पत्रकारिता: विश्वसनीयता की जगह विज्ञापन

एक मई को पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सीमा में घुस कर भारतीय सेना के नायक सुबेदार परमजीति सिंह और सीमा सुरक्षा बल के प्रेम सागर की हत्या कर दी। दोनों के शवों के साथ बर्बरता भी बरती। देश उद्वेलित था कि कुछ समाचार चेनलों ने समाचार दिया कि जवाब में भारतीय सेना ने दो पाकिस्तानी चौकियाँ ध्वस्त कर दीं और सात पाकिस्तानी जवानों को मार गिराया। आक्रामक तेवरों के कारण विशिष्ट पहचान बनानेवाले, सत्तारूढ़ भाजपा के आधिकारिक प्रवक्ता सम्बित पात्रा ने एक शहीद की विधवा पत्नी को ये सूचनाएँ, गर्वपूर्वक देकर तसल्ली दी। लोगों ने सन्तोष और राहत अनुभव की। किन्तु जल्दी ही यह तसल्ली छिन गई। सेना की उत्तरी कमान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि सेना ने बदले की कोई कार्रवाई नहीं की है। चैनलें अपनी मर्जी से समाचार दिखा रही हैं। सेना जब बदला लेगी, तब आधिकारिक रूप से बयान जारी किया जाएगा। यह चौंकानेवाला, हताशाजनक समाचार था। लेकिन एक भी समाचर चैनल ने इस गलत प्रसारण के लिए न माफी माँगी न खेद प्रकट किया। सेना को अपनी विश्वसनीयता की चिन्ता हुई। वहाँ से प्रतिवाद किया गया। लेकिन समाचार चेनलों को अपनी विश्वसनीयता की चिन्ता हुई हो, ऐसा नहीं लगा।

चैनलों को यह समाचार अपने सम्वाददाता से नहीं,  किसी व्यक्ति या संस्था से मिला था जो ‘जिम्मेदार और विश्वसनीय’ ही नहीं इस हैसियतवाला भी रहा होगा जिसे झूठा कहने का साहस कोई नहीं जुटा सका। किन्तु सामान्य समझवाला व्यक्ति भी जान गया कि किसके कहने से यह समाचार प्रसारित हुआ और क्यों एक भी चेनल उसका नाम नहीं बता पाया। भाग्यशाली हैं वे चेनल जो जग-हँसाई, भयभीत और आतंकित होने से बच गए।

हमें आठवीं कक्षा में समझाया गया था - यदि धन खोया तो कुछ नहीं खोया। स्वाथ्य खोया तो कुछ खोया। किन्तु चरित्र खोया तोे सब कुछ खो दो दिया। पत्रकारिता के सन्दर्भों में ‘विश्वसनीयता’ ही यह चरित्र होता है। 

मुझे इन्दौर से दैनिक भास्कर का शुरुआती समय याद आ रहा है। तब ‘नईदुनिया’ का एक छत्र दबदबा था। समाचारों की विश्वसनीयता, रिपोर्टिंग पर मैदानी सम्वाददाताओं द्वारा किया जानेवाला परिश्रम उसकी विशिष्ट पहचान था। तथ्यात्मकता के प्रति उसकी सावधानी का नमूना यह कि सरदार स्वर्ण सिंह जब विदेश मन्त्री बने तो उन्हें ‘स्वर्ण सिंह’ लिखा जाए या ‘स्वरन सिंह’, इस पर बहुत दिनों तक मन्थन होता रहा क्यों कि वे हिन्दी में अपने हस्ताक्षर ‘स्वरन सिंह’ करते थे। विश्वसनीयता यह कि अपने ही अखबार में छपे समाचार की तसल्ली करने के लिए भास्कर के लोग नईदुनिया देखा करते थे।

लेकिन समय काफी कुछ बदल ही देता है। अपवादों को छोड़ दें तो आज प्रायः हर अखबार/चौनल चारण की तरह बिरदाविलयाँ गा रहा है, भाट की तरह ‘अन्नदाता यजमान’ की वंश-वृक्षावली बाँच रहा है। ‘विश्वसनीयता’ की जगह विज्ञापन’ ने ले ली है। कस्बाई स्तर पर काम कर रहे, एक विज्ञापन एजेन्सी का प्रभारी आश्वस्ति देता है - ‘आप जो चाहेंगे, छप जाएगा। जो चाहेंगे, रुक जाएगा।’

पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ पुकारा जाता है। किन्तु शायद ही किसी को मालूम हो कि आधिकारिक रूप से लोकतन्त्र के तीन ही स्तम्भ उल्लेखित किए गए हैं - विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका। लेकिन ‘लोक स्वीकार’ ने इसे चौथा स्तम्भ बना दिया। विधायी सदनों में प्रतिपक्ष के जरिए लोगों की बात जाहिर होती है। लेकिन जब प्रतिपक्ष भी सत्ता पक्ष से मिल जाए तो? तब यह चौथा खम्भा ही जनता की आवाज बनता है। इसीलिए जनहितरक्षण की दृष्टि से पत्रकार सदैव ही प्रतिपक्ष में अपेक्षित रहता है - जो सरकार पर भी अंकुश लगाए और प्रतिपक्ष पर भी। लालच, स्वार्थ ने हमें आत्म-केन्द्रित बना दिया है। इस स्खलन से कोई नहीं बचा है। बच भी कैसे सकता है? जब तालाब का पानी उतरता है तो चारों दिशाओं में समान रूप से उतरता है। कोई इस स्खलन से नहीं बचा है। सब इसी दुनिया, इसी समाज के जीव हैं। इसके बावजूद समाज को हर समय तीन खेमों से उम्मीद बनी रहती है - न्यायपालिका, अध्यापक और पत्रकारिता। 

