लड़ी जा सकनेवाली एक लड़ाई

पूरा देश राष्ट्रोन्माद और गुस्से में उफन रहा है। विदेशों में बैठे भारतीय भी इसी दशा में हैं। सबकी एक ही इच्छा है-इस बार पाकिस्तान को निपटा ही दिया जाए। यह भावना अकारण नहीं है। लोक सभा चुनावों के दौरान पाकिस्तान के सन्दर्भ में मोदी ने लोगों को जो भरोसा दिलाया था, उसी भरोसे के आधार पर लोग न केवल यह चाह रहे हैं बल्कि विश्वास भी कर रहे हैं कि मोदी अपनी बात पर अमल करेंगे। लेकिन मोदी की आवाज सुनाई ही नहीं दे रही। और केवल मोदी ही क्यों? राष्ट्रवाद की दुहाइयाँ देनेवाले संघ परिवार और तमाम भाजपाइयों की भी आवाज नहीं सुनाई दे रही। कल तक खुद के सिवाय बाकी सब को देशद्रोही घोषित करनेवाले तमाम लोगों को मानो साँप सूँघ गया है। यह देख-देख कर मुझे मालवी का यह लोक आख्यान पल-पल याद आ रहा है।

लोगों को प्रभावित करने के लिए एक नौजवान बीच चौराहे पर, भीड़ के सामने हँसिये निगलने लगा। अधिकांश लोग तो उसके इस करतब पर तालियाँ बजाते रहे किन्तु कुछ समझदार लोग भाग कर उसके पिता के पास पहुँचे और कहा कि अपने बेटे को यह आत्मघाती करिश्मा करने से रोके। पिता अपने बेटे से पहले से ही परेशान था चिढ़ कर बोला कि वह जो करता है, करने दें। अभी उसे मजा आ रहा है लेकिन सुबह जब निपटने जाएगा तब उसे मालूम पड़ेगा कि उसने क्या मूर्खता की। पिता ने जो कहा, वही हुआ। कुछ घण्टों पहले तालियों की गड़गड़ाहट से बौराया बेटा, सुबह शौचालय में, लहू-लुहान दशा में चित्कार रहा था। 
आख्यान में और आज की दशा में एक ही अन्तर है। वहाँ वह नौजवान चिल्ला रहा था। यहाँ, राष्ट्र को लेकर गर्वोक्तियाँ करने का छोटा से छोटा मौका भी हथियाने वाले तमाम लोगो की बोलती बन्द है। सवाल पूछनेवालों में पराये तो हैं ही, अपनेवाले भी बड़ी तादाद में सामने आ रहे हैं। मोदी और अन्य भाजपाइयों के आक्रामक भाषणों के वीडियो अंश सोशल मीडिया पर छााए हुए हैं। लोग क्षुब्ध होकर व्यंग्योक्तियाँ कस रहे हैं। पुराने भाषणों को चुटकुलों की तरह पेश कर रहे हैं। सर्वाधिक फजीहत ‘छप्पन इंच का सीना’ की हो रही है। कल तक राष्ट्रवाद के प्रमाण-पत्र बाँटनेवाले मुँह छिपा रहे हैं और जिन्हें देशद्रोही करार देकर पाकिस्तान भेजने की बात की जा रही थी वे तमाम लोग, पूर्वानुसार ही सहज भाव से देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं-चुपचाप।

वस्तुतः कुछ भी अनोखा नहीं हो रहा। आकांक्षाए जगाना जितना आसान है, उन्हें पूरा करना उतना ही कठिन। मुझे लगता है, इन सबसे एक ही चूक हुई-यह जानते हुए भी कि भारत अपनी ओर से पाकिस्तान पर आक्रमण नहीं करेगा, ये लोग भावनाएँ भड़काते रहे। याद कीजिए, गृह मन्त्री राजनाथसिंह कह चुके हैं कि पहली गोली भारत नहीं चलाएगा। उन्होंने अपना यह वक्तव्य इस क्षण तक न तो वापस लिया है न ही संशोधित किया है। सत्ता में आकर अपने विरोधियों को नष्ट करने की जो निर्द्वन्द्व आजादी मिलती है, अन्तरराष्ट्रीय बिसात पर वह नहीं मिलती। पाकिस्तान की वास्तविक स्थिति ने शुरु से ही सबके हाथ बाँध रखे हैं। वहाँ प्रधान मन्त्री सहित तमाम निर्वाचित जनप्रतिनिधि सेना के बन्धक हैं। कठपुतलियों की तरह निष्प्राण, निर्जीव। कुर्सी पर बने रहने के लिए सेना की इच्छा का पालन करना पड़ता है। सेना अपनी मनमर्जी से कुछ भी कर सकती है, नेता नहीं। कारगिल युद्ध इसका प्रमाण है। मुशर्रफ ने नवाज शरीफ का कहना मानने से इंकार कर दिया था और भारत पर युद्ध थोप दिया गया था। 

