जिन्दा रहने की शर्त - मालिक से मजदूर बन जाओ

कोई अट्ठाईस-तीस बरस का वह नौजवान पत्रकार बहुत व्यथित है। गाँव का है। खेती बहुत कम है। काम के लिए ‘शहर’ आया है। एक अखबार के दफ्तर में बैठता है। अपना मोबाइल मेरी ओर बढ़ाते हुए कहता हे - ‘देखिए! सरकार ने किसानों की क्या हालत बना दी है।  भीख माँगने की सलाह दे रही है। कोई बोलने वाला नहीं।’ वह एक वीडियो शुरु कर देता है - एक आदमी किसानों से घिरा हुआ है। एक किसान फसल का वाजिब मूल्य न मिलने की शिकायत कर रहा है। जवाब में आदमी सलाह दे रहा है - ‘सरकारी भाव से असन्तुष्ट हो तो मनरेगा में मजदूरी कर लो या फिर सरपंच का चुनाव लड़ लो। उसमें ज्यादा फायदा है।’ कह कर अफसर आगे बढ़ जाता है। सारे किसान उसे हैरत से, बेबस, टुकुर-टुकुर देखते रह जाते हैं। नौजवान कहता है - ‘ये राधेश्याम जुलानिया है। चीफ सेक्रेटरी रेंक का है।’ मैं चौंकता हूँ। इतना बड़ा अफसर इतना असम्वेदनशील, क्रूर हो सकता है! मैं लाचार निगाहों से नौजवान को देखता हूँ। वह कहता है - ‘मैं जानता हूँ, आप कुछ नहीं कर सकते। तकलीफ यह है कि जो लोग कुछ कर सकते हैं वो भी कुछ नहीं कर रहे। न तो रूलिंग पार्टी के लोग कुछ बोल रहे हैं न ही अपोजीशन के। मन्त्री भी चुप है और कलेक्टरों को उल्टा टाँगनेवाला मुख्यमन्त्री भी। वो भी जुलानिया से सहमत है। किसान की बात सुनने का टाइम किसी को नहीं। किसान जबरदस्ती सुनाता है तो उसे यह सलाह मिलती है। बस! यही कहने आया था।’

नौजवान चला गया। लेकिन अब मैं क्षुब्ध हूँ। कुछ न कर पाने की अपनी लाचारी पर गुस्सा आ रहा है। मैं किसानी से सीधा तो नहीं जुड़ा लेकिन खेतों-किसानों के बीच खूब रहा हूँ। खलिहानों में गीत गाते, लोक कथाएँ सुनते अनगिनत रातें गुजारी हैं। फसलों के दाने निकालने के लिए दावन और सिंचाई के लिए चड़स खूब हाँकी है। किसानों का दुःख-दर्द बहुत पास से देखा है। इसीलिए राधेश्याम जुलानिया की सलाह बरछी की तरह चुभ रही है। जुलानिया के नाम से अनुमान लगा रहा हूँ, इस आदमी की जड़ें भी देहात में ही हैं। गाँव के कष्ट भली प्रकार जानता ही होगा। लेकिन अफसर बनने के बाद देहातों और देहातियों से इस आदमी को कष्ट होना लगा है। मुझे ताज्जुब नहीं हुआ। राधेश्याम जुलानिया एक नाम नहीं, पूरा एक वर्ग है। मैं पाँच-सात ऐसे आईएस अफसरों को जानता हूँ जिनका बचपन चरम विपन्नता में बीता। माँ-बाप ने मजदूरी करके, रात-रात भर सिलाई करके इन्हें पढ़ाया, अफसर बनाया। लेकिन अफसर बनते ही ये गरीब और गरीबी को भूल गए। इनसे चिढ़ने भी लगे और निर्मम, निष्ठुर, क्रूर हो, आर्थिक अत्याचार करने लगे। ये सबके सब राधेश्याम जुलानिया ही हैं।

