जिन्दा रहने की शर्त - मालिक से मजदूर बन जाओ

कोई अट्ठाईस-तीस बरस का वह नौजवान पत्रकार बहुत व्यथित है। गाँव का है। खेती बहुत कम है। काम के लिए ‘शहर’ आया है। एक अखबार के दफ्तर में बैठता है। अपना मोबाइल मेरी ओर बढ़ाते हुए कहता हे - ‘देखिए! सरकार ने किसानों की क्या हालत बना दी है।  भीख माँगने की सलाह दे रही है। कोई बोलने वाला नहीं।’ वह एक वीडियो शुरु कर देता है - एक आदमी किसानों से घिरा हुआ है। एक किसान फसल का वाजिब मूल्य न मिलने की शिकायत कर रहा है। जवाब में आदमी सलाह दे रहा है - ‘सरकारी भाव से असन्तुष्ट हो तो मनरेगा में मजदूरी कर लो या फिर सरपंच का चुनाव लड़ लो। उसमें ज्यादा फायदा है।’ कह कर अफसर आगे बढ़ जाता है। सारे किसान उसे हैरत से, बेबस, टुकुर-टुकुर देखते रह जाते हैं। नौजवान कहता है - ‘ये राधेश्याम जुलानिया है। चीफ सेक्रेटरी रेंक का है।’ मैं चौंकता हूँ। इतना बड़ा अफसर इतना असम्वेदनशील, क्रूर हो सकता है! मैं लाचार निगाहों से नौजवान को देखता हूँ। वह कहता है - ‘मैं जानता हूँ, आप कुछ नहीं कर सकते। तकलीफ यह है कि जो लोग कुछ कर सकते हैं वो भी कुछ नहीं कर रहे। न तो रूलिंग पार्टी के लोग कुछ बोल रहे हैं न ही अपोजीशन के। मन्त्री भी चुप है और कलेक्टरों को उल्टा टाँगनेवाला मुख्यमन्त्री भी। वो भी जुलानिया से सहमत है। किसान की बात सुनने का टाइम किसी को नहीं। किसान जबरदस्ती सुनाता है तो उसे यह सलाह मिलती है। बस! यही कहने आया था।’

नौजवान चला गया। लेकिन अब मैं क्षुब्ध हूँ। कुछ न कर पाने की अपनी लाचारी पर गुस्सा आ रहा है। मैं किसानी से सीधा तो नहीं जुड़ा लेकिन खेतों-किसानों के बीच खूब रहा हूँ। खलिहानों में गीत गाते, लोक कथाएँ सुनते अनगिनत रातें गुजारी हैं। फसलों के दाने निकालने के लिए दावन और सिंचाई के लिए चड़स खूब हाँकी है। किसानों का दुःख-दर्द बहुत पास से देखा है। इसीलिए राधेश्याम जुलानिया की सलाह बरछी की तरह चुभ रही है। जुलानिया के नाम से अनुमान लगा रहा हूँ, इस आदमी की जड़ें भी देहात में ही हैं। गाँव के कष्ट भली प्रकार जानता ही होगा। लेकिन अफसर बनने के बाद देहातों और देहातियों से इस आदमी को कष्ट होना लगा है। मुझे ताज्जुब नहीं हुआ। राधेश्याम जुलानिया एक नाम नहीं, पूरा एक वर्ग है। मैं पाँच-सात ऐसे आईएस अफसरों को जानता हूँ जिनका बचपन चरम विपन्नता में बीता। माँ-बाप ने मजदूरी करके, रात-रात भर सिलाई करके इन्हें पढ़ाया, अफसर बनाया। लेकिन अफसर बनते ही ये गरीब और गरीबी को भूल गए। इनसे चिढ़ने भी लगे और निर्मम, निष्ठुर, क्रूर हो, आर्थिक अत्याचार करने लगे। ये सबके सब राधेश्याम जुलानिया ही हैं।

स्कूल मेें मास्साब बताते थे - ‘अपना भारत गाँवों का, कृषि प्रधान देश है। अस्सी प्रतिशत लोग गाँवों में रहते हैं।’ ग्राम्य सौन्दर्य का वर्णन करते-करते नारा लगवाते - ‘कहाँ है भारत देश हमारा?’ हम पूरी ताकत से कहते - ‘वो बसा हमारे गाँवों में।’ मैं आँकड़े खँगालने लगता हूँ - 1951 में हमारी जन संख्या 36,10,88,400 थी। 80 प्रतिशत के मान से लगभग 29 करोड़ लोग गाँवों में रहते थे। 2011 में हम 1,21,01,93,422 हो गए। इनमें से लगभग साढ़े 83 करोड़ लोग गाँवों में रहते हैं। याने लगभग 69 प्रतिशत। साठ बरस में हमारी ग्यारह प्रतिशत आबादी ने गाँव छोड़ दिए। अपना गाँव, अपनी जमीन, अपना घर छोड़ते हुए इन लोगों पर क्या गुजरी होगी? पलायन का यह क्रम बना हुआ है। गाँव कम हो रहे हैं, शहरों में झुग्गी-झोंपड़ियाँ बढ़ती जा रही हैं। और शहरों में इनकी दशा क्या है? बजबान अदम गोंडवी -

