मैं और मेरा शहर

(वसन्त पंचमी, रतलाम का स्थापना दिवस था। इस प्रसंग पर मुझसे ‘कुछ’ लिखने को कहा गया था। मैंने ‘यह’ लिखा। इसे ‘केवल सुरक्षित रखने के लिए’ ब्लॉग  पर दे रहा हूँ। इसे  पढना और टिप्पणी करना आपके लिए समय, श्रम और ऊर्जा का अपव्यय ही होगा।)

कुछ काम केवल एक दिन करने के लिए किए जाते हैं। एक दिन कर लो। फिर भूल जाओ ताकि अगले साल फिर उसे याद किया जा सके - करके फिर भूल जाने के लिए। रतलाम के विकास का विलाप भी ऐसा ही एक काम है। रतलाम के स्थापना दिवस पर, सुबह से (और बहुत हुआ तो एक दिन पहले से) यह विलाप शुरु होता है और रात होते-होते सब शान्त हो जाता है। बहुत हुआ तो अगले दिन तक भी इसे जारी रखा जाता है। याने अधिकतम तीन दिन। अपनी-अपनी स्थायी, चिरपरिचित मुद्रा और शैली में विलाप कर सब प्रसन्नतापूर्वक, आत्म-मुग्ध हो, अपनी-अपनी पीठ ठपठपाते बिस्तर में चले जाते हैं - चलो! इस साल का काम निपट गया। अब अगले साल देखेंगे। उस क्षण रतलाम के विकास की बात कोई नहीं करता। सब इसी बात पर खुश रहते हैं कि सबने अपना-अपना विलाप गए साल से बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया। हाँ, यह सब होता है उत्सवी स्वरूप में। विलाप को ऐसा उत्सवी स्वरूप शायद ही कहीं और दिया जाता हो।

मुझसे भी रतलाम के विकास पर अपना विलाप करने को कहा गया। मैं नहीं कर सका। चुप रह गया। कैसे करता? यदि नहीं हुआ है तो इस, समुचित विकास नहीं होने में, रतलाम को इसका प्राप्य नहीं मिलने में मैं भी तो जिम्मेदार हूँ? अपने निकम्मेपन पर तो मैंने लज्जित होना चाहिए! सार्वजनिक क्षमा याचना करनी चाहिए। पश्चात्ताप करना चाहिए। रतलाम ने मुझे सब कुछ दिया किन्तु मैंने रतलाम को क्या दिया? कुछ भी तो नहीं! ऐसे में, मैं तो विलाप करने का नैतिक अधिकार ही खो चुका! भला साहस कैसे पाता? सो, मुँह छिपाकर बैठा रहा।

‘विकास’ ऐसी अवधारणा है कुछ शब्दों में या एक वाक्य में परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए पूरा आख्यान चाहिए। यह आख्यान भी ऐसा होता है जिसका प्रत्येक अंश, प्रत्येक वाक्य एक आख्यान की माँग कर सकता है। फिर, सबके पास, ‘विकास’ की अपनी-अपनी अवधारणा, अपने-अपने अर्थ और अपने-अपने आख्यान! यह स्थिति, सुविधा भी है और दुविधा भी। ऐसे में, मेरे लिए ‘विकास’ का अर्थ है - उद्यमिता। अंग्रेजी में जिसे एण्टरप्रिनरशिप या एण्टरप्राइज कहा जाता है। ‘उद्यमिता’ में शामिल ‘उद्यम’ के कारण सामान्यतः इसे ‘उद्योग’ से जोड़ दिया जाता है जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। मेरे तईं, ‘उद्यम’ ऐसा उपक्रम है जो दीर्घकालिक होता है और जो समाज के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा करता है और जिसका प्रभाव अपने नगर की भौगोलिक सीमाओं को लाँघकर, आसपास के गाँवों-देहातों पर भी होता है। ‘उद्यम’ भी चूँकि मनुष्य निर्मित, मनुष्य आधारित और मनुष्य केन्द्रित होता है, इसलिए इसमें अच्छाइयाँ भी होती हैं और बुराइयाँ भी। ऐसे में, इन अच्छाइयों और बुराइयों का प्रभाव भी सब पर समान रूप से होता ही है।

उद्यम का एक और प्रभाव होता है जिसे में इसकी सामाजिक विशेषता मानता हूँ। उद्यम के जरिए आया विकास, अपने साथ समृद्धि भी लाता ही लाता है और न्यूनाधिक सबके लिए लाता है। यह समृद्धि योगदान आधारित और आनुपातिक भी हो सकती। किन्तु आती सबके लिए है। इसलिए मैं ‘उद्यमिता’ को ‘विकास’ की अनिवार्यता मानता हूँ।

