो हमारा व्यावसायिक ज्ञान बढ़ाने की कोशिश करते हैं लेकिन ये भाई लोग मिश्राजी सहित हम सबका जीवन सुधारने का बीड़ा उठाए हैं। ऐसे लोग उपदेशों, निर्देशों, सुभाषितों, नीति वाक्यों, नाना प्रकार के उद्धरणों से सबका जनम सफल करने का ‘अत्याचारी-उपकार’ करते रहते हैं।

मिश्राजी ने ऐसे लोगों को चेतावनी देना शुरु किया। चेतावनी का असर  न होते देख चेतावनी दी कि यदि कहा नहीं माना तो ग्रुप से निकाल देंगे। चेतावनी तो दे दी लेकिन निकाला किसी को नहीं। मिश्राजी की इस भलमनसाहत को भाई लोगों ने शायद मिश्राजी की मजबूरी समझ लिया। रुकना तो दूर रहा, वे दुगुने उत्साह से अनावश्यक, अप्रासंगिक सामग्री देने लगे। मजबूर होकर मिश्राजी ने ऐसे लोगों को एक दिन, दो दिनों के लिए ग्रुप से बाहर करना शुरु कर दिया। इसका असर तो हुआ जरूर लेकिन ‘आदत से मजबूर’ भाई लोग अभी भी काम पर लगे हुए हैं।

ऐसे लोगों से मुक्ति पाने के लिए मिश्राजी ने एक रास्ता निकाला। उन्होंने ‘बेस्ट विशेस’ नाम से एक अलग ग्रुप बनाया और कहा कि इस ग्रुप में कोई भी काम की बात नहीं की जाएगी। यहाँ केवल शुभ-कामनाएँ, अभिनन्दन, विभिन्न प्रसंगों के सन्देश और सुभाषित, नीति उद्धरण दिए जाएँगे। मिश्राजी ने चेतावनी दी - ‘यहाँ जो भी काम की बात करेगा उसे निकाल दिया जाएगा।’ होना तो यह चाहिए था कि सब खुश होते और जी भर कर शुभ-कामनाएँ, अभिनन्दन, बधाइयाँ देते। लेकिन हुआ उल्टा। कामवाले ग्रुपों पर फालतू सामग्री देनेवाले मित्रों ने कहा - ‘ऐसे कैसे? केवल बेस्ट विशेस का भी कोई ग्रुप होता है? ऐसे तो सब बोर हो जाएँगे! ग्रुप में तो काम की बातें होनी चाहिए!’ और भाई लोगों ने इस ग्रुप पर काम की बातें डालनी शुरु कर दीं। अब हालत यह है कि काम की बातोंवाले ग्रुप में भाई लोग बेस्ट विशेस डाल रहे हैं और बेस्ट विशेस वाले ग्रुप में काम की बातें।

फोन पर मिश्राजी से बातें करते हुए मुझे उनके मिजाज का कुछ-कुछ अनुमान हो चला है। बेस्ट विशेस ग्रुप पर भाई लोगों की प्रतिक्रियाएँ देख कर मैंने फौरन मिश्राजी को फोन लगाया। वे हतप्रभ और असहज थे। ‘कैसे लोग हैं बैरागीजी? काम की बात करने को कहो तो फालतू बातें करते हैं और फालतू बातों के लिए ग्रुप बनाया तो काम की बातें करने को कहते हैं!’ मैं ठठा कर हँसा। कहा - “यह ‘न सुधरनेवाली दो मानसिकताओं’ का संघर्ष है। आप भला करने पर तुले हुए हैं और वे अपना भला न होने देने को। न आप सुधरने को तैयार हैं न वे। दुःखी मत होईए। ऐसा ही चलते रहने दीजिए। कभी-कभी न सुधरते हुए भी आदमी सुधर जाता है।” 

अब मिश्राजी ठठाकर हँस रहे थे। 
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दुष्यन्त कुमार के ‘मुनासिब लोग’

हम पति-पत्नी के दो बैंकों में खाते हैं। पहला बैंक ऑफ बड़ौदा की स्टेशन रोड़ शाखा में और दूसरा भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की कलेक्टोरेट एरिया शाखा में। बड़ौदा बैंक में हमारा खाता बरसों से चल रहा है। किन्तु, श्रीमतीजी सरकारी नौकरी में थी। उनकी पेंशन एसबीआई की इसी शाखा से मिलनी थी। इसलिए यहीं खाता खुलवाने  बाध्यता थी। एसबीआई में हमेशा इतनी भीड़ रहती है कि घुसने की ही हिम्मत नहीं होती। तीन दिन चक्कर काटे लेकिन खाता नहीं खुला। अचानक ही मालूम हुआ कि शाखा प्रबन्धक, एलआईसी की हमारी शाखा मे पदस्थ विकास अधिकारी श्री संजय गुणावत के बड़े भाई हैं। उन्होंने मदद की। खाता फौरन ही खुल गया। 

जब-जब भी एसबीआई जाने की जरूरत हुई, जाने से पहले ही हिम्मत पस्त हो जाती। ईश्वर महरबान हुआ और एक कृपालु वहाँ पदस्थ मिले। उनका काम ऐसा कि सप्ताह में तीन दिन उन्हें शाखा से बाहर रहना पड़ता है। जाने से पहले तलाश कर लेता। वे वहाँ होते तो ही जाता। नहीं होते तो जाना टाल देता।

हम पति-पत्नी नेट बैंकिंग या ई-बैंकिंग अब तक नहीं सीख पाए। एटीएम कार्ड घर बैठे आया। बच्चों ने हिम्मत बढ़ाई और सिखाया तो एटीएम से रकम निकालनी शुरु की। पाँच-सात बरस से एटीएम का उपयोग कर रहा हूँ लेकिन रकम निकालते समय आज भी हाथ काँपते हैं। श्रीमतीजी तो एटीएम का उपयोग अब तक नहीं सीख पाईं। बड़ौदा बैंक के कुछ मित्रों ने ई-बैंकिंग के लिए खूब प्रोत्साहित किया। बार-बार आग्रह किया। हिम्मत कर ई-बैंकिंग सुविधा के लिए खानापूर्ति की। किन्तु पता नहीं, प्रक्रिया के किस चरण में मुझसे कहाँ चूक हुई कि पास वर्ड उलझ गया और ऐसा उलझा कि बैंक के तमाम जानकार मित्र जूझ-जूझ कर हार गए लेकिन पास वर्ड उलझा ही रहा। अब तक उलझा हुआ ही है। मैंने तो उलझन की शुरुआत में ही घुटने टेक दिए। उसके बाद से ई-बैंकिंग के नाम से धूजनी (कँपकँपी) छूटने लगती है।

इसी के चलते, अपने खाते के ब्यौरे जानने के लिए हम लोग पास बुक पर ही निर्भर बने हुए हैं। लेकिन एसबीआई से पास बुक छपवाना किसी युद्ध लड़ने से कम नहीं। खिड़की पर लम्बी लाइन। अपना नम्बर आए तो बाबू पास बुक लेते हुए, मुँह बिगाड़ कर, हड़काते हुए सलाह दे - ‘मशीन से क्यों नहीं छपवा लेते?’ मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। परिचित सज्जन ने एक बार कह ही दिया - ‘यार! सरजी! आप पास बुक मशीन से छपवा लिया करो।’ उसके बाद उनकी मदद लेने की हिम्मत भी जाती रही। 

अब, पास बुक छपवाना मेरे लिए दुनिया का सर्वाधिक दुरुह काम बन गया। इधर श्रीमतीजी हैं कि महीना-दो महीना पूरे होते ही टोकने लगती हैं।

