दामिनी : न पहली, न अन्तिम

27 और 28 दिसम्बर के दो दिनो में, याने पूरे 48 घण्टों तक मैंने, टीवी पर कोई समाचार नहीं देखे। आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। लगा ही नहीं कि मुझसे कुछ छूट रहा है या छूट गया है।
 
कल, 29 दिसम्बर की सुबह भी इसी मनःस्थिति में था। अपनी डाक पेटी खोलते-खोलते, पता नहीं कैसे, फेस बुक खुल गई। उसे बन्द कर, डाक पेटी खोलता, उससे पहले ही इन्दौरवाले अशोकजी मण्डलोई प्रकट हो गए। कह रहे थे - ‘लड़की की मौत से दुःखी हूँ।’ मैंने पूछा - ‘कौन सी लड़की?’ उन्होंने जवाब दिया - ‘वही! दिल्लीवाली। बलात्कार पीड़िता। अपनी दामिनी।’ इसके बाद कुछ भी कहना-सुनना कोई मायने नहीं रखता था।
 
मन पर उदासी तैर आई। दामिनी से जुड़ी, अस्पताल से मिलती रही सूचनाएँ पहले से ही आशंकित किए हुए थीं। प्रतिदिन ही, ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था - आशंकाएँ सच न हों। लेकिन ईश्वर ने मेरी नहीं सुनी।
 
तनिक सामान्य होने के बाद पहली बात जो मन में आई, वह धारा के सर्वथा प्रतिकूल है। अच्छा हुआ जो वह मर गई। वर्ना हम उसे जीने नहीं देते। भले ही उसे राष्ट्र नायिका बनाए रहते, किन्तु उससे दूर ही रहते। उसका वीरोचित सम्मान करते, लेकिन अपने चौके में शायद ही बुलाते-बैठाते। जिस समाज में बलात्कारी, वीरोचित मुद्रा में इठलाता-इतराता फिरे और हमें बुरा नहीं लगे, वहाँ बलात्कृत दामिनियों का दिवंगत हो जाना ही उनके लिए श्रेष्ठ है। किसी के यहाँ डकैती हो जाए तो हम सबकी सहानुभति, डकैती झेलनेवाले के प्रति होती है। हम उसके घर जाकर, सम्वेदनाएँ जताते हैं, नुकसान की विस्तृत पूछताछ करते हैं, ढाढस बँधाते हैं, भरोसा दिलाते हैं कि वह अपने को अकेला न समझे। हम सब उसके साथ हैं। किन्तु बलात्कार के मामले में हम ऐसा नहीं करते। सबसे पहला काम करते हैं - पीड़ित परिवार से छिटकने का। पीड़ित परिवार की दशा यह हो जाती है मानो उसने अक्षम्य, जघन्य अपराध कर लिया है। वह सारी दुनिया से मुँह छिपाता है। और बलात्कृत लड़की? उसे तो पहले ही क्षण से ‘चरित्रहीन’ का स्थायी प्रमाण-पत्र दे दिया जाता है। ऐसे में, दामिनी का मर जाना मुझे उसके हित में अधिक ही लग रहा है। वैसे भी हम जीवितों की चिन्ता कहाँ करते हैं? ऐसे मामलों में, मरे हुए ही हमें अधिक सहायक और उपयोगी साबित होते हैं। सो, दामिनी का मर जाना न केवल उसके लिए अपितु हमारे लिए भी अच्छा ही हुआ।
 
कल, थोड़ी देर के लिए टीवी खोला। लगभग सारे के सारे समाचार चैनलों पर थोड़ी-थाड़ी देर के लिए रुका। कोई विशेष अन्तर नहीं लगा सिवाय इसके कि समाचार वाचकों और प्रस्तोताओं की आवाज धीमी और मुखमुद्राएँ म्लान थीं। सहज ही उत्सुकता जागी और मनोरंजन चैनलें देखीं। दामिनी का प्रभाव कहीं नहीं था। सब, अपने-अपने पूर्वघोषित कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे। समाचार और मनोरंजन चैनलों को, रात को फिर टटोला। सब कुछ वैसा ही था जो दिन भर से चल रहा था।
 