ऐसे में पत्रकारिता की विश्वसनीयता भंग होना हम सबकी चिन्ता होनी चाहिए। कभी पत्रकार को आदर से देखा जाता था। उसे अपनी पहचान जताने की आवश्यकता कभी नहीं होती थी। आज स्थिति उलट गई लगती है। आज तो पत्रकार जगत ही पत्रकारों से त्रस्त, क्षुब्ध है। वाहनों पर, लिखे ‘प्रेस’ पर लोगों का व्यवहार ‘इससे बचो’ जैसा होता है। यह मर्मान्तक पीड़ादायक है कि पत्रकारिता की जितनी निन्दा और भर्त्सना हमारे इस समय में हो रही है उतनी अब तक कभी नहीं हुई। लेकिन इसके लिए किसी और को दोष कैसे दिया जाए? पेटलावद विस्फोट काण्ड के दिनों में छाए अखबारी बवण्डर पर एक नेता ने अत्यन्त विश्वासपूर्वक कहा था - ‘आप जिन्हें वॉच डाग कह रहे हैं ना! देखना वे सबके सब जल्दी ही पूँछ हिलाते नजर आएँगे।’ ऐसा हुआ या नहीं, इस पर बहस हो सकती है किन्तु कोई नेता विश्वासपूर्वक ऐसा कहने की हिम्मत करता है, यही क्या कम चिन्ताजनक नहीं है?

पत्रकारों की व्यक्तिगत विचारधारा तब भी होती थी किन्तु तब वे ‘काँग्रेसी पत्रकार’, ‘जनसंघी पत्रकार’, ‘समाजवादी पत्रकार’ होते थे, ‘काँग्रेस के पत्रकार’, ‘जनसंघ के पत्रकार’, ‘समाजवादी पार्टी के पत्रकार’ नहीं। पत्रकारिता की विश्वसनीयता, शुचिता और सार्वजनिक प्रतिष्ठा की चिन्ता सब समान रूप से करते थे। 1975-76 में मैं, भोपाल में, अंग्रेजी दैनिक ‘हितवाद’ में नौकरी करता था। वहाँ हसनात सिद्दीकी काँग्रेसी,  यशवन्तजी अरगरे और संगीतजी संघी/जनसंघी और गोविन्दजी तोमर समाजवादी के रूप में चिह्नित किए जाते थे। किन्तु इनमें से किसी के भी कारण ‘हितवाद’ की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर कभी खरोंच नहीं आई। जो भी अखबार या व्यक्ति, पत्रकारिता के इन बुनियादी तत्वों से दूर हुआ, उसे दुर्दिन ही झेलने पड़े। नेशनल हेरॉल्ड की दशा हमारे सामने है। भाजपा का मुख-पत्र बने हुए,  एक अखबार को उसके अंश धारक भी नहीं खरीद रहे। 

पत्रकारों की स्थिति का अनुमान मैं भली प्रकार कर सकता हूँ। अखबारों, मीडिया घरानों के मालिक जब पूँजीपति हो तो पत्रकार भला पत्रकारिता कैसे कर सकते हैं? कर ही नहीं सकते। उन्हें नौकरी कर, अपने बाल-बच्चे पालने हैं। लेकिन पत्रकारिता की विश्वसनीयता का संकट इन्हें ही झेलना पड़ रहा है। लोग इनसे उम्मीद करते हैं कि ये सच लिखें लेकिन मालिक कहता है - सच कहने से बचने का विश्वसनीय तरीका निकालो। मैं भी कभी पत्रकार रहा हूँ। मैं इनमें खुद को देखता हूँ। जवाब इन्हें ही देना पड़ता होगा। ये क्या कहते होंगे? डॉक्टर बशीर बद्र साहब का यह शेर इनके काम आता होगा -

किसने जलाई बस्तियाँ, बाजार क्यों लुटे
मैं चाँद पर गया था, मुझे कुछ पता नहीं

समय कभी थमता नहीं। इसीलिए, वक्त तो बदलेगा ही। इलेक्ट्रानिक मीडिया के शुरुआती दिनों में प्रभाषजी जोशी रतलाम आए थे। चिन्तित युवा पत्रकारों से  उन्होंने कहा था - ‘तेज बहाववाली नदी में, बीच में खड़े हो। अपनी अंगुलियाँ, पूरी ताकत से रेत में गड़ाए रखो। बहाव स्थायी नहीं है। निकल जाएगा। बस! तुम बहने से बचो।’

पूँजी का यह हमला मारक है। सरकारी प्रश्रय इसे पल-पल बढ़ा रहा है। गंगा हिमालय से निकलती है लेकिन बाढ़ मैदानों में आती है। बचाव के रास्ते मैदानवालों को ही तलाशने पड़ेंगे। जूझना कायम रखिए। थकिए नहीं। बुरा से बुरा आदमी भी अच्छे दोस्त चाहता है। निष्पक्ष और विश्वसनीय पत्रकारिता की आवश्यकता देश-समाज को हर दौर में रही है, रहती ही है। जब आपातकाल में रास्ते तलाश लिए थे तो अब भी तलाश ही लेंगे। 

हर रात की सुबह होती है। शम्मा जलाए रखिए। 
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे, भोपाल में दिनांक 18/05/2017 को प्रकाशित)

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