पुणे के महान् ऑटोवाले

पुणे के ऑटो रिक्शावाले महान् हैं - अत्यधिक और अद्भुत क्षमतावान। वे चरम नास्तिक को भी आस्तिक बना देने का माद्दा रखते हैं। मेरा पुणे प्रवास यूँ तो चार दिनों का था किन्तु ऑटोवालों से पाला एक ही दिन पड़ा और इस एक ही दिन में मैं उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुँच गया।
 
सोमवार, 26 नवम्बर 2012 को मुझे पुणे में नौ (9) ऑटो रिक्शावालों से काम पड़ा। एक में डिजिटल मीटर लगा था, शायद इसीलिए वह कुछ नहीं बोला। दूसरे ने साफ-साफ कहा कि वह मीटर से पाँच रुपये ज्यादा लेगा। लकिन बाकी सात? लगा - सातों में प्रतियोगिता थी - कौन अधिक ‘धारदार’ साबित हो। उन सातों से मिले अनुभव के बाद लगा कि पाँच रुपये ज्यादा माँगनेवाला तो उन सबका बाप ही रहा होगा।
 
 
 
 
 
 
इन आठों आटो रिक्शों में सामान्य मीटर लगे थे किन्तु सबमें एक अद्भुत साम्य था - रुपयों का, दहाई वाला अंक किसी में भी नहीं देखा जा सकता था। यहाँ दिए दो चित्र नमूना मात्र हैं। पूरे पुणे के तमाम ऑटो रिक्शों में यही स्थिति है। आप चाहे जो कर लें (मैंने दो-एक रिक्शों में ‘कुछ’ करने की असफल कोशिश की थी), होगा वही जो ऑटोवाला चाहेगा और कहेगा। आप कितनी ही बहस कर लें, चाहें तो उसकी खिल्ली भी उड़ा लें, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मीटर भले ही दो रुपये तीस पैसे बता रहा हो, आपको वही रकम चुकानी पड़ेगी जो ऑटोवाला बता दे। यह आपकी तकदीर होगी कि वह बत्तीस रुपये बताए या बयालीस। मीटर में एक रुपया सत्तर पैसे नजर आनेवाला भाड़ा ग्यारह रुपये भी हो सकता है और इक्यानबे रुपये भी। जो दूरी पार करने में एक ऑटोवाले ने मुझसे तीस रुपये लिए, उसी दूरी को पार करने के लिए दूसरे ने पैंतालीस रुपये लिए और दोनों ही बार भुगतान मीटर से किया गया। आप कल्पना कर सकते हैं कि मीटर से पाँच रुपये अधिक माँगनेवाले ने मुझसे किस तरह दोहरी वसूली की - मीटर की रकम तो मनमानी बताई ही, पाँच रुपये भी ज्यादा लिए?
 
इस स्थिति पर मैंने (जिस-जिस ऑटो में मैं बैठा) प्रत्येक ऑटोवाले से बात की। जाहिर है कि बात अलग-अलग समय पर, अलग-अलग आदमी से हुई किन्तु जवाब सबका एक ही था - ‘यहाँ तो ऐसा ही चलता है।’ मैंने पुलिस का हवाला दिया तो शब्दावली तो सबकी अलग-अलग रही किन्तु मतलब एक ही था - ‘पुलिसवालों के चूल्हे हम ऑटोवालों के दम पर ही तो चल रहे हैं!’ एक ऑटोवाले ने तो पूछा - ‘आप कहें तो आपको पुलिस थाने ले चलूँ? देख लीजिएगा कि क्या होता है।’ दूसरे ने मेरी ‘नादानी’ पर हँसते हुए कहा  - ‘आप क्या समझते हैं! पुलिसवालों को पता नहीं?’ तीसरा ऑटोवाला तनिक शरीफ था। बोला - ‘क्यों अपना खून जला रहे हैं? हर चौराहे पर तो वर्दीवाला खड़ा हुआ है! आप कहेंगे तो भी वह मदद नहीं करेगा। आप तो परदेसी हैं। चले जाएँगे। उन्हें तो हमारे साथ, पुण में ही रहना है।’ ऐसी बात सुनने के बाद हर बार मैं यह सोच-सोच कर खुश हुआ कि मुझसे ज्यादा रकम लेने के बाद भी प्रत्येक ऑटोवाले ने मुझ पर महरबानी की - उसे तो और अधिक रकम लेने की ‘स्वयम्भू-छूट’ और ‘निर्बाध-स्वतन्त्रता’ मिली हुई थी।
 