लायन्स क्लब के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर कल, अपनी सद्भावना यात्रा के अन्तर्गत मेरे कस्बे में थे। कार्यक्रम का बुलावा मुझे भी मिला था। इन दिनों मेरी उत्तमार्द्धजी, बेटों के पास, इन्दौर गई हुई हैं। घर पर अकेला हूँ। भोजन की व्यवस्था सबसे बड़ा काम बना हुआ है। लायन्स क्लब के आयोजन में भोजन का न्यौता भी था। आयोजन स्थल और मेरे निवास की दूरी मुश्किल से डेड़ सौ कदम है। किन्तु नहीं जा पाया। मन ही नहीं हुआ।
 
जैसा कि होना ही था, आज के सारे अखबारों पर दामिनी छाई हुई है। इस मृत्यु से अनगिनत अपेक्षाएँ-आशाएँ प्रकट की गई हैं। जितनी भी सचित्र प्रतिक्रियाएँ छपी हैं - सब की सब, ‘सेलीब्रिटियों’ की ही हैं - जीवित सामान्य दामिनियों में से एक को भी जगह नहीं मिली है। सरकार को भी कोसा गया है। अच्छी बात यही नजर आई कि सबने इसे सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता से ही जोड़ा है।
 
मैं मूलतः आशावादी आदमी हूँ। किन्तु ‘अति आशावादी’ नहीं। आज जो कुछ अखबारों में और समाचार चैनलों में नजर आ रहा है, वह मुझे ‘अति आशावाद’ ही लग रहा है। इसमें भी जो चिन्ताजनक बात मुझे लग रही है वह है - दूसरों से आशा/अपेक्षा। कोई नहीं कह रहा कि वह खुद कुछ करेगा। हर कोई ‘चाहिए’ की भाषा प्रयुक्त कर रहा है। इसी से मुझे परेशानी हो रही है।
 
दामिनी की मृत्यु मुझे, उपदेश बघारने की नहीं, कुछ कर गुजरने का संकल्प लेने की चुनौती लगती है। मैं इस मृत्यु को ‘सम्भावना’ भी मानता हूँ - कुछ अच्छी शुरुआत होने की प्रेरणा देनेवाली सम्भावनाएँ।
 
हमने अपने आप को जिस सीनाजोरी से सरकारों के भरोसे छोड़ रखा है, उससे उबरने की प्रेरणा यह मृत्यु हमें दे सकती है। जिस तरह से दिल्ली की सड़कों पर सवाल पूछे गए हैं, उसी तरह से देश की गली-गली में सवाल पूछने की शुरुआत करने की प्रेरणा यह मौत दे सकती है। अपने नेताओं/नियन्ताओं को नियिन्त्रत करने की चेतना और हिम्मत देने की प्रेरणा यह मृत्यु दे सकती है। दूसरों के सुधरने की चिन्ता छोड़ खुद को सुधारने की प्रेरणा इससे मिल सकती है।
 
आज सुबह मेरा बड़ा बेटा वल्कल फोन पर बता रहा था कि गई रात ही उसके एक मित्र ने, एक मनचले कारवाले की पिटाई की। एक दुपहिया वाहन पर जा रही तीन लड़कियों को परेशान कर रहा वह कारवाला, निश्चय ही किसी नव-कुबेर का बिगड़ैल बेटा रहा होगा। वल्कल के मित्र ने उसे टोका तो वह ‘बिगड़ैल बेटा’ और अधिक बदतमीजी पर उतर आया। जवाब में, वल्कल के मित्र ने उसकी पिटाई कर दी। वल्कल कह रहा था कि उसके मित्र को अपने किए पर खुशी कम, आत्म सन्तोष अधिक था। किन्तु इसके समानान्तर उसने इस बात पर भी चिन्ता जताई कि माँ-बाप अपनी बेटियों को, खुद को बचाने के लिए तो ढेरों सीख देते हैं किन्तु अपने बेटों को, लड़कियों के साथ शिष्टता से पेश आने के लिए, लड़कियों का सम्मान करने के लिए कभी नहीं कहते।
 