यूँ खुद की लाश अपने काँधें पर उठाए हैं
ऐ शहर के बाशिन्दों! हम गाँव से आए हैं

ग्राम रायपुरिया निवासी, स्व. ईश्वरलालजी पालीवाल रतलाम के जाने-माने वकील थे। खाँटी समाजवादी थे। बाद में काँग्रेसी हो गए थे। ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है।’ से उन्हें बहुत चिढ़ थी। कहते थे - “इसने किसानों का बहुत नुकसान किया है। ‘कृषि’ के नाम पर सेठों की तिजोरियाँ भर रही हैं। किसान भिखारी हो रहा है। इस नारे को बदलो और ‘भारत कृषक प्रधान देश है।’ पर अमल करो।” अन्तर पूछने पर कहते थे - ‘किसानी अधारित नीतियों का फायदा केवल पूँजीपतियों को मिलता है। नीतियाँ ‘किसान आधारित’ होंगी तभी किसानों को दो पैसे मिलेंगे।’ चौंकानेवाली बात यह कि ऐसी बातें करनेवाले पालीवाल सा‘ब खानदानी धनाढ्य किसान थे। फार्म हाउसों के मालिक किसान नहीं होते लेकिन आय-कर की छूट से मालामाल होते हैं और किसान कर्जदार होकर आत्महत्या करता है। 1992 में देश के 25 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार थे जो 2016 में बढ़कर 89 प्रतिशत हो गए। कुछ राज्यों में यह प्रतिशत 93 है। ग्रामीण जनसंख्या दिनों दिन कम हो रही है और आत्म हत्या करनेवाले किसानों की संख्या वर्ष-प्रति-वर्ष बढ़ती जा रही है। पालीवाल वकील सा‘ब की बात समझ में आती है।

दमोह के केएन कॉलेज के, अर्थशास्त्र के सहायक प्राध्यापक डॉ. तुलसीराम दहायत ने अपने साथी डॉ. केशव टेकराम के साथ तीन वर्ष तक बुन्देलखण्ड के किसानों का जमीनी अध्ययन कर ‘कृषक संकट और समाधान’ शीर्षक किताब लिखी है। इसके अनुसार ऋण-ग्रस्तता और साहूकार की प्रताड़ना किसानों का सबसे बड़ा संकट है। किसान क्रेडिट कार्ड से ऋण लेता है, जमीन गिरवी रखता है लेकिन प्राकृतिक आपदा से फसल नष्ट हो जाती है। किसान सूदखोंरों के चंगुल में फँसता चला जाता है। वह अपने मान-सम्मान से समझौता नहीं करता। आत्म-हत्या कर लेता है। दस-बीस हल-बैल जोड़ीवाला बड़ा किसान ट्रेक्टर से खेती कर रहा है और एक हल-बैल जोड़ीवाला किसान, उसके यहाँ मजदूरी कर रहा है। ‘कृषि’ फल-फूल रही है। ‘कृषक’ आत्म-हत्या कर रहा है।

खेती-किसानी का महिमा-मण्डन करते हुए किताबें कहती थीं - ‘उत्तम खेती, मध्यम बान। अधम चाकरी, भीख निदान।’ आज तस्वीर एकदम उलट है। ‘उत्तम’ को ‘अधम’ होने की सलाह दी जा रही है। मजदूर बढ़ रहे हैं, मजदूरी कम होती जा रही है। मजदूर मण्डियों में रोज पचासों मजदूर, मजदूरी न मिलने से निराश हो कर लौटते हैं। जिसे ‘चाकरी’ भी न मिले वह क्या करे? भीख माँगे या आत्म-हत्या कर ले।

डी. पी. धाकड़ मेरे जिले के जिला पंचायत के उपाध्यक्ष हैं। पर्याप्त अन्तराल से हुई, जिला पंचायत की, एक के बाद एक हुई बैठकों में उन्होंने पाया कि पंचों के फैसलों का क्रियान्वयन नहीं हो रहा और पूछने पर अफसर, किसान प्रतिनिधियों का मजाक उड़ाते हैं। एक शनिवार को उन्होंने घोषणा की - ‘अब हम लोगों के बीच जाकर इन अफसरों का मजाक उड़ाएँगे।’ असर यह हुआ कि अगले दिन रविवार होने के बावजूद, पंचों के फैसलों पर क्रियान्वयन शुरु हो गया।

यही किसानों की  मुक्ति का रास्ता है। हमारी राजनीति किसान केन्द्रित होनी चाहिए। किसान ही राष्ट्रीय नीति निर्धारण का नायक और लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन यह बात किसानों को ही समझनी पड़ेगी। दलगत राजनीति केवल वोट देने तक ही रहनी चाहिए। उसके बाद तो वह किसान केन्द्रित ही होनी चाहिए। अपनी समस्याओं के निदान के लिए उन्हें ‘किसान नीति’ अपनानी पड़ेगी। उन्हें समझना होगा कि प्राकृतिक आपदा से भाजपाई और काँग्रेसी किसान को समान नुकसान होता है। दलगत राजनीति उनका भला कभी नहीं करेगी। जिस दिन किसान यह ‘किसान नीति’ अपना लेंगे उस दिन से, पाँच साल में एक बार मुँह दिखाने वाले तमाम नेता उनके दरवाजों पर चाकर की तरह खड़े और सारे के सारे राधेश्याम जुलानिया अपना वेतन पाने के लिए गुहार लगाते नजर आएँगे।
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दैनिक 'सुबह सवेरे',  भोपाल,  30 नवम्‍बर 2017



कानून का राज: राज का कानून

अपनी रिपोर्ट लिखवाने के लिए भोपाल की बालात्कार पीड़ीता को तीन थानों के चक्कर लगाने पड़े। पूरे चौबीस घण्टों के बाद उसे सफलता मिल पाई। यह, कोई अनोखी घटना नहीं। लेकिन इस मामले में यह महत्वपूर्ण है कि इस बच्ची के माता-पिता, दोनों ही पुलिसकर्मी हैं। तीनों थानों के कर्मचारी भी यह बात जानते ही होंगे। इसके बाद भी, अपने ही सहकर्मी की बेटी की रिपार्ट लिखने को कोई तैयार नहीं हुआ। इंकार करनेवाला प्रत्येक पुलिसकर्मी भली प्रकार जानता रहा ही होगा कि उसके इंकार की सजा उसे मिल सकती है। इसके बाद भी रिपोर्ट नहीं लिखी गई। इसके पीछे वास्तविक कारण तो इंकार करनेवाले ही जानते होंगे लेकिन एक कारण, कर्मचारियों के मन में बैठा यह भय जरूर रहा होगा कि कोई ‘जबरा आदमी’ इस काण्ड से जुड़ा हुआ निकल आया तो उसकी नौकरी पर बन आएगी। हमारा  कानून शकल देखकर तिलक निकालता है।