पुणे से प्रकाशित हो रहे तमाम हिन्दी अखबार, रोज ही ऑटो रिक्शावालों के ‘कारनामों’ से भरे होते हैं। मुझे मराठी नहीं आती किन्तु विश्वास कर रहा हूँ कि मराठी अखबार भी ऐसा ही कर रहे होंगे। किन्तु पुलिस पर कोई असर नहीं हो रहा। ऑटोवालों पर कार्रवाई करना तो दूर रहा, ‘प्री-पेड’ बूथ की अच्छी-भली चल रही व्यवस्था को पुलिस ने बन्द करा दिया। इस व्यवस्था से ऑटोवालों और पुलिसवालों के सिवाय बाकी सबको आराम मिल रहा था। चार दिनों में पढ़े सारे (हिन्दी) अखबारों की एक राय थी कि पुलिस ने पुणे के जनसामान्य को ऑटोवालों की दया पर छोड़ दिया है।

मेरे ‘थोड़े’ लिखे को ‘बहुत’ समझा जाए और चाहे जो किया जाए, एक मेहरबानी जरूर की जाए - मुझ पर, मेरी बेचारगी पर हँसा नहीं जाए। मैं ‘कुछ’ कर ही नहीं सकता था। ‘कुछ’ करने की कोशिश करता तो मुमकिन है कि पुलिस का तो सवाल ही नहीं उठता, भगवान भी मुझे शायद ही बचा पाता। पुणे में तो भगवान भी ऑटोवालों के भरोसे जी रहा होगा।  

10 comments:

  1. पुणे, बैंगलोर, चैन्नई, दिल्ली सब जगह आटो वालों की एक जैसी हालत है, चैन्नई में तो १ किमी के ४०-५० रूपये मांगे जाते हैं और बैंगलोर में २ किमी आना जाना १०० रूपये।

    यह सब की मिलीभगत से ही चल रहा है, परंतु जब मैं मुंबई में था तो ऑटो का भरपूर उपयोग किया करता था, वहाँ ऑटो बराबर मीटर से चलता था और आपको शक है तो ट्राफ़िक थाने ले जाकर आप मीटर भी चैक करवा सकते हैं ।

    इंदौर में भी यही हाल है ऑटो का, हाँ अगर सार्वजनिक परिवहन की सुविधा अच्छी हो जाये तो ऑटो पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

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  2. स्थिति यह स्पष्ट है,
    विस्तारित अब कष्ट है।

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  3. ओह, तो ऑटो मीटर से भी चलते हैं क्या? वो क्या है न की चेन्नई में मीटर नामक चिड़िया का नाम किसी ने नहीं सुना है ना, इसलिए आश्चर्य हुआ.
    वैसे यहाँ तो एक किलोमीटर के लिए भी दो सौ रूपये माँगा जा सकता है.

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  4. पहले पुणे का मेरा अनुभव यह है कि ऑटो वाले मीटर से ही रुपये पैसे लेते थे और पैसे भी वापस करते थे,बिना कहे । मीटर भी उनके सही चलते थे । हो सकता है,मनमोहन की मनमानी देख वे भी मनमानी करने लगे हो, क्यों कि जब मनमानी करने पर इस देश मे कुछ नही बिगड़ता है तो हम क्यों न मनमानी करे ।

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  5. ये सारे ऑटो वाले यूपी, बिहार वाले ही होंगे। :)

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    1. नहीं। नहीं। सबके सब मूल महाराष्‍ट्रीयन ही थे। यह जानकारी मैंने जानबूझकर, ध्‍यानपूर्वक ली थी।

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  6. फेस बुक पर, श्री सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी -

    पुणे के लिए मराठी में कहा जाता है - 'विद्याचे माहेरघर' अर्थात् विद्या का मायका (पीहर)। अब पुणे वैसा नहीं रहा। अब वहॉं ऑटोवालों की विद्या चलती है।

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  7. १९८५ से १९९० पांच साल मैंने भी भोगा है

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  8. ई-मेल से प्राप्‍त, श्री अली अकबर चालवाला की टिप्‍पणी -

    पुणे के ऑटोवालों के बारे में आपने सच लिखा। मेरे दोस्‍त के भी ऐसा ही हुआ था। पर वह भी कुछ नहीं कर सका। ऐसी दशा में आम आदमी कर ही क्‍या सकता है। आपका यह लेख देख कर अच्‍छा लगा। आपने लिखने की हिम्‍मत तो की। बहुत खुशी हुई। आपको बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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