गए दिनों अचानक ही मालूम हुआ कि मित्र निवास रोड़ पर पास बुक छापने की एक नहीं दो-दो मशीनें लगी हैं। पुष्टि करने गया। देखा, बहुत ही आसानी से पास बुकें छपवा रहे हैं। मशीन भी बहुत बढ़िया - बराबर निर्देश भी देती है और प्रक्रिया की जानकारी भी। लेकिन वहाँ भी ल ऽ ऽ ऽ म्बी ऽ ऽ लाईन। देख कर छक्के छूट गए। मेरी दशा देख एक अनुभवी ने कहा - ‘रात नौ बजे के आसपास आईए। मशीनें खाली मिलेंगी।’ मेरा दिल बल्लियों उछल गया।

मैं बुधवार 14 नवम्बर की रात गया। एक सज्जन पास बुक छपवा रहे थे। मैं दूसरी मशीन की तरफ बढ़ा। उसके पर्दे पर मशीन के काम न करने की सूचना तैर रही थी। मैं, पास बुक छपवा रहे सज्जन के पीछे आ खड़ा हुआ। उनकी पास बुक छपते ही मशीन ने पास बुक लेने का सन्देश दिया। उन्होंने पास बुक निकाली। वे हटे। मैं मशीन के सामने खड़ा हुआ। लेकिन यह क्या? क्षमा याचना करते हुए मशीन के पर्दे पर, मशीन के काम न करने का सन्देश चमक रहा था। मैंने मुझसे पहलेवाले सज्जन से मदद माँगी। वे भी हैरत में पड़ गए। उन्होंने भी अपनी सूझ-समझ के मताबिक मशीन को टटोला, मेरी पास बुक ‘स्लॉट’ में डाली। किन्तु कोई हलचल नहीं हुई। सज्जन ने कहा कि कभी-कभी अचानक लिंक टूट जाने से या सर्वर में समस्या आ जाने से ऐसा हो जाता है। थोड़ी देर मे अपने आप ठीक हो जाएगा। मैं करीब बीस मिनिट वहाँ रुका रहा। फिर थक कर लौट आया। 

मैं गुरुवार 15 नवम्बर की रात फिर गया। लेकिन दोनों मशीनें पूर्ववत निश्चल, निष्क्रिय खड़ी थीं। शुक्रवार 16 नवम्बर की रात को फिर देहलीज पर मत्था टेका। लेकिन देवियाँ नहीं पिघलीं। शनिवार 17 नवम्बर को मैंने फेस बुक पर दो पोस्टों में अपनी व्यथा-कथा सार्वजनिक की। कुछ टिप्पणियाँ आईं। एक-दो ने बैंक की व्यवस्था को कोसा। बाकी  सबने एक भाव से नेट बैंकिंग अपनाने की सलाह दी। शनिवार की मेरी दूसरी पोस्ट पर मेरे प्रिय मित्र श्री राधेश्यामजी सारस्वत ने ढाढस बँधाया कि शनिवार को यदि पास बुक नहीं छपे तो सोमवार को वे हर हालत में मेरी पास बुक छपवा देंगे। सारस्वतजी बड़े प्रेमल व्यक्ति हैं। वे कलेक्टोरेट में सेवारत हैं और मेरी सहायता करने के अवसर तलाश करते रहते हैं।

इन चार दिनों (14 से 17 नवम्बर) में श्रीमतीजी ने अपने पास बुक प्रेम के अधीन मुझे उलाहने देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर उलाहने का अन्त एक ही वाक्य से हुआ - ‘आपसे इतना सा काम भी नहीं होता? हुँह!’

शनिवार को भी मशीनें बन्द की बन्द ही मिलीं। रविवार को मैंने सारस्वतजी को फोन किया - ‘पास बुक कहाँ पहँचाऊँ?’ उन्होंने कहा कि वे सोमवार सुबह मेरे घर आकर पास बुक ले लेंगे। सोमवार सुबह दस बजे वे आए। पास बुक ली। चले गए। ग्यारह बजते-बजते उनका फोन आया - ‘सर जी! पास बुक छप गई। फोटू वाट्स एप कर रहा हूँ।’ शाम को वे घर आकर पास बुक दे गए। (यह पूरा किस्सा फेस बुक पर मेरी वाल पर 17 और 19 नवम्बर को विस्तार से दिया हुआ है।)

बात यहीं खतम हो जानी चाहिए। लेकिन यह ब्यौरा तो मेरी मूल बात की भूमिका है। मेरी बात तो यहीं से शुरु होती है। 
जैसा कि मैंने कहा है, सत्रह नवम्बर की मेरी दोनों फेस बुक पोस्टों पर और काम हो जाने के बाद 19 नवम्बर वाली फेस बुक पोस्ट पर आई टिप्पणियों में दो-एक मित्रों ने ही बैंक के प्रति खिन्नता जताई। बाकी सबने मुझे ई-बैंकिंग और/या नेट बैंकिंग अपनानेे की न केवल सलाह दी अपितु इसके फायदे भी समझाए। मेरे ऐसा न करने पर दो-एक कृपालुओं ने तो यथेष्ठ खिन्नता भी जताई।

मैं भली प्रकार जानता हूँ कि इन सारे मित्रों ने मेरी चिन्ता करते हुए, मुझे कष्ट न हो, बैंक पर मेरी निर्भरता समाप्त करने के लिए मुझे यह नेक सलाह दी। लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि समुचित सेवाएँ न देने के लिए इनमें से किसी ने बैंक की आलोचना करना तो दूर, बैंक का नाम भी नहीं लिया।

यह, व्यवस्था के प्रति हमारी हताशाभरी उदासीन मानसिकता का नमूना है। हमने व्यवस्था के सामने घुटने टेक दिए हैं। हमने मान लिया है कि अपने ग्राहकों के साथ बैंक का व्यवहार तो ऐसा ही रहेगा। न तो वह सुधरेगी न ही हम उसे सुधार सकेंगे। यह हमारी हताशा का चरम है कि उसे सुधार की, उसके दुरुस्त होने की बात ही हमारे मन में आनी बन्द हो गई है। मुझे नेट/ई-बैंकिंग अपनाने की सलाह देते हुए मेरे तमाम कृपालु मित्र यह याद ही नहीं रख पाए कि बैंक अपने ग्राहकों को पास बुकें जारी कर रहा है और उन्हें छापने के लिए मँहगी स्वचलित मशीनें लगवाए चला जा रहा है। जाहिर है कि बैंक स्वीकार कर रहा है कि ग्राहक को यह सेवा देना अभी भी उसकी जिम्मेदारियों में शामिल है। लेकिन हमने हार मान ली है। क्रूर व्यवस्था से परास्त होना हमने अपनी नियती मान ली है। एक दुःखी उपभोक्ता के समर्थन में खड़े होने के बजाय सब उसे समझा रहे हैं - 
‘खुुुद ही सुधर जाओ भाई!’ 

यह सब याद करते हुए मुझे दुष्यन्त कुमार याद आ गए। बरसों-बरस पहले वे कह गए हैं -

न हो कमीज तो घुटनों  से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए

जहाँ हमें रीढ़ की हड्डी तानकर खड़े होना चाहिए वहाँ हम विनयावनत हो खुद को बदल लेते हैं। व्यवस्था को और चाहिए ही क्या?