वर्णिका कुण्डू का मामला जिस तेजी से उछला था, उससे अधिक तेजी से नेपथ्य में चला गया है। वर्णिका के आईएएस पिता कानून जानते हैं। इसीलिए अपनी हदें भी जानते हैं। कानून ने वर्णिका की कितनी सहायता की, यह भले ही किसी को नजर न आया हो किन्तु कानून के तहत वर्णिका के पिता का तबादला सबको नजर आया। कानून ने अभी अपनी इतनी ही जिम्मेदारी निभाई है। बाकी जिम्मेदारी कैसे निभानी है, यह बाद में देखा जाएगा।   

पत्रकार विनोद वर्मा को पुलिस ने रात तीन बजे उनके दिल्ली स्थित निवास से गिरफ्तार कर लिया। किसी ने उनकी नामजद शिकायत नहीं की, न ही किसी एफआईआर में उनका नाम है और न ही पुलिस, अदालत में उनके विरुद्ध अब तक कोई पुख्ता दस्तावेज पेश कर पाई है। विनोद वर्मा फिलहाल 27 नवम्बर तक न्यायिक हिरासत में हैं। माना जा रहा है कि छत्तीसगढ़ के एक ‘जबरे’ मन्त्री की कोई ऐसी सीडी वर्मा के पास है जिसमें इस मन्त्री के कपड़े उतरे हुए हैं और यह सीडी इस मन्त्री को कुर्सी से उतार सकती है। अन्देशे का मारा कानून स्वस्फूर्त भाव से सक्रिय बना हुआ है।

एक देहाती मेले के उद्घाटन समारोह में रतलाम ग्रामीण विधान सभा क्षेत्र के विधायक ने बन्दूक से हवाई फायर किया। कानून में ऐसा करने की अनुमति नहीं है। लेकिन बन्दूक का धमाका कानून को सुनाई नहीं दिया, न ही अखबार में छपा फोटू और समाचार देखने में आया। यह संयोग ही है कि विधायकजी सत्तारूढ़ दल के हैं। 

कोई आठ-दरस बरस पहले, वेलेण्टाइन डे पर मेरे कस्बे के बजरंगियों ने भारतीय संस्कृति बचाने के पराक्रम में ऐसा कुछ कर दिया था कि उनमें से कुछ को पुलिस ने थाने में बैठा लिया। मेरे प्रिय मित्र विष्णु त्रिपाठी तब भाजपा के प्रभावशाली नेता हुआ करते थे। कानून को समझाने में उन्हें थोड़ी मेहनत करनी पड़ी। देर शाम वे कानून को भरोसा दिलाने में कामयाब हो पाए कि ‘कुछ अज्ञात असामाजिक तत्व’ प्रदर्शन में घुस आए थे और उन्हीं ने वह पराक्रम किया था जो बजरंगियों के खाते में जमा किया जा रहा था। और सारे पराक्रमी थाने से बाहर आ गए।

पूर्व केन्द्रीय मन्त्री यशवन्त सिन्हा ने अपनी ही पार्टी को ‘भई गति साँप, छछूंदर केरी’ वाली दशा में खड़ा कर रखा है। पार्टी न निगल पा रही न उगल पा रही। पेरेडाइज पेपर्स में जयन्त सिन्हा के नामोल्लेख ने (यशवन्त) सिन्हा-संतप्तों को मानो संजीवनी बूटी दे दी - बेटे के नाम पर बाप की बोलती बन्द की जा सकेगी। लेकिन एक बेटे के बाप ने दूसरे बाप को उसका बेटा याद दिला दिया। याद दिलाया कि कानून तो सबके लिए एक जैसा होता है। इसलिए ‘पेरेडाइज’ में जगह पानेवाले जयन्त की जाँच के साथ ही, 50 हजार को, चुटकियों में सोलह हजार गुना के पेरेडाइज में बदलने वाले ‘जादूगर-जय’ भी जाँच होनी चाहिए। यशवन्ती-माँग ने कानून को उहापोह में डाल दिया है - ‘माँग सुने या न सुने?’ सुने तो अपनी भी जाँघ उघड़ जाए। न सुने तो बूमरेंग की चोट सहनी पड़े। फिलहाल कानून, अपनी लैंगिक पहचान छुपाए, दुम दबाकर कन्दरा में बैठ गया है। 

अपनी ईमानदारी और कानूनपेक्षी आचरण के लिए ख्यात, हरियाणा के आईएएस अधिकारी अशोक खेमका एक बार फिर स्थानान्तरित कर दिए गए हैं। छब्बीस बरस की नौकरी में यह उनका इक्यावनवाँ तबादला है। याने प्रति छः माह में एक। सरकार काँग्रेसी रही हो या भाजपाई, सबने कानूनी व्यवस्था के अनुसार ही उनका तबादला किया। सारी पार्टियाँ उनकी मुक्त कण्ठ प्रशंसक रही हैं - काँग्रेसी सरकारों में भाजपा और भाजपा सरकारों में काँग्रेस। कानून का सन्देश - जिस अफसर की ईमानादरी की प्रशंसक तमाम पार्टियाँ हों, उसका तबदला हर छः महीनों में किया ही जाना चाहिए। जिनका ऐसा तबादला नहीं किया जाता, उनके (पाक-साफ होने के) बारे में कानून कुछ नहीं कह कर सब कुछ कह देता है। कानून की यही खूबी है।