मुझे लगता है, अपने-अपने घरों में, अपने-अपने बेटों से ऐसा कहने के लिए दामिनी की यह मौत हमें प्रेरित कर सकती है।
 
व्यक्तिगत स्तर मैं दुःखी तो बहुत हूँ किन्तु सुधार की बहुत अधिक उम्मीद मुझे नजर नहीं आ रही। अपने सम्पूर्ण आशावाद के होते हुए भी मैं दहशत में हूँ - दामिनी की, शहदात का दर्जा पानेवाली यह मौत कहीं बेकार न चली जाए। इस मौत से उपजी यह सम्भावना, यह मौका हम गँवा न दें। इस मौत ने जो चुनौती हमारे सामने खड़ी की है - उससे मुँह चुराने का स्वभावगत अपराध न कर लें। दुर्भाग्यवश ऐसा हो गया तो मानना ही पड़ेगा कि यह दामिनी न तो पहली थी और न ही अन्तिम होगी।
 
दूसरे क्या करें, क्या न करें, इस पर तो मेरा कोई नियन्त्रण नहीं। इसलिए अपने स्तर मैं संकल्प ले रहा हूँ कि मैं अपने मन में दामिनी की मौत को मरने नहीं दूँगा। खुद के स्तर पर, अपने परिवार के स्तर पर वह सब करूँगा जिससे फिर किसी दामिनी को ऐसी मौत न मरनी पड़े।
 
ईश्वर मुझे आत्म-बल दे कि मैं निरपेक्ष भाव से अपने संकल्प पर कायम रह सकूँ।

10 comments:

  1. आज आवश्यकता इस बात की है की हर नागरिक अपना आचरण सुधारने का संकल्प ले और उस पर अमल भी करें । उम्मीद करें कि फिर किसी दामिनी को ये दिन देखने की नौबत न आएगी ।

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  2. क्या आप ने अपने बेटों को कुछ सिखाया? मुझे लगता है आप ने उन्हें कुछ नहीं सिखाया। वे तो आप को देख कर ही सीख गए। जरूरत बच्चों को सिखाने की नहीं, खुद को बदलने की है। बच्चे तो अनुकरण करते हैं।

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    1. दिनेशजी! यह आपने क्‍या कर दिया? आपने तो मुझे अकिंचन को 'फर्श से अर्श पर' चढा दिया। यह पात्रता तो मुझमें नहीं ही है। आपकी टिप्‍पणी के मुताबिक बन पाना, मरे लिए, कम से कम इस जन्‍म में तो सम्‍भव नहीं हो पाएगा। मैं विगलित हूँ। टिप्‍पणी नहीं लिखी जा रही। सब कुछ धुंधला कर दिया आपने।

      आभार...धन्‍यवाद...कृतज्ञता...कुछ भी तो पर्याप्‍त नहीं लग रहा!

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  3. भाई साहब बैरागी जी प्रणाम , दामिनी, अस्किनी या कोई भी इस बेटी का सही नाम हो सबसे पहले उसकी आत्मा को इश्वर शान्ति दें और हमें सद्बुद्धि की यह अंतिम कहानी हो.