हम (इस ‘हम’ में मैं भी शरीक हूँ) दुष्यन्त कुमार के ये ही ‘मुनासिब लोग’ हैं।
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मेरी छपी हुई पास बुक देने के लिए मेरे घर आए श्री राधेश्यामजी सारस्वत। 
भगवान इनका भला करे। 

वाट्स एप यूनिवर्सिटी के शिकार

निर्भीक पत्रकारिता के पर्याय बन चुके पत्रकार रवीश कुमार
अपने दर्शकों/श्रोताओं को, ‘वाट्स एप यूनिवर्सिटी’ की शिक्षाओं से बचने की सलाह देने का कोई मौका नहीं छोड़ते। किन्तु उनकी यह सलाह राजनीति में धर्मान्धता से बचने को लेकर होती है। लेकिन कहा नहीं जा सकता कि अंगुलियों की पोरों से संचालित हो रही यह यूनिवर्सिटी हमारे जीवन के किस पहलू को कब स्पर्श कर ले। इस यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर बनने के लिए न तो किसी शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता है न ही किसी परीक्षा/साक्षात्कार से गुजरना होता है। इसमें न तो भर्ती का आयु बन्धन है न ही सेवा निवृत्ति का। देश की तमाम सरकारी शिक्षा यूनिवर्सिटियों में प्रोफेसरों के हजारों पद खाली पड़े हैं लेकिन इस यूनिवर्सिटी में न तो पदों की संख्या निर्धारित है न ही स्वनियुक्त प्रोफेसरों की गिनती। घर-घर में इस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मौजूद हैं। घर में जितने मोबाइलधारक, उतने ही प्रोफेसर। इन प्रोफेसरों के न तो ‘ड्यूटी अवर्स’ तय हैं न ही पीरीयड की समय सीमा। निस्वार्थ-निष्काम, ‘अहर्निशम् सेवामहे’ भाव से ये स्वैच्छिक मानसेवी प्रोफेसर लोग आपकी-हमारी जिन्दगी सँवारने का कोई मौका नहीं छोड़ते। मुझे नहीं पता कि इन नेक सलाहों का फायदा किसी को हुआ या नहीं। किन्तु इसके एक ‘शिकार’ की व्यथा-कथा सुनने का मौका मिल गया।

श्री अरविन्द सोनी मेरे ‘मुक्त कण्ठ प्रशंसक’ हैं। वे म. प्र. विद्युत मण्डल के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। रतलाम जिला इण्टक के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। सेवा निवृत्त जरूर हो गए हैं लेकिन काम करना फितरत में है। परिचितों-मित्रों की समस्याएँ हल कराने के लिए एलआईसी कार्यालय आते रहते हैं। प्रायः ही मिलना होता है। जब भी मिलते हैं, कुछ पल बात करते ही हैं। इसी तरह, बातों ही बातों में अचानक ही ‘वाट्स एप यूनिवर्सिटी की सलाह का शिकार’ हो जाने की बात सामने आ गई।

हुआ यूँ कि किन्हीं कारणों से अरविन्दजी को टीएमटी करवानी पड़ी। रिपोर्ट से हृदय की धमनियों में अवरोध की आशंका के संकेत मिले। चिकित्सा शुरु की ही थी कि एक भरोसेमन्द हितचिन्तक ने वाट्स एप पर एक देसी नुस्खा भेजा। ये हितचिन्तक, मुम्बई के ख्यात-प्रतिष्ठित केईएम अस्पताल में चिकित्सक रहे हैं। परम सद्भाव और सदाशयता से भेजे गए इस सन्देश पर अरविन्दजी ने आकण्ठ विश्वास से अमल किया और नुस्खे में बताई दवा लेनी शुरु कर दी।

शुरु में तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा लेकिन कुछ दिनों बाद पेट में जलन की शिकायत शुरु हो गई। जैसा कि हम सब करते हैं, अरविन्दजी ने एसिडिटी का अनुमान लगाया और स्वचिकित्सक बन, एसिडिटी निरोधी सामान्य गोलियाँ ले लीं। लेकिन गोलियाँ निष्प्रभावी रहीं और समस्या बढ़ती गई। अरविन्दजी ने डॉक्टर से सलाह ली तो उसने बड़ी आँत में अल्सर का अन्देशा बताया। अरविन्दजी फौरन इन्दौर गए। पेट रोग विशेषज्ञ से मिले। कुछ जाँचें करवाईं जिनके आधार पर विशेषज्ञ ने बड़ी आँत में अल्सर की पुष्टि की। 

विशेषज्ञ की सलाह पर अरविन्दजी इन्दौर में ही अस्पताल में भर्ती हुए। दो दिन वहाँ ईलाज कराया। डॉक्टर के निर्देश लेकर रतलाम लौटे। पूरे दो महीने ईलाज चला तब कहीं जाकर कष्ट से मुक्ति मिली।

अरविन्दजी अब पूर्ण स्वस्थ तो हैं लेकिन आँत के अल्सर के कारण कुछ ऐसे निषेध आरोपित कर दिए गए हैं जिनका पालन करने के लिए अरविन्दजी की, चाय के ठीयों की बैठकें बन्द सी हो गईं है। बैठक में शामिल हों तो भाई लोग जबरदस्ती करने में कंजूसी नहीं करते। उनका कहा मानना याने अपनी जान से दुश्मनी। 

अब अरविन्दजी जब भी ऐसी बैठकों में शामिल होते हैं तो वाट्स एप यूनिवर्सिटी से मिला यह सबक सबसे पहले सुनाते हैं।
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‘नोटा’ बन गया ‘सोटा’: जीत गया तो फिर से होंगे चुनाव

यह किसी सपने के सच हो जाने जैसा है। 

हमारे मँहगे चुनाव मुझे देश में व्याप्त आर्थिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण लगते हैं। धनबली और बाहुबली लोग विधायी सदनों पहुँचकर हमारी तकदीरों से खेलते हैं। ‘इण्डिया’ के लोग ‘भारत’ की तकदीर बनाने का ठेका ले लेते हैं। वास्तविक जन प्रतिनिधि विधायी सदनों में पहुँच ही नहीं पाते।

इनसे मुक्ति पाने के लिए मुझे ‘नोटा’ प्रभावी, परिणामदायी हथियार अनुभव होता है। लेकिन उसका वर्तमान स्वरूप मुझे और क्षुब्ध कर देता है। इसका वर्तमान स्वरूप, उम्मीदवारों के प्रति मतदाताओं की नाराजी, असहमति तो जरूर प्रकट करता है लेकिन  किसी को जीतने से रोक नहीं पाता। अपनी इसी बात को लेकर मैं 05 अक्टूबर 2018 को, ‘नोटा’ को उम्मीदवार की हैसियत दिए जाने की बात कही थी। तब मुझे सपने में भी गुमान नहीं था कि डेड़ माह से भी कम अवधि में मेरी मुराद पूरी होने की शुरुआत हो जाएगी। कल, 13 नवम्बर को अचानक ही मुझे जानकारी मिली कि ‘नोटा’ को उम्मीदवार मान लिया गया है और यदि इसे सबसे ज्यादा वोट मिल गए तो वहाँ फिर से चुनाव कराया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने 27 सितम्बर 2013 को ‘नोटा’ का बटन, मतदान मशीन पर उपलब्ध कराने का आदेश दिया था। लेकिन आदेश में यह भी कहा गया था कि यदि किसी चुनाव में ‘नोटा’ को तमाम उम्मीदवारों से ज्यादा मत मिल जाएँ तब भी, (‘नोटा’ के बाद) सर्वाधिक मत हासिल करनेवाले उम्मीदवार को विजयी घोषित कर दिया जाए। याने, चूँकि ‘नोटा’ कोई उम्मीदवार नहीं है इसलिए वह जीत कर भी हार जाएगा और उसे मिले मत, निरस्त मत माने जाएँगे। 

लेकिन महाराष्ट्र राज्य निर्वाचन आयोग (मरानिआ) इस स्थिति से एक कदम आगे बढ़ गया है। ‘मरानिआ’ के सचिव शेखर चन्ने के अनुसार अब (महाराष्ट्र में) किसी चुनाव/उप चुनाव में यदि ‘नोटा’ को सर्वाधिक मत मिले तो किसी भी उम्मीदवार को विजयी घोषित नहीं किया जाएगा और वहाँ (उस पद के लिए) फिर से चुनाव कराया जाएगा। श्री चन्ने के अनुसार यह आदेश तत्काल प्रभाव से लागू हो गया है। 

लेकिन यह आदेश फिलहाल महाराष्ट्र के समस्त नगर निगमों, नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों के चुनावों, उप चुनावों में ही लागू होगा।