सारी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान के आतंकी सेना की शह और संसाधनों से लैस रहते हैं। किन्तु वहाँ का कोई सैनिक सामने नहीं आता। जिहाद के नाम पर दिग्भ्रमित युवा ही सरहद पार करते हैं। उनका जो भी किया-कराया है, सब कुछ अनधिकृत, अनौपचारिक होता है। इन सबमें सरकार का हाथ न होने की बात कहने की सुविधा वहाँ की सरकार को मिलती रहती है। ऐसे में तकनीकी तौर पर सरकार सदैव बरी-जिम्मे रहती है। सारी दुनिया भली प्रकार जानती है आतंकवादी पाकिस्तानी हैं किन्तु घुसपैठ या हमला पाकिस्तान ने नहीं किया होता है। ऐसे में हम चाह कर भी हमला नहीं कर सकते और यही वजह है कि राजनाथसिंह अपने वक्तव्य पर बने रहने को मजबूर हैं। वे हमारे गुस्से के नहीं, सहानुभूति के पात्र हैं। हम चुप रहकर उनका हौसला बढ़ाएँ, उन्हें मदद करें।

इस तकनीकी पेचीदगी के चलते हम सीधा आक्रमण तभी कर सकते हैं जब हम आक्रामक होने का तमगा कबूल करने को तैयार हों। निश्चय ही, हम यह तमगा कभी हासिल नहीं करना चाहेंगे। ऐसी स्थिति मे हमारे पास कोई नया विकल्प नहीं है। हमें अपने (वार्ता करने, राजनयिक , कूटनीतिक प्रयासों से पाकिस्तान को सारी दुनिया से अलग-थलग करने के) चिर-परिचित विकल्पों पर ही काम करना पड़ेगा। इन विकल्पों में हम कितना कौशल वापर सकते हैं, यही महत्वपूर्ण बात होगी।

मैं ठेठ देहाती आदमी हूँ। सीधी बात कहने-सुनने में आसानी होती है। कूटनीति या राजनय के दाँव मुझे नहीं आते। निजी तौर मैं अमरीका को मूल अपराधी मानता हूँ। मेरी राय में पाकिस्तान यदि चोर है तो अमरीका चोर की माँ है। मैं पाकिस्तान को अमरीका का रण्नीतिक उपनिवेश मानता हूँ। इनमें चीन, पाकिस्तान की मौसी की तरह शामिल हो गया है। मुझे लगता है कि पाकिस्तान का इलाज करने के लिए हमे अमरीका और चीन का इलाज करने पर विचार करना चाहिए। किन्तु इन दोनों से भी हम सीधी लड़ाई नहीं लड़ सकते। 

हमारे देहातों में कहा जाता है कि यदि किसी को मारना हो तो उसकी पीठ पर नहीं, पेट पर लात मारो। मेरा विश्वास है कि हम इन दोनों देशों के पेट पर लात मारने की जोरदार स्थिति में हैं। हम दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बने हुए हैं। कुछ ऐसा कि कभी-कभी लगता है कि हम भारतवासी खुद उत्पाद बन गए हैं। चीनी सामान से हमारे बाजार अटे पड़े हैं। हम सब इनसे त्रस्त हैं, यह बात बार-बार सामने आती रहती है। सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर सकती। उसके हाथ भी बँधे हुए हैं मुँह भी बन्द ही है। वह तो कुछ कर नहीं सकती। किन्तु हम, भारत के लोग काफी-कुछ कर सकते हैं। दुकानदार चीनी सामान की बिक्री बन्द कर दें और हम खरीददारी, तो चीन का दिमाग ठिकाने आ जाएगा।

अमरीकी उत्पाद तो हमारे खून में शामिल हो गए हैं। अमरीकी उत्पादों ने भारतीय चोला पहन लिया है। कौन सी चीज अमरीकी है और कौन सी नहीं, तय करना मुश्किल हो गया है। किन्तु वहाँ के (कोका कोला और पेप्सी जैसे तमाम) शीतल पेय तो जग जाहिर हैं। हम इनका ही बहिष्कार कर दें तो अमरीका घुटनों पर आ जाएगा। हम में से बहुत कम लोग जानते होेगे कि शीतल पेयों की ये कम्पनियाँ अमरीका की अर्थनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। अमरीका अपनी अर्थ नीति निर्धारण में इन कम्पनियों का विशेष ध्यान रखता है। आर्थिक लाभ के मामले में पाकिस्तान, अमरीका के लिए तनिक भी उपयोगी नहीं है किन्तु हमसे तो अमरीका मालामाल हुआ जा रहा है। भारत के बाजार को खोने की जोखिम वह कभी नहीं उठा पाएगा।

मोदी इस समय देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। पार्टी से परे, निजी स्तर पर उनके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं। ठीक है कि वे कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं। किन्तु वे पर्दे के पीछे से यह अभियान छेड़ सकते हैं। आज का माहौल ऐसे अभियान के लिए अत्‍यधिक अनुकूल है।

हम, पाकिस्तान से सर्वाधिक त्रस्त देश हैं। हम सीधा युद्ध तो शुरु नहीं कर सकते किन्तु पाकिस्तानी सेना की तरह छù युद्ध तो लड़ ही सकते हैं। एक ही अन्तर होगा। हमारी यह लड़ाई धीमी होगी, देर से नतीजा देनेवाली और भारत में ही लड़ी जाएगी।

एक लड़ाई ऐसी भी लड़ने पर विचार करने में हर्ज ही क्या है? 
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ के दिनांक 22 सितम्बर 2016 के अंक में छपा)

