इंकार, इंकार में अन्तर

यह ऐसी कहानी है जिस मैं बार-बार सुनाना और खुद सुनना चाहूँगा।

मेरी नौ दिवसीय स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) यात्रा में उनसे भेट हुई। हुई क्या, मैंने ही उनसे भेंट की। असामान्य व्यवहार करनेवाले मुझे लुभाते-ललचाते हैं। इसीलिए, आगे रहकर उनसे भेंट की। स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) स्थित गीता भवन में, नवरात्रि के दौरान हुए, श्री रामचरित मानस नवाह्न पारायण में वे सबसे अलग बैठते रहे। यथासम्भव अधिकाधिक अकेले। कुछ इस तरह की कोई उनके पास या तो आ ही नहीं सके या फिर आए ही नहीं। रामचरित मानस की प्रति उनके हाथों में रहती तो थी किन्तु वे सबके साथ, लगातार पाठ नहीं करते थे। जब जी चाहा, पाठ किया और जब जी चाहा, चुप रह कर या तो रामचरित मानस की प्रति के खुले पृष्ठों को देखते या फिर शून्य में। और लोगों का ध्यान उनकी ओर गया या नहीं किन्तु मेरा ध्यान उनकी ओर जाता रहा। बार-बार। कुछ इस तरह कि मैं असहज हो गया। इसीलिए अपनी ओर से उनसे मिला। लेकिन उन्होंने रंच मात्र भी उत्साह नहीं जताया।

बार-बार पूछने पर भी उन्होंने अपने बारे में कुछ नहीं बताया। नाम भी नहीं। मुझे उनका नाम मालूम हुआ तो उन्होंने उसकी पुष्टि भी नहीं की। मैं अपनी जिज्ञासा दोहराता रहा और उत्तर में वे मेरी ओर देखते रहते - चुपचाप।  उनकी इस प्रतिक्रया ने मेरी जिज्ञासा और बेचैनी में बेतहाशा बढ़ोतरी कर दी। इतनी कि मैं घबरा गया। हार कर कहा कि वे अपने बारे में भले ही कुछ नहीं बताएँ किन्तु यह तो बता दें कि वे ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं। इस बार बोले - ‘हाँ। यह जरूर बताऊँगा। किन्तु एक रिक्वेस्ट है। यह बात आप ज्यादा से ज्यादा लोगों को बताएँगे। खास कर, पैसवालों को।’ मैंने अविलम्ब हामी भर दी।

उनकी कही, कुछ इस तरह है।

वे यदि अरबपति नहीं तो ‘करोड़ोंपति’ तो हैं ही। एक बेटे और एक बेटी के पिता हैं। पति-पत्नी को न तो परस्पर कोई शिकायत है न ही अपने बच्चों से। बच्चों को भी अपने माता-पिता से कोई शिकायत नहीं। परिवार में सब कुछ है - आवश्यकता से अधिक। ईश्वर की विशेष कृपा यह कि किसी को कोई दुर्व्यसन नहीं। किन्तु एक तो धन्धे की प्रकृति और दूसरा लालच,  इसी कारण नम्बर दो का पैसा खूब है।

निर्धनों, असहायों के लिए अन्नक्षेत्र चलानेवाले कुछ लोग, कोई दो-ढाई महीना पहले, उनके नगर के कुछ लोग उनके पास आए। अन्नक्षेत्र का काम निहायत साफ-सुथरा है। ऐसा कि लोग स्वयम् चलकर सहायता देने वहाँ पहुँचते हैं। किन्तु इस बार एक विशेष योजना के लिए तनिक अधिक धन की आवश्यकता अनुभव हुई सो अन्नक्षेत्र से सम्बद्ध लोग नगर में चन्दा लेने निकले। इनसे माँगा तो विचित्र व्यवहार कर बैठे। पैसा भी था, देने की इच्छा भी थी किन्तु मन में लालच आ गया और इंकार कर बैठे। माँगनेवाले चले गए और उनके साथ ही बात भी आई-गई हो गई।

योग-संयोग कुछ ऐसा रहा कि इंकारवाली इस घटना के आठ-दस दिन बाद ही इनके यहाँ आयकर विभाग ने छापा मार दिया। उसके बाद वही सब हुआ जो होता है - अखबारबाजी, नगर में सच्ची-झूठी कहानियों का चलना आदि-आदि।  जनधारणाओं के अनुसार, ऐसे मामले जिस तरह से निपटाए जाते हैं, इन्होंने भी निपटाया। लेकिन छापे और निपटान की इस प्रक्रिया के दौरान अन्नक्षेत्रवाले लोग इन्हें बराबर और बार-बार याद आते रहे। आयकर विभागवालो से विशेष निवेदन यह किया कि उन्हें जो करना हो कर लें किन्तु मामला जल्दी से जल्दी, अन्तिम रूप से निपटा दें। ऐसे अनुरोध आयकर विभागवालों को शायद ही मिलते हों। सो, थोड़ा कम-ज्यादा करके, प्रक्रिया की सारी कागजी खानापूर्ति निर्णायक रूप से निपटा दी।

प्रकरण का निपटारा होते ही इन्होंने सबसे पहला काम किया - फोन करके अन्नक्षेत्रवालों को बुलाया और ‘यथा-शक्ति, यथा-इच्छा’ अपना योगदान उन्हें सौंप दिया। रकम का अनुमान, अन्नक्षेत्रवालों की प्रतिक्रिया से लगाया जा सकता है - ‘इतना! यह तो हमारी पूरी योजना की जरूरत से भी ज्यादा है!’ ये बोले - ‘जो भी है, कबूल करें। सारा पैसा नम्बर दो का है। मुझे रसीद भी नहीं चाहिए और न ही मेरा नाम इस योजना से जोड़ें।’ अन्नक्षेत्रवालों के हाथ पैर फूल गए। बोले - ‘लेकिन हमें तो रसीद काटनी पड़ेगी!’ इन्होंने कहा कि अन्नक्षेत्रवालों को जो करना हो कर लें, किसी के भी नाम की रसीद बना लें लेकिन इनके बारे में किसी को कुछ नहीं कहें। अन्नक्षेत्रवालों के लिए ऐसा यह पहला मामला था। उन्होंने वहीं से अपने सी.ए. से बात की। जवाब मिला - ‘रसीद बनाने की चिन्ता न करें। पूरी रकम की रसीद बन जाएगी। आप तो पैसे ले आईए।’

इसके बाद से इन्होंने अपनी पत्नी और बच्चों को बुलाया। कहा कि वे कमाई में कोई कमी नहीं करेंगे। सबकी जरूरतें इसी तरह पूरी की जाती रहेगी किन्तु अब नम्बर दो उतना ही करेंगे जितना कि मजबूरी में करना पड़ेगा। किन्तु चाहते हैं कि परिवार अपनी आवश्यकताएँ कम करे, सादगी से जीए और प्रदर्शन से बचे। तीनों ने सहमति जताई और सहयोग का वादा किया।

इसके बाद इन्होंने अपनी तीन कारों में से दो कारें बेच दीं। दोनों बच्चों को उनके मनपसन्द दुपहिया वाहन दिला दिए। मकान कुछ इस तरह बना था कि आधा भाग एक निजी कम्पनी को किराए पर दे दिया। सारा काम काज पूर्ववत ही चल रहा है। लक्ष्मी अटाटूट ही बरस रही है किन्तु अब लेन-देन नम्बर एक में हो रहा है। दो नम्बर में लेन-देन करनेवालो ग्राहकों का तनिक असुविधा हो रही है किन्तु इनका ‘साफ-सुथरा व्यापारिक व्यवहार’ और सामान की, आँख मूँदकर भरोसा करने वाली क्वालिटी के चलते वे भी दुकान बदलना नहीं चाहते। उन्हें तनिक असुविधा हो तो रही है किन्तु साथ दे रहे हैं।

नम्बर दो का पैसा अभी भी भरपूर है। उससे मुक्ति पाने की कोशिशों में लगे हुए हैं। अन्नक्षेत्रवालों से कहा है कि उनके जैसी ही, सच्ची सेवा और साफ-सुथरा काम करनेवाली जरूरतमन्द संस्थाओं को या तो वे खुद खबर कर दें या फिर उनके पते इन्हें दे दें।

सुपात्र को देने से इंकार कर दिया और अपात्रों ने जबराना वसूल कर लिया - इस घटना ने इनके जीवन की दिशा बदल दी। अन्नक्षेत्रवालों को किए गए इंकार से उपजा अपराध बोध अभी भी बना हुआ है। लेकिन मुझे लगा, इंकार से कम और जबरिया वसूली से इन्हें अधिक क्षोभ हुआ होगा और उसी क्षोभ ने इनकी नींद हराम कर रखी होगी। मन की शान्ति तलाश रहे थे। धर्म के नाम पर किए जानेवाले चोंचले इन्हें बिलकुल पसन्द नहीं। किसी अन्तरंग ने गीता भवन की गतिविधियों के बारे में बताया तो यहाँ चले आए। वास्तव में अच्छा लगा। मन को तसल्ली हुई। गीता भवन के काम काज को ध्यान से देखा और पाया कि अब जो भी देना-करना है, यहीं करेंगे। यह निर्णय करने के बाद से बेचैनी में कमी अनुभव कर रहे हैं। अब यहाँ बराबर आते रहेंगे।

मैंने कहा कि उनकी इच्छा के परिपालन में उनकी यह कहानी मैं अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने की ईमानदार कोशिश करूँगा लेकिन अब तो वे अपना नाम बता दें। जवाब मिला - ‘इस चक्कर में क्यों पड़े हैं? मैं अपना जो नाम बताऊँगा वह सच ही होगा, इसकी क्या ग्यारण्टी? मैंने भी तो आपका नाम नहीं पूछा!’ मैंने कहा कि नाम और अता-पता बताने से कहानी की विश्वसनीयता बढ़ जाएगी। बोले - ‘अगली मुलाकात में जान लीजिएगा।’ मैंने कहा - ‘क्या पता कि अगली मुलाकात कहाँ और कब होगी? और यह भी कि क्या ग्यारण्टी कि मुलाकात होगी ही?’ जवाब मिला - ‘जैसे ईश्वर ने यह मुलाकात करवाई, वैसे ही हो जाएगी। और यदि न हो तो मान लें कि ईश्वर की यही इच्छा है।’ मैंने कहा - ‘आपको मेरे बारे में भी जानने की उत्सुकता नहीं?’ हँसकर बोले - ‘बिलकुल नहीं। अगली बार मिलेंगे तो जान लूँगा।’ उनके स्वरों की दृढ़ता के सामने मेरे पास कोई जवाब नहीं था।

इंकार, इंकार में कितना फर्क होता है? उनके एक इंकार का बोझ उनकी आत्मा पर अभी बना हुआ है और अपने बारे में कुछ बताने और मेरे बारे में कुछ जानने को लेकर किए अपने इंकार से कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा?