श्री चन्ने के अनुसार, ‘नोटा’ के वर्तमान स्वरूप में मतदाताओं की नकारात्मकता अनदेखी रह जाती है इसलिए यह प्रावधान किया गया है। इसमें ‘नोटा’ को ‘काल्पनिक चुनावी उम्मीदवार’ (Fictional Electoral Candidate) माना जाएगा और यदि चुनावी उम्मीदवारों को इस ‘काल्पनिक चुनावी उम्मीदवार’ से कम मत मिले को कोई भी उम्मीदवार विजयी घोषित नहीं किया जाएगा और वहाँ (जिस पद के लिए यह चुनाव हुआ था, उस पद के लिए) फिर से चुनाव कराया जाएगा।

हालाँकि यह अधूरी जीत है किन्तु यह पूरी जीत की शुरुआत है। ‘मरानिआ’ का क्षेत्राधिकार चूँकि केवल राज्यस्तरीय निकायों तक सीमित है इसलिए उसने अपने क्षेत्राधिकार के मतदाताओं को यह ताकत दे दी। यह शुरुआत यहीं नहीं रुकेगी। यह ‘छूत की बीमारी’ की तरह फैलेगी ही फैलेगी। एक के बाद एक, अन्य राज्य भी अपने मतदाताओं को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए इस प्रावधान को लागू करेंगे और अन्ततः बात भारत निर्वाचन आयोग तक पहुँचेगी ही पहुँचेगी। इसमें देर लग सकती है लेकिन ऐसा होना तो तय हो गया है।

मतदाताओं को अधिक ताकतवर बनाने के लिए, उनकी नापसन्दगी को स्वीकृती दिलाने हेतु, चुनाव सुधारों के लिए काम कर रहे अनेक एक्टिविस्ट और एनजीओ, ‘नोटा’ का प्रावधान लागू होने के ठीक बाद से लगातार माँग कर रहे हैं कि किसी चुनाव में ‘नोटा’ को सर्वाधिक मत मिलने की दशा में वहाँ फिर से चुनाव तो कराया ही जाए, मतदाताओं के इंकार को स्वीकृती देते हुए, उस चुनाव में, ‘नोटा’ के जरिए खारिज किए गए तमाम उम्मीदवारों को फिर से उस चुनाव के लिए अयोग्य भी घोषित किया जाए।

हमारे राजनेता देश को और देश के लोगों को जिस मुकाम पर ले आए हैं उसके चलते यह सब होगा। होकर रहेगा। देश को मँहगे चुनावों से मुक्ति मिलेगी, एक औसत आदमी चुनाव लड़ सकेगा, वास्तविक जन प्रतिनिधि विधायी सदनों में नजर आएँगे। आर्थिक भ्रष्टाचार यदि समूल नष्ट नहीं भी हुआ तो भी वह न्यूनतम स्तर पर आएगा। राजनीतिक दलों के, दरियाँ-जाजम उठाने-झटकारनेवाले, झण्डे-डण्डे उठानेवाले मैदानी कार्यकर्ताओं की पूछ-परख होगी। ऐसी बातों की बहुत लम्बी सूची है। वे सब होंगी।

शुरुआत हो चुकी है। विधायी सदनों में बैठे तमाम नेता, अपने सारे मतभेद भुलाकर इसे रोकने में जुट जाएँगे। मुमकिन है, कुछ बरसों तक वे इसे रोक भी लें। लेकिन वे अन्ततः परास्त होंगे। वही ‘जनता-जनार्दन’ की जीत होगी।

अँधरे को प्रकाश की अनुपस्थिति कहते हैं। लेकिन वह तो एक प्राकृतिक स्थिति है। अँधेरा दूर करने के लिए उजाला करना पड़ता है। छोटे-छोटे जुगनू लगातार जूझ रहे हैं। हर रात की एक सुबह होती ही है। लेकिन वे इस भरोसे चुपचाप नहीं बैठेंगे। वे सुबह लाने तक रुकेंगे नहीं। चैन से नहीं बैठेंगे। वे सुबह लाकर ही मानेंगे।
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(यह पोस्ट मैंने, इण्डियन एक्सप्रेस के मुम्बई संस्करण में, दिनांक 13 नवम्बर 2018 को प्रकाशित समाचार के आधार पर लिखी है। इस समाचार की लिंक मुझे, ग्वालियरवाले श्री  विष्णुकान्त शर्मा Vishnukant Sharma की फेस बुक वॉल से मिली है।  श्री शर्मा की वॉल पर उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार वे, इस पोस्ट के लिखे जाने के समय तक, 28 नवम्बर को हो रहे विधान सभा चुनावों में ग्वालियर विधान सभा क्षेत्र 15 से प्रत्याशी हैं। 

मेरा अंग्रेजी ज्ञान बहुत कम है। मैंने, परम् सद्भाव और सदाशयता से, अपनी सूझ-समझ के अनुसार इस समाचार का यथासम्भव समुचित हिन्दी भावानुवाद किया है। समाचार का जो हिस्सा मुझे समझ नहीं पड़ा, वह मैंने छोड़ दिया है। मुझसे यदि कोई चूक हुई हो तो कृपया मुझे अविलम्ब सूचित कीजिएगा ताकि मैं खुद को सुधार सकूँ। मुझे प्राप्त समाचार लिंक यहाँ दे रहा हूँ।)

पटाखों और फुलझड़ियों से ही नहीं होती दीपावली

जिन्दगी के पनघट पर घटनाओं की रस्सियों से बने अनुभूतियों के अमिट निशान हमारी धरोहर और जीवन पाथेय बन जाते हैं। तब चीजें, बातें एक नया अर्थ, नई उपयोगिता हासिल करने लगती हैं। दीपावली को लेकर कुछ ऐसा ही मेरे साथ गए कुछ बरसों से हो चला है। लेकिन मुझे यह भ्रम नहीं कि ऐसा केवल मेरे साथ ही हुआ, हो रहा होगा। विश्वास करता हूँ कि मैं ऐसे अनगिनत लोगों की भीड़ का सबसे अन्तिम, सबसे छोटा हिस्सा ही हूँगा। 

बचपन में बताए, समझाए गए, दीपावली के सारे अर्थ एक के बाद एक, बदल गए। अब दीपावली केवल लंका विजय के बाद राम की अयोध्या वापसी का या तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का या फिर नई फसल के आने का त्यौहार नहीं रह गई। पहले समझाया जाता था - दीपावली खुशियों का, खुशियाँ मनाने का त्यौहार है। लेकिन अकेली खुशी भी खुश नहीं हो पाती। खुशी को भी खुश होने के लिए संगाती चाहिए। संगाती भी ऐसा जो हमारी खुशी को अपनी खुशी मानने को तैयार हो सके। कोई दुखी आदमी भला हमारी खुशी में कैसे शरीक हो सकता है? लिहाजा, अपनी खुशी का आनन्द लेने के लिए हमें किसी खुश आदमी की ही जरूरत होती है। तब ही समझ आया कि खुश होना ही पर्याप्त नहीं है। अपने आसपास के लोगों का खुश होना भी बराबरी से जरूरी है। इसलिए, यदि वे खुश नहीं हैं तो उन्हें खुश करने, खुश रखने की भावना उपजी होगी। तब ही अनुभव हुआ होगा कि लोगों को खुश रखना ही सबसे बड़ी खुशी होती है। तब ही दीपावली का नया भाष्य सामने आया - दीपावली खुशियों का त्यौहार तो है जरूर लेकिन उससे पहले, खुशियाँ बाँटने का त्यौहार है। यह पवित्र भावना मन में उपजते ही त्यौहार मन जाता है। तब हम खुशियों की खेती करने लगते हैं। खुशियाँ बोते हैं और खुशियों  की फसल काटते हैं।

खुशी कोई वस्तु तो है नहीं कि बाजार से खरीद लें! वस्तुएँ खुशी दे सकती हैं लेकिन घावों पर मरहम नहीं लगा पातीं। कुछ लोगों के लिए वस्तुएँ खुशी का सबब होती हैं। लेकिन कुछ इनसे अलग होते हैं। उन्हें कुछ दिए बिना भी खुशी दी जा सकती है, यह प्रतीति कुछ बरस पहले मुझे अचानक ही हुई। तब से, हर बरस मेरी दस-बीस दीवालियाँ मन रही हैं। 