दरअसल सारा झगड़ा ‘कानून का राज’ और ‘राज का कानून’ को लेकर है। कानून का राज किसी राज को नहीं सुहाता और राज का कानून राज के सिवाय किसी और को नहीं सुहाता। राज के लाभार्थी प्रत्येक समय में मौजूद रहते हैं। परम मुदित मन और अन्ध-भक्ति-भाव से राज के कानून की हिमायत करते रहते हैं। हमारा ‘लोक’ इनसे हर काल में त्रस्त रहता है और इन्हें चाटुकार, चमचे, चापलूस कहता है। कानून का राज चलाने में चैन की नींद सोया जा सकता है, लोक-यश अर्जित किया जा सकता है, दुआएँ ली जा सकती हैं। लेकिन राज की स्वार्थपूर्ति नहीं हो पाती, अपनों को उपकृत नहीं किया जा सकता, मनमानी नहीं की जा सकती। तब ‘राज’ आत्म-मुग्ध हो, उच्छृंखल, उन्मादी, उन्मत्त हो, पागल हाथी की तरह अपनों को ही रौंदने लगता है। इसीलिए हमारा ‘लोक’ लौह महिला इन्दिरा गाँधी, उदार दक्षिणपंथी अटलबिहारी वाजपेयी, सन्त राजनेता मनमोहनसिंह को कूड़े के ढेर पर फेंक देता है। तब राज को सौ जूते भी खाने पड़ते हैं और सौ प्याज भी - जैसा कि अभी-अभी हमने जीएसटी के मामले में देखा है। राज का कानून अपनी ही संस्थाओं की खिल्ली उड़वाता है। सीबीआई कभी काँग्रेस का तो कभी भाजपा का तोता कही जाती है। चुनाव आयोग लोक-उपहास का पात्र बन जाता है। राज का कानून हर बार साबित करता है कि कानून का राज ही एक मात्र और अन्तिम उपाय है। किन्तु वह राज ही क्या जो पथ-भ्रष्ट और मद-मस्त न कर दे! सेवक-भाव सहित राज सिंहासन पर बैठने से पहले चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करना पड़ता है। वर्ना, सम्पूर्ण सत्ता तो सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती ही है। करेगी ही।

जानते तो सब हैं लेकिन कबूल कोई नहीं करता। कोई नहीं मानता। इसीलिए ‘लोक’ सनातन से चेतावनी देता चला आ रहा है - ‘किस मुगालते में हो? राज तो रामजी का भी नहीं रहा और घमण्ड कंस का भी नहीं रहा।’ 

लेकिन कानून का राज हमें भी तो नहीं सुहाता! उसके लिए हम भी तो कीमत चुकाने को तैयार नहीं। और बिना कीमत चुकाए कुछ मिलता नहीं। हम लोग बिना कीमत चुकाए सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। इसीलिए हमें कुछ भी हासिल नहीं हो रहा। अपनी यह नियति हमने ही तय की है।
हम सब, अपने खाली हाथों के लिए दूसरों को कोसने में माहिर हैं। इसी में व्यस्त भी हैं और इसी में मस्त भी। लोकतन्त्र में ‘नागरिक’ खुद अपना राजा होता है। लेकिन हम ‘प्रजा’ बन कर खुश हैं। हम ‘नागरिक’ बनेंगे तो ही कानून का राज आ पाएगा। हम कानून के राज में जीएँ या राज के कानून में, यह हमें ही तय करना है
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 16 नवम्बर 2017)



दस ग्राम हींग सफेद रही, करोड़ों रुपये काले हो गए

मेरे कस्बे के ‘श्री अन्नपूर्णा अन्नक्षेत्र ट्रस्ट बोर्ड’ द्वारा संचालित वृद्धाश्रम में जो भी एक बार दान देता है, वह आजीवन यहाँ दान देते रहता है। यहाँ दान  के समारोह आयोजित करने, फोटो खींचने की अनुमति नहीं और यहाँ रहनेवाला निःशक्त, निराश्रित यदि भीख माँगता नजर आए तो तत्काल निकाल दिया जाता है। ‘समारात्मक समाचार’ के खोजी पत्रकारों के लिए यह बहुत ही बढ़िया ‘न्यूज स्टोरी’ है। कहने को इसका संचालन एक ट्रस्ट करता है लेकिन वस्तुतः यहाँ का प्रख्यात ‘सुरेका परिवार’ ही इसका संचालन-प्रबन्धन करता है। यहाँ दान की रकम पर आय कर में छूट मिलने का प्रावधान है। आय कर विभाग के सक्षम अधिकारी से इस प्रावधान का नवीकरण कराना पड़ता है। 

कुछ बरस पहले, नवीकरण आदेश प्राप्त करने के लिए सुरेन्द्र भाई सुरेका उज्जैन स्थित आय कर कार्यालय पहुँचे। कोई युवा आईआरएस अधिकारी वहाँ आई-आई ही थीं। उन्हें लगता था कि ऐसे ट्रस्ट काले धन को सफेद करने की दुकानें हैं। सुरेन्द्र भाई को भी उन्होंने इसी नजर से देखा और ट्रस्ट का, पिछले पाँच वर्षों का हिसाब प्रस्तुत करने के लिए अगली तारीख दे दी। निर्धारित तारीख को सुरेन्द्र भाई एक छोटा-मोटा गट्ठर लेकर पहुँचे। अधिकारी के पूछने पर सुरेन्द्र भाई ने कहा कि वे चालीस बरसों का हिसाब लाए हैं। गट्ठर में छपी हुई चालीस किताबें थीं। हर बरस के हिसाब की एक किताब। कुछ के पन्ने पलटने के बाद अधिकारी ने न कुछ देखा, न कुछ पूछा। अपने हेण्ड बेग में से कुछ रुपये निकाले, सुरेन्द्र भाई को थमाए और दफ्तर में मौजूद सारे आय-कर सलाहकारों को आदेशित किया कि वे सब इस ट्रस्ट को अभी ही अपनी-अपनी दान राशि दें। क्योंकि ‘किसी ट्रस्ट का ऐसा व्यवस्थित काम-काज उन्होंने पहली बार देखा है और ऐसे ट्रस्ट को तो मदद करनी ही चाहिए।’ वार्षिक हिसाब की किताब में ‘आठ पुराने कपड़े, पन्द्रह ग्राम चाय-पत्ती और दस ग्राम हींग’ जैसे दान का भी उल्लेख होता है। 

लेकिन, जो अन्नक्षेत्र/वृद्धाश्रम अपने आप में एक सम्पूर्ण समाचार-कथा है, उस पर मैं यह आधी-अधूरी जानकारी क्यों दे रहा हूँ? 

