आशंका में लिपटा अभिनन्दन

अड़सठवाँ गणतन्त्र दिवस सामने है। सरकारी स्तर पर की जानेवाली तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकी हैं। परेड का अन्तिम पूर्वाभ्यास हो चुका है। सरकारी स्कूलों, कॉलेजों में ‘यह काम राजी-खुशी निपट जाए’ की चिन्ता छाई हुई है तो निजी स्कूल, कॉलेज ‘उसकी कमीज मेरी कमीज से उजली कैसे’ के तनाव में हैं। एक अखबार, घर-घर पर तिरंगा फहराने की, खुद ही ओढ़ी जिम्मेदारी पूरी करने में जुटा हुआ है। निजी संगठनों, संस्थाओं ने ध्वजारोहण के अपने-अपने पारम्परिक कब्जेवाले चौराहों पर झण्डा वन्दन के कार्यक्रम घोषित कर दिए हैं। राजनीति में जगह और पहचान बनाने के महत्वाकांक्षी, सम्भावनाखोजियों ने पहली बार किसी सार्वजनिक स्थान पर झण्डा फहराने के कार्यक्रम घोषित किए हैं। स्कूली बच्चे उत्साह और उल्लास से छलक रहे हैं किन्तु उनके माँ-बाप असहज, तनाव में हैं। 

दो दिनों से योजनापूर्वक पूरे कस्बे में घूम रहा हूँ। किन्तु तमाम कोशिशों के बाद भी कस्बे का बड़ा हिस्सा छूट गया है। किन्तु जितना भी घूमा हूँ, उतना ताज्जुब से भरता गया हूँ। चारों ओर, एक सामान्य दिन और सामान्य दिनचर्या। केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के लिए यह गणतन्त्र दिवस एक दिन (शुक्रवार) की छुट्टी लेकर चार दिनों की छुट्टी का अवसर बनकर सामने आया है। उनमेें से कुछ मेरे पॉलिसीधारक, अपने ‘देस’ चले गए हैं। राज्य सरकार के कर्मचारी उनसे ईर्ष्या कर रहे हैं। गण्तन्त्र दिवस का उल्लास कहीं नजर नहीं आ रहा। और तो और, अब तक वाट्स एप पर ग्रुप पर या व्यक्तिगत रूप से एक भी अभिनन्दन-बधाई सन्देश नहीं। सब लोग, तारीख बदलने के लिए शायद आधी रात की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तब, भारतीय संस्कृति की दुहाई देनेवाले भी ‘अंग्रेजों से अधिक अंग्रेज’ बन कर ‘मुझसे अधिक देशभक्त कौन’ के प्रतियोगी भाव से टूट पड़ेंगे। जब 2017 का साल शुरु होनेवाला था तब 30 दिसम्बर को मोबाइल कम्पनी का सन्देश आया था कि मैंने थोक में एसएमएस करने का जो ‘पेक’ ले रखा है, उसका फायदा मुझे नहीं मिलेगा और 30 की आधी रात से लेकर पहली जनवरी की आधी रात किए जानेवाले एसएमएस का सामान्य शुल्क लिया जाएगा। लेकिन गणतन्त्र दिवस पर ऐसा सन्देश अब तक नहीं मिला है। 

मैं उल्लास तलाश रहा हूँ लेकिन मुझे या तो सामान्यता मिल रही है या निस्पृहता, उदासीनता। ‘गणतन्त्र’ के सबसे बड़े दिन पर ‘गण’ की यह निस्पृहता, उदासीनता मुझे चौंका भी रही है और असहज भी कर रही है। यह शिकायत तो मुझे बरसों से बनी हुई है कि अंग्रेजी शासन पद्धति अपनाने की वजह से ‘तन्त्र’ ने हमारे ‘गण’ पर सवारी कर ली है और हमारा गणतन्त्र केवल वोट देने की खनापूर्ति बनकर रह गया है। किन्तु इस बरस तो मुझे कुछ और ही अनुभूति हो रही है। इस बरस तो मुझे लग रहा है कि हमने गणतन्त्र का एक नया स्वरूप दुनिया को दे दिया है - एकाधिकारवादी गणतन्त्र या कि तानाशाहीवादी गणतन्त्र। 

देश की स्थितियाँ गणतान्त्रिक नहीं लग रहीं। अब तक ‘गण’ की उपेक्षा की जाती रही है। किन्तु लगता है, अब ‘गण’ की उपस्थिति ही या तो अनुभव नहीं की जा रही या फिर उसे अनावश्यक मान लिया गया है। इतना अनावश्यक कि उसकी चिन्ता करने की भी आवश्यकता अनुभव नहीं की जा रही। जनता जीए या मरे, यह तो मानो सोच का विषय ही नहीं रह गया है। कहने को सब समान हैं किन्तु कुछ लोग या कि एक तबका ‘समानों में अधिक समान’ हो गया है और सब कुछ इन ‘अधिक समानों’ की चिन्ता के अधीन किया जा रहा है। लोग अपना पैसा बैंक से अपनी इच्छानुसार नहीं निकाल पा रहे। शादी के लिए पैसा चाहिए तो पचास प्रमाण और खर्चे की सूचियाँ अग्रिम पेश करो। लेकिन गड़करियों, रेड्डियों को सब छूट है। नोटबन्दी के चलते दिहाड़ी मजदूर, अपनी मजदूरी छोड़ कर बैंक के सामने पंक्तिबद्ध हो मरने के लिए अभिशप्त कर दिया गया। किन्तु एक भी पैसेवाला, एक भी अधिकारी, एक भी धर्म गुरु, एक भी नेता, यहाँ तक कि एक भी पार्षद या पार्षद प्रतिनिधि एक भी दिन, किसी भी बैंक के सामने खड़ा दिखाई नहीं दिया। नोटबन्दी के चलते किसानों की उपज का मोल दो कौड़ी से भी गया-बीता हो गया, उन्हें अपनी उपज सड़कों पर फेंकनी पड़ गई लेकिन कोलगेट, लीवर के टूथ पेस्ट का या कि कोका कोला पेप्सी की बोतल का भाव एक पैसा भी कम नहीं हुआ। और तो और, ‘स्वदेशी’ की दुहाई देकर माल बेच रहे पतंजलि के बिस्कुट का भी भाव एक पैसा भी कम नहीं हुआ। 