केवल सूचनार्थ


सोमवार, 15 अक्टूबर की शाम से ऋषिकेश में हूँ। 

गुरुवार, 25 अक्टूबर को घर वापसी होगी।

आप सबसे मुलाकात तब ही हो सकेगी।

काश! ‘राष्ट्रीय’ नहीं तो ‘नेशनल’ तो हो ही पाते

मेरे कस्बे के, ‘जी. डी. अंकलेसरिया रोटरी हॉल’ के स्वर्ण जयन्ती समारोह की मौखिम सूचना मिली तो थी आत्मीय प्रसन्नता हुई थी। यह सभागार मेरे कस्बे की एक पहचान तो है ही, मेरी अनेक स्मृतियाँ भी इस सभागार से जुड़ी हुई हैं। सूचना मिलते ही पहली भावना मन में आई थी - जरूर जाना है इस समारोह में।
 
किन्तु समारोह का निमन्त्रण-पत्र पाकर जी उदास हो गया। सुन्दर
आकल्पन और निर्दोष, उत्कृष्ट मुद्रण वाले, नयनाभिराम निमन्त्रण-पत्र में एक अक्षर भी हिन्दी का नहीं था। आयोजन में जाने की भावना तत्क्षण ही ‘अकाल मौत’ मर गई।
 
 
 
 
 
यह मानसिकता मुझे आज तक समझ नहीं आई कि किसी अन्तरराष्टीªय संगठन से जुड़ने, उसका हिस्सा होने का अर्थ ‘अंग्रेज हो जाना’ कैसे और क्यों हो जाता है? ऐसे संगठनों की तमाम स्थानीय शाखाएँ, स्थानीय स्तर अपना सारा काम, सारा व्यवहार, सारा सम्वाद स्थानीय भाषा में ही करती हैं। लोगों की तकलीफें, लोगों की भाषा में ही सुनती हैं, उनकी सेवा/सहायता करने हेतु सारे साधन-संसाधन जुटाने हेतु, स्थानीय भाषा में ही आग्रह करती हैं, अपनी सारी उपलब्धियाँ भी स्थानीय भाषा में ही सार्वजनिक करती हैं (ताकि, जनसामान्य प्रेरित/प्रेरित होकर और अधिक सहायता दे), उनके मासिक प्रकाशन भी सामान्यतः स्थानीय भाषा में ही होते हैं। किन्तु जब भी कोई महत्वपूर्ण प्रसंग आता है तो पता नहीं क्यों ‘स्थानीयता’ तिरोहित होकर ‘अंग्रेजीयत’ कब्जा कर लेती है? ‘इण्टरनेशनल’ होने के लिए स्वभाषा का ‘उपेक्षापूर्ण त्याग’ अपरिहार्य हो जाता है? क्या हम अपनी राष्ट्रीयता,  अपनी भाषा, अपने संस्कारों, अपनी स्थानीयता के साथ इण्टरनेशनल नहीं हो सकते? और यदि वास्तव में नहीं हो सकते तो क्या हमें इस कीमत पर ‘इण्टरनेशनल’ होना कबूल कर लेना चाहिए? तब हम किस तरह ‘स्वभाषा’ और ‘स्वदेश’ पर गर्व-गुमान कर सकते हैं? 
 
मैं इस आयोजन में नहीं गया। लगा, जाऊँगा तो मेरे अन्दर का गर्वीला ‘घामड़-देहाती’ कहीं ‘ऐसा कुछ’ न कर दे कि आयोजन के बजाय ‘कुछ और’ समाचार बन जाए। सो, नहीं गया।
 
मैंने कार्यक्रम के बारे में बाद में भी कोई जानकारी नहीं ली। उत्सुकता ही मर गई थी। पता नहीं, समूचा आयोजन हिन्दी में हुआ या अंग्रेजी में। अनुमान भर ही कर पाया कि सब कुछ हिन्दी में ही हुआ होगा।
 
रोटरी क्लब, रतलाम के मित्र मुझे क्षमा करें। वे सब सामूहिक रूप से और व्यक्तिशः, मुझ पर कृपालु हैं। खूब आदर, प्रेम से बुलाते हैं। खूब मान-सम्मान देते हैं। दो-एक बार मुख्य वक्ता के रूप में भी बुला चुके हैं। इसके बावजूद, यह सब कहने से खुद को नहीं रोक पाया। सब के सब ‘मेरे, अपने’ हैं। मैं भले ही उन्हे ंन समझ पाया होऊँ किन्तु उन सबकी समझ पर मुझे आकण्ठ विश्वास है। वे सब मुझे खूब अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए मेरे इस लिखे पर कुपित होना तो दूर रहा, खिन्न या अप्रसन्न भी नहीं होंगे। उन्हें मेरी सदाशयता पर पूरा विश्वास होगा कि यह प्रकरण तो मात्र एक बहाना है। मूल मुद्दा तो ‘मानसिकता’ है जो केवल, रोटरी क्लब, रतलाम तक सीमित नहीं है।
 
जब दुनिया के अन्य देश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के दम पर ‘इण्टरनेशनल’ हो सकते हैं, बने रह सकते हैं तो हम क्यों नहीं ऐसा करते? कर ही नहीं सकते क्या?
 
होना तो हमें ‘राष्ट्रीय’ चाहिए किन्तु एक क्षण मान लूँ कि वैसा नहीं कर पाए। तो, कम से कम ‘नेशनल’ तो हो ही सकते हैं।

धर्म की मार्केटिंग : मेरे लिए नई जानकारी


‘उसने’ कहा था तो मैंने विश्वास नहीं किया था। लगा था, उसका काम नहीं हुआ होगा, इसलिए वह ऐसा कह रहा है। लेकिन अभी-अभी, भाकपा की मध्य प्रदेश इकाई के पाक्षिक ‘लोक जतन’ (वर्ष: तेरह, अंक: उन्नीस, दिनांक 01 से 15 अक्टूबर 2012) में जसविन्दरसिंहजी का, ‘तब के विवेकानंद : अब के बाबा’ शीर्षक लेख पढ़ा तो, ‘उसकी’ अनुपस्थिति में ‘उसकी’ बातों पर विश्वास करना पड़ा। 

धर्म के नाम पर ठगी और धोखाधड़ी कर रहे विभिन्न बाबाओं की कारगुजारियों की तथ्यात्मक जानकारियों से भरे इस विचारोत्तेजक लेख में जसविन्दरसिंहजी ने लिखा है - ‘बाजारीकरण के दौर में बाबाओं की बाढ़ सी आ गई है। कई धार्मिक चैनल सुबह से लेकर शाम तक प्रवचन देते हैं। बाबा अपनी मार्केट बनाए रखने के लिए इन चैनलों पर अपने प्रवचन प्रसारित करने के लिए उल्टा पैसा देते हैं।’ लेख का यह अंश पढ़ते ही ‘वह’ याद आ गया।

तेरहवीं के एक आयोजन में वह मिला था। सुन्दर, सुदर्शन व्यक्तित्व। मधुर कण्ठ। प्रभावी, लोकार्षक वाक् शैली। धार्मिक कथाएँ, लोक आख्यान के लिए दूर-दूर तक लोकप्रिय। महीने में कम से कम पन्द्रह दिन तो उसकी ‘बुकिंग’ रहती ही रहती है। उसकी कुछ प्रस्तुतियों का श्रोता मैं भी रहा। उसके कण्ठ से निकले मालवी लोकगीत अपना अलग और अनूठा विश्व रचते हैं। लोकगीत मुझे शुरु से ही आकर्षित करते रहे हैं। अभी भी। सो, मैं उसका प्रशंसक हूँ।

मिलते ही उसने पैर छुए। मैंने हालचाल पूछे। ‘काम-धन्धे’ के बारे में पूछा तो बोला - ‘बहुत अच्छा चल रहा है। आपकी सलाह मान कर इस साल से इनकम टैक्स रिटर्न्स भर कर, टैक्स चुकाने की शुरुआत कर रहा हूँ। आपकी ‘रेकार्डेड इनकम’ वाली बात अब समझ में आ रही है। कथाओं से भरपूर पैसा मिलता तो है लेकिन नम्बर दो का मिलता है। चेक से भुगतान करने के मेरे अनुरोध पर आयोजक खुश हो गए। उन्हें भी इनकम टैक्स में दो पैसे बच जाते हैं।’

मुझे अच्छा लगा। मैं ऐसी ‘फालतू सलाह’ देता तो कइयों को हूँ किन्तु माननेवाला यह अकेला निकला। अनायास ही पूछा - ‘वो तो ठीक है। लेकिन यार! तेरी कथाएँ किसी चैनल पर भी प्रसारित होती हैं या नहीं?’ वह मुझे खूब अच्छी तरह जानता है। सो मेरे सवाल के ‘बचकानेपन’ का बुरा नहीं माना (उसकी बात पूरी होने के बाद मुझे समझ पड़ा था कि मेरा सवाल ‘बचकाना’ था)। हँसा और बोला - ‘इतने पैसे कहाँ दादा!’ मैंने पूछा - ‘क्या मतलब? पैसे तो चैनलवाले देंगे!’ इस बार वह खुलकर हँसा - ‘पता नहीं आप किस दुनिया में रहते हो। दादा! धार्मिक चैनलों पर प्रोग्राम के लिए चैनलवाले पैसे देते नहीं, लेते हैं।’ 

मुझे विश्वास नहीं हुआ था। उसके भजनों की एक सीडी का प्रसारण मैंने एक धार्मिक चैनल पर देखा था। वही प्रसारण याद आ गया। पूछा - ‘तो फिर वो सीडी?’ वह बोला था - ‘पन्द्रह मिनिट की उस सीडी के लिए बीस हजार चुकाने पड़े थे।’ मैंने आँखें फाड़कर पूछा था - ‘बीस हजार!’ वह जोर से हँसा था - ‘बहुत सस्ता सौदा था दादा वो।’
  