स्कूल मेें मास्साब बताते थे - ‘अपना भारत गाँवों का, कृषि प्रधान देश है। अस्सी प्रतिशत लोग गाँवों में रहते हैं।’ ग्राम्य सौन्दर्य का वर्णन करते-करते नारा लगवाते - ‘कहाँ है भारत देश हमारा?’ हम पूरी ताकत से कहते - ‘वो बसा हमारे गाँवों में।’ मैं आँकड़े खँगालने लगता हूँ - 1951 में हमारी जन संख्या 36,10,88,400 थी। 80 प्रतिशत के मान से लगभग 29 करोड़ लोग गाँवों में रहते थे। 2011 में हम 1,21,01,93,422 हो गए। इनमें से लगभग साढ़े 83 करोड़ लोग गाँवों में रहते हैं। याने लगभग 69 प्रतिशत। साठ बरस में हमारी ग्यारह प्रतिशत आबादी ने गाँव छोड़ दिए। अपना गाँव, अपनी जमीन, अपना घर छोड़ते हुए इन लोगों पर क्या गुजरी होगी? पलायन का यह क्रम बना हुआ है। गाँव कम हो रहे हैं, शहरों में झुग्गी-झोंपड़ियाँ बढ़ती जा रही हैं। और शहरों में इनकी दशा क्या है? बजबान अदम गोंडवी -

यूँ खुद की लाश अपने काँधें पर उठाए हैं
ऐ शहर के बाशिन्दों! हम गाँव से आए हैं

ग्राम रायपुरिया निवासी, स्व. ईश्वरलालजी पालीवाल रतलाम के जाने-माने वकील थे। खाँटी समाजवादी थे। बाद में काँग्रेसी हो गए थे। ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है।’ से उन्हें बहुत चिढ़ थी। कहते थे - “इसने किसानों का बहुत नुकसान किया है। ‘कृषि’ के नाम पर सेठों की तिजोरियाँ भर रही हैं। किसान भिखारी हो रहा है। इस नारे को बदलो और ‘भारत कृषक प्रधान देश है।’ पर अमल करो।” अन्तर पूछने पर कहते थे - ‘किसानी अधारित नीतियों का फायदा केवल पूँजीपतियों को मिलता है। नीतियाँ ‘किसान आधारित’ होंगी तभी किसानों को दो पैसे मिलेंगे।’ चौंकानेवाली बात यह कि ऐसी बातें करनेवाले पालीवाल सा‘ब खानदानी धनाढ्य किसान थे। फार्म हाउसों के मालिक किसान नहीं होते लेकिन आय-कर की छूट से मालामाल होते हैं और किसान कर्जदार होकर आत्महत्या करता है। 1992 में देश के 25 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार थे जो 2016 में बढ़कर 89 प्रतिशत हो गए। कुछ राज्यों में यह प्रतिशत 93 है। ग्रामीण जनसंख्या दिनों दिन कम हो रही है और आत्म हत्या करनेवाले किसानों की संख्या वर्ष-प्रति-वर्ष बढ़ती जा रही है। पालीवाल वकील सा‘ब की बात समझ में आती है।

दमोह के केएन कॉलेज के, अर्थशास्त्र के सहायक प्राध्यापक डॉ. तुलसीराम दहायत ने अपने साथी डॉ. केशव टेकराम के साथ तीन वर्ष तक बुन्देलखण्ड के किसानों का जमीनी अध्ययन कर ‘कृषक संकट और समाधान’ शीर्षक किताब लिखी है। इसके अनुसार ऋण-ग्रस्तता और साहूकार की प्रताड़ना किसानों का सबसे बड़ा संकट है। किसान क्रेडिट कार्ड से ऋण लेता है, जमीन गिरवी रखता है लेकिन प्राकृतिक आपदा से फसल नष्ट हो जाती है। किसान सूदखोंरों के चंगुल में फँसता चला जाता है। वह अपने मान-सम्मान से समझौता नहीं करता। आत्म-हत्या कर लेता है। दस-बीस हल-बैल जोड़ीवाला बड़ा किसान ट्रेक्टर से खेती कर रहा है और एक हल-बैल जोड़ीवाला किसान, उसके यहाँ मजदूरी कर रहा है। ‘कृषि’ फल-फूल रही है। ‘कृषक’ आत्म-हत्या कर रहा है।