बीमे के धन्धे के कारण मैं सभी वर्गों, श्रेणियों, धर्मों, जातियों के लोगों से मिलता हूँ। इन सबसे मिलने पर बार-बार वह बात याद आती है कि सुख, खुशी और सुविधाओं, सम्पन्नता का कोई रिश्ता नहीं है। मुझे महलों में दुःखी, असन्तुष्ट, क्षुब्ध लोग मिलते हैं तो झोंपड़ियों में परम प्रसन्न, सुखी, सन्तुष्ट लोग। 

एक परिवार में मुझे, जिसका बीमा करना था उसकी प्रतीक्षा करनी थी। परिवार में उसके बूढ़े पिता ही फुरसत में थे। उनसे बतियाने लगा। शुरु में तो वे कन्नी काटते रहे। कुछ-कुछ भयभीत होकर। लेकिन जल्दी ही खुल गए। उन्हें कोई कमी नहीं थी। कोई कष्ट नहीं था, किसी से कोई शिकायत नहीं थी। उनकी सारी जरूरतें पूरी हो रही थीं और अपेक्षानुरूप देखभाल भी। लेकिन उनसे बात करने की फुरसत किसी को नहीं थी। मुझे घण्टे भर से अधिक प्रतीक्षा करनी पड़ी। तब तक वे न जाने कहाँ-कहाँ की बातें करते रहे। मेरे काम की एक भी बात नहीं थी। लेकिन मैं हाँ में हाँ मिलाते हुए सुनता रहा। बीमा करानेवाला लौटा तो उन्होंने आश्चर्य से कहा - ‘अरे! तू इतनी जल्दी आ गया? काम अधूरा छोड़ कर तो नहीं आ गया?’ मुझे अपना काम निपटाना था। मैं उठने लगा तो मेरी बाँह पकड़ कर बोले - ‘आज कितने दिनों में कोई मेरे पास बैठा। आज मैंने खूब बातें कीं। आज तो आपने मेरी दीवाली कर दी।’ यही वह घटना थी जिसने मुझे पहली बार  दीवाली का नया भाष्य दिया था। मेरी गाँठ से कुछ नहीं गया। लेकिन वे बुजुर्ग परम प्रसन्न थे। उसके बाद से तो मैं ऐसी स्थितियों की तलाश करने लगा।

एक परिवार में अब मैं नियमित रूप से जाता हूँ। परिवार के सबसे वृद्ध सज्जन अपंग तो नहीं हैं लेकिन ज्यादा चल-फिर नहीं सकते। मुझे देखते ही खुश हो जाते हैं। उनके पास भी आधा-पौन घण्टा गुजार लेता हूँ। उन्हें परिवार से तो नहीं लेकिन जमाने से शिकायतें हैं। उन्हें दुनिया में कुछ भी अच्छा होता नजर नहीं आता। मैं उनसे कभी सहमत नहीं हो पाया किन्तु कभी असहमति भी नहीं जताई। मैं लौटता हूँ तो कहते हैं कि मैं तनिक जल्दी-जल्दी मिलने आया करूँ। मैं परिहास करता हूँ - ‘आप जमाने को गालियाँ देते हो। क्या गालियाँ सुनने के लिए आऊँ?’ वे कुम्हला जाते हैं। कहते हैं - ‘मैं तो ऐसा ही हूँ। लेकिन आप आते रहो। आप मेरी बातें सुन लेते हो। मुझे खुशी होती है।’

एक परिवार की वृद्धा से मेरी दोस्ती हो गई है। दो मुलाकातों में तीन हफ्तों से अधिक का अन्तराल न हो यह चेतावनी उन्होंने दे रखी है। मेरी खूब खातिरदारी करती हैं। पौन घण्टा तो मुझे रुकना ही होता है उनके पास। अपनी इकलौती बहू की खूब बुराई करती हैं। मैं टोकता हूँ - ‘इतनी तो सेवा करती है बेचारी आपकी! फिर भी बुरी है?’ वृद्धा का जवाब होता है - ‘सब दिखावा करती है। आप बहुओं को नहीं जानते। बहू कुछ भी कर ले, है तो परायी जायी।’  पौन घण्टे के इस बुराई-पीरीयड में बहू दो-तीन बार आकर पानी, चाय-नाश्ता रख जाती है। आते-जाते हँसती रहती है। लौटता हूँ तो वृद्धा मुझे भर-पेट असीसती हैं। कहती हैं - ‘आप आते हो तो मेरा आफरा (अजीर्ण) झड़ जाता है।’ बहू मुझे छोड़ने के लिए बाहर तक आती है। कहती है - ‘आप आते रहिए। मेरे पीहर में तो कोई है नहीं और ससुरालवाले वाले आते-जाते नहीं। बई (सासू माँ) ने सबसे झगड़ा कर रखा है। बई को मेरी बुराई करने में बड़ा सुख मिलता है। मेरी बुराई इनकी बीमारी की दवा है। आपसे कह देती हैं तो इनकी तबीयत ठीक रहती है।’

ये तो गिनती के नमूने हैं। ऐसे कई लोगों से मैंने घरोपा बना लिया है। मैं बीमा एजेण्ट। मेरा काम बातें करना। ऐसे मामलों में मुझे सुनना होता है। सुन लेता हूँ। हर जगह से लौटने में बड़ी सुखानुभूति होती है। लगता है, देव पूजा करके या यज्ञ में समिधा-आहुति डाल कर आ रहा हूँ। इन लोगों की खुशी देखते ही बनती है। सचमुच में अवर्णनीय। ऐसी हर आहुति के बाद लगता है, मैंने दीवाली मना ली है। 

बिना पटाखे फोड़े, बिना फुलझड़ियाँ छोड़े, आदमी के मन और आत्मा को खुशियों और उजास से भर देनेवाली ऐसी दीवालियाँ आप-हम सब, जाने-अनजाने साल भर मनाते हैं लेकिन कभी ध्यान नहीं देते हैं। अब ध्यान दीजिएगा तो खुशी कम से कम दुगुनी तो हो ही जाएगी। बच्चन की मधुशाला तो ‘दिन को होली, रात दीवाली’ मनाती है। लेकिन खुशियों की यह मधुशाला तो दिन-रात, चौबीसों घण्टे, बारहमासी दीवाली मनाती है।  
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‘सुबह सवेरे’ (भोपाल) ने मेरी इस पोस्ट को सम्पादित रूप
में अपने दीपावली 2018 के अंक के मुखपृष्ठ पर जगह दी। 




नरोड़ा का आशीष और वटवा की साजिया

जो दुर्व्यसन अहमदाबाद वाले केशवचन्द्रजी शर्मा ने पाल रखा है, वह हम सब भी पाल लें तो नफरत की आग बुझे भले नहीं लेकिन उसकी आँच, उसकी तपन जरूर काफी कुछ हो जाए। वे अहमदाबाद के गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी अखबारों में छपनेवाले ‘असामान्य’ समाचार, जानकारियाँ ढूँढ कर जुटाते हैं और उनकी कतरनें (तथा गुजराती, अंग्रेजी सामग्री के हिन्दी अनुवाद) मुझे भेजते हैं। उनकी भेजी सामग्री आत्मा को शीतलता तो देती ही है, आत्मा को ताकत भी देती है और भरोसा भी दिलाती है कि जितना कुछ नकारात्मक, निराशाजनक, भयानक परिदृष्य पर नजर आ रहा है, परिदृष्य के पीछे उससे बहुत-बहुत ज्यादा अच्छा है। केशवजी की कोशिश उसी ‘बहुत अच्छे’ को सामने लाने की है। 