धर्म: मेरा और पराया

सनातन और जैन धर्म से जुड़े कुछ संगठनों में सक्रिय मेरे कुछ मित्र इन दिनों मुझ पर कुपित और मुझसे नाराज हैं। वे लोग ईदुज्जुहा के मौके पर दी जाने वाली, बकरों की कुर्बानी के विरुद्ध चलाए जाने वाले अभियान में मेरी भागीदारी चाहते थे। मैंने इंकार कर दिया। उनमें से एक ने मुझे हड़काते हुए पूछा - ‘आप बकरों की बलि के समर्थक हैं?’ मैंने कहा कि मैं केवल बकरों की बलि का ही नहीं, ऐसी किसी भी बलि-प्रथा का विरोधी हूँ। ऐसी किसी प्रथा को मैं न तो धर्म के अनुकूल मानता हूँ और न ही सामाज के। यदि कोई धर्म या समाज ऐसा करने की सलाह देता है तो मैं उस धर्म को धर्म नहीं मानता और न ही ऐसे समाज को समाज ही मानता हूँ। ऐसी परम्पराओं के समर्थक मुझे मनुष्य ही नहीं लगते। 

आज यदि सर्वाधिक अधर्म हो रहा है तो धर्म के नाम पर ही। धर्म के नाम पर किए किसी आह्वान का विरोध करना तो दूर, उससे असहमति जताना भी आज सर्वाधिक जोखिम भरा काम होग या है। ऐसे आह्वान के औचित्य पर जिज्ञासा जताना ही आपको धर्म विरोधी घोषित करने के लिए पर्याप्त है। और आप यदि स्थानीय स्तर पर कोई छोटे-मोटे ‘सेलिब्रिटी’ हैं तो आपके विरुद्ध वक्तव्यबाजी, नारेबाजी, और आपके निवास पर तोड़-फोड़ अवश्यम्भावी है। मैं ऐसी तमाम दुर्घटनाओं (या कहिए कि सार्वजनिक सम्मान) से बच गया। 

धर्म मेरे लिए कभी भी सार्वजनिक, सामूहिक विषय नहीं रहा। मैं पहले ही क्षण से इसे नितान्त व्यक्तिगत मामल मानता हूँ। मेरी सुनिश्चित धारणा है कि सामूहिक, सामाजिक या कि सांगठानिक धर्म कभी किसी का भला नहीं करता-न व्यक्ति का, न समाज का और न ही खुद का। ऐसे में बात यदि किसी समाज या धर्म से जुड़ी हो तो मेरी सुनश्चित धारणा है कि ऐसी किसी भी कुरीति या कुपरम्परा से मुक्ति का संघर्ष उस धर्म या समाज से जुड़े लोगों को ही करना पड़ता है। इसलिए, इदुज्जुहा पर बकरों की बलि बन्द करने को लेकर यदि कोई अभियान चलाया जाना है तो यह इस्लाम मतावलम्बियों द्वारा ही चलाया जाना चाहिए। मुझ जैसे बाकी लोग उनके समर्थन में मैदान में आ सकते हैं किन्तु आगे तो उन्हीं लोगों को आना पड़ेगा और आगे बने रहना भी पड़ेगा।

सनातन धर्म या कि हिन्दू धर्म की सती प्रथा, बाल विवाह, पशु बलि जैसी अनेक कुरीतियों, कुपरम्पराओं का विरोध करने के लिए इस धर्म के लोग ही सामने आए। दक्षिण भारत में चल रही ऐसी ही कुछ परम्पराओं का विरोध भी इस धर्म के ही लोग कर रहे हैं। वे लोग न्यायालय में भी जा रहे हैं। किसी धार्मिक परम्परा का विरोध जब उस धर्म से इतरधर्मी लोग करते हैं तो वह पहली ही नजर में अनुचित हस्तक्षेप होता है। इसीलिए मैंने इदुज्जहा पर दी जाने वाली, बकरों की बलि प्रथा के विरोधी अभियान से जुड़ने से मना कर दिया। 
मेरे इस जवाब पर मुझे हड़कानेवाले मित्र ने तृप्ति देसाई का हवाला दिया जिसने मुम्बई की बन्दर मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश की लड़ाई लड़ी और जीती। मैंने समझाने की कोशिश की कि तृप्ति का अभियान केवल हिन्दू या मुसलमान महिलाओं के लिए नहीं था। तृप्ति की लड़ाई, धार्मिक आधार पर महिलाओं के साथ किए जा रहे भेदभाव को लेकर थी। बन्दर मस्जिद से पहले वह शनि मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सफल-संघर्ष कर चुकी थी। इसीलिए बन्दर मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश को लेकर उसके अभियान को धर्मिक हस्तक्षेप नहीं माना गया। 