खेती-किसानी का महिमा-मण्डन करते हुए किताबें कहती थीं - ‘उत्तम खेती, मध्यम बान। अधम चाकरी, भीख निदान।’ आज तस्वीर एकदम उलट है। ‘उत्तम’ को ‘अधम’ होने की सलाह दी जा रही है। मजदूर बढ़ रहे हैं, मजदूरी कम होती जा रही है। मजदूर मण्डियों में रोज पचासों मजदूर, मजदूरी न मिलने से निराश हो कर लौटते हैं। जिसे ‘चाकरी’ भी न मिले वह क्या करे? भीख माँगे या आत्म-हत्या कर ले।

डी. पी. धाकड़ मेरे जिले के जिला पंचायत के उपाध्यक्ष हैं। पर्याप्त अन्तराल से हुई, जिला पंचायत की, एक के बाद एक हुई बैठकों में उन्होंने पाया कि पंचों के फैसलों का क्रियान्वयन नहीं हो रहा और पूछने पर अफसर, किसान प्रतिनिधियों का मजाक उड़ाते हैं। एक शनिवार को उन्होंने घोषणा की - ‘अब हम लोगों के बीच जाकर इन अफसरों का मजाक उड़ाएँगे।’ असर यह हुआ कि अगले दिन रविवार होने के बावजूद, पंचों के फैसलों पर क्रियान्वयन शुरु हो गया।

यही किसानों की  मुक्ति का रास्ता है। हमारी राजनीति किसान केन्द्रित होनी चाहिए। किसान ही राष्ट्रीय नीति निर्धारण का नायक और लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन यह बात किसानों को ही समझनी पड़ेगी। दलगत राजनीति केवल वोट देने तक ही रहनी चाहिए। उसके बाद तो वह किसान केन्द्रित ही होनी चाहिए। अपनी समस्याओं के निदान के लिए उन्हें ‘किसान नीति’ अपनानी पड़ेगी। उन्हें समझना होगा कि प्राकृतिक आपदा से भाजपाई और काँग्रेसी किसान को समान नुकसान होता है। दलगत राजनीति उनका भला कभी नहीं करेगी। जिस दिन किसान यह ‘किसान नीति’ अपना लेंगे उस दिन से, पाँच साल में एक बार मुँह दिखाने वाले तमाम नेता उनके दरवाजों पर चाकर की तरह खड़े और सारे के सारे राधेश्याम जुलानिया अपना वेतन पाने के लिए गुहार लगाते नजर आएँगे।
-----

दैनिक 'सुबह सवेरे',  भोपाल,  30 नवम्‍बर 2017



7 comments:

  1. जुलानिया जी को मैं निजी रुप से जानती हूँ वो एक सवेंदनशील व्यक्ति है। उनका ऐसा व्यवहार अविश्वसनीय है। जितना मुझे पता है वो एक ईमानदार और अच्छे अधिकारी है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आप ठीक ही कह रही होंगी।
      जुलानियाजी से मेरा न तो परिचय है न ही उनसे कभी सम्पर्क हुआ है। उनके बारे में मेरी अपनी कोई धारणा, कोई राय नहीं। उस वीडियो में वे उपहासभरी मुख मुद्रा में उस किसान को सलाह देते नजर आए वह अत्यधिक क्षोभजनक, पीड़ादायक, सर्वथा अकल्पनीय, अशोभनीय है।

      Delete
  2. किसान कभी "किसान वोटबैंक" इस देश मे हुआ ही नही, वो तो जातिगत वोटबैंक और दलगत या धार्मिक वोटबैंक ही रहा है, दरअसल अधिकतर किसान को पता ही नही की सरकारी नीतियां किस तरह उस पर प्रभाव डालती है। जहाँ तक नौकरशाही की बात है तो एक जबाब में डॉ अब्दुल कलाम ने कहा था कि माइंडलेस ब्यूरोक्रेसी इस देश की प्रमुख समस्याओं में से एक है, यहां मैं अपने आसपास देखता हूं कि लोक सेवा आयोग की परीक्षा निकालने के बाद लोगों के दहेज के रेट 10-20 गुना बढ़ जाते हैं, यह लोग आगे चलकर कैसे ईमानदार या संवेदनशील अफसर बनेंगे ।

    ReplyDelete
  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-12-2017) को खोज रहा बाहर मनुज, राहत चैन सुकून : चर्चामंच 2804 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  4. samwdanshil mudde par lekhan behad satik aur sach ko dikhata hua....

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.