क्यों कर रहे हैं केशवजी यह सब? क्या फायदा है इसमें उनका? वक्त लगाते हैं, लिखने में मेहनत करते हैं, गाँठ का दाम खर्च करते हैं। क्यों? जिम्मेदारी की भावना से शायद केवल इस आस में कि हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ एक बेहतर कल हासिल कर सकें। आम के पौधे लगाने जैसा काम कर रहे हैं केशवजी - ‘मैं तो नहीं, लेकिन मेरा पोता रसीले आमों का आनन्द लेगा।’ लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित हो रहे सेतु में अपना योगदान देने केलिए बार-बार गीली होकर रेत में लोटनेवाली गिलहरी लगते हैं केशवजी मुझे। उनकी इसी मौन साधना ने मुझे प्रेरित किया कि उनकी सामग्री को विस्तारित करूँ। याने, रामजी की गिलहरी केशवजी और मैं केशवजी की सहायक गिलहरी।

आप इस सामग्री का आनन्द लीजिए और आपकी आत्मा अनुमति दे तो मेरी ही तरह एक गिलहरी बन, इसे विस्तारित कीजिए। लिख कर न सही, अपनेवालों से, मिलनेवालों से इस सामग्री की और इन कोशिशों की चर्चा करके। 

अच्छी बातों का जिक्र कीजिए ताकि बुरी बातों के जिक्र की गुंजाइश न रहे।

कहानी बहुत ही छोटी है। इक्कीस  शब्दों और दो-ढाई पंक्तियों में कही जा सकनेवाली। एक लड़के ने एक लड़की से राखी बँधवा कर उसे बहन बनाया और रिश्ता बना हुआ है, दिनोंदिन प्रगाढ़ होता हुआ। बस। लेकिन जब मालूम हो कि यह लड़की दूसरे धर्म की है और लड़के की पहले ही दो सगी बहनें हों तो कहानी चौंकाती है और जिज्ञासु बनाती है। तब, सवाल ‘क्या हुआ?’, ‘क्या किया?’ से बदल कर ‘क्यों हुआ?’, ‘क्यों किया?’ हो जाता है।

यह सात बरस पहले की बात है।

अहमदाबाद का नरोड़ा निवासी आशीष, अपने गुजरात से बेहद प्यार करनेवाला एक औसत युवक है। लेकिन अपने मित्र मण्डल में तनिक अलग किस्म का नजर आता है। वह जिस तरह की बातें करता है, जैसा सोचता-विचारता है उससे उसे प्रगतिशील और सर्व-धर्म-समभावी कहा जा सकता है। वह कहता तो कुछ नहीं लेकिन उसकी बातों से लगता है कि वह, दुनिया में अपने गुजरात की छवि को लेकर चिन्तित रहता है। वह ‘कहने’ के बजाय ‘करने’ में विश्वास करता है। उसकी इस मानसिकता ने ही इस कहानी को जन्म दिया। आशीष को विचार आया - किसी मुस्लिम लड़की को बहन बनाया जाए। यूँ तो यह कोई अनूठा विचार नहीं क्योंकि ऐसे रिश्ते बड़ी संख्या में मिल जाएँगे। लेकिन आशीष की तो दो सगी बहनें हैं! यही तथ्य इस कहानी का बीज-विचार बना।

लेकिन आशीष ने भावुकता की दासता अस्वीकार की। रिश्ता जब बनाना है तो उसे निभाना भी होगा। केवल अपनी एक ‘सनक’ के आधार पर तो रिश्ता नहीं बनाया जा सकता! लिहाजा, आशीष ने समान वैचारिक धरातल वाली मुस्लिम लड़की की तलाश शुरु की। 

काम आसान नहीं था। लेकिन आशीष ने अपनी तलाश जारी रखी। अचानक ही एक नाटक प्रतियोगिता में उसकी मुलाकात, वटवा इलाके में रहनेवाली साजिया से हुई। आशीष ने अनुभव किया कि उसका और साजिया का सोचना-विचारना एक जैसा है। फिर भी आशीष ने, तत्काल किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से खुद को रोके रखा। उसने साजिया को परखना जारी रखा और जब उसे भरोसा हो गया कि सोच-विचार के आधार पर उसकी और साजिया की निभ जाएगी तो उसने साजिया से राखी बँधवाने की बात कही। साजिया के लिए यह सर्वथा अनपेक्षित प्रस्ताव था। किन्तु वह भी आशीष को थोड़ा-बहुत जान-समझ चुकी थी। उसने प्रसन्नतापूर्वक हामी भरी। और उसी क्षण एक रिश्ते ने जन्म लिया। ऐसा रिश्ता जो एक महीन धागे से बँधा था।

सात बरस हो गए हैं। हर बरस रक्षा बन्धन पर साजिया, आशीष को राखी बाँधती है और आशीष अपनी बहन को नेग चुकाता है। दो व्यक्तियों से शुरु हुए इस रिश्ते ने दोनों परिवारों को अपने में समेट लिया। अब दोनों परिवार मिल कर त्यौहार मनाते हैं और केवल एक-दूसरे को नहीं, सारे जमाने को भरोसा दिला रहे हैं - ‘प्रेम ही जीवन-जड़ी है।’ वह ‘जीवन-जड़ी’ जो कबीर के मुताबिक न तो खेत में पैदा होती है न ही हाट-बाजार में बिकती मिलती है। वह ‘जीवन जड़ी’ जो निर्मल, निष्कलुष, मानवीय हृदयों की उर्वरा जमीन में पाई जाती है।
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जरूरत और फर्ज का धर्म

जो दुर्व्यसन अहमदाबाद वाले केशवचन्द्रजी शर्मा ने पाल रखा है, वह हम सब भी पाल लें तो नफरत की आग बुझे भले नहीं लेकिन उसकी आँच, उसकी तपन जरूर काफी कुछ हो जाए। वे अहमदाबाद के गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी अखबारों में छपनेवाले ‘असामान्य’ समाचार, जानकारियाँ ढूँढ कर जुटाते हैं और उनकी कतरनें (तथा गुजराती, अंग्रेजी सामग्री के हिन्दी अनुवाद) मुझे भेजते हैं। उनकी भेजी सामग्री आत्मा को शीतलता तो देती ही है, आत्मा को ताकत भी देती है और भरोसा भी दिलाती है कि जितना कुछ नकारात्मक, निराशाजनक, भयानक परिदृष्य पर नजर आ रहा है, परिदृष्य के पीछे उससे बहुत-बहुत ज्यादा अच्छा है। केशवजी की कोशिश उसी ‘बहुत अच्छे’ को सामने लाने की है। 

क्यों कर रहे हैं केशवजी यह सब? क्या फायदा है इसमें उनका? वक्त लगाते हैं, लिखने में मेहनत करते हैं, गाँठ का दाम खर्च करते हैं। क्यों? जिम्मेदारी की भावना से शायद केवल इस आस में कि हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ एक बेहतर कल हासिल कर सकें। आम के पौधे लगाने जैसा काम कर रहे हैं केशवजी - ‘मैं तो नहीं, लेकिन मेरा पोता रसीले आमों का आनन्द लेगा।’ लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित हो रहे सेतु में अपना योगदान देने केलिए बार-बार गीली होकर रेत में लोटनेवाली गिलहरी लगते हैं केशवजी मुझे। उनकी इसी मौन साधना ने मुझे प्रेरित किया कि उनकी सामग्री को विस्तारित करूँ। याने, रामजी की गिलहरी केशवजी और मैं केशवजी की सहायक गिलहरी।

आप इस सामग्री का आनन्द लीजिए और आपकी आत्मा अनुमति दे तो मेरी ही तरह एक गिलहरी बन, इसे विस्तारित कीजिए। लिख कर न सही, अपनेवालों से, मिलनेवालों से इस सामग्री की और इन कोशिशों की चर्चा करके। 