मेरी दशा देखकर उसने विस्तार से बताया था कि जिन-जिन ‘सन्तों’ के प्रवचन इन धार्मिक चैनलों पर प्रसारित होते हैं, उस प्रत्येक प्रसारण का भुगतान या तो वे ‘सन्त’ खुद करते हैं या उनका कोई भक्त करता है। इन दिनों धार्मिक संगठन भी यह भुगतान करने लगे हैं। किन्तु इससे आगे बढ़कर उसने जो बताया था उसे मैंने ‘गप्प’ माना था। उसने कहा था - -दादा! अधिकांश धार्मिक चैनलें 2013 तक के लिए बुक हो चुकी हैं। इनमें रेकार्डेड और लाइव दोनों तरह के प्रसारण शामिल हैं।’ मेरे अगले सवाल के जवाब में उसने कहा था कि यह सब ‘खर्च’ नहीं ‘इन्वेस्टमेण्ट’ है। एक प्रसारण के दम पर पाँच-सात आयोजन मिल जाते हैं। उसने कहा था - ‘मेरी, उस बीस-हजारी सीडी से मुझे एक-दो नहीं, पूरे सत्रह प्रोग्राम मिले थे। अब बताओ दादा! यह इन्वेस्टमेण्ट है या नहीं?’
उसने जिस लापरवाही से सारी बातें बताई थीं, मुझे कोरी गप्प ही लगी थीं वे सब। किन्तु जब जसविन्दरसिंहजी का यह लेख पढ़ा तो अनुभव हुआ कि तब ‘उसकी’ बातों पर विश्वास न कर मैंने उसके साथ अत्याचार ही किया था।

मैं धर्म के नाम पर हो रहे कर्मकाण्डों, पाखण्डों का शुरु से विरोधी रहा हूँ। धर्म को नितान्त व्यक्तिगत आचरण जानता-मानता हूँ। जानता हूँ कि संगठित धर्म किसी का भला नहीं करता - न तो व्यक्ति का, न समाज का और न ही खुद का। किन्तु धर्म और धार्मिक आयोजनों का उपयोग इस तरह, मार्केटिंग में भी हो सकता है - यह जानकारी मेरे लिए सर्वथा अनूठी थी।

भले ही मुझे ‘पता नहीं किस दुनिया में जी रहे हो’ का उलाहना दिया जाए या मुझे नादान समझा जाए किन्तु यह सब जानकर मैं अत्यधि हतप्रभ, क्षुब्ध और निराश हूँ।
  

मैं और मेरी कंजूसी

चाँदनीवालाजी नाराज हो जाते हैं। यूँ तो मेरे प्रति अत्यधिक आदर भाव रखते हैं किन्तु अनुराग उससे भी अधिक। शायद इस अनुराग भाव के अधीन ही लगभग झिड़क ही देते हैं मुझे। कहते - ‘तय करना मुश्किल है कि आप कंजूस अधिक हैं या अशिष्ट।’
 
चाँदनीवालाजी (उनके बारे में आप यहाँ पढ़ चुके हैं) जब भी मुझे मोबाइल पर फोन करते हैं, मैं काट देता हूँ और अपने लेण्ड लाइन फोन से उन्हें फोन लगाता हूँ। मेरी इस आदत से वे बहुत झुंझलाते हैं। कहते हैं कि मैं कंजूस हूँ और उनका फोन काट कर उनका असम्मान करने की अशिष्टता करता हूँ। जवाब में मैं हँस देता हूँ। कहता हूँ - ‘मैं तो दुष्यन्त कुमार की बात पर अमल कर रहा हूँ -

                                   ‘मेरी बचत हो न हो, तेरी बचत ही सही
                                    तेरे बचें या मेरे बचें, दो पैसे बचने चाहिए’
 
वे फिर झुंझला उठते हैं - ‘वो तो ठीक है लेकिन आप मेरा फोन उठाते नहीं, काट देते हो। यह अच्छी बात नहीं।’ मैं फिर हँस देता हूँ।
 
वस्तुतः मैंने अपने लेण्ड लाइन फोन पर भारत संचार निगम की एक योजना ले रखी है जिसके अन्तर्गत प्रति माह मुझसे 149 रुपये वसूल कर लिए जाते हैं और बदले में मुझे, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में, भारत संचार निगम के लेण्ड लाइन और मोबाइल फोनों पर बात करने के लिए कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं करना पड़ता। चाँदनीवालाजी का मोबाइल फोन, भारत संचार निगम का है। सो, जैसे ही उनका नम्बर मेरे मोबाइल के परदे पर उभरता है, मैं फौरन ही काट देता हूँ और वही करता हूँ जो मैंने शुरु में लिखा है। मुझे कोई अतिरिक्त पैसा नहीं लगता और चाँदनीवालाजी के ‘दो पैसे’ बच जाते हैं। यह व्यवहार मैं उन सबके साथ करने की कोशिश करता हूँ जो भारत संचार निगम लिमि. के ग्राहक हैं।
 
चाँदनीवालाजी इसे मेरी कंजूसी कहते हैं। जब वे मुझे झिड़क चुकते हैं तो मैं कहता हूँ - ‘चाँदनीवालाजी! आपको तो खुश होकर मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि मैं आपके दो पैसे बचा रहा हूँ। लेकिन आप हैं कि मुझे डाँट रहे हैं!’ वे कहते हैं - ‘आपकी बाकी सारी बातें अच्छी हैं। बस! यह कंजूसी मुझे अच्छी नहीं लगती।’ मैं कहता हूँ - ‘आपका पढ़ना-लिखना, आपकी पी. एच-डी. सब बेकार है। आप तो कंजूसी और मितव्ययता का अन्तर ही नहीं समझते। आप बच्चों को क्या पढ़ाते होंगे?’ उनकी झुंझलाहट और बढ़ जाती है। कहते हैं - ‘आपसे तो बात करना ही बेकार है।’ मैं और बारीक चिकोटी काटता हूँ - ‘तो बात करते ही क्यों हैं?’ अब वे लगभग रुँआसे हो जाते हैं - ‘‘यार! मेरा दिमाग खराब है। आप  ‘जबरा मारे, रोने न दे’ वाली दशा कर देते हैं और मैं हूँ कि आपको फोन लगा देता हूँ। आपको थोड़ी भी दया नहीं आती?’’ मैं कहता हूँ - ‘दया आती है, आपकी चिन्ता होती है, तभी तो आपके दो पैसे बचाता हूँ। पर आप हैं कि समझते ही नहीं।’ वे फिर ‘उछल’ जाते हैं - ‘अच्छा भैया! आप ही सही। मैं भर पाया। आपको आपकी कंजूसी मुबारक। काम की बात करनी थी लेकिन आपने सत्यानाश कर दिया। बाद में बात करूँगा।’ मैं कहता हूँ - ‘जरूर कीजिएगा। बिलकुल इसी तरह।’
अब वे ठठा कर हँस देते हैं - ‘काम कुछ भी नहीं था। बस! आपसे दो बातें करनी थीं। कर लीं। थोड़ा हँस बोल लिया। जी हलका हो गया।’
 
सुन कर मैं अकबका जाता हूँ। मैं तो समझ रहा था कि मैं उनके मजे ले रहा हूँ लेकिन  हो रहा था बिलकुल उल्टा!
 
मुझे कुछ सोचना पड़ेगा। सोचता हूँ - अब, इस मामले में कंजूसी बरतूँ या नहीं?

दो दिन बेटी, तीसरे दिन रुपये

मैं बच्चों के नाम पर किसी भी निवेश के पक्ष में नहीं हूँ। आशंका बनी रहती है कि ‘अच्छा! इतने रुपये मेरे नाम पर हैं?’ का विचार आते ही कभी कोई बच्चा आँखें न तरेरने लगे। ठेठ देहाती आदमी हूँ। इसलिए, निवेशकों को रोकड़ा अपनी अण्टी में रखने की सलाह देता हूँ। कहता हूँ, बच्चों से कहिए - ‘जीते जी सब मेरा, मेरे मरने के बाद सब तुम्हारा।’ अधिकांश लोग मेरी बात मान लेते हैं। कुछ नहीं मानते।
 
नहीं मानने वाले, ऐसे ही कुछ लोगों में से एक के साथ, अतीत में हुई एक (दुः) घटना, आज बातों ही बातों में याद हो आई।
 
बरसों पुरानी बात है। तब, किसान विकास पत्र चलन में थे और मैं पोस्ट ऑफिस की बचत योजनाओं का काम भी किया करता था। परामर्श सेवाओं से सम्बद्ध एक परिचित के पास जब भी कुछ रकम जुड़ जाती, वे फौरन मुझे बुला लेते और अपनी इकलौती बेटी के नाम किसान विकास पत्र खरीद लेते। मैं हर बार उन्हें मना करता। कहता - ‘खुद के नाम पर खरीदिए और बेटी को नामिनी बना दीजिए।’ वे हर बार हँसकर मेरी बात टालते रहे। कहते - ‘विष्णु दादा! लड़का तो हाथ-पाँव मार कर, कमा-खा लेगा। किन्तु चिन्ता इस लड़की की है। एक ही लड़की है। इसीके काम आएगा।’ मैं कहता - ‘आपकी बात मानी। लेकिन इसके नाम पर मत खरीदिए।’ उन्होंने एक बार भी मेरी बात नहीं मानी और इसी तरह, धीरे-धीरे लगभग पौने चार लाख रुपयों के किसान विकास पत्र बेटी के नाम खरीद लिए।
 
बेटी सयानी हुई तो माँ-बाप को उसके हाथ पीले करने की चिन्ता हुई। लड़के देखे जाने लगे। हर बार लड़की से विस्तारपूर्वक बात की जाती, सलाह ली जाती। अन्ततः एक जगह बात पक्की हो गई। सगाई भी हो गई। विवाह की तारीखें तय करने की बातें चलने लगीं।
 
इसी बीच दुर्घटना हो गई। एक दिन, भरी दोपहरी में लड़की अपने प्रेमी के साथ घर छोड़कर चली गई। माता-पिता के लिए यह दोहरा आघात था - एक तो लड़की चली गई और दूसरा, पहले से बड़ा आघात यह कि उसका रिश्ता पक्का हो चुका था। सो भी लड़की की सहमति से! क्या कहें और किससे कहें? जात-समाज में क्या मुँह दिखाएँ?
 