देश में नोटबन्दी की पहली वर्ष गाँठ/बरसी मनाई जा रही है। अखबार सरकारी विज्ञापनों से रंगे पड़े हैं। टीवी चैनलों के पास किसी दूसरे विषय के लिए समय ही नहीं रह गया है। सरकार उपलब्धियाँ गिनवा रही हैं और प्रतिपक्ष, नोटबन्दी की वेदी पर हुई मौतों के आँकड़े। एक दूसरे को परास्त करने में लगे उत्सवी और धिक्कार के मिले-जुले तुमुलनाद से आकाश भरा हुआ है। लेकिन मैं निराश हूँ। नोटबन्दी को लेकर नहीं। उस बात को लेकर जो मेरे हिसाब से लोकतन्त्र के प्रति किये गए सबसे बड़े दुष्कर्मों में से एक,  प्राणघातक प्रहार है। वह न तो किसी अखबार में नजर आ रही है, न किसी चैनल पर और न ही धन्य-धिक्कार के कोलाहल में सुनाई दे रही है। ऐसा स्वाभाविक भी है। जनता के सोचने-विचारने की शक्ति चतुराईपूर्वक, छीन ली गई है। राजनीतिक दलों ने उसे धर्म-जाति, देशभक्ति-राष्ट्रवाद के भ्रामक, अवांछित मुद्दों में उलझा दिया है। लगता है वह कि रोटी-कपड़ा-मकान भी भूल गई है। लोकतन्त्र के साथ किए गए इस दुष्कर्म में तमाम राजनीतिक दल एक-मत हो गए हैं।

राजनीतिक दलों को मिलनेवाला चन्दा देश की सबसे बड़ी चिन्ताओं, समस्याओं में शामिल किया जाना चाहिए। लोकतन्त्र को उसके मूलस्वरूप में लाने हेतु प्रयत्नरत लोग इस मुद्दे को पहले नम्बर पर लाने की कोशिशें कर रहे हैं लेकिन धन-पिशाच उन्हें सफल नहीं होने दे रहे। राजनीतिक दलों को मिलनेवाले चन्दे को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की छोटी से छोटी कोशिश भी उन्हें आँख की किरकिरी लगती है। वे इसे मुद्दा ही नहीं मानते। मौजूदा सरकार से उम्मीद थी कि वह इस मामले में जनभावनाएँ समझेगी और चन्दे को पारदर्शी बनाएगी। लेकिन इसने तो जो किया वह कोढ़ ‘में खाज’ जैसा। बीमारी के उपचार के नाम पर बीमारी से भी अधिक खतरनाक किया। भ्रष्टाचार और कालेधन की समाप्ति मौजूदा सरकार की घोषित सबसे बड़ी चिन्ता, पहली प्राथमिकता रही है। लेकिन कथनी और करनी के अन्तर को देखकर लगता है, देश का लोकतन्त्र बुरी तरह से छला गया। कुछ इस तरह कि चील ने वाद किया कि वह अपने घोंसले में रखे मांस की रक्षा करेगी और देश ने भरोसा कर लिया। दशा कुछ ऐसी हो गई -

बागबाँ ने आग दे दी आशियाँ को जब मेरे,
जिन पे तकिया था वे ही पत्ते हवा देने लगे।

इस सरकार ने राजनीतिक दलों के चन्दे को लेकर जो पाखण्ड किया, वह बेमिसाल है। नगदी चन्दे की सीमा तो घटाई लेकिन ‘इलेक्टोरल बाण्ड’ बॉण्ड का प्रावधान कर लोकतन्त्र की आत्मा ही मार दी। दूसरों की छोड़िए, भारत निर्वाचन आयोग ने इसे ‘अवनतिशील कदम’ (रिट्रोगेटेड स्टेप) कहा। 

यह प्रावधान केवल कार्पोरेट घरानों और राजनीतिक दलों (खासकर सत्तारूढ़ दल) की स्वार्थपूर्ति केे गठजोड़ को मजबूत बनाने की सुविधा उपलब्ध कराता है। इसमें व्यवस्था है कि जो भी (व्यक्ति/संस्थान) ‘इलेक्टोरल बॉण्ड’ खरीदेगा, खरीदी की यह रकम उसकी आय में से कम कर दी जाएगी। यह व्यक्ति/संस्थान अपना (खरीदा गया) इलेक्टोरल बॉण्ड किसी भी दल को दे सकेगा लेकिन किसे दिया है, यह बताना आवश्यक नहीं होगा। चूँकि बॉण्ड पर देनेवाले का नाम नहीं होगा, इसलिए प्राप्त करनेवाला दल भी अपनी हिसाब-बही में देनेवाले का नाम लिखने से मुक्त हो जाता है। इस बॉण्ड की रकम की तो रसीद भी जारी नहीं होगी। इस बॉण्ड के प्रावधान के बाद तो राजनीतिक दलों के चन्दे को सूचना के अधिकार के अधीन लाने के बाद भी मालूम नहीं हो सकेगा कि किसने चन्दा दिया। अब होगा यह कि एक कार्पोरेट घराने ने हजारों करोड़ रुपयों के इलेक्टोरल बॉण्ड खरीदे। यह रकम उसकी आय में से कम हो गई। उसने किस दल को दिए, यह बताना उसके लिए जरूरी नहीं। जिसे मिले, उसने अपने खाते में जमा कराए। लेकिन रसीद नहीं कटी। इसलिए किसी का नाम भी नहीं। यह भी हो सकता है कि कार्पोरेट घराने का कोई कारिन्दा, सीधे ही बैंक में यह बॉण्ड जमा करा दे। उस हालत में राजनीतिक दल भोलेपन से कहेगा - ‘पता नहीं किसने हमारे खाते में जमा कराए।’ पहले चन्दा चेक से जाता था तो जगजाहिर होता था। अब तो ‘देनेवाले भी श्रीनाथजी और लेनेवाले भी श्रीनाथजी’ जैसी स्थिति रहेगी। चन्दा दे भी दिया, ले भी लिया फिर भी सब कुछ गुमनाम। ‘रिन्द के रिन्द रहे, हाथ से जन्नत न गई’ वाला शेर साकार हो गया।