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  4. विचारणीय आलेख! हम कौन होते हैं किसी के जाने को सही ठहरने वाले, लेकिन यह कहना भी उसी बेबसी (या कायरता) का एक पक्ष है जिसका दूसरा पक्ष पीड़ित से बचाने से लेकर उसीको डांटने, दुतकारने या गलत ठहराने की ओर जाता है। रही बात सरकार से उम्मीद रखने की, तो यह बात हम सबको, खासकर सरकार उन लोगों को समझनी चाहिए जो भूत, भविष्य या वर्तमान में सरकार का भाग हैं - कि सरकार से आशा रखना जायज़ ही नहीं अपेक्षित है। जनता की गाढ़ी कमाई से सरकारें चलती हैं ताकि हर व्यक्ति को हर रोज़ हर जगह के प्रशासन की बाधाओं से मुक्ति मिल सके। सरकार के दो लक्षण भारत में लापता हैं - 1. सरकार दिग्दर्शन के साथ न्याय, प्रशासन, व्यवस्था भी संभालती है| 2. कम से कम लोकतन्त्र में, सरकार अपने काम में जनता को भी साथ लेकर चलती है।
    भारतीय/पाकिस्तानी/बंगलादेशी/... समाजों में लड़के लड़की के अंतर के बारे में, वही दोहरा रहा हूं जो बरसों पहले लड़कियों की जींस पर प्रतिबंध लगाने की बात पर कहा था:
    लड़कों को? कम से कम समाज-व्यवस्था का आदर करने की तमीज तो सिखानी ही पड़ेगी। अपराधियों को त्वरित और कड़ी सज़ा के साथ ही "लड़के तो ऐसे ही होते हैं..." कहकर बढावा देने वाले उनके बेरीढ़ माँ-बाप को भी शिक्षित करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए।

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    1. आपकी टिप्‍पणी ने मेरी हौसला अफजाई तो की ही, मेरी पोस्‍ट का मान भी बढाया। अन्‍तर्मन से आभार।

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (31-112-2012) के चर्चा मंच-1110 (साल की अन्तिम चर्चा) पर भी होगी!
    सूचनार्थ!
    --
    कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि चर्चा में स्थान पाने वाले ब्लॉगर्स को मैं सूचना क्यों भेजता हूँ कि उनकी प्रविष्टि की चर्चा चर्चा मंच पर है। लेकिन तभी अन्तर्मन से आवाज आती है कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह सही कर रहा हूँ। क्योंकि इसका एक कारण तो यह है कि इससे लिंक सत्यापित हो जाते हैं और दूसरा कारण यह है कि पत्रिका या साइट पर यदि किसी का लिंक लिया जाता है उसको सूचित करना व्यवस्थापक का कर्तव्य होता है।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. तकनीक से अनजान, मुझ जैसे आदमी को तो आपकी इस कृपापूर्ण सूचना से ही मालूम हो पाता है। मैं वे ही ब्‍लॉग पढ पा रहा हूँ जो मुझे ई-मेल से मिलते हैं। अन्‍यथा, ब्‍लॉगों को एक मुश्‍त तलाश कर पढना मैं आज तक नहीं जान पाया।

    आपकी व्‍यथा अपनी जगह किन्‍तु, आपका इस तरह सूचना देना मुझ पर तो यह आपकी अतिशय कृपा ही है।

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  7. ♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
    ♥नव वर्ष मंगबलमय हो !♥
    ♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥





    सम्पूर्ण आशावाद के होते हुए भी मैं दहशत में हूँ - दामिनी की, शहादत का दर्जा पानेवाली यह मौत कहीं बेकार न चली जाए। इस मौत से उपजी यह सम्भावना, यह मौका हम गँवा न दें। इस मौत ने जो चुनौती हमारे सामने खड़ी की है - उससे मुँह चुराने का स्वभावगत अपराध न कर लें
    इन दिनों हम सबकी मनःस्थिति यही है आदरणीय विष्णु बैरागी जी !
    अफसोस !
    कुछ नहीं कहा जा सकता ...
    यह पहला और निश्चित रूप से आख़िरी हादसा भी नहीं है...

    दामिनी - हादसे के बाद भी लगातार पिछले दिनों में कई पुनरावृत्तियां दिल्ली सहित अलग अलग जगहों पर हो चुकी !
    ... सरकार कितनी भी फ़रेबबाज़ियां करे ... संसद में सत्ता दल के जीवन आधार बने बलात्कारियों / अपराधियों को दंडित करने के लिए सरकार ने कोई ईमानदार पहल करने की बात भी की है क्या ?