मुझे उड़ती-उड़ती खबर मिली। उसी शाम परिचित के घर पहुँचा। साँत्वना बँधाई और कहा - ‘आपका दुःख तो नहीं बाँट सकता लेकिन मुझ जैसा काम बताइएगा।’
 
अगला दिन चुपचाप बीत गया। तीसरे दिन, सुबह-सुबह ही परिचित का फोन आया। मुझे जल्दी से जल्दी आने को कह रहे थे। मैं झटपट पहुँचा। परिचित पूर्वानुसार ही चिन्तित और परेशान थे। मैंने पूछा - ‘कुछ खबर लगी?’ बोले - ‘खबर तो  लगी किन्तु आज सुबह ही याद आया कि उसके नाम पर ढेर सारे किसान विकास पत्र खरीद रखे हैं। वह हमारी मर्जी से शादी करती तो वो रकम उसी की होती। लेकिन उसने तो हमारा मुँह काला कर दिया। उससे वह रकम वापस कैसे लें? आपने कहा था कि आपके जैसा काम बताऊँ। तो यही काम है। उससे रकम निकलवा दीजिए।’
 
उनकी बात सुनकर जी में आया कि उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाऊँ। लेकिन ऐसा नहीं कर सका। मैंने कहा - ‘इतना आसान है क्या? कोई छोटी-मोटी रकम नहीं है। लगभग चार लाख का मामला है!’ वे बोले - ‘इसीलिए तो वापस चाहिए। छोटी-मोटी रकम होती तो मैं भी नाम नहीं लेता।’ बड़ी मुश्किल से मैंने अपना गुस्सा दबाया। यह उलाहना भी नहीं दे सका कि मैने तो पहले ही चेताया था। खुद को संयत कर मैंने पूछा - ‘बिटिया है कहाँ?’ उन्होंने अता-पता बताया।
 
मैं बिटिया के पास पहुँचा। अकेले में मिला। उससे कहा कि उसने जो किया सो किया लेकिन जब पिता से विद्रोह ही करना है तो फिर पिता का कोई अहसान भी अपने माथे पर नहीं रखना चाहिए। माँ-बाप को और लोगों को यह कहने का मौका नहीं मिलना चाहिए कि लड़की बाप के इतने पैसे ले उड़ी। अपनी मर्जी से बाप का घर छोड़ा है तो फिर अपने स्वाभिमान की चिन्ता करनी चाहिए। पिता की एक पाई भी अपने पास नहीं रखनी चाहिए वर्ना लोग उसके प्रेमी/पति पर आरोप लगाएँगे कि रुपयों के लालच में लड़की ले उड़ा।
 
बात लड़की को जँच गई। बोली - ‘मुझे क्या करना है?’ मैंने कहा - ‘करना क्या है? पिताजी से कहना है कि तुम्हें उनकी फूटी कौड़ी भी नहीं चाहिए।’ लड़की बोली - ‘आपकी बात सही है। लेकिन मैं तो पापा के पास नहीं जाऊँगी। मुझे क्या करना है यह आप ही बताओ और यदि कोई लिखा पढ़ी करनी है तो आप कागज तैयार करा लाइए, मैं दस्तखत कर दूँगी।’
सारे किसान विकास पत्र पिताजी के पास ही थे। वे सब, पिताजी के पक्ष में ‘सम्पूर्ण समनुदेशन’ (टोटल असाइनमेण्ट) कराने के कागज तैयार करवा कर लड़की के पास गया। उसके हस्ताक्षर लिए। डाक घर जाकर सारी खानापूर्ति हाथों-हाथ कराई और सारे किसान विकास पत्र परिचित को थमाए। अब वे ही उस सारी रकम के एकमात्र कानूनी स्वत्वाधिकारी हो गए थे।
 
उन्होंने एक-एक किसान विकास पत्र ध्यान से देखा और राहत की साँस लेकर मुझे धन्यवाद दिया। बोले - ‘आपकी बात मान लेता तो यह दिन नहीं देखना पड़ता। मुझे माफ कर देना विष्णु दादा! पैसों कौड़ी के मामलो में आगे से आपकी बात आँख मूँद कर मानूँगा।’ मैंने कहा - ‘वह सब तो ठीक है लेकिन एक बात सच-सच बताइए। इन किसान विकास पत्रों की याद आने के बाद बेटी कितनी बार याद आई?’ झेंपते हुए बोले - ‘अब आपसे क्या छिपाऊँ विष्णु दादा! ये किसान विकास पत्र याद आने के बाद मुझे तो ये रुपये ही याद आते रहे। और कुछ याद नहीं आया।’ मैंने कहा - ‘बेटी एक बार भी याद नहीं आई?’ नजरें नीची ही रखते हुए बोले - ‘झूठ बोलने की हिम्मत नहीं हो रही। शुरु के दो दिन ही वह याद आई। उसके बाद तो ये रुपये ही याद आए और ये ही याद रहे।’
 
एक बार फिर मैंने खुद को नियन्त्रित किया। अन्तर केवल यही था कि पहले गुस्से को नियन्त्रित किया था। इस बार खुशी को नियन्त्रित किया। अपनी धारणा को व्यवहार में शब्दशः साकार होते हुए देखने की खुशी को।
 

राष्ट्रवाद याने राष्ट्रवाद नहीं

वे सीहोर (मध्य प्रदेश के, भोपाल से लगभग 40 किलो मीटर दूर, एक, जिला मुख्यालय वाला कस्बा)  से बोल रहे थे। एलआईसी के एक अभिकर्ता साथी ने मुझसे पूछ कर ही मेरा नम्बर उन्हें दिया था। वे उस अभिकर्ता साथी के जीजा थे। अभिकर्ता साथी ने कहा था कि उसके जीजा को, एक साहित्यिक संगठन की शाखाएँ पूरे मध्य प्रदेश में गठित करने का दायित्व दिया गया है। वे चाहते थे कि उस संगठन की रतलाम शाखा के लिए मैं उन्हें कुछ ‘लिखने-पढ़नेवालों’ के नाम सुझाऊँ।

हमारा सम्वाद कुछ इस तरह हुआ -

वे - ‘नमस्कारजी! मैं सीहोर से .........बोल रहा हूँ। आपका नम्बर मुझे देवासवाले ........जी ने दिया है।’

मैं - ‘नमस्कारजी। हाँ। याद आया। हुकुम कीजिए।’

वे - ‘हुकुम तो कुछ नहीं जी। हम एक राष्ट्रवादी संगठन हैं। इसकी रतलाम शाखा के लिए हमें राष्ट्रवादी विचारधारावाले कुछ लोगों के नाम चाहिए थे। आप मदद कर दें।’

मैं - ‘राष्ट्रवादी से आपका क्या मतलब? अपने देश में तो सब ही राष्ट्रवादी हैं!’

वे - ‘नहीं। आप नहीं समझे। मैंने कहा कि हम एक राष्ट्रवादी संगठन हैं और इसी विचारधारा के सहित्यकार हमें चाहिए।’

मैं - ‘क्या आपके यहाँ कोई अराष्ट्रवादी है? यदि हैं तो कुछ नाम बताइए। शायद मैं  किसी को जानता होऊँ। उन नामों से अनुमान लगाने की कोशिश करूँगा कि अराष्ट्रवादी लोग किस प्रकार के होते हैं।’

वे - ‘नहीं! नहीं! आप अब तक नहीं समझे। फिर कह रहा हूँ कि हम एक राष्ट्रवादी संगठन हैं और रतलाम में हमारे संगठन की शाखा गठित करने के लिए हमें राष्ट्रवादी विचारधारावाले साहित्यकारों के नाम चाहिए।’

मैं - ‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैं वाकई में अब तक नहीं समझा कि राष्ट्रवादी से आपका मतलब क्या है।’

वे - ‘कमाल है! आप तो खुद ही लिखने-पढ़नेवाले हैं! राष्ट्रवादी का मतलब नहीं समझते?’

मैं - ‘अब तक तो नहीं समझा। अच्छा, यह बताइए कि आपकी परिभाषा में मैं राष्ट्रवादी हूँ या नहीं?’

वे - ‘कैसी बातें करते हैं आप? आप राष्ट्रवादी तो हैं किन्तु आपके बारे में जितना मुझे मालूम है उसके मुताबिक हमारी राष्ट्रवादी विचारधारा में फिट नहीं बैठते हैं।’

अब मेरी ट्यूब लाइट चमकी। वे ऐसे आदमी से सहायता चाह रहे थे जिसे वे अपने लिए अनुकूल तो नहीं मान रहे थे किन्तु जिसकी सदाशयता पर उन्हें विश्वास था। वे ‘प्रतिकूल’ से ‘अनुकूल’ की प्रत्याशा कर रहे थे! चूँकि बात मेरी समझ में आ चुकी थी सो अब मैं मजे लेने लगा।
हमारा सम्वाद आगे कुछ इस तरह रहा -

मैं - ‘याने कि आपको संघ की विचारधारावाले साहित्यकार चाहिए?’

वे (बात मुझे समझ में आ गई है, इसकी प्रसन्नताभरी खनक उनकी आवाज में भरपूर गर्मजोशी से अनुभव हुई) - ‘हाँ। अब आप समझे।’

मैं - ‘तो इसके लिए आपने मुझे फोन क्यों किया? आप ‘तपस्या’ (रतलाम में ‘संघ’ का कार्यालय) में फोन लगा लेते! रुकिए! मैं आपको ‘तपस्या’ का नम्बर देता हूँ।’
वे (तनिक घबरा कर) - ‘नहीं! नहीं! वो नम्बर तो मेरे पास है।’

मैं - ‘तो फिर?’

वे - ‘हम वहाँ से सीधी सहायता नहीं लेना चाहते। हम नहीं चाहते कि लोग हमें संघ का समर्थक संगठन समझें।’

मैं - ‘यह क्या बात हुई? आप संघ की विचारधारावाले लोग भी चाहते हैं और चाहते हैं कि आपको संघ का समर्थक संगठन नहीं समझें! ऐसा कैसे सम्भव है? और अब, मुझे तो मालूम हो ही गया है! मैं ही सबको बता दूँ तो?’

वे - ‘नहीं! नहीं! ..........जी ने बताया था कि आप ऐसे आदमी नहीं हैं।’

मैं - ‘तो एक काम कीजिए। कुछ जनवादी लिखने-पढ़नेवाले मेरे मित्र हैं। उनके नाम लिख लीजिए। उनके होने से आप पर संघ की विचारधारा से जुड़ने का ठप्पा नहीं लगेगा।’

वे - ‘नहीं! नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है। वे तो जनवादी हैं। फिर हम राष्ट्रवादी विचारधारावाला संगठन कैसे रह पाएँगे?’