जुलाई महीने में भी ऐसा ही हुआ था। स्कूली बच्चों को, मध्याह्न भोजन में अण्डा भी दिया जाता है। निस्सन्देह, अण्डा उन्हीं बच्चों को दिया जाता है जो अण्डा खाते हैं। जो बच्चे अण्डा नहीं खाते, उन्हें नहीं दिया जाता। मेरे हिसाब से यह अच्छी व्यवस्था है। मेरे कस्बे के अनेक लोगों को यह अच्छा नहीं लगता।  मैं खुद चूँकि मांसाहार विरोधी हूँ इसलिए मुझे भी अच्छा नहीं लगता। किन्तु दूसरे क्या खाएँ, यह निर्धारण भी नहीं करता। ‘जीव दया’ के पक्षधर कुछ लोग मेरे पास आए। वे स्कूलों में अण्डा दिए जाने पर प्रतिबन्ध लगवाने के अभियान में मेरी भागीदारी चाहते थे। मैंने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। मैं अपना धर्म मानूँ, यह मेरी इच्छा। किन्तु सामनेवाला मेरा धर्म माने, यह आग्रह मैं भला कैसे कर सकता हूँ? मेरा धर्म और नियन्त्रण मुझ तक सीमित है। दूसरों पर अपना धर्म आरोपित करना या अरोपित करने का आग्रह करना ही अपने आप में अधर्म है। मैंने कहा-‘मैं खुद अण्डा नहीं खाता हूँ। खाऊँगा भी नहीं। किन्तु आपके अभियान में शरीक नहीं होऊँगा।’ वे नाराज होकर, मुझे नफरतभरी नजरों से देखते हुए लौटे। वे सब मुझे अधर्मी घोषित कर गए। मेरी हँसी चल गई। जो कृपालु मेरे पास आए थे, उनमें से तीन के परिजन मांसाहर करते हैं। यह बात वे खुद भी जानते हैं। वे अपने परिजनों से मांसाहार त्याग का आग्रह नहीं कर पा रहे। अपने राजनीतिक प्रभाव और वोट बैंक की राजनीति के तहत उन्होंने, मुख्यमन्त्री से आश्वासन हासिल कर लिया कि मेरे कस्बे के स्कूली बच्चों को अण्डा नहीं दिया जाएगा। वे सब खुश हैं किन्तु मुझे अभी भी यह अधार्मिक कृत्य ही लग रहा है।

कोई धर्म ऐसा नहीं है जिसमें कुछ न कुछ अनुचित, आपत्तिजनक न हो। इदुज्जुहा पर बकरों की बलि भी मुझे ऐसी ही एक अनुचित, आपत्तिजनक बात लगती है। मैंने अपने कुछ इस्लाम मतावलम्बी मित्रों से बात की थी। मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि उनमें से अधिकांश लोग इस कुर्बानी को अनुचित मानते हैं और इससे मुक्ति के लिए, समाज की जाजम पर अपने स्तर पर, जूझ रहे हैं। इसके साथ ही साथ यह भी मालूम हुआ कि मुहर्रम के अवसर पर ताजिये निकालने के विरोध में भी एक अभियान मुसलमानों में चल रहा है। इस अभियान के समर्थकों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे सारे लोग आपस में मिलकर एक काम लगातार कर रहे हैं-निराश होकर, थककर न बैठने का। वे सब जानते हैं कि ऐसे बदलाव आसानी से, जल्दी नहीं आते। धर्मान्धता और कट्टरता आसानी से छूटनेवाले व्यसन नहीं। इनसे मुक्ति पाने में पीढ़ियाँ खप जाती हैं। तीन तलाक के विरोध में उठनेवाली आवाजें मुसलिम समुदाय में आज बढ़ती भी जा रही हैं और अधिक प्रगाढ़ भी होती जा रही हैं। किसी (इस्लाम मतावलम्बी) ने कभी सोचा था कि महिलाएँ अपना खुद का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बनाएँगी? लेकिन हम देख रहे हैं आज यह संस्था अस्तित्व में आ गई है। 

दरअसल, गुलामी से मुक्ति के अभियान का विचार किसी गुलाम के मन में ही आ सकता है। वही ऐसा कोई मुक्ति अभियान चला सकता है है क्यों उसमें अनुभूत सचाई का ताकत होती है। वह लड़ाई बनावटी नहीं, सौ टका ईमानदार होती है। उसमें मुक्ति की छटपटाहट होती है, किसी के प्रति नफरत नहीं होेती। और इतिहास गवाह है कि ईमानदारी और प्रेम से चलाए अभियान अपनी मंजिल तक पहुँचते हैं।
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ के दिनांक 15 सितम्बर के अंक में छपा)