    # दामिनी की मृत्यु मुझे, उपदेश बघारने की नहीं, कुछ कर गुजरने का संकल्प लेने की चुनौती लगती है। मैं इस मृत्यु को ‘सम्भावना’ भी मानता हूँ - कुछ अच्छी शुरुआत होने की प्रेरणा देनेवाली सम्भावनाएँ।

    हमने अपने आप को जिस सीनाजोरी से सरकारों के भरोसे छोड़ रखा है, उससे उबरने की प्रेरणा यह मृत्यु हमें दे सकती है। जिस तरह से दिल्ली की सड़कों पर सवाल पूछे गए हैं, उसी तरह से देश की गली-गली में सवाल पूछने की शुरुआत करने की प्रेरणा यह मौत दे सकती है। अपने नेताओं/नियन्ताओं को नियिन्त्रत करने की चेतना और हिम्मत देने की प्रेरणा यह मृत्यु दे सकती है। दूसरों के सुधरने की चिन्ता छोड़ खुद को सुधारने की प्रेरणा इससे मिल सकती है।

    अक्षरशः सहमत हूं आपसे ...
    आपका आलेख सामयिक होते हुए भी सर्वकालिक है ...
    जब तक अपराधियों को संरक्षण देने वाला और आम निरीह नागरिकों पर अत्याचार करने वाला शासन है , स्थितियों में सुधार की संभावना नहीं ।

    हर आम नागरिक भोथरी " पार्टी निष्ठा " से ऊपर उठ कर निर्णय लेने लगे तो कुछ सुधार होने की शुरुआत संभव हो सकती है ...

    ताज़्ज़ुब है आज भी हम भारतीय आधी रात को सोते हुए भी...
    दिन में शांत प्रदर्शन के दौरान भी...
    सरकार द्वारा बड़ी बर्बरता से चलवाई गई लाठियों से पीटे जा सकते हैं ।
    सर्दी में ठंडे पानी की बौछारों से भिगोये जा सकते हैं ।
    सरकार हम पर अश्रुगैस का प्रयोग कर सकती है , गोलियां चलवा सकती है ...

    # अरे ! ऐसी क्या मजबूरी है ऐसी सरकार को ढोने और बार बार ढोने की ?
    पूरे देश को भीषण महंगाई से अधमरा कर देने वाली यह सरकार
    अपने लिए वोट डालने वालों के घर रियायती दरों पर गुपचुप सस्ता राशन-पानी पहुंचा देती है क्या ??

    कहीं भी न्याय नहीं फिर भी ढोते रहने का शौक !!!

    जटिल कारणों से उत्पन्न समस्याओं के कारणों की तह तक पहुंच जाएं तो दस-बीस सालों में स्थितियां नियंत्रण में आ भी सकती हैं ...
    हम न सही , हमारी संतानें , हमारी भावी पीढ़ियां तो सुखी और सुरक्षित हों !

    हमारी सारी समस्याएं भी और उनके कारण भी जुड़े हैं , एक समस्या को अलग करके उसका निराकरण संभव नहीं ।

    मैं अपने मन में दामिनी की मौत को मरने नहीं दूँगा।
    खुद के स्तर पर, अपने परिवार के स्तर पर वह सब करूँगा जिससे फिर किसी दामिनी को ऐसी मौत न मरनी पड़े।

    शत शत नमन आपको !

    आपकी तरह मैं भी ‘अति आशावादी’ नहीं , किंतु आशावादी अवश्य हूं ।
    २०१२ को अलविदा कहने के साथ मैं अपनी ओर से नव वर्ष के स्वागत में कहता हूं-
    ले आ नया हर्ष , नव वर्ष आ !

    आजा तू मुरली की तान लिये ' आ !
    अधरों पर मीठी मुस्कान लिये ' आ !
    विगत में जो आहत हुए , क्षत हुए ,
    उन्हीं कंठ हृदयों में गान लिये ' आ !



    आशाएं जीवित रहनी ही चाहिए …
    नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
    राजेन्द्र स्वर्णकार
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