मैं - ‘क्यों? क्या जनवादी लोग राष्ट्रवादी नहीं हैं?’

वे - ‘नहीं! नहीं! यह बात नहीं! वे भी राष्ट्रवादी तो हैं किन्तु वैसे राष्ट्रवादी नहीं, जैसे हम चाहते हैं।’

मैं - ‘क्या मतलब? राष्ट्रवाद की भी श्रेणियाँ होती हैं?’

वे - ‘नहीं। श्रेणियाँ तो नहीं होतीं किन्तु हम एक राष्ट्रवादी संगठन हैं और हमें हमारे जैसे ही राष्ट्रवादी चाहिए।’

मैं - ‘आपने मुझे उलझन में डाल दिया। आप मुझे राष्ट्रवादी तो मानते हैं किन्तु अपने राष्ट्रवाद के लिए फिट नहीं मानते। जनवादियों को भी राष्ट्रवादी मान रहे हैं किन्तु अपने जैसे राष्ट्रवादी नहीं मान रहे। आपके जैसे राष्ट्रवादियों के नाम जानने के लिए आप संघ के कार्यालय की सहायता भी नहीं लेना चाहते। निष्पक्ष नजर आते रहकर संघ की विचारधारा को आगे भी बढ़ाना चाहते हैं। आपका यह राष्ट्रवाद मुझे विचित्र लग रहा है।’

वे - ‘समझ में नहीं आ रहा कि आप क्या कह रहे हैं। .......जी ने तो बताया था कि आप बहुत समझदार आदमी हैं। लगता है कि या तो आप राष्ट्रवाद का मतलब नहीं जानते या फिर आप राष्ट्रवादियों की सहायता नहीं करना चाहते।’

मैं - ‘उलझन में तो आपने डाल दिया है। आप अपना राष्ट्रवाद मुझे समझा नहीं पा रहे हैं और मेरे राष्ट्रवाद को राष्ट्रवाद नहीं मान रहे हैं। ऐसे में मैं चाहकर भी आपकी मदद नहीं कर पा रहा हूँ। आपके साले साहब ........जी मेरे अच्छे मित्र हैं। यदि आपकी मदद नहीं कर पाऊँगा तो वे दुखी भी होंगे और नाराज भी। इसलिए प्लीज!  मेरी मदद कीजिए और बताइए कि राष्ट्रवाद से अपका मतलब क्या है?’

वे - ‘आप अब तक नहीं समझे तो मेरे समझाने से क्या समझेंगे? आपको खामखाँ ही तकलीफ दी। धन्यवाद। नमस्कार।’

मैं उलझन में हूँ। मैं राष्ट्रवादी हूँ या नहीं?

रेणुकाजी! काश! आप मेरी बहन होती

काश! रेणुका चौधरी मेरी बहन होती। उन्होंने धापूबाई बैरागी के पेट से द्वारकादासजी बैरागी के घर में जन्म लिया होता। तब वे ऐसा नहीं कहतीं। कहना तो दूर, ऐसा कहने की सोच भी नहीं पाती। उनकी हिम्मत नहीं हो पाती। क्योंकि तब रेणुकाजी ने भी घर-घर भीख माँगी होती और रोटी का महत्व और मूल्य मालूम होता।
 
दुनियादारी के मामले में मेरा अनाड़ीपन देख (और मेरे इस अनाड़ीपन पर मुग्ध हो), मुझे स्थापित करने (याने मेरी गृहस्थी के लिए दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने) की सदाशयता और शुभेच्छा से यादवेन्द्र भाटी ने मुझे, दवाइयाँ (सायरप/फार्मूलेशन) बनानेवाल एक औद्योगिक इकाई में भागीदार बनाकर रतलाम बुलाया। अगस्त 1977 में, रतलाम आने के लिए मैंने जब अपने गृहग्राम मनासा से  अपना बोरिया बिस्तर बाँधा तो पिताजी ने कहा - ‘‘देख! तेरे बड़े भाई के कारण, उससे अपने काम कराने के लिए, तेरे पास बहुत ज्यादा लोग आएँगे। उनकी आवभगत करते समय एक बात याद रखना - ‘घर हई पामणा। पामणा हई घर नी।’’ इस मालवी लोकोक्ति का अर्थ है - अपने घर की स्थिति के अनुसार अतिथि की आव भगत करना, अतिथि की हैसियत के हिसाब से नहीं। 1977 से लेकर इस क्षण तक मैं अपने पिताजी की इस समझाइश पर (1993 में मैं पितृविहीन हो चुका हूँ।) कठोरता से अमल करता चला आ रहा हूँ और कहने की स्थिति में हूँ कि इसी कारण अनेक विपदाओं से बचा रहा, बचता चला आ रहा हूँ।
 
यूपीए की वर्षगाँठ पर आयोजित भोज में, एक व्यक्ति के भोजन का दाम साढ़े सात हजार रुपये चुकाने को लेकर, पत्रकारों के सवाल के जवाब में कही गई रेणुका चौधरी की यह बात पढ़कर, मैं अपने पिताजी के प्रति एक बार फिर श्रद्धावनत हो गया। काश! मेरे पिताजी, रेणुका चौधरी के भी पिताजी होते या रेणुका चौधरी के पिताजी ने भी, मेरे पिताजी की तरह अपनी बेटी को यह नेक सलाह दी होती।

केवल रेणुका चौधरी को ही नहीं, ऐसी अमानवीय, क्रूर बातें कहनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को कुछ बातें याद रखनी चाहिए। जैसे कि इस देश की आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है, कि देश का योजना आयोग ही कह रहा है कि अधिसंख्य लोग मात्र 26 रुपये रोज पर गुजारा कर रहे हैं, कि देश के प्रत्येक (जी हाँ, प्रत्येक) महानगर, नगर, कस्बे, गाँव में आज भी अन्न क्षेत्रों की आवश्यकता बनी हुई हैं जिनमें प्रतिदिन करोड़ों लोग भर पेट भोजन कर पा रहे हैं, कि करोड़ो लोग प्रतिदिन ही प्रतीक्षा करते हैं कि किसी मन्दिर या अन्य धर्मस्थल पर भण्डारा हो ताकि कम से कम एक वक्त तो वे भर पेट रोटी खा सकें, कि आज भी देश के लगभग प्रत्येक कस्बे/गाँव में,  जाति, समुदाय, धर्म के सामूहिक भोज आयोजनों में, कुछ लोग जूठन संग्रहीत कर अपने कल की रोटी सुरक्षित कर रहे हैं आदि-आदि।
 
रेणुकाजी और रेणुकाजी जैसी बातें करनेवालों को कुछ और बातें भी याद रखनी चाहिए। जैसे कि यह वह देश है जहाँ भोजन करने से पहले किसी याचक की प्रतीक्षा की जाती है, कि यहाँ, अपने भोजन से पहले,  गाय और कुत्ते को रोटी दी जाती है, कि यहाँ आदमी को निर्देशित किया जाता है कि सोने से पहले तलाश कर ले कि आज पड़ौसी परिवार ने भोजन किया या नहीं और यदि नहीं किया है तो भला तुम्हें नींद कैसे आ सकती है आदि-आदि।
 
ऐसे लोगों को कुछ और बातें भी याद रखनी चाहिए। जैसे कि मैत्री में आर्थिक हैसियत कभी बाधक नहीं बनती, कि अपने मित्र कृष्ण से मिलने निर्धन सुदामा जब द्वारका के लिए निकले थे तो उनकी पत्नी ने अपने घर की हैसियत के मुताबिक ‘दो मुट्ठी चाँवल’ की पोटली ही दी थी सुदामा को। झूठी शान दिखाने के लिए न तो किसी से उधारी की थी और न ही किसी से कोई मँहगी चीज माँगी थी, कि सुदामा की इस भेंट को कृष्ण ने जिस आत्मीयता से स्वीकार किया था उसका बखान आज भी पूरा नहीं हो पा रहा आदि-आदि।

ऐसे लोगों को यह तो याद रखना ही चाहिए वे ‘राजा’ नहीं, ‘सेवक’ हैं और कोई ‘सेवक’ यदि इतने गुरूर से, इतनी बदतमीजी से बात करे तो उसे ठोकर मार कर कुर्सी से हटा दिया जाना चाहिए। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि ऐसी बातों का एक ही मतलब होता है - विनाशकाले विपरीत बुद्धि और यह भी कि जिन पैसों से हमारे ये ‘बदतमीज और मदान्ध सेवक’ गुलछर्रे उड़ा रहे हैं वह पैसा न तो इनमें से किसी के भी पूज्य पिताजी का है और न ही इनके पूज्य पिताजी ने इन्हें दहेज में दिया है। यह पैसा देश के असंख्य मेहनतकश लोगों की गाढ़ी कमाई का पैसा है। जिस देश में एक कप चाय (जी हाँ, वही चाय जिसे मोण्टेक सिंह अहलूवालिया ‘राष्ट्रीय पेय’ बनाने की जुगत में लगे हुए हैं) के लिए करोड़ों लोग, होटलों-सड़कों के किनारे लगे चाय के ठेलों/खोमचे पर चाय पी रहे लोगों के सामने हाथ फैला रहे हों, उस देश में रेणुकाजी सहजता और प्रसन्नता से चाय भी कैसे पी सकती हैं?