बात इससे भी काफी आगे जाती दीख रही है। संविधानिक संस्थाओं को पालतू बनाने की कोशिशें सहजता से, खुले आम की जा रही हैं। नोटबन्दी जिस तरह से लागू की गई और उसके क्रियान्वयन में जो मनमानी बरती गई उसने भारतीय रिजर्व बैंक की व्यर्थता अत्यधिक प्रभावशीलता से रेखांकित की। इसके गवर्नर उर्जित पटेल की छवि एक फूहड़, देहाती विदूषक जैसी बन कर रह गई। न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर चल रही खींचातानी, प्रतिबद्ध न्यायपालिका की स्थापना का श्रमसाध्य यत्न अनुभव हो रहा है। सेना का राजनीतिक उपयोग अधिकारपूर्वक किया जा रहा है। आठ नवम्बर को, प्रधान मन्त्रीजी द्वारा नोटबन्दी के घोषित चारों के चारों लक्ष्य औंधे मुँह धूल चाट रहे हैं। यह सब हो रहा है किन्तु कहीं पत्ता भी नहीं खड़क रहा। बरबस ही डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल की, कोई डेड़-दो बरस पहले, किसी समाचार चैनल की बहस में भाग लेते हुए कही बात याद आ रही - ‘अब आपातकाल की औपचारिक घोषणा की आवश्यकता नहीं रह गई।’

चारों ओर पसरी, बेचैन चुप्पी मानो मुखरित होने के लिए इधर-उधर देख रही है। प्रतिपक्षी राजनीतिक दल ऐसे समय अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराते हैं। लेकिन देश के तमाम प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों की दाल पतली है। वे तो अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए ही जूझ रहे हैं। जिन्दा रहेंगे तो ही तो जनता की बात कर पाएँगे? उस पर नुक्ता यह कि एक भी दल में आन्तरिक लोकतन्त्र नहीं रह गया है। मूक जनता की जबान बनने की जिम्म्ेदारी निभानेवाले अखबार/मीडिया की दशा, दिशा अजब-गजब हो गई है। किसी जमाने में जनता को अखबार का वास्तविक स्वामी कहा जाता था और पाठकों की नाराजी अखबारों के लिए सबसे बड़ी चिन्ता होती थी। आज ऐसा कुछ भी नहीं है। अखबार/मीडिया ने मानो अपनी कोई नई भूमिका तलाश कर ली है।  सम्पादक के नाम पत्र स्तम्भ समाप्त कर दिए गए हैं और यदि किसी अखबार में है भी तो खानापूर्ति करते हुए। प्रकाशित होने वाले पत्र ‘कफन के अनुसार मुर्दा’ की तरह होते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया में तो दर्शकों/श्रोताओं की बात के लिए जगह शुरु से ही कभी रही ही नहीं। 

एक सन्तुष्ट गुलाम, आजादी का सबसे बड़ा शत्रु होता है। चारों ओर देखने पर मन में सवाल उठता है - देश ने आत्मीय प्रसन्नतापूर्वक खुद को एक अधिनायक को तो नहीं सौंप दिया? कभी-कभी परिहास में सुनने को मिल जाता है कि लोकतन्त्र को ढंग-ढांग से चलाने के लिए एक तानाशाह की जरूरत होती है। हम उसी स्थिति मेें तो नहीं आ रहे? हमने सचमुच में एकाधिकारवादी गणतन्त्र या कि तानाशाहीवादी गणतन्त्र ईजाद तो नहीं कर लिया? हमारी यह नई खोज कहाँ खत्म होगी?

अपनी यह आशंका मैंने राजनीति शास्त्र के एक अध्येता को कही तो वे भी विचार में पड़ गए। बोले - ‘इण्डियन केरेक्टर कुछ कह भी कर सकता है। हकीकत तो 2019 के चुनावों के समय ही मालूम हो सकेगी।’

लेकिन व्याप्त दास भाव और अखबारों/मीडिया, राजनीतिक दलों की भूमिका को देख आशंका उपजी - 2019 के चुनाव होंगे भी?

इस आशंका के साथ गणतन्त्र दिवस की बधाइयाँ।
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(दैनिक 'सुबह सवेरे', भोपाल के 26 जनवरी 2017 के अंक में मुखपृष्‍ठ पर प्रकाशित।)

3 comments:

  1. समयगत आशंका वाजिब है

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-01-2017) को "लोग लावारिस हो रहे हैं" (चर्चा अंक-2586) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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