इलेक्टोरल बॉण्ड का यह प्रावधान राजनीति शुचिता और पारदर्शिता की अवधारणा को सिरे से खारिज करता है। निर्वाचन आयोग ने इसे ‘अवनतिशील’ कहा है लेकिन यह वस्तुतः ‘लोकतन्त्र के लिए पतनशील कदम’ है। 

काले धन की एक मात्र परिभाषा है - ‘अज्ञात स्रोतों की आय।’ पानेवाले के पास स्रोत की जानकारी न होना। इस लिहाज से इलेक्टोरल बॉण्ड काले धन के सिवाय और क्या है? काला धन और भ्रष्टाचार परस्पर पर्यायवाची हैं। ये दोनों ही हमारी मौजूदा सरकार के घोषित निशाने पर हैं। लेकिन लगता है, खात्मे के निशाने पर नहीं, पालन-पोषण-पल्लवन-विकास के निशाने पर हैं। हर कोई अपने काले धन को सफेद करने की जुगत में भिड़ा रहता है। लेकिन हमारी सरकार ने सफेद धन को काले धन में बदलने का विलक्षण, ऐतिहासिक काम किया है। 

हमारा देश सचमुच में विविधताओं, विचित्रतताओं, विशेषताओं का देश है। यहाँ पन्द्रह ग्राम चाय पत्ती और दस ग्राम हींग के दानदाता का नाम बतानेवाला आदमी है तो करोड़ों का चन्दा देनेवाले का नाम छुपाने की सुविधा देनेवाले प्रधान मन्त्री-वित्त मन्त्री भी हैं।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल। 09 नवम्बर 2017)



........और मुझे गुरुद्वारे जाना पड़ा


छः बजनेवाले हैं। साँझ होनेवाली है। जो कुछ मेरे साथ हुआ उसे कोई छः घण्टे हो रहे हैं लेकिन मैं अब तक उससे बाहर नहीं आ पाया हूँ।

सुबह से अच्छा-भला घर में बैठा था। अपना, छोटा-मोटा काम कर रहा था। कुछ भी ऐसा नहीं था कि ध्यान इधर-उधर हो। लेकिन कोई ग्यारह बजे लगा, किसी ने कहा - ‘चलो! गुरुद्वारे हो आएँ।’ मैं चौंक गया। आसपास देखा। नहीं। हम दोनों (पति-पत्नी) के अतिरिक्त घर में कोई नहीं था। मैं दरवाजे तक आया। बाहर देखा। घर के सामने ही नहीं, पूरा मोहल्ला सुनसान था। कोई चिड़िया भी नजर नहीं आ रही थी। आसपास देखते हुए ही अन्दर आया और पूर्वानुसार ही छोटा-मोटा काम निपटाने लगा।

लेकिन अब सब कुछ पूर्वानुसार सहज, सामान्य नहीं था। बार-बार लग रहा था, कोई आवाज दे रहा है। खुद को समझाया - ‘मन का वहम है।’ कुछ पलों तक तो सब ठीक ही ठीक रहा लेकिन उसके बाद अकुलाहट बढ़ने लगी। मैं मन को समझाता रहा लेकिन अकुलाहट बनी रही। बारह बजते-बजते तो कानों में नगाड़े बजने लगे - ‘चलो! गुरुद्वारे हो आएँ।’ हालत यह हो गई कि न काम में मन लगे न कुछ और सोचने में। 

अन्ततः घर से निकला। गुरुद्वारे पहुँचा। मानो यन्त्रवत पहुँचा। उसी दशा में सर पर रूमाल बाँध, प्रवेश किया। अन्दर भजन चल रहे थे। चिर-परिचित भजन ‘एक नूर ते सब जग उपज्या’ गाया जा रहा था। स्त्री-पुरुष हाथ जोड़े बैठे थे। कुछ परिचित चेहरे नजर आए। उन सबने मुझे कौतूहल और अविश्वास से देखा। मैंने, घुटने टेक कर ग्रन्थ साहब को प्रणाम किया। जेब में हाथ डाला। जो नोट हाथ में आया, भेंट पात्र में डाला। उल्टे पाँवों चलते हुए बाहर आया। उसी तरह, यन्त्रवत।