ये लोग, भीड़ में सबसे आखिर में खड़े आदमी की चिन्ता करने के लिए भेजे गए थे लेकिन इन्हें तो उसी आदमी की मौजूदगी पर शर्म आ रही है? उसकी चिन्ता करने के बजाय ये तो ‘उन लोगों’ की चिन्ता कर रहे हैं जो इन्हें (हमें और हमारे देश को) आदतन गरियाते, जुतियाते रहते हैं, ‘पान-पन्हैयाँ’ की बात करते हैं और ‘पान’ तो खुद खा लेते हैं और ‘पन्हैयाँ खाना’ हमारे लिए छोड़ देते हैं।
 
चलिए, रेणुका और इनके जैसे तमाम लोग, ऊपर कही सारी बातें भूल जाएँ। लेकिन यदि यह एक बात इन्हें याद नहीं रह गई है तो इन्हें अपने ‘होने और बने रहने’ पर निश्चय ही शर्म आएगी। बात यह कि इस देश में मोहनदास करमचन्द गाँधी नाम का, दो पसलियों का एक आदमी हुआ था जिसे दुनिया ने ‘महात्मा’ माना और देश ने ‘राष्ट्रपिता।’ अपनी भारत यात्रा के दौरान, वह आदमी जब एक नदी किनारे स्नान कर रहा था, उसकी नजर एक औरत पर पड़ी। वह औरत अपनी आधी साड़ी धो कर पहन रही थी और धुली हुई आधी साड़ी पहनने के बाद, बची हुई आधी साड़ी धो रही थी। दक्षिण अफ्रीका से लौटे, विलायत से बैरीस्टरी पास उस आदमी को बात समझ में नहीं आई। पूछताछ में मालूम हुआ कि उस औरत के पास दूसरी साड़ी नहीं है कि एक साड़ी धो कर दूसरी पहन ले। सुन कर, विलायत से बैरीस्टरी पास वह आदमी ठेठ अन्दर तक हिल गया। पहला काम उसने किया - अपनी चादर उस औरत की ओर बहा दी। और दूसरा काम जो उसने किया, वह काम वह आदमी जिन्दगी भर, गोड़से द्वारा मारे जाने तक करता रहा। वह काम यह कि उस आदमी ने कसम खाई कि जब तक देश का एक भी आदमी नंगे बदन है, वह पूरे कपड़े नहीं पहनेगा। रेणुकाजी को यदि यह आदमी और इस आदमी की यह बात याद नहीं है तो उन्हें अपने ‘होने’ पर और ‘काँग्रेस में होने’ पर कम से कम, एक सेकण्ड के हजारवें हिस्से के लिए ही सही, एक बार तो विचार करना ही चाहिए।
 
हाँ रेणुकाजी! भले ही आपने गुस्से में कहा हो लेकिन सच कहा। जब देश के अधिसंख्य लोगों के लिए अगली साँस लेना भी दूभर हो रहा हो तब आपको वाकई में मातम मनाना चाहिए, आपके हलक से पानी की बूँद भी नहीं उतरनी चाहिए, आपको एक पल भी नींद नहीं आनी चाहिए। यदि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है तो रेणुकाजी! यह हमारे लिए मातम मनाने के क्षण हैं।
 
रेणुकाजी! काश! आपने मेरी माँ के पेट से जन्म लिया होता।

एक विशेषज्ञ का व्यावहारिक परामर्श

किसी विषय विशेषज्ञ से उसके विषय से परे कोई परामर्श माँगा जाए तो प्रायः ही ‘ना’ सुनने को मिलती है। किन्तु यह परामर्श यदि अनुभवों के आधार पर माँगा जाए तो शायद ही कोई मना करे। तब अतिरिक्त उत्साह, सद्भावना और सदाशयता से यह ‘नेक काम’ किया जाता है। ‘जेपी’ ने भी ठीक यही किया। यह अलग बात रही कि परामर्श माँगनेवाले को विश्वास नहीं हुआ और लगा कि ‘जेपी’ परिहास से आगे बढ़कर कहीं उसका उपहास तो नहीं कर रहे?
 
‘जेपी’ याने  श्री जय प्रकाश डफरिया। मेरे कस्बे के अग्रणी ‘कर सलाहकार’ हैं। अपने विषय में निष्णात् तो हैं किन्तु इस समुदाय में अपवाद  लगते हैं। कर सलाहकार प्रायः ही मितभाषी, मुद्दा केन्द्रित और रुखे माने जाते हैं - ‘दो टूक‘ बात कही और चुप। जेपी ऐसे नहीं हैं। वे खुलकर बतियाते हैं, ‘व्यंजना’ में टिप्पणियाँ करते हैं और सामनेवाले का मजा लेने से पहले खुद के मजे लेते हैं। खूब गुदगुदाते हैं। अन्तरंग क्षेत्र में तो उनका ‘कर सलाहकार’ मानो ‘उड़न-छू’ हो जाता है और कोई दूसरा ही ‘जेपी’ उनकी काया में प्रवेश कर जाता है। यह सब करते हुए यह ध्यान पूरा-पूरा रखते हैं कि अनजाने में भी किसी की अवमानना, उपहास न हो जाए। इस सबसे अलग हटकर और आगे बढ़कर उनका एक पक्ष और है - अकादमिक। आय कर से सम्बन्धित प्रकाशनों (जर्नलों) में उनक लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं जो उन्हें सबसे अलग साबित और स्थापित करते हैं। इन्हीं जेपी ने, अपने विषय से अलग, अभी-अभी एक परामर्श दिया तो परामर्श माँगनेवाला और सुननेवाला (मैं) अपनी हँसी नहीं रोक पाए।
 
अपने बेटे की आयकर विवरणी के बारे में बात करने के लिए मैं जेपी के पास पहुँचा तो एक सज्जन पहले से बैठे थे। अगले कुछ ही दिनों में उन्हें अमेरीका जाना था। वे जेपी के पास आए थे - यह परामर्श लेने के लिए कि यात्रा में ‘समान’ के नाम पर क्या ले जाएँ और क्या नहीं। चूँकि जेपी कुछ दिन पहले ही अमेरीका प्रवास से लौटे थे तो उनसे बेहतर परामर्श कौन दे सकता था? जो भी कहेंगे, अनुभूत ही कहेंगे!
 
मुझे देखते ही जेपी बोले - ‘जल्दी आईए। इन्होंने एक सलाह माँगी है। आप भी सुन लीजिए। कभी आपके भी काम आएगी।’ मैंने कहा - ‘मैं अपने लिए नहीं, बेटे के लिए आया हूँ।’ जेपी बोले - ‘तब तो और भी अच्छा है। मेरी यह सलाह आपके बेटे के भी काम आएगी।’ मुझे लगा, आय कर से सम्बन्धित कोई ऐसी बात होगी जो वेतन भोगियों और व्यवसायियों (सेलेरीड पर्सन्स एण्ड प्रोफेशनल्स) पर समान रूप से लागू होती होगी। ऐसी जानकारियाँ मुझे मेरे बीमा व्यवसाय में सहायक होती हैं। सो, लालच और स्वार्थ के अधीन, जेपी के कार्यालय के दरवाजे से उनके चेम्बर तक की, दस कदमों की दूरी मैंने सात कदमों में ही पूरी कर ली। मेरी आतुरता देख कर जेपी हँसे। बोले - ‘वैसा कुछ नहीं है जैसा आपने सोच लिया। यह मामला टेक्सेशन का नहीं, जिन्दगी का है।’ मैं जेपी को जानता तो नहीं किन्तु कुछ-कुछ समझने लगा हूँ। सारी दुनिया मुझसे कहती है ‘आपसे बातों में जीतना मुश्किल है’ किन्तु जेपी मुझे अनगिनत बार आसमान दिखा चुके हैं। उनकी ‘फटाफट’ (इंस्टण्ट), ‘बिना विचारी और सहज’ (विदाउट थॉट एण्ड नेचुरल) और ‘एप्ट’ (मुझे इसके लिए उपयुक्त हिन्दी शब्द नहीं मिल रहा) प्रतिक्रियाओं/टिप्पणियों के ‘धोबीपाट’ का ‘अवर्णनीय सुख’ अनगिनत बार ले चुका हूँ। सो, अपने से बेहतर अदमी के सामने, चुपचाप बैठने की समझदारी बरत ली। इसी में मेरी बेहतरी भी थी।

मेरे बैठते ही जेपी, मुझसे पहले बैठे सज्जन से बोले - ‘तू अमेरीका जा रहा है। बहुत अच्छी बात है। जितना कम सामान ले जाएगा उतना सुखी रहेगा। चटोरी जबान के चक्कर में खाने-पीने का सामान ले जाने से बचना। लेकिन एक सामान ले जाना बिलकुल मत भूलना। तुझे वहाँ बाकी सारा सामान मिल जाएगा लेकिन यह सामान नहीं मिलेगा। तू ठहरेगा तो किसी न किसी होटल में ही! यह सामान तुझे किसी भी होटल में नहीं मिलेगा। फाइव स्टार होटल में भी नहीं।’
 
जेपी की बातें, बातों से आगे बढ़कर ‘चन्द्रकान्ता’ का ‘रहस्य लोक’ रचती लग रही थीं। लग तो मुझे पहले ही क्षण गया था कि ‘सामान’ बहुत बड़ा तो नहीं होगा किन्तु जेपी का ‘जेपीपन’ उसे किसी ‘उड़न तश्तरी’ (यूएफओ) का दर्जा दे चुका था। मैं तो केवल रहस्योद्घाटन के क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था लेकिन परामर्श लेनेवाला ‘भयभीत होन की सीमा तक जिज्ञासु’ बन चुका था।
 
रहस्यात्मकता और गम्भीरता को बनाए रखते हुए जेपी ने कहा - ‘देख! अपन हिन्दुस्तानी हैं। हिन्दुस्तानी में मालवी। मालवी में रतलामी। याने हमें हर काम में, हर बात में तसल्ली चाहिए। ऐसा होता है ना कि पेट तो भर जाता है लेकिन तृप्ति, तसल्ली नहीं होती? और जब तक तसल्ली नहीं होती, तब तक मन कहीं और, किसी और बात में नहीं लगता। अपना पूरा ध्यान उसी बात पर लगा रहता है। है ना? बस! उसी तसल्ली के लिए यह सामान ले जाना बिलकुल मत भूलना।’
 
जेपी ने सामनेवाले की जिज्ञासा चरम पर पहुँचा दी थी। उससे रहा नहीं गया। लगभग गिड़गिड़ाकर बोला - ‘वो तो सब ठीक है लेकिन वह सामान क्या है, यह तो बताओ? ‘सामान कुछ खास नहीं है। न तो भारी है, न बड़ा और न ही मँहगा। छोटी सी चीज है लेकिन उसके बिना यात्रा अधूरी रहेगी और तू एक सेकण्ड के लिए भी नार्मल नहीं रह पाएगा। तुझे खाना भी अच्छा नहीं लगेगा। घबराता रहेगा कि सारा अमेरीका तेरी तरफ देख रहा है और तुझ पर हँस रहा है।’ जेपी ने सहजता से कहा। सामनेवाला अब रुँआसा हो गया। दयनीय स्वरों में बोला - ‘वकील सा’ब। मुझे घबराहट होने लगी है। मेरी जान निकल जाएगी। जल्दी बता दो कि वह सामान क्या है?’

