गौतमपुरा का गोविन्द

ग्यारह बरस की अवस्थावाला गोविन्द अपनी अवस्था से अधिक समझदार और जिम्मेदार हो गया है।

रतलाम से इन्दौर जा रहा था। रेल से। पोहे-कचोरी के लिए प्रसिद्ध, छोटे से स्टेशन रुनीजा में क्रासिंग था। ऐसे क्रसिंग के वक्त, प्लेटफार्म वेण्डरों और स्टेशन से लगी हुई होटलों के मालिकों की व्यस्तता तनिक अधिक बढ़ जाती है। कम समय में अधिकाधिक बिक्री का अवसर होता है ऐसा क्रासिंग। सिंगल लाइन होने के कारण ऐसा क्रासिंग सबकी आदत बना हुआ है - बरसों से।

इन्दौर से आनेवाली रेल आई। रेल संचालन तन्त्र ने अपनी पारम्परिक व्यवस्था का पालन करते हुए ‘लीफो’ (LIFO - लेट इन, फर्स्ट आउट) के अधीन, इन्दौर से आई रेल को पहले रवाना किया। बाद में इन्दौर जानेवाली, हमारी रेल को।

रेल, रुनीजा से सरकी ही थी कि ‘मूँम्‍फली ऽ ऽ ऽ ऽ ई। गर्र ऽ ऽ ऽ म, करारी ‘मूँम्‍फली ऽ ऽ ऽ ऽ ई’ की बारीक, पतली किन्तु तेज आवाज ने ध्यानाकर्षित किया। रीसायकिल्ड प्लास्टिक से बनी,  मझौले आकार की, मूँफलियों से, आधी से अधिक भरी टोकनी, अपने बाँयें कन्धे पर उठाए एक बच्चा डिब्बे में चढ़ आया था और ‘कुशल’ फेरीवाले की तरह, सहजता से आवाज लगा रहा था। गहरे नीले/हरे रंग की, मशीनीकृत रंगीन कसीदेकारीवाली धारीदार, साफ-सुथरी शर्ट और बाँये हाथ में बँधी सस्ती घड़ी उसके ‘ड्रेस सेंस’ का परिचय दे रही थी। चेहरे पर न तो कोई तनाव न ही कोई भय। चेहरे के रोम-रोम पर पसरा हुआ आत्मविश्वास उसे ‘मनमोहक’ बना रहा था। उसे देखकर पहले क्षण तो प्रसन्नता हुई किन्तु अगले ही क्षण विचार कौंधा - इस समय तो उसे स्कूल में होना चाहिए था!

मैंने उसका नाम और गाँव पूछा तो उसके चेहरे पर छाया आत्म विश्वास, सन्देह में बदलने लगा। डर की कुछ लकीरें भी तैर आईं। निमिष भर को मेरी ओर देखा और नजरें फेर लीं। मैंने कहा - ‘तेने अपना नाम नहीं बताया यार!’ ग्राहक को मूँफली देते उसके हाथ तनिक लरजे। सहमते हुए बोला - ‘गोविन्द।’ पूछताछ आगे बढ़ाने पर खुलकर बिलकुल नहीं बोला। मालूम हुआ, वह गौतमपुरा रहता है और सरकारी स्कूल में, पाँचवी कक्षा में पढ़ता है। सुबह का स्कूल है। दोहर बारह बजे के आसपास छुट्टी होते ही वह, मूँफली की टोकरी उठा कर रेल में चढ़ जाता है।

कितने भाई बहन हैं, फुरसत के समय में पढ़ाई करने या खेलने के बजाय इस तरह मूँफलियाँ क्यों बेचता है और इस तरह दिन भर में कितनी ग्राहकी कर लेता है जैसे सवालों पर कुछ नहीं बोला। सहमते हुए, सन्देह भरी आवाज में बोला - ‘आप ये सब क्यों पूछ रहे हो सा’ब।’ मैंने कहा - ‘बस! यूँ ही।’ ‘यूँई थोड़ी कोई पूछता है सा’ब?’ मैंने भरोसा दिलाने की कोशिश की। उसने भरोसा नहीं किया। बोला - ‘आप चेकिनवाले (चेकिंगवाले) हो।’ मैंने इंकार किया लेकिन उसने विश्वास नहीं किया। बोला - ‘चेकिनवाले नहीं हो तो चेकिनवालों के मिलनेवाले होगे। मैं आपको कुछ नहीं बताऊँगा। क्या पता आप मेरी दुकानदारी बन्द करा दो।’ कह कर फौरन ही डिब्बे के दूसरे हिस्से में चला गया।

ग्यारह बरस का गोविन्द अपनी अवस्था से कहीं अधिक समझदार हो गया है। काफी-कुछ जान गया है - यह कि चेकिंगवाले उसका नुकसान कर सकते हैं और यह भी कि अपनी पारिवारिक और व्यापारिक जानकारियाँ किसे देनी हैं और किसे नहीं।

3 comments:

  1. सच में रेलगाड़ी के अन्दर समझ के कितने अध्याय बिखरे पड़े हैं।

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  2. गोविन्द अपने आप में एक कहानी है..

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  3. निर्मम स्वार्थी शिकारियों से भरी दुनिया में अपना घर चलाने वाले बच्चे को अपने बचाव के लिये समझदार होना ही पड़ेगा, जंगल में कोई कानून नहीं, अपना बचाव आप!

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