सर से रूमाल उतारते वक्त लग रहा था, किसी का बताया, बड़ा भारी काम कर लिया है। जिम्मेदारी से मुक्त हो गया हूँ। सारी अकुलाहट समाप्त हो गई है। सब कुछ शान्त और सामान्य हो गया है। अब खुल कर साँस ली जा सकती है।
मेरे लिए यह बहुत ही असामान्य अनुभव है। मैं धर्म को नितान्त निजी मामला मानता हूँ। अपना सारा धरम-करम घर के अन्दर ही करता हूँ। अपनी धार्मिक गतिविधियों के सार्वजनीकीकरण से यथासम्भ्वव बचता हूँ। उत्तमार्द्धजी के मनोनुकूल जब भी मन्दिर जाता हूँ तो यथासम्भव इतनी देर से जाता हूँ कि वहाँ पुजारी के अतिरिक्त शायद ही कोई मिले। मेरे घर से साई मन्दिर आधा किलोमीटर से भी कम दूरी पर है। पर याद नहीं आता कि वहाँ कब गया थ। मुझे बेसन की, चाशनी पगी बूँदी (जिसे मालवी में हम लोग नुक्ती/नुगदी कहते हैं) बहुत पसन्द है। साई मन्दिर पर जब भी भण्डारा होता है, वहाँ से अपने लिए बूँदी अवश्य मँगवाता हूँ।

ऐसे में आज का यह अनुभव मुझे अब तक चक्कर में डाले हुए है। केवल मुझ तक पहुँची अनजानी, निराकारी आवाज के अतिरिक्त मुझे एक भी कारण नजर नहीं आ रहा कि मैं गुरुद्वारे जाऊँ। इसका जवाब शायद मनोविज्ञान में ही होगा। खुद को टटोल रहा हूँ तो जवाब मिलता है कि आज गुरु नानक जयन्ती होने की बात और इसी वजह से गुरुद्वारे जाने की बात मेरे अवचेतन में रही होगी। लेकिन अवचेतन की कोई बात इतनी प्रभावी हो सकती है? मैं अपनी अकुलाहट का वर्णन अब भी नहीं कर पा रहा हूँ।

यह चाहे जिस कारण से हुआ, लेकिन मेरे लिए यह अत्यन्त असामान्य अनुभव है।
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देश-भक्ति के 'पर-उपदेश'

पाँच दिवसीय दीपोत्सव समाप्त हो चुका था। अगले दिन छोटी दीपावली थी। मालवा के कस्बाई बाजार छोटी दीपावली तक प्रायः गुलजार ही रहते हैं। लेकिन मेरे कस्बे के सारे बाजारों की अधिकांश दुकानें बन्द थीं। बाजार में उठाव बिलकुल नहीं था। मौसम में ठण्डक की खुनक तनिक भी नहीं थी लेकिन व्यापार शीत लहर की जकड़न में था। कस्बे के मुख्य बाजार से मैं अपनी धुन में, धीरे-धीरे गुजर रहा था कि अपने नाम की हाँक सुनकर स्कूटर का ब्रेक मानो अपने आप लग गए। हाँक की दिशा में देखा - किराने की एक बड़ी दुकान पर बैठे चार लोगों में से एक, हाथ हिलाकर मुझे बुला रहा है। पहचानने में देर नहीं लगी।  मुझसे कोई पन्द्रह बरस छोटा यह व्यापारी अनूठा है। इसकी आत्मा मानो हरिशंकर परसाई और शरद जोशी की पड़ोसन रही हो। इससे बतियाना मुझे सदैव अच्छा लगता है। हर बार, कोई न कोई ‘मसाला’ लेकर ही लौटता हूँ। इसकी जिस बात का मैं कायल हूँ वह है - इसकी, खुद पर हँसने की, खुद की खिल्ली उड़ाने की क्षमता और शक्ति। किसी की हँसी उड़ाने से पहले यह खुद पर हँसता है। मुझ पर अतिरिक्त महरबान है। बात-बात में, मेरी सहमति हासिल करने के लिए ‘हे के नी बेरागीजी?’ (है कि नहीं बैरागीजी?) का तकिया कलाम कुछ इस तरह वापरता है जैसे कि मित्र ‘द्दे त्ताली’ कहकर हाथ बढ़ाते हैं। 

चार में से एक तो खुद दुकान मालिक था। दो सराफा व्यापारी थे। चौथा यह था - कपड़ा व्यापारी। चारों फुरसत में थे। चारों, पोहे के साथ कारु मामा की कचोरी का नाश्ता करके चाय पीनेवाले थे। इसने पूछा - ‘चाय तो पीयेंगे ना?’ मैं कुछ कहता उससे पहले दूसरा बोला - ‘पागल! यह भी कोई पूछने की बात है?’ मुझे फौरन समझ आ गया कि मुझे निर्णय लेने की छूट और सुविधा हासिल नहीं है। 

वे सब मेरे पहुँचने से पहले गपिया रहे थे। बात का अन्तिम सिरा निश्चय ही इसी के पास था। बोला - ‘हाँ तो मैं क्या कह रहा था? हाँ! मैं कह रहा था कि  अपना एक भी सांसद-विधायक देश-भक्त नहीं है।’ मेरे कान खड़े हो गए। चारों के चारों, अपने शरीर की चमड़ी की सात-सात तहों तक कट्टर भाजपाई। देश-प्रदेश में भाजपा की सरकारें, मेरे जिले के पाँच में से चार विधायक भाजपाई और यह सबको एक घाट पानी पिला रहा? मेरी परवाह किए बिना वे चारों शुरु हो गए -
“एक भी एमपी-एमएलए देश-भक्त नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है? और तुझे कैसे मालूम?”

“अरे! मुझे कैसे मालूम? सारी दुनिया को तो मालूूम और तुझे नहीं मालूम? तू कौन सी दुनिया में रहता है?”

“चल! मैं बेवकूफ सही। लेकिन तुझे कैसे मालूम? बता!”

“तेने जेटली की बात नहीं सुनी?”

“कौन सी बात?”

“लो! इसकी सुनो! इसने जेटली की बात नहीं सुनी।”

“चल यार! मान ले कि इसने नहीं सुनी। तू बता! बात क्या है?”