सामनेवाले को दिलासा देते, उसकी हिम्मत बँधाते-बढ़ाते हुए जेपी बोले - ‘घबरा मत। छोटी सी चीज है। प्लास्टिक का मग्गा। वह ले जाना बिलकुल मत भूलना।’ सामनेवाला चिहुँक कर उछला - ‘क्या? प्लास्टिक का मग्गा? उसीके लिए आप मुझे इस तरह, इतना डरा रहे थे?’ मुझसे हँसी रोके नहीं जा रही थी और जेपी? उन्हें निश्चय ही सामनेवाले की ऐसी सुनिश्चित प्रतिक्रिया का पूर्वानुमान रहा होगा। वे ‘ध्यानस्थ बुद्ध मुद्रा’ ग्रहण कर चुके थे। उसी मुद्रा में बोले - ‘हाँ। प्लास्टिक का मग्गा।’ सामनेवाले की अकबहाट यथावत् रही। मानो उस मूर्ख बना दिया गया हो, कुछ इसी तरह झुंझलाते हुए बोला - ‘क्यों? दो पैसे के प्लास्टिक मग्गे के बिना मेरी यात्रा कैसे अधूरी रह जाएगी?’
 
जेपी एक बार फिर अपने ‘जेपीपन’ पर आए और ‘परामर्शदाता’ की मुख-मुद्रा, धीर-गम्भीर वाणी में बोले - ‘तेने ध्यान से मेरी बात नहीं सुनी। मैंने कहा था ना कि अपन हिन्दुस्तान हैं और हिन्दुस्तानी में मालवी। वो भी ठेठ, असल रतलामी। अपने को हर काम में तसल्ली चाहिए। तो पूरे अमेरीका की लेट्रिनों में कमोड लगे हुए हैं। वहाँ निपटने के बाद ‘धोने’ का नहीं, ‘पोंछने’ का चलन है। इसीलिए वहाँ लेट्रिनों में मग्गा नहीं रखा जाता। अपने को उसकी आदत नहीं। अपन तो जब धोएँ नहीं तब तक साफ-सुथरा होने की तसल्ली नहीं होती। और उसके लिए बिना मग्गे के काम नहीं चलता। इसलिए, तू बाकी कोई सामान भले ही मत ले जाना। सब मिल जाएगा। लेकिन मग्गा नहीं मिलेगा। मग्गा जरूर ले जाना।’
 
‘बात तो आपने सोलह आना सही कही और बिलकुल ठीक सलाह दी वकील सा’ब। लेकिन आपने तो आज जान ही ले ली। ऐसा क्यों किया? यह बात तो आप शुरु में ही, एक मिनिट में ही कह सकते थे!’ पूछा सामनेवाले ने। एक बार फिर अपने ‘जेपीपन’ पर आते हुए जेपी ने उत्तर दिया - ‘तेरे पूछते ही मैं फट् से बता देता तो तुझे मग्गे का इम्पार्टेन्स मालूम पड़ता? मग्गे की चिन्ता करना तो दूर रहता, तुझे लगता कि वकील साहब ने भी सलाह दी तो क्या क्या सलाह दी! अब तुझे मग्गे का और मेरी बात का मतलब समझ में आया और ऐसा आया कि तू जिन्दगी भर नहीं भूलेगा। याद रखेगा कि वकील साहब ने कोई बात बताई थी।’
 
सामनेवाला अब सामान्य हो चुका था। मुस्कुराता हुआ, धन्यवाद देकर विदा हुआ। उसके जाते ही जेपी मेरी ओर मुड़े। सवाल किया - ‘बोलो दाद् भाई! (‘दादा भाई’ का लोक प्रचलित शब्द स्वरूप) ठीक किया ना?’ ‘बिलकुल ठीक किया जेपी आपने।’ यही जवाब दिया मैंने। इसी में मेरी बेहतरी थी। लेकिन जेपी की बात बाकी थी। एक और सवाल तो किया लेकिन इस बार खुल कर हँसते हुए - ‘बताईए? यह सलाह आपके और आपके बेटे के भी काम आएगी या नहीं?’ मेरी हिम्मत थी कि मैं इंकार करूँ? एक बार फिर धोबीपाट का स्वाद चखूँ? कर ही नहीं सकता था। करता तो घर आकर यह सब लिखने की हालत में रह पाता?

वे जेपी हैं! यह सब पढ़कर आप उनके ‘जेपीपन’ का केवल अनुमान ही लगा सकेंगे। उसका आनन्द लेने के लिए आपको कम से कम एक बार तो जेपी से मिलना ही पड़ेगा।

गौतमपुरा का गोविन्द

ग्यारह बरस की अवस्थावाला गोविन्द अपनी अवस्था से अधिक समझदार और जिम्मेदार हो गया है।

रतलाम से इन्दौर जा रहा था। रेल से। पोहे-कचोरी के लिए प्रसिद्ध, छोटे से स्टेशन रुनीजा में क्रासिंग था। ऐसे क्रसिंग के वक्त, प्लेटफार्म वेण्डरों और स्टेशन से लगी हुई होटलों के मालिकों की व्यस्तता तनिक अधिक बढ़ जाती है। कम समय में अधिकाधिक बिक्री का अवसर होता है ऐसा क्रासिंग। सिंगल लाइन होने के कारण ऐसा क्रासिंग सबकी आदत बना हुआ है - बरसों से।

इन्दौर से आनेवाली रेल आई। रेल संचालन तन्त्र ने अपनी पारम्परिक व्यवस्था का पालन करते हुए ‘लीफो’ (LIFO - लेट इन, फर्स्ट आउट) के अधीन, इन्दौर से आई रेल को पहले रवाना किया। बाद में इन्दौर जानेवाली, हमारी रेल को।

रेल, रुनीजा से सरकी ही थी कि ‘मूँम्‍फली ऽ ऽ ऽ ऽ ई। गर्र ऽ ऽ ऽ म, करारी ‘मूँम्‍फली ऽ ऽ ऽ ऽ ई’ की बारीक, पतली किन्तु तेज आवाज ने ध्यानाकर्षित किया। रीसायकिल्ड प्लास्टिक से बनी,  मझौले आकार की, मूँफलियों से, आधी से अधिक भरी टोकनी, अपने बाँयें कन्धे पर उठाए एक बच्चा डिब्बे में चढ़ आया था और ‘कुशल’ फेरीवाले की तरह, सहजता से आवाज लगा रहा था। गहरे नीले/हरे रंग की, मशीनीकृत रंगीन कसीदेकारीवाली धारीदार, साफ-सुथरी शर्ट और बाँये हाथ में बँधी सस्ती घड़ी उसके ‘ड्रेस सेंस’ का परिचय दे रही थी। चेहरे पर न तो कोई तनाव न ही कोई भय। चेहरे के रोम-रोम पर पसरा हुआ आत्मविश्वास उसे ‘मनमोहक’ बना रहा था। उसे देखकर पहले क्षण तो प्रसन्नता हुई किन्तु अगले ही क्षण विचार कौंधा - इस समय तो उसे स्कूल में होना चाहिए था!

मैंने उसका नाम और गाँव पूछा तो उसके चेहरे पर छाया आत्म विश्वास, सन्देह में बदलने लगा। डर की कुछ लकीरें भी तैर आईं। निमिष भर को मेरी ओर देखा और नजरें फेर लीं। मैंने कहा - ‘तेने अपना नाम नहीं बताया यार!’ ग्राहक को मूँफली देते उसके हाथ तनिक लरजे। सहमते हुए बोला - ‘गोविन्द।’ पूछताछ आगे बढ़ाने पर खुलकर बिलकुल नहीं बोला। मालूम हुआ, वह गौतमपुरा रहता है और सरकारी स्कूल में, पाँचवी कक्षा में पढ़ता है। सुबह का स्कूल है। दोहर बारह बजे के आसपास छुट्टी होते ही वह, मूँफली की टोकरी उठा कर रेल में चढ़ जाता है।

कितने भाई बहन हैं, फुरसत के समय में पढ़ाई करने या खेलने के बजाय इस तरह मूँफलियाँ क्यों बेचता है और इस तरह दिन भर में कितनी ग्राहकी कर लेता है जैसे सवालों पर कुछ नहीं बोला। सहमते हुए, सन्देह भरी आवाज में बोला - ‘आप ये सब क्यों पूछ रहे हो सा’ब।’ मैंने कहा - ‘बस! यूँ ही।’ ‘यूँई थोड़ी कोई पूछता है सा’ब?’ मैंने भरोसा दिलाने की कोशिश की। उसने भरोसा नहीं किया। बोला - ‘आप चेकिनवाले (चेकिंगवाले) हो।’ मैंने इंकार किया लेकिन उसने विश्वास नहीं किया। बोला - ‘चेकिनवाले नहीं हो तो चेकिनवालों के मिलनेवाले होगे। मैं आपको कुछ नहीं बताऊँगा। क्या पता आप मेरी दुकानदारी बन्द करा दो।’ कह कर फौरन ही डिब्बे के दूसरे हिस्से में चला गया।

ग्यारह बरस का गोविन्द अपनी अवस्था से कहीं अधिक समझदार हो गया है। काफी-कुछ जान गया है - यह कि चेकिंगवाले उसका नुकसान कर सकते हैं और यह भी कि अपनी पारिवारिक और व्यापारिक जानकारियाँ किसे देनी हैं और किसे नहीं।

बिना शीर्षक : सरोजकुमार


                                 मेरे बारे में
                                 किसने किससे
                                 क्या क्या कहा,


                                 यह जान लेने पर
                                 मेरा कोई दोस्त
                                 नहीं रहा!


ये पंक्तियाँ, ‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह के पहले पन्ने पर दी गई हैं। मैंने जानबूझकर इन्हें सबसे अन्त में दिया है।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.
 