अच्छी बातों का जिक्र कीजिए ताकि बुरी बातों के जिक्र की गुंजाइश  कम हो।


कोई पचीस बरस पहले इस ‘आज’ की शुरुआत हुई थी। तब किसी को अन्दाज नहीं था कि बात इस मुकाम तक पहुँचेगी। सब कुछ अनायास हुआ। धीरे-धीरे। जैसे, कुम्हार के आँवे में धीरे-धीरे गरम होकर मिट्टी का कच्चा घड़ा पकता है। जेठ-बैसाख की तपती गर्मी में मिट्टी के घड़े का ठण्डा पानी हलक के नीचे उतरता है तो उससे मिलती तृप्ति सब कुछ भुला देती है। याद ही नहीं आता कि यह ठण्डापन पाने के लिए मिट्टी के घड़े ने कितना ताप झेला। उसी ताप की अनुभूति ने ही घड़े को शीतलता प्रदान करने की सीख दी होगी। महबूब मलिक और कोकिला बेन राणा के परिवार ऐसी ही बातों को साकार कर रहे हैं। 

अहमदाबाद से लगी छाटी सी बस्ती के गिनती के परिवारों में ये दो परिवार भी शामिल हैं। यह छोटी सी बस्ती मजदूर पेशा लोगों की है। कोकिला बेन की तीन बेटियाँ - सोनल, दीपिका और चन्द्रिका। तीनों स्कूली बच्चियाँ। कोकिला बेन का काम ऐसा कि सुबह घर से निकलो और शाम का लौटो। बड़ा संकट। काम पर जाए तो घर पर बच्चियाँ अकेली। काम पर न जाए तो अपना और बच्चियों का पालन-पोषण कैसे हो? 

बड़ी झिझक और संकोच सहित कोकिला बेन ने पड़ौसी महबूब भाई से मदद चाही। महबूब भाई ने खुशी-खुशी तीनों बच्चियों की जिम्मेदारी कबूल की। कोकिला बेन की बेटियाँ अब मलिक परिवार की बच्चियाँ बन गईं। तीनों को भोजन कराना, स्कूल भेजना, स्कूल से लौटने पर उनके बस्ते सम्हालना, उनका होम वर्क कराना सब कुछ मलिक परिवार ने अपने जिम्मे ले लिया। जिस चिन्ता और भावुकता से मलिक परिवार ने अपनी जिम्मेदारी निभाई उसे देख-देख ‘ऊपरवाला’ निहाल हुए जा रहा था।

वक्त अपनी चाल चलता रहा और कोकिला बेन, उनकी तीनों बेटियाँ, मलिक परिवार वक्त की चाल से बेखबर अपना-अपना काम करते रहे। दरअसल वक्त ने इनमें से किसी को भी इतना वक्त नहीं दिया कि ये वक्त की ओर देख सकें। बेटियाँ जब प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं को पार कर उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में दाखिल हुईं तो अचानक ही कोकिला बेन को वक्त का भान हुआ। उन्होंने अंगुलियों पर गिनती शुरु की तो लगा अंगुलियों की पोरें कम पड़ जाएँगी। यह अनुभूति होते ही कोकिला बेन की आँखें बहने लगीं। उसी शाम उन्होंने महबूब भाई से कहा - ‘महबूब भाई! मेरी बेटियों की जैसी देखभाल आप सबने की है वैसी तो इनका सगा मामा भी नहीं कर पाता। आपके मुझ पर बड़े उपकार हैं। आपका कर्जा मैं इस जनम में तो नहीं चुका सकती। अगला जनम किसने देखा? मेरी एक अर्जी और कबूल कर लो।’ महबूब भाई भावाकुल दशा में थे। बोले - ‘कैसी बातें करती हो कोकिला बेन! बच्चे तो बच्चे होते हैं। क्या आपके और क्या मेरे! यह तो मेरी खुशनसीबी रही कि एक नेक काम के लिए आपने मुझे मौका दिया और खुदा ने मुझे जरिया बनाया। और आपने यह क्या अर्जी-अर्जी लगा रखी है? आप तो हुकुम करो बेन!’ बहती आँखों को रोकने की कोई कोशिश कोकिला बेन ने नहीं की। भर्राए स्वरों में बोली - ‘बिना किसी रिश्ते के जिम्मेदारी निभाते चले आ रहे हो। आज महरबानी कर दो और मेरे राखी-बन्ध भाई बन जाओ।’ कोकिला बेन का यह कहना हुआ नहीं कि महबूब भाई मानो तीनों बच्चियों से छोटे बच्चे बन कर बिलख पड़े। उनसे बोला नहीं गया। हिचकियाँ लेतेे-लेते ही अपना दाहिना हाथ बढ़ा दिया। और बिना महूरत वाले उस पल में एक रश्तिा बन गया।

वह दिन और आज का दिन। सूत के कच्चे धागे ने दोनों परिवारों को ऐसा बाँधा कि 2002 की नफरत और नृशसंता शर्मिन्दा होकर उल्टे पाँवों लौट गई। सारे त्यौहार दोनों परिवार मिल कर मनाते हैं। ईद की सिवैयों के लिए केवड़े का सत् कोकिला बेन लाती हैं। होली की पापड़ियाँ महबूब भाई के यहाँ से बन कर आती हैं और मुहर्रम का सोग राणा परिवार मनाता है। 

कोकिला बेन की सबसे बड़ी बेटी सोनल के विवाह में महबूब भाई ने मामा का नेगचार पूरा किया। कोकिला बेन नानी बन गई हैं। दोनों परिवार जिन्दगी तो अपनी-अपनी जी रहे हैं लेकिन एक दूसरे की चिन्ता करते हुए और एक दूसरे को धन्यवाद देते हुए। 

एक ने जरूरत में मदद पाने के लिए दूसरे की ओर देखा। दूसरे ने पूरी ईमानदारी से अपना फर्ज निभाया। न जरूरत का कोई धर्म होता है न ही फर्ज का। यह मनुष्यता का अदृष्य धागा ही था जिसने दो परिवारों को बाँध दिया और बाँधे हुए है।
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चुप रहने की बारी अब हमारी है

मेरा विवाह,1976 में, 29 बरस की उम्र में हुआ। मैं, विवाह न करने पर अड़ा हुआ था।उस काल खण्ड के लोक पैमानों के अनुसार मैं आधा बूढ़ा हो चुका था। तब बापू दादा (स्व. बापूलालजी जैन) ने कहा था - ‘तू शादी कर या मत कर। लेकिन याद रखना - काँकर पाथर जो चुगे, उन्हें सतावे काम। घी-शक्कर जो खात हैं, उनकी राखे राम।’ याने, जब अन्न कणों के भ्रम में कंकर-पत्थर चुग जानेवाले पंछियों में भी काम भाव होता है तो स्वादिष्ट, पुष्ट भोजन करनेवाले मनुष्य को तो भगवान ही काम भाव से बचा सकता है। बापू दादा के मुँह से समूचा ‘लोक’ मुझे एक अविराम चैतन्य सत्य का साक्षात्कार करा रहा था।

दो घटनाएँ याद आ रही हैं। पहली अटलजी से जुड़ी है जो लगभग सर्वज्ञात है। अटलजी आजीवन अविवाहित रहे। एक बार किसी ने उन्हें ब्रह्मचारी कह दिया। अटलजी ने उसे सुधारते हुए सस्मित कहा कि वे ब्रह्मचारी नहीं, अविवाहित हैं। छुटपुट राजनीतिक कटाक्षों को छोड़ दें तो सबने अटलजी की इस आत्मस्वीकृती की सराहना ही की थी। उनके यौन विचलन को सहज मान कर ही सराहना की होगी और आश्चर्य नहीं कि सराहना करते समय खुद को अटलजी की जगह देखा हो। दूसरी घटना सम्भवतः 1961 की है। मैं नवमी कक्षा में था। दादा की वजह से देश के कई अखबार डाक से आते थे। उन्हीं में से किसी एक में यह पढ़ी थी। किसी नगर के बड़े, वयोवृद्ध साहित्यकार का नागरिक अभिनन्दन हुआ था। वे अपने अभिनन्दन के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं थे। लेकिन लोग नहीं माने। वे साहित्यकार सर्वथा अनिच्छापूर्वक, लगभग जबरन आयोजन में उपस्थित हुए। उद्बोधन के लिए माइक के सामने खड़े होते ही धार-धार रोने लगे। रोते-रोते ही उन्होंने कहा कि वे नागरिक अभिनन्दन के नहीं, कुम्भी पाक नरक का दण्ड पाने के अपराधी हैं। उन्होंने  माँ समान भाभी के साथ नारकीय दुष्कृत्य किया था। उनका यह कहना हुआ कि लोगों ने उनके जिन्दाबाद के नारे लगाने शुरु कर दिए और कार्यक्रम समापन पर उन्हें अपने कन्धों पर बैठाकर घर पहुँचाया। 

