देश-भक्ति के 'पर-उपदेश'

पाँच दिवसीय दीपोत्सव समाप्त हो चुका था। अगले दिन छोटी दीपावली थी। मालवा के कस्बाई बाजार छोटी दीपावली तक प्रायः गुलजार ही रहते हैं। लेकिन मेरे कस्बे के सारे बाजारों की अधिकांश दुकानें बन्द थीं। बाजार में उठाव बिलकुल नहीं था। मौसम में ठण्डक की खुनक तनिक भी नहीं थी लेकिन व्यापार शीत लहर की जकड़न में था। कस्बे के मुख्य बाजार से मैं अपनी धुन में, धीरे-धीरे गुजर रहा था कि अपने नाम की हाँक सुनकर स्कूटर का ब्रेक मानो अपने आप लग गए। हाँक की दिशा में देखा - किराने की एक बड़ी दुकान पर बैठे चार लोगों में से एक, हाथ हिलाकर मुझे बुला रहा है। पहचानने में देर नहीं लगी।  मुझसे कोई पन्द्रह बरस छोटा यह व्यापारी अनूठा है। इसकी आत्मा मानो हरिशंकर परसाई और शरद जोशी की पड़ोसन रही हो। इससे बतियाना मुझे सदैव अच्छा लगता है। हर बार, कोई न कोई ‘मसाला’ लेकर ही लौटता हूँ। इसकी जिस बात का मैं कायल हूँ वह है - इसकी, खुद पर हँसने की, खुद की खिल्ली उड़ाने की क्षमता और शक्ति। किसी की हँसी उड़ाने से पहले यह खुद पर हँसता है। मुझ पर अतिरिक्त महरबान है। बात-बात में, मेरी सहमति हासिल करने के लिए ‘हे के नी बेरागीजी?’ (है कि नहीं बैरागीजी?) का तकिया कलाम कुछ इस तरह वापरता है जैसे कि मित्र ‘द्दे त्ताली’ कहकर हाथ बढ़ाते हैं। 

चार में से एक तो खुद दुकान मालिक था। दो सराफा व्यापारी थे। चौथा यह था - कपड़ा व्यापारी। चारों फुरसत में थे। चारों, पोहे के साथ कारु मामा की कचोरी का नाश्ता करके चाय पीनेवाले थे। इसने पूछा - ‘चाय तो पीयेंगे ना?’ मैं कुछ कहता उससे पहले दूसरा बोला - ‘पागल! यह भी कोई पूछने की बात है?’ मुझे फौरन समझ आ गया कि मुझे निर्णय लेने की छूट और सुविधा हासिल नहीं है। 

वे सब मेरे पहुँचने से पहले गपिया रहे थे। बात का अन्तिम सिरा निश्चय ही इसी के पास था। बोला - ‘हाँ तो मैं क्या कह रहा था? हाँ! मैं कह रहा था कि  अपना एक भी सांसद-विधायक देश-भक्त नहीं है।’ मेरे कान खड़े हो गए। चारों के चारों, अपने शरीर की चमड़ी की सात-सात तहों तक कट्टर भाजपाई। देश-प्रदेश में भाजपा की सरकारें, मेरे जिले के पाँच में से चार विधायक भाजपाई और यह सबको एक घाट पानी पिला रहा? मेरी परवाह किए बिना वे चारों शुरु हो गए -
“एक भी एमपी-एमएलए देश-भक्त नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है? और तुझे कैसे मालूम?”

“अरे! मुझे कैसे मालूम? सारी दुनिया को तो मालूूम और तुझे नहीं मालूम? तू कौन सी दुनिया में रहता है?”

“चल! मैं बेवकूफ सही। लेकिन तुझे कैसे मालूम? बता!”

“तेने जेटली की बात नहीं सुनी?”

“कौन सी बात?”

“लो! इसकी सुनो! इसने जेटली की बात नहीं सुनी।”

“चल यार! मान ले कि इसने नहीं सुनी। तू बता! बात क्या है?”

“अरे! तू भी इसमें शामिल हो गया? तेने भी नहीं सुनी? कैसे व्यापारी हो यार तुम? अरे! जो जेटली व्यापारी तो ठीक, तमाम व्यापारियों के पूरे खानदान के सपने में आ रहा है उसकी बात तुम दोनों ने नहीं सुनी! धिक्कार है रे तुम दोनों को।”

“अरे यार! तेरे साथ यही मुश्किल है। चल! हमें धिक्कार ही सही। लेकिन बात तो बता।”

“अरे! जेटली ने कहा है कि टेक्स चुकाना देश-भक्ति है। तुमने नहीं सुना।”

“हाँ। ये तो अखबार में पढ़ा है।”

“हाँ। हाँ। मैंने भी पढ़ा है। लेकिन इसमें एमपी-एमएलए कहाँ से आ गए?”

“क्यों? जेटली ने इनका नाम नहीं लिया इसलिए ऐसा कह रहे हो? थोड़ी खोपड़ी लगाओगे तो मान लोगे कि जेटली ने पूरी दुनिया को बता दिया है हिन्दुस्तान का एक भी एमपी-एमएलए देश-भक्त नहीं है।”

“चल यार! हम बट्ठड़ खोपड़ीवाले, बेअक्कल सही। तू ही बता दे।”

“अच्छा बता! अपने एमपी लोग अपने वेतन-भत्तों पर इनकम टेक्स चुकाते हैं?”