मेरा डर और ‘सयानो काम’

किसी भी बीमा अभिकर्ता के लिए यह गर्व की बात होती है कि प्रादेशिक विपणन प्रबन्धक उसे आगे रहकर फोन करे। लेकिन मेरे साथ उल्टा हो रहा है। मुझे राकेश कुमारजी से डर लगने लगा है। मोबाइल के पर्दे पर जैसे ही उनका नम्बर उभरता है, मुझे सिहरन होने लगती है। भय के मारे कँपकपी छूटने लगती है। इसलिए नहीं कि वे मध्य क्षेत्र (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) के प्रादेशिक विपणन प्रबन्धक अर्थात् रीजनल मार्केटिंग मैनेजर हैं अपितु इसलिए कि वे तो अपना काम कर रहे हैं किन्तु मैं अपना काम नहीं कर पा रहा।
 
राकेश कुमारजी का काम है, हम बीमा अभिकर्ताओं को बीमा करने के लिए कहना,  कहते रहना। अपना यह काम वे बखूबी करते हैं। लेकिन मैं हूँ कि अपने स्थापित स्तर और अपेक्षानुरूप बीमे नहीं कर पा रहा हूँ। इसे कहते हैं ‘कर्म-फल’ कि जिस अधिकारी से बात करना हम लोगों के लिए गर्व-गुमान की बात होती है, उसी अधिकारी का फोन आए और मैं सकुचाने लगूँ, डरने लगूँ।
 
लगता है, राकेश कुमारजी को मेरी हकीकत का अनुमान हो गया है। शायद इसीलिए इस बार जब फोन आया तो मेरे ‘हलो’ कहते ही बोले - ‘घबराइएगा नहीं। आज बीमे की बात नहीं करूँगा।’ मुझे तनिक राहत तो मिली किन्तु न तो डर कम हुआ और न ही झेंप कम हुई। हकलाते हुए बोला - ‘नहीं! नहीं! सर! कहिए। हुकुम कीजिए।’ वे ठठा कर हँसते हुुए बोले - ‘अब तक तो आपने हुकुम माना नहीं और कह रहे हैं हुकुम करूँ! छोड़िए। आज आपसे, ‘पैसे’ को लेकर बात करनी है।’
 
ब्लॉग पर अपने परिचय में मैंने ‘पैसे’ के प्रति वितृष्णा प्रकट की है। कहा है कि पैसा खुद अकेला रहने को अभिशप्त है और आदमी को अकेला करने में माहिर। मेरी बात का एक ही अर्थ निकलता है - ‘पैसे से दूर रहा जाए।’ राकेश कुमारजी ने इसी बात को विषय बनाया। बोले - ‘आपकी ही बात को मैं दूसरी नजर से देखता हूँ। आप कहते हैं, पैसे से दूर रहो और मैं कहता हूँ, पैसे से नजदीकी बढ़ाओ, उसे पकड़ो, काबू में करो, उस पर सवारी करो। उसे अपने पर सवारी मत करने दो। पैसा आदमी के लिए तभी मुसीबत या आफत बनता है जब वह आदमी पर सवारी कर लेता है, आदमी उसका दास बन जाता है। तब ही, पैसा सर पर चढ़ कर बोलने लगता है।’ बात नई नहीं थी लेकिन अन्दाज एकदम नया था - अनूठेपन की सीमा तक नया।
 
राकेश कुमारजी बोले - ‘आदमी के पास पैसा होना चाहिए लेकिन अपनी आवश्यकता से अधिक नहीं। आवश्यकता से अधिक पैसा अपने आप में विकृति हो जाता है। इसलिए, कमाते-कमाते जब पैसा अधिक हो जाए, तो उससे छुटकारा पाना शुरु कर दो। बल्कि, आवश्यकता से अधिक कमाओ ही इसलिए कि उससे मुक्ति पा सको।’ मैं चौंका। यह क्या बात हुई? यदि पैसे से मुक्ति पाना  ही अभीष्ट है तो उतना कमाना ही क्यों? लेकिन राकेश कुमारजी ने मुझे बोलने का मौका नहीं दिया। मेरी साँसों की बढ़ती गति से मानो ‘सहदेव’ की तरह मेरी मनोदशा का अनुमान कर लिया उन्होंने। उसी तरह हँसते हुए बोले - ‘पैसों के मामले में मुक्ति में ही प्राप्ति है और प्राप्ति भी लोक कल्याण की, सद्भावनाओं और आत्म सन्तोष की।’
 
अब मैं उलझ गया था। अपनी सीमाओं में रहते हुए कहा - ‘सर! बहुत हो गया। उलझाइए मत। साफ-साफ बताईए।’ उनकी हँसी एक बार फिर खनकी। बोले - ‘इफरात का अहसास होते ही रहीम को याद कीजिए। मात्र दो पंक्तियों में वे बता गए कि पैसे के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए।’ राकेश कुमारजी का इतना कहना था कि मुझे रहीम का दोहा याद आ गया -
 
                             पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।
                             दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।
 
सुनकर राकेश कुमारजी बोले - ‘अब और क्या कहूँ आपको? सब तो मालूम है आपको? आवश्यकता से अधिक पैसे को दोनों हाथों से उलीचिए। खर्च कर दीजिए। आपके पास ज्यादा है तो याद कीजिए कि असंख्य लोग जरूरतमन्द बैठे हैं। उनकी मदद कीजिए, उनकी सेवा कीजिए। उनकी आवश्यकताएँ पूरी हो जाएँगी। आप खुद तो डूबने से बचेंगे ही, असंख्य अनजानों की दुआएँ, सद्भावनाएँ आपकी जीवन यात्रा को अधिक आनन्दमयी, सन्तोषजनक और सहज बनाएगी। आपकी आत्मा सदैव ही अवर्णनीय आनन्द से लबालब रहेगी।’
 
बात मेरी समझ में आ गई। जी खुश हो गया। मैंने राकेश कुमारजी को धन्यवाद देना चाहा तो एक बार फिर मुझे रोक कर बोले - ‘ना! धन्यवाद मत दीजिए। अब आगे जो कहनेवाला हूँ, वह सुनकर आप खुद ही धन्यवाद देने से रुक जाएँगे।’ मैं फिर चौंका। साँस रोककर उनकी अगली बात की प्रतीक्षा करने लगा। हँसी के क्रम को यथावत् रखते हुए राकेश कुमारजी बोले - ‘आप अनजान लोगों की सेवा का सुख, आनन्द और आत्म सन्तोष हासिल कर सकें, इसके लिए कह रहा हूँ कि खूब बीमे कीजिए, खूब कमाइए। इतना कि आपकी नाव के डूबने का खतरा पैदा हो जाए। तब, दोनों हाथों से पैसा उलीचिए, लोगों की सहायता कीजिए और ईश्वर की वास्तविक सेवा की अवर्णनीय सुखानुभूति से सराबोर हो जाइए।’
 
मैं कुछ बोलता उससे पहले ही उन्होंने फोन बन्द कर दिया - अपने ठहाके के साथ।
 
पता नहीं, रहीम का बखाना और राकेश कुमारजी का बताया ‘सयानो काम’ मैं कब कर पाऊँगा। लेकिन राकेश कुमारजी तो अपना काम कर चुके थे - किसी कुशल, दक्ष, विषय विशेषज्ञ की तरह।

प्रदर्शनी के गुलाब : सरोजकुमार

श्वेत, लाल, पीले, नीलाभ
गुलाब ही गुलाब ही गुलाब!
घुँघराली, दल पर दल पंखुरियाँ!
काँटों की सीढ़ियाँ, हरी-हरी पत्तियाँ!
एक-एक पौधे से एक-एक डाली
कटी-छँटी सज-धज नखराली!
श्रंगों की रति का मनचीता त्यौहार
नयनाभिराम मोहक अलौकी संसार!


मैंने प्रदर्शनी के गुलाबों से पूछा:
कैसा लग रहा है?
कोई टिप्पणी?
बोले-यहाँ क्या निहारते हो
बन्द-बन्द हॉल में, पण्डाल में,
वहाँ आओ, जहाँ हम चहकते हैं
महकते हैं, क्यारियों के थाल में!
पर आप वहाँ क्यों आएँगे
हमको ही टहनियों से काट-छाँट लाएँगे,
सुन्दर होने की सजा देंगे,
फिर सजाएँगे!


अब हम हैं भी क्या?
आपके सौन्दर्यबोध की सेवा में
आपके अवलोकनार्थ
अपने ताजा शव हैं!
आप हमें निहारकर अपने घर जाएँगे
पर हम तो अब
अपने घर नहीं लौट पाएँगे!


अपनी जड़ों से कटने के बाद
कोई कहीं का नहीं रहता!
देखना दिखाना कुछ घण्टों का
फिर आप ही हमें
घूरे पर पटक आएँगे!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

साकार होना एक लोकोक्ति का

‘मित्र से बहस मत करो। तुम बहस में जीत तो हासिल कर लोगे किन्तु मित्र को खो दोगे।’ यह उक्ति सुनी तो कई बार थी किन्तु इसे सच होते पहली बार देखा।
 
वे दोनों अच्छे मित्र हैं। (अब, ‘थे‘ कहना पड़ेगा।) इन दोनों की मैत्री मुझे विस्मित करती रही है। दोनों का स्वभाव पूरब-पश्चिम। एक अत्यधिक विनम्र और उदार तो दूसरा एकदम अक्खड़ और दुराग्रही। इस घटना से समझ पड़ा कि यह मैत्री  विनम्र और उदार मित्र के दम पर चलती रही। सुविधा के लिए दोनों को नाम दे रहा हूँ - विनम्र को विमल और अक्खड़ को कमल।
 
वे दोनों चाय के ठीये पर बैठे थे। मैं उधर से निकल रहा था। विमल ने आवाज दी - ‘आओ! चाय पी लो।’ मेरे रुकते ही विमल ने चायवाले को हाँक लगाई - ‘एक चाय और बढ़ा देना।’
 
‘और सुनाओ। नया-जूना क्या चल रहा है?’ पहले से चल रही अपनी बातें बन्द कर, विमल ने मुझसे पूछा। मैंने कहा - ‘मेरे पास तो सब कुछ जूना ही जूना है। नया तो तुम्हारे पास मिलता है। तुम बीच बाजार में जो बैठते हो।’ विमल मुस्कुरा दिया। कमल को मानो कोई फर्क नहीं पड़ा। उनकी बातें हिमाचल और गुजरात चुनावों पर चल रही थीं। मैं कमल की प्रकृति जानता था। सो, मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। बात नरेन्द्र मोदी से होती हुई शिवराज सिंह चौहान पर आ गई। भोपाल में चार अक्टूबर को हुए काँग्रेसियों के धरने-प्रदर्शन का हवाला देते हुए विमल ने कहा - ‘2013 में कहीं ज्योतिरादित्य एमपी का सीएम नहीं बन जाए!’ कमल को जैसे बिजली का करण्ट लग गया। तड़पकर बोला - ‘कैसे बन जाएगा?  उसका परिवार देशद्रोही है। झाँसी की रानी को धोखा दिया था इसके परिवार ने। देशद्रोहियों को शासन में नहीं आने देंगे।’ विमल धीमे से, मुस्कुराता हुआ बोला - ‘तेरे साथ यही दिक्कत है। सुनते ही उछल जाता है। मैंने तो एक बात कही यार! तू और मैं कौन होते हैं किसी को शासन में लाने