पेकेज के बँधुआ मजदूर

चार साल की वन्या हर रविवार की शाम बहुत परेशान कर देती है। कर क्या देती है, वस्तुतः वह खुद परेशान हो जाती है। रविवार की शाम उसका एक भी संगी-साथी मुहल्ले में नजर नहीं आता। सारे बच्चे अपने माता-पिता के साथ कहीं न कहीं घूमने निकल जाते हैं। वन्या मुहल्ले में अकेली रह जाती है। उसका पिता तरुण, कार बनानेवाली एक अन्तरराष्ट्रीय कम्पनी के स्थानीय विक्रय केन्द्र पर बड़े ओहदे पर काम करता है। कहने को शनिवार, रविवार को उसकी छुट्टी रहती है किन्तु केवल कागजों पर। छुट्टियों के इन दोनोें दिनोें में उसे रोज की तरह सुबह साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुँचना ही पड़ता। रात में वापसी का कोई समय निश्चित नहीं। चूँकि इन दोनों दिनों की उसकी हाजरी कागजों पर नहीं लगती, इसलिए उसे इन दोनों दिन काम करने का कोई अतिरिक्त भुगतान भी नहीं मिलता। छुट्टियों के प्रति उसके नियोक्ता का व्यवहार यह कि जिस दिन भारत अपनी आजादी का जश्न मनाता है उस दिन तरुण आजाद नहीं रह पाता। उसकी नियुक्ति की शर्तें और देश के श्रम कानून, नौकरी की वास्तविकता के नीचे कराहते रहते हैं। तरुण मेरे कस्बे में परदेसी है। जाहिर है, उसका पारिवारिक जीवन रात दस-ग्यारह बजे से सुबह नौ-साढ़े नौ बजे के बीच ही रहता है। सामाजिक जीवन तो उसका लगभग शून्य ही है। 

अग्रवालजी की बेटी निधि बेंगलुरु में, एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में आईटी प्रोफेशनल है। उसका दफ्तर सुबह साढ़े नौ बजे शरु होता है खत्म शाम छः बजे। किन्तु वह कभी भी साढ़े सात-आठ बजे से पहले दफ्तर से निकल नहीं पाती। निधि अपने काम-काम में चुस्त-चौबन्द है। अपना सारा काम शाम छः बजते-बजते पूरा कर लेती है। किन्तु उसके बाद डेड़-दो घण्टे दफ्तर में ही बैठना पड़ता है क्योंकि उसका बॉस तब तक कुर्सी पर जमा रहता है और दूसरे सहकर्मी भी अपना काम निपटाने के बाद भी वहीं बने रहते हैं। काम तो बॉस के पास भी कुछ नहीं होता। वह अपने सहयोगियों-अधीनस्थों से बतियाता रहता है। एक शाम निधि छः बजे ही निकलने लगी तो बॉस ने टोका - ‘आज जल्दी जा रही हो!’ निधि ने कहा - ‘नहीं! सर! आज वक्त पर जा रही हूँ।’ बॉस ने चुप रहने की समझदारी बरती। प्रति दिन इन डेड़-दो घण्टों के लिए किसी को कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं मिलता। 

तन्मय एक अमरीकी आईटी कम्पनी के गाजियाबाद दफ्तर में बहुत बड़ा अधिकारी है। खूब अच्छी तनख्वाह मिलती है। किन्तु उसने त्याग-पत्र पेश कर दिया। अपनी कार्यकुशलता, दक्षता और परिश्रम से वह कम्पनी के लिए अनिवार्य जैसी स्थिति में आ गया है। कार्यालय प्रमुख ने उसे बुलाकर बात की। तन्मय ने बताया कि उसे हर आठ-दस दिनों मे अमेरीका भेजा जाता है। लौटने के बाद दो-तीन दिनों तक उसका,  सोना-खाना, उसकी दिनचर्या गड़बड़ रहती है। सब कुछ सामान्य होते ही उसे अगले ही दिन फिर अमरीका जाने का हुक्म थमा दिया जाता है। यात्रा से अधिक असुविधा गाजियाबाद से दिल्ली हवाई अड्डेे जाना और हवाई अड्डे से गाजियाबाद आनेे में होती है। वह अनिद्रा और हाई बीपी के घेरे में आ गया है। नियुक्ति की शर्तों के अधीन वह ऐसी यात्राओं से मना नहीं कर सकता। किन्तु दूसरी ओर, इसी कारण उसकी जान पर बन आई है। उसे यात्रा और अमरीका प्रवास में सारी सुविधाएँ जरूर उपलब्ध कराई जाती हैं किन्तु इस अतिरिक्त भाग-दौड़ के लिए कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं मिलता। यहाँ भी श्रम कानूनों पर मेनेजमेण्ट की मनमर्जी भारी पड़ती है। कम्पनी उसे खोना नहीं चाहती थी। उसने इसी शर्त पर स्तीफा वापस लिया कि उसे इस तरह अमरीका नहीं भेजा जा जाएगा।

हेमेन्द्र भी बेंगलुरु में ऐसी ही एक अमरीकी कम्पनी में काम करता है। उसकी नौकरी भी नौ से छःह बजे तक की है किन्तु रात आठ बजे से पहले कभी वापसी नहीं होती। हफ्ते में चार-पाँच बार ऐसा होता है कि वह घर के लिए निकल रहा होता है कि अमरीका से फोन आता है - ‘हेमेन्द्र! अपने एक महत्वपूर्ण ग्राहक यहाँ बैठे हुए हैं। उनकी एक छोटी सी समस्या हल कर दो।’ यह ‘छोटी सी समस्या’ कभी भी आधी रात से पहले हल नहीं होती। इस तरह आधी रात तक उसका काम करना कहीं भी रेकार्ड पर नहीं आता। महीने में दो-तीन बार उसे ‘इमर्जेन्सी’ के नाम पर शनिवार-रविवार को भी दफ्तर आना पड़ता है। इस अतिरिक्त काम के लिए उसे न तो कोई अतिरिक्त भुगतान मिलता है और न ही मुआवजे के रूप में कोई छुट्टी ही मिलती है। इसके विपरीत, सुबह नौ बजे नौकरी पर पहुँचना अनिवार्य है। यहाँ भी श्रम कानून एड़ियाँ रगड़ता है।