एक कवि सम्मेलन में यह परिहास सुना था। गाँव में आयोजित नसबन्दी शिविर में पहुँचा एक दम्पत्ति झगड़ रहा था। दोनों अपनी-अपनी नसबन्दी की जिद कर रहे थे। डॉक्टर को अच्छा तो लगा लेकिन उसे महिला की जिद पर आश्चर्य हुआ। उसने महिला को समझाया कि पुरुष सामान्यतः नसबन्दी के लिए तैयार नहीं होते। तू भाग्यशाली है कि तेरा पति खुद तैयार है। महिला ने कहा - ‘डॉक्टर सा’ब! आप मरद हो। नहीं समझोगे। मेरे दो जेठ और तीन देवर हैं। मैं किस-किसकी नसबन्दी कराऊँगी?’ कपोल-कथा समाप्त होते ही स्त्रियों समेत समूचा जनसमुदाय ठहाके मारता हुआ तालियाँ बजा रहा था। 

होली के अनेक भाष्य सुनने-पढ़ने को मिलते हैं। एक भाष्य में इसे हमारी कुण्ठाओं के प्रकटीकरण का ‘सेफ्टी वाल्व’ भी कहा जाता है। साल में एक बार खुले आम गालियाँ देकर हम अपनी कुण्ठाओं से मुक्ति पा लेते हैं। हमने कहा भले ही न हो, कभी न कभी सुना जरूर होगा और सुनकर खूब हँसे भी होंगे - जेठ ने बहू से कहा ‘बहू! याद रखना। साल में एक महीना जेठ का भी होता है।’ 

दो दिन पहले ही, कौन बनेगा करोड़पति का एक वीडियो अंश देखा। हॉट सीट पर बैठी महिला, अपने चहेते अभिनेताओं के नाम बता रही थीं जो उनके सपने में आते हैं। महिला का पति भी श्रोताओं में बैठा था। अमिताभ ने पूछा - ‘आपके पति देवता सपने में नहीं आते?’ महिला ने कहा - ‘नहीं आते।’ अमिताभ ने कहा इसका मतलब हुआ कि वे अपने पति को नहीं चाहतीं। महिला का जवाब था - ‘आप (यहाँ बैठी) हर किसी (स्त्री) से पूछो कि किसके सपने में पतिदेव आता है।’ जवाब तालियों और ठहाकों में डूब गया। हँसनेवालों में उसका पति भी था।

अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी की आत्मकथा ‘एन आर्डिनरी लाइफ-ए मेमॉयर’ इतनी विवादास्पद हो गई कि उन्हें इसकी सारी प्रतियाँ बाजार से वापस लेनी पड़ी। इसमें नवाज ने तीन विवाहित महिलाओं से अपने अन्तरंग सम्बन्धों का नामजद उल्लेख किया था। तीनों महिलाओं ने आपत्ति ली। मामल शायद कोर्ट तक गया। 

ये सारी बातें मैंने सोद्देश्य कही हैं। इनके बहाने मैं कुछ जाने-पहचाने निष्कर्ष दुहराना चाह रहा हूँ। पहला - प्राणी मात्र में काम भावना प्रति पल बनी रहती है। दूसरा - कोई भी मनुष्य, किसी भी विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित हो सकता है। तीसरा - पुरुष प्रधान हमारे समाज में पुरुष को यौनिक स्खलन की छूट, अधिकार भाव से मिली हुई है। चौथा - स्त्री या तो सम्पत्ति है, या वस्तु (क्या चीज है! क्या माल है!) है जो भोग किए जाने के लिए ही बनी है। वह स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं है। उसका अपना कोई अस्तित्व, अपनी कोई इच्छा नहीं है। अपनी यौनेच्छापूर्ति के लिए पुरुष को उससे पूछने, उसकी अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। पाँचवाँ - अपने दुराचार की स्वीकृती पुरुष को न केवल सराहना दिलाती है बल्कि उसे बड़ा और महान् भी बनाती है। छठवाँ - स्त्री के लिए योनि शुचिता अनिवार्य, अपरिहार्य है और इस शुचिता की रक्षा भी उसी की जिम्मेदारी है। कोई पुरुष यदि उसे भंग करता है तो यह स्त्री का ही अपराध होगा और उसका दण्ड उसे ही भोगना होगा। देवता, कपटपूर्वक किसी पतिव्रता का शील भंग करे तो भी पत्थर बनने का दण्ड तो शीलवन्ती, पतिव्रता को ही भुगतना पड़ेगा। 

हम सब पुरुष अपनी जवानी के दिनों को, कॉलेज के जमाने को याद करें। कोर्स के बाहर हम किस विषय पर सर्वाधिक बातें करते थे? मित्र मण्डली में हम सब खुद को ‘कामदेव’ और ‘औरतखोर’ (लेडी किलर) साबित करने की प्रतियोगिता में पहला स्थान पाने की कोशिशें नहीं करते थे? कॉलेज की एक भी लड़की से कभी भी बात नहीं की लेकिन यह जताने में कि कौन-कौन लड़की हमारे लिए मरी जा रही है, शेखचिल्ली के खानदान के आदिपुरुष नहीं बन जाते थे? और, ऐसी बातें अब भी नहीं कर रहे? बुड्ढे बन्दर गुलाटियाँ मारना भूल गए? मौका मिल जाए तो अब भी नहीं मारेंगे?

हाँ। मैं ‘मी टू’ के सन्दर्भ में ही यह सब कह रहा हूँ। ‘तब क्यों नहीं बोली?’ पूछनेवाले, पूछने से पहले भली प्रकार जानते हैं कि ‘वो’ तब क्यों नहीं बोली। तब मुझे-आपको ‘सब कुछ’ करने की छूट, सुविधा और विशेषाधिकार हासिल थे लेकिन ‘उसे’ तो अपनी माँ के सामने भी बोलने की सुविधा नहीं थी। कोई बोली भी तो माँ ने ही उसके मुँह पर हाथ रख दिया - ‘आज तो कह दिया। अब कभी मत कहना।’ आज वह बोल पाई है तो केवल इसलिए कि अपनी जिन्दगी जीने के लिए आज वह ‘आपकी-हमारी’ मोहताज नहीं। और इसलिए बोल पाई कि अब उससे अपनी आत्मा का यह बोझ नहीं सहा जा रहा। वह इसलिए भी अब बोली कि कहीं न कहीं उसे भरोसा हो पाया है कि उसकी कही बात, सुनी भी जाएगी और सच भी मानी जाएगी।

अपने चरित्रवान होने की दाम्भिक दुहाइयाँ तो दीजिए ही मत। हम सब जानते हैं कि हम सब (जी हाँ, हम सब) चरित्रहीन होने को उतावले बैठे हुए हैं। बस, वे ही चरित्रवान बने हुए हैं या कि बनने को मजबूर हैं जिन्हें या तो मौके नहीं मिले या फिर मौके मिले तो हिम्मत नहीं कर पाए। और हाँ! अपवादों की बात तो कीजिए ही नहीं। अपवाद अन्ततः सामान्य नियमों की ही पुष्टि करते हैं।

थोड़े कहे को बहुत समझिएगा। चुप रहने की बारी अब हमारी है। चुप रहिए। वर्ना, काँदे के छिलके उतरते जाएँगे और फजीहत की दुर्गन्ध आसमान पर छा जाएगी। कहीं के नहीं रह जाऍंगे।
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'सुबह सवेरे', भोपाल, 18 अक्‍टूबर 2018