“अरे! तू भी इसमें शामिल हो गया? तेने भी नहीं सुनी? कैसे व्यापारी हो यार तुम? अरे! जो जेटली व्यापारी तो ठीक, तमाम व्यापारियों के पूरे खानदान के सपने में आ रहा है उसकी बात तुम दोनों ने नहीं सुनी! धिक्कार है रे तुम दोनों को।”

“अरे यार! तेरे साथ यही मुश्किल है। चल! हमें धिक्कार ही सही। लेकिन बात तो बता।”

“अरे! जेटली ने कहा है कि टेक्स चुकाना देश-भक्ति है। तुमने नहीं सुना।”

“हाँ। ये तो अखबार में पढ़ा है।”

“हाँ। हाँ। मैंने भी पढ़ा है। लेकिन इसमें एमपी-एमएलए कहाँ से आ गए?”

“क्यों? जेटली ने इनका नाम नहीं लिया इसलिए ऐसा कह रहे हो? थोड़ी खोपड़ी लगाओगे तो मान लोगे कि जेटली ने पूरी दुनिया को बता दिया है हिन्दुस्तान का एक भी एमपी-एमएलए देश-भक्त नहीं है।”

“चल यार! हम बट्ठड़ खोपड़ीवाले, बेअक्कल सही। तू ही बता दे।”

“अच्छा बता! अपने एमपी लोग अपने वेतन-भत्तों पर इनकम टेक्स चुकाते हैं?”

“हाँ यार! एक भी नहीं चुकाता। सरकार ने कानून बना कर इनको इनकम टेक्स से बरी कर रखा है। अब तेरी पूरी बात समझ में आ गई।”

“अपना एक भी एमएलए चुकाता है?”

“हाँ यार! बाकी  का तो नहीं मालूम लेकिन अपने एमपी के एमएलए तो नहीं चुकाते।”

“अब बता! जेटली ने कहा कि नहीं कि अपने एमपी-एमएलए देश-भक्त नहीं हैं?”

“हाँ यार! जेटली का बात का मतलब तो यही है। इन सबका टेक्स तो अपन लोग चुकाते हैं।”

“खाली टेक्स ही नहीं चुकाते। अपन सब एक काम और करते हैं।”

“क्या? कौन सा काम?”

“ये सब हमें देश-भक्ति का डोज देते हैं और खुद देश-भक्ति नहीं निभाते। उल्टे रोज किसी न किसी को देशद्रोही होने का सर्टिफिकेट देकर पाकिस्तान भेजते रहते हैं। ये ऐसे देश-भक्त हैं जिनकी देश-भक्ति तुम-हम सब निभा रहे हैं। इनमें से एक भी देश-भक्त नहीं और अपन सब के सब दुगुने देश-भक्त। (मुझे सम्बोधित करते हुए) है कि नहीं बैरागीजी?”

“तुम्हारे फार्मूले के हिसाब से तो तुम्हारी ही बात सही है सेठ।” मुझे कहना पड़ा।

“आप बुद्धिजीवियों के साथ यही परेशानी है। डर-डर कर बात करते हो। वो परसाईजी की बात आपने ही सुनाई थी ना?”

“कौन सी बात?”

“अरे वही कि अपने बुद्धिजीवी लोग हैं तो बब्बर शेर लेकिन वो सियारों के जलसों-जुलूसों में बेण्ड बजाते हैं।”

मुझसे कुछ बोलते नहीं बना। खिसिया कर चुप रह गया।

लेकिन वह चुप नहीं हुआ। हम सबको सम्बोधित करते हुए बोला - “ये अपने नेता लोग बड़े-बड़े भाषण देते हैं, चिल्लाते हैं, शिकायत करते हैं कि देश के लोग उनकी नहीं सुनते। कैसे सुनें? मैं कट्टर भाजपाई हूँ लेकिन मैं भी नहीं सुनता। क्यों सुनूँ? गला कटवाने के लिए हम ही हम! तुम क्या करोगे? तुम तो फाइव स्टार में मजे मारोगे, ए सी कारों में घूमोगे, खुद टेक्स नहीं भरोगे, अपना टेक्स हमसे भरवाओगे और उपदेश दोगे कि टेक्स भरना देश-भक्ति है! क्यों? देश-भक्ति  का ठेका हमारा ही है? तुम्हारा नहीं? ये देश तुम्हारा नहीं? ‘भटजी भटे खाएँ, औरों को परहेज बताएँ।’ खुद तो मुट्ठियाँ भर-भर गुड़ खाएँगे और हमें गुलगुले खाने से रोकेंगे। ये समझते हैं कि हममें अकल नहीं है, हम बेवकूफ हैं। अरे! पार्टी से बँधे होने के कारण हम कुछ बोलते नहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम कुछ समझते भी नहीं। हम भी रोटी खाते हैं। घास नहीं। है कि नहीं बैरागीजी?”

उसकी बातें सुन, उसके तेवर देख मेरी तो मानो घिघ्घी बँध गई। हाँ कहते बने न ना। बाकी तीनों व्यापारी भी सकपकाए, सहमे मानो गूँगे हो गए हों। हम सबकी दशा देख मानो वह होश में आया हो। बोला - “इस पार्टी लाइन ने पूरे देश का भट्टा बैठा रखा है। गलत को गलत नहीं कह सकते वहाँ तक तो फिर भी ठीक है लेकिन गलत को सही कहना, ये न तो पार्टी लाइन है न ही देश की लाइन। दल से पहले देश की दुहाई तो सब देते हैं लेकिन सबके सब, पार्टी को तो छोड़ो, खुद को सबसे पहले मानते हैं। अब, जब देश से पहले नेता हो जाए तो देश का तो भट्टा बैठना ही बैठना है और यह भट्टा बैठाने में सबसे पहले हम शरीक हैं। है कि नहीं बैरागीजी?”

बात सौ टका सही थी। मेरे मन की। मैं कुछ सोचूँ उससे पहले ही मेरे मुँह से निकला - हाँ।
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दैनिक 'सुबह सवेरे' भोपाल, 02 नवम्‍बर 2017