अड़तीस वर्षीय सुयश की कठिनाई तनिक विचित्र है। उसे सुबह साढ़े नौ बजे पहुँचना होता है। नौकरी तो शाम छःह बजे तक की ही है किन्तु रात नौ बजे से पहले कभी नहीं निकल पाता। नौकरी ऐसी कि सुबह जाते ही अपने खोके (क्यूबिम) में जो घुसता है तो लौटते समय ही निकल पाता है। घर से दफ्तर और दफ्तर से घर दुपहिया पर, दफ्तर में खोके में। पैदल चलना-फिरना शून्य। दो बरसों में उसका शरीर थुलथुल और वजन नब्बे किलो पार हो गया है। उसे हाई बीपी ने घेरना शुरु कर दिया है। किन्तु कम्पनी को इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है। 

सुयश एक विदेशी विज्ञापन कम्पनी में काम करता है। कम्पनी दृष्य-श्रव्य-मुद्रित (आडियो-विजुअल-प्रिण्ट) विज्ञापन तैयार करती है। उसका समय भी सुबह साढ़े नौ से शाम छःह तक की है। समय पर पहुँचना जरूरी है किन्तु जरूरी नहीं कि शाम छःह बजे छुट्टी मिल ही जाएगी। कभी नहीं मिलती। कम से कम साढ़े आठ तो बजते ही हैं। शनिवार आधे दिन की छुट्टी रहती है किन्तु केवल कागजों पर। एक भी शनिवार ऐसा नहीं आया जब आधे दिन बाद छुट्टी मिल गई हो। रविवार की छुट्टी भी अपवादस्वरूप ही मिल पाती है। कभी स्पॉट रेकार्डिंग के लिए तो कभी आउटडोर शूट के लिए रविवार को जाना पड़ता है। इस अतिरिक्त काम के लिए सुयश को भी कोई अतिरिक्त भुगतान या मुआवजास्वरूप छुट्टी नहीं मिलती। सुबह समय पर पहुँचना अनिवार्य। वापसी का कोई समय नहीं। यहाँ भी केवल कम्पनी-कानून ही चलता है।

ये सारे के सारे कोई काल्पनिक पात्र-प्रसंग नहीं हैं। ये सब बच्चे मेरे पॉलिसीधारक हैं। सीधे मुझसे जुड़े हुए। इनसे जीवन्त सम्पर्क है मेरा। ये सारे के सारे बताते हैं कि इनके साथ काम करनेवाले तमाम लोगों का भी यही किस्सा है। इनकी शब्दावली भले ही अलग-अलग रही किन्तु सब खुद को ‘उच्च तकनीकी शिक्षित, पेकेज के मारे, कुशल बँधुआ मजदूर’ मानते हैं। ये सब अपने-अपने नगरों-कस्बों से, माँ-बाप से दूर बैठे हैं। इनके लिए सारे त्यौहार-पर्व अपना अर्थ और महत्व खो चुके हैं। पारिवारिकता खोते जा रहे हैं। देहातों-कस्बों-गाँवों के छोटे बच्चे जिस उम्र में धड़ल्ले से दादा-दादी, नाना-नानी से बातें कर-करके मनमोहते हुए परेशान कर देते हैं, उसी उम्र के इनके बच्चे बराबर बोल नहीं पा रहे। इनके बच्चों को बात करनेवाले बच्चे और परिजन नहीं मिल रहे। इनकी जिन्दगी दफ्तर और मॉलों तक सिमट कर रह गई है। बाजार की गिरफ्त इतनी तगड़ी है कि बचत के नाम पर भी कोई बड़ा आँकड़ा इनके बैंक खातों में नहीं है। निधि के मुताबिक ये तमाम लोग ‘सुबह हो रही है, शाम हो रही है, जिन्दगी यूँ ही तमाम हो रही है’ पंक्तियों को जीने को अभिशप्त हो गए हैं। बेंगलुरु और पुणे में मालवा के सैंकडों बच्चे नौकरियाँ कर रहे हैं किन्तु इनका आपस में मिलना तभी हो पाता है जब ये किसी प्रसंग पर अपने-अपने नगरों-कस्बों में इकट्ठे होते हैं। 

निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण ने आर्थिक सन्दर्भों में जरूर परिदृष्य बदल दिया है किन्तु अपनी इस पीढ़ी की सेहत, इसकी पारिवारिकता, इसकी सामाजिकता सिक्कों की खनक में गुम हो गई है। पेकेज की प्राप्ति की कीमत कहीं हम अपनी इस समूची पीढ़ी को अकेलापन और अस्वस्थता देकर तो नहीं चुका रहे?
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भैंसों पर विज्ञापन का नवोन्मेषी विचार