रतलाम में यह उद्यमिता नहीं है। रतलाम में केवल ‘व्यापार’ है। व्यापार से समृद्धि तो आती है किन्तु वह सबके लिए नहीं होती। केवल व्यापारी के लिए। व्यापार से रोजगार के अवसर, सामान्यतः पैदा नहीं होते। यदि होते भी हैं तो बहुत ही सीमित। लगभग नगण्य। ‘व्यापार’ में, एक साल में ही नफे-नुकसान का गणित लगा लिया जाता है और यदि सब कुछ ठीक-ठाक न हो तो व्यापार बदला जा सकता है। उद्यम में ऐसा नहीं होता। चूँकि वह दीर्घकालिक होता है इसलिए उसमें बदलाव की गुंजाइश शून्य प्रायः ही होती है और इसीलिए उसमें निरन्तरता बनी रहती है। आर्थिक लाभ का लक्ष्य तो दोनों में समान रूप से होता है किन्तु व्यापार में लाभ धनात्मक होता है जबकि उद्यम में यह गुणात्मक होता है। ‘उद्यम’ आदमी को पल-पल कुछ नया सोचने और करने को प्रेरित करता है जबकि ‘व्यापार’ में ऐसा नहीं होता। इन्हीं सब बातों के चलते मेरी धारणा है कि व्यापार से समृद्धि तो आ सकती है, विकास नहीं। जबकि विकास के कारण समृद्धि अपने आप आती है और आती ही आती है। फिर, रतलाम के ‘व्यापार’ में, एक उल्लेखनीय कारक और है जो पारम्परिक व्यापार पर हावी हो गया है और जो मुझे अन्य किसी नगर में नजर नहीं आता। यह कारक है - जमीन का व्यापार। पारम्परिक व्यापार में ‘वस्तु व्यापार’ होता है जिसमें बाहर से सामान मँगाया जाता है बाहर भेजा भी जाता है। किन्तु जमीन व्यापार में यह नहीं होता। हो ही नहीं सकता। मैं अनुभव कर रहा हूँ कि जमीनों का यह व्यापार, (जिसे रतलाम की विशेषता मान लिया गया है और जिसे लेकर हर कोई खुशी से चहकता मिलता है) रतलाम को ‘जड़’ बना रहा है। इसकी गतिशीलता समाप्त कर दी है। प्लॉट के एक सामान्य आकार के सौदे में ही इतना मिल जाता है कि महीने का खर्च निकल आता है। तो फिर पूरे महीने, तीस दिन, चौबीसों घण्टे क्यों हाथ-पैर मारे जाएँ? नतीजा यह हुआ है कि जो भी थोड़ी सी फुरसत में हुआ, ‘प्रापर्टी ब्रोकर’ बन गया। अब यहाँ  बेकार कोई नहीं है। कोई ताज्जुब नहीं कि रतलाम का हर तीसरा आदमी ‘प्रापर्टी ब्रोकर’ नजर आए। हालत यह हो गई है कि ग्राहक कम और ब्रोकर ज्यादा नजर आते हैं। ‘कोढ़ में खाज’ वाली स्थिति यह कि नगर के तमाम राजनेता भी इसी ‘जड़ व्यापार’ में शरीक हो गए। परस्पर विरोधी दलों के तमाम छोटे-बड़े नेता, जमीनों के व्यापार में भागीदार बने हुए हैं। ऐसे में इनकी राजनीतिक गतिविधियों में वह धार आ ही नहीं सकती जो नगर के विकास की तलब होती है। सबके सब, अपने भगीदार को बचाए रखते हुए अपनी राजनीति करते हैं। ऐसे मेें भला कोई राजनेता, राजनीतिक सन्दर्भों में महत्वाकांक्षी कैसे हो सकता है? और जब नेता ही महत्वाकांक्षी नहीं तो नगर के लिए सपने कौन देखे और कौन उन्हें पूरा करे?

हर नगर, हर समाज,  शनै-शनै अपनी प्रकृति, अपना मिजाज, अपना चरित्र निर्धारित कर लेता है। हमने इस सच को स्वीकार कर लेना चाहिए कि रतलाम की प्रकृति, इसका मिजाज, इसका चरित्र ‘व्यापार’ है। यही इसकी पहचान है और यही इसका भविष्य भी। यदि यही सच है तो हमने इसके ‘विकास का विलाप’ बन्द कर इसे ऐसा उत्कृष्ट व्यापारी नगर बनाने की योजना बनाने पर सोचना चाहिए जो यदि पूरे देश के नहीं तो कम से कम पूरे प्रदेश के लोगों तो यहाँ आने के लिए आकर्षित करे। ललचाए। ‘राग विकास’ के आलाप लेना बन्द कर क्यों नहीं हम इसे ‘अग्रणी व्यापार केन्द्र’ बनाने या इसे इसका पुराना नाम (जिसका उल्लेख करते हम थकते नहीं) ‘रत्नपुरी’ देने में जुट जाएँ? 

विचार कीजिएगा।

8 comments:

  1. उत्कृष्ट प्रस्तुति |
    आभार आदरणीय ||

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  2. विकास पर विलाप करते समय हम वह पक्ष तो देखना चाहते हैं, जो होने चाहिये थे। कई ऐसे पक्ष दृष्टि से छूट जाते हैं जो स्वयं ही विकसित हो गये। हाँ जब व्यवस्था कुछ करते हुये नहीं दीखती है तो दुख होना स्वाभाविक है।

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  3. बहुत ही सार्थक एवं उत्कृष्ट प्रस्तुति.

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  4. प्रापर्टी ब्रोकर का धंदा इन दिनों बड़े जोरों पर है. वैसे प्रारंभ से ही रतलाम व्यापार के लिए ही प्रसिद्ध रहा है.

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  5. प्रोपेर्टी के इस गोरखधंधे से कोई भी शहर या क़स्बा नही बचा है,फिर रतलाम इससे अछूता कैसे रह जाता । जहां गुड़ होगा वह मक्खियाँ आएंगी ही,इसीलिए दलाल भी मक्खियों की तरह हो गए है । दिल्ली-मुंबई सुपर कॉरीडोर आ रहा है तो रतलाम मे उद्योग भी आ ही जाएंगे ।

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  6. लगभग सब नगरों की यही स्थिति यही है .इससे कोई अछूता नहीं बचता

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  7. आपने सही नब्ज पर हाथ रखा है ---काश !हमारे शहर के विकास का विलाप करने वाले अपने . रोज बनते ऊँचे मकान और उसके नीचे बनती दुकान से आगे भी कुछ सोच ले --

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  8. रतलाम की प्रकृति, इसका मिजाज, इसका चरित्र ‘व्यापार’ है
    चिंतनीय

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