“हाँ यार! एक भी नहीं चुकाता। सरकार ने कानून बना कर इनको इनकम टेक्स से बरी कर रखा है। अब तेरी पूरी बात समझ में आ गई।”

“अपना एक भी एमएलए चुकाता है?”

“हाँ यार! बाकी  का तो नहीं मालूम लेकिन अपने एमपी के एमएलए तो नहीं चुकाते।”

“अब बता! जेटली ने कहा कि नहीं कि अपने एमपी-एमएलए देश-भक्त नहीं हैं?”

“हाँ यार! जेटली का बात का मतलब तो यही है। इन सबका टेक्स तो अपन लोग चुकाते हैं।”

“खाली टेक्स ही नहीं चुकाते। अपन सब एक काम और करते हैं।”

“क्या? कौन सा काम?”

“ये सब हमें देश-भक्ति का डोज देते हैं और खुद देश-भक्ति नहीं निभाते। उल्टे रोज किसी न किसी को देशद्रोही होने का सर्टिफिकेट देकर पाकिस्तान भेजते रहते हैं। ये ऐसे देश-भक्त हैं जिनकी देश-भक्ति तुम-हम सब निभा रहे हैं। इनमें से एक भी देश-भक्त नहीं और अपन सब के सब दुगुने देश-भक्त। (मुझे सम्बोधित करते हुए) है कि नहीं बैरागीजी?”

“तुम्हारे फार्मूले के हिसाब से तो तुम्हारी ही बात सही है सेठ।” मुझे कहना पड़ा।

“आप बुद्धिजीवियों के साथ यही परेशानी है। डर-डर कर बात करते हो। वो परसाईजी की बात आपने ही सुनाई थी ना?”

“कौन सी बात?”

“अरे वही कि अपने बुद्धिजीवी लोग हैं तो बब्बर शेर लेकिन वो सियारों के जलसों-जुलूसों में बेण्ड बजाते हैं।”

मुझसे कुछ बोलते नहीं बना। खिसिया कर चुप रह गया।

लेकिन वह चुप नहीं हुआ। हम सबको सम्बोधित करते हुए बोला - “ये अपने नेता लोग बड़े-बड़े भाषण देते हैं, चिल्लाते हैं, शिकायत करते हैं कि देश के लोग उनकी नहीं सुनते। कैसे सुनें? मैं कट्टर भाजपाई हूँ लेकिन मैं भी नहीं सुनता। क्यों सुनूँ? गला कटवाने के लिए हम ही हम! तुम क्या करोगे? तुम तो फाइव स्टार में मजे मारोगे, ए सी कारों में घूमोगे, खुद टेक्स नहीं भरोगे, अपना टेक्स हमसे भरवाओगे और उपदेश दोगे कि टेक्स भरना देश-भक्ति है! क्यों? देश-भक्ति  का ठेका हमारा ही है? तुम्हारा नहीं? ये देश तुम्हारा नहीं? ‘भटजी भटे खाएँ, औरों को परहेज बताएँ।’ खुद तो मुट्ठियाँ भर-भर गुड़ खाएँगे और हमें गुलगुले खाने से रोकेंगे। ये समझते हैं कि हममें अकल नहीं है, हम बेवकूफ हैं। अरे! पार्टी से बँधे होने के कारण हम कुछ बोलते नहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम कुछ समझते भी नहीं। हम भी रोटी खाते हैं। घास नहीं। है कि नहीं बैरागीजी?”

उसकी बातें सुन, उसके तेवर देख मेरी तो मानो घिघ्घी बँध गई। हाँ कहते बने न ना। बाकी तीनों व्यापारी भी सकपकाए, सहमे मानो गूँगे हो गए हों। हम सबकी दशा देख मानो वह होश में आया हो। बोला - “इस पार्टी लाइन ने पूरे देश का भट्टा बैठा रखा है। गलत को गलत नहीं कह सकते वहाँ तक तो फिर भी ठीक है लेकिन गलत को सही कहना, ये न तो पार्टी लाइन है न ही देश की लाइन। दल से पहले देश की दुहाई तो सब देते हैं लेकिन सबके सब, पार्टी को तो छोड़ो, खुद को सबसे पहले मानते हैं। अब, जब देश से पहले नेता हो जाए तो देश का तो भट्टा बैठना ही बैठना है और यह भट्टा बैठाने में सबसे पहले हम शरीक हैं। है कि नहीं बैरागीजी?”

बात सौ टका सही थी। मेरे मन की। मैं कुछ सोचूँ उससे पहले ही मेरे मुँह से निकला - हाँ।
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दैनिक 'सुबह सवेरे' भोपाल, 02 नवम्‍बर 2017



2 comments:

  1. बहुत सही रग को पकड़ा दादा मज़ा आ गया।

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  2. पर उपदेश कुशल बहुतेरे
    ये पुरानी परंपरा है । आजकल के नेता दो मुंह वाले साँप से कम नही

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