हमारे नेता महान् हैं। हम उन पर गर्व करें या उनकी खिल्ली उड़ाएँ, वे महान् हैं। एक ही मुद्दे पर, एक ही समय में, समान अधिकारपूर्वक परस्पर विपरीत और विरोधी राय जाहिर करने का दुसाध्य काम सहजता से कर लेना उन्हें महान् बनाता है। एक और बात उन्हें महान् बनाती है। उन्हें हम पर आकण्ठ विश्वास रहता है कि उनकी तमाम परस्पर विरोधी बातों को हम आँख मूँद कर सच मान लेंगे। वैसे, उन्हें महान् कहने और मानने में हमारी ही भलाई भी है। वे हमारी ही कृति हैं। कोई जमाना रहा होगा जब ‘यथा राजा तथा प्रजा’ वाली कहावत लागू होती रही होगी। अब तो ‘यथा प्रजा तथा राजा’ वाली उक्ति लागू होती है। इसलिए हमारा भला इसी में है कि हम अपने नेताओं को महान् कहते और मानते रहें।

यह सब कहने की जरूरत नहीं हुई होती यदि अखबारों से वाबस्ता नहीं हुआ होता। यही गलती हो गई। यह बड़ी विचित्र स्थिति है कि अखबार न देखो तो दिन भर बेचैनी बनी रहती है कि अखबार नहीं देखे। और देख लो तो दिन भर खुद पर गुस्सा आता रहता है कि अखबार देखने में वक्त क्यों जाया किया? न भी देखते, पढ़ते तो जीवन व्यर्थ नहीं हो जाता। यह दशा लगभग रोज ही रहती है किन्तु कोई एक पखवाड़े से कुछ अधिक ही अनुभव हो रही है। लगभग एक पखवाड़े से इन्दौर में हूँ। छोटे बेटे के पास। करने-धरने को कुछ नहीं। फुरसत ही फुरसत। दूरियाँ इतनी कि किसी से मिलने जाने की कल्पना में ही थकान आने लगती है। महानगरों की दूरियाँ नापने के लिए आपके पास तीन चीजों में से कोई एक होनी चाहिए। पहली-खुद का वाहन। यह न हो तो दूसरी-आपकी जेब में इतने पैसे हों कि आप टैक्सी/ऑटो रिक्शा का खर्च वहन कर सकें। और यह भी न हो तो तीसरी-आपके पास इतना धैर्य और समय हो कि आप जन-वाहन (पब्लिक ट्रांसपोर्ट) की प्रतीक्षा कर सकें। तीसरी स्थिति में आपके पास वह सहन शक्ति भी होनी चाहिए कि आप जन-वाहन की भीड़ और उससे उपजी दूसरी परेशानियाँ सहन कर सकें। मैंने खुद को पहली दो स्थितियों के लिए निर्धन और तीसरी के लिए असहाय-असमर्थ पाया। सो खुद को घर में ही कैद किए रहा। ऐसे में अखबार ही सहारा बने रहे। 

इन पन्द्रह दिनों में बाकी सारे समाचार तो बदलते रहे किन्तु दो समाचार स्थायी स्तम्भ की तरह प्रति दिन नजर आए-पहला, सड़कों पर बैठे आवारा पशु और दूसरा-महानगर में, विभिन्न मुख्य मार्गों पर लगे अवैध हार्डिंग। ये दोनों  ही मुझे यातायात में समान रूप से बाधक लगते हैं। आवारा पशु प्रत्यक्ष रूप से और होर्डिंग अप्रत्यक्ष रूप से। दोनों ही शहर की खूबसूरती को समान रूप से नष्ट करते हैं। अन्तर केवल इतना है कि होर्डिंग कमाई का जरिया बनते हैं, आवारा पशु नहीं। पन्द्रह दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा जब अखबारों ने सड़कों पर बैठे आवारा पशुओं और अवैध होर्डिंगों के फोटू नहीं छापे। किस सड़क पर, कितनी दूरी में कितने अवैध होर्डिंग लगे हैं और कहाँ-कहाँ कितने-कितने आवारा पशु बैठे नजर आए, सब कुछ बड़े चाव से सचित्र छापा और उससे भी अधिक चाव से प्रशासन की उदासीनता तथा जन प्रतिनिधियों के मन्तव्य छापे। यही सब पढ़-पढ़ कर मुझे अपने नेताओं की महानता पर गर्व होता रहा।

आवारा पशुओं को हटानेवाले मामले में में तमाम जन प्रतिनिधियों ने भरपूर उत्साह दिखाया और प्रशासन को पूरी-पूरी सहायता देने की बात कही। सबके शब्द जरूर अलग-अलग थे किन्तु सन्देश एक ही था-प्रशासन आवारा पशुओं को फौरन हटाए। हम किसी भी पशुपालक की सिफारिश नहीं करेंगे और यदि कभी हम खुद फोन करें या हमारे नाम से कोई और फोन करे तो उस पर ध्यान न दें, कड़ी से कड़ी कार्रवाई कर नागरिकों को राहत दिलाए।

किन्तु अवैध होर्डिंगों को हटाने के मामले में एक भी जन प्रतिनिधि एक बार भी इतना उदार नहीं हो पाया। ऐसा लगा, बेचारे सब के सब बहुत ही मजबूर किसम के लोग हैं। एक ने भी नहीं कहा कि अवैध होर्डिंग के विरुद्ध कार्रवाई करने पर उन्हें कोई असुविधा नहीं होगी। इन होर्डिंगों पर इन नेताओं के समर्थकों ने अपने-अपने नायकों के चित्रों सहित खुद के चित्र छपवा रखे हैं। जब उनसे, अपने समर्थकों को इस तरह अवैध होर्डिंंग लगाने से रोकने के लिए कहा गया तो मानो सबके सब बेचारे, लाचार, अपने-अपने कार्यकर्ताओं के बँधुआ हो गए। सबके जवाब एक से बढ़कर एक जैसे रहे। एक ने कहा कि वे जन्म दिन मनाने के पक्षधर कभी नहीं रहे। अपने कार्यकर्ताओं को ऐसे होर्डिंग-बैनर लगाने से मना करते हैं किन्तु वे (कार्यकर्ता) हैं कि मानते ही नहीं। इन नेताजी ने आश्वस्त किया कि वे भविष्य में अपने कार्यकर्ताओं को रोकने का प्रयास करेंगे। दूसरे ने बड़ी ही बेचारगी में कहा कि उन्होंने तो कहा है कि वे (कार्यकर्ता) उनके फोटूवाले बैनर-होर्डिंग न लगाएँ लेकिन वे हैं कि मानते ही नहीं। तीसरे इन दोनों से एक कदम आगे निकले। बोले कि वे खुद तो होर्डिंग लगाते नहीं किन्तु कार्यकर्ता (उनसे) बिना पूछे फोटूवाले बैनर-पोस्टर लगा देते हैं। यह अच्छी बात नहीं है और इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। चौथे ने खुद को सबसे जोड़ा और कहा कि धार्मिक आयोजनों के नाम पर कार्यकर्ता ऐसे बैनर-पोस्टर लगा देते हैं। इस मामले में लोगों को जागरूक करने की जरूरत है। 

दोनों विषयों पर प्रशासकीय अधिकारी भी अलग-अलग मुद्राओं में नजर आए। आवारा पशुओं के मामले में हिटलरी मुद्रा और तेवर अपनानेवाले अफसर अवैध होर्डिंगों के मामले में सुविधावादी भाषा में सामने आए। सबका जवाब लगभग एक ही रहा कि उनका अमला तो रोज ही इन्हें हटाता है किन्तु रोज ही नए भी लग जाते हैं। इसलिए कार्रवाई होती रहने के बावजूद स्थिति वैसी की वैसी ही नजर आती है। जिनसे बात की गई उन तमाम अफसरों ने एक सावधनी (या कहिए कि चतुराई) यह बरती कि इस स्थिति के लिए एक ने भी किसी नेता को जिम्मेदार नहीं बताया और न ही किसी ने किसी नेता से सहायता माँगी। मानो सबको सब कुछ पता हो। 

आदमी खुद से अधिक प्यार किसी को नहीं करता। और वह आदमी यदि नेता हो तो यह स्थिति तो उसे ‘सोने पर सुहागा’ वाली लगती होगी। कौन नेता होगा जिसे अपना नाम, अपना फोटू, अपना प्रचार न सुहाए? इसके विपरीत, वार्ड स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर के प्रत्येक नेता की इच्छा यही होती है कि दसोें दिशाओं में उसका नाम गूँजे, चारों ओर वही नजर आए। अवैध होर्डिंग उनकी यह इच्छा पूरी करते हैं सो इनका विरोध कैसे और क्यों करें? बिना किसी कोशिश के जब मन की मुराद पूरी हो रही हो तो या तो चुप रहो या दूध पीती बिल्ली की तरह आँखें मूँदे आत्म-भ्रम में जीते रहो। कार्यकर्ता जिन्दाबाद।

यह सब सोचते हुए मुझे मेरे कॉलेज के दिनों का एक साथी बड़ी शिद्दत से याद हो आया। सन् 1967-68 में, कॉलेज के छात्र संघ चुनावों में वह उम्मीदवार था। जीत-हार से उसे कोई लेना-देना नहीं था। केवल मजे लेने के लिए उम्मीदवार हो गया था। अपने प्रचार के लिए उसने अद्भुत ‘नवोन्मेषी विचार’ (इन्नोवेटिव आईडिया) अपनाया था। कस्बे में उसे जहाँ-जहाँ सड़कों पर भैंसें नजर आईं, उन सब पर उसने अपने नाम सहित वोट की अपील लिखवा दी। भैंसों की एक विशेषता है कि वे तेज नहीं दौड़तीं। धीमे-धीमे टहलती हैं। अपने मतदाताओं से मिलने के लिए जब दूसरे उम्मीदवार घर-घर जा रहे होते तब मेरा वह मित्र घर बैठा रहता और टहलती भैंसें पूरे कस्बे में उसका प्रचार करती रहतीं। प्रचार का यह अभिनव विचार तब स्थानीय अखबारों में खूब जगह पाए रहा। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि आज के किसी नेता या किसी नेता के किसी कार्यकर्ता को यह ‘नवोन्मेषी विचार’ नहीं आया। वर्ना आवारा पशुओं के विरुद्ध की जानेवाली कार्रवाई को लेकर भी हमार नेताओं के जवाब वे ही होते जो अवैध होर्डिंगों को लेकर हैं।

किन्तु तब भी वे महान् ही होते। आखिर वे हमारे नेता हैं और हमने ही तो उन्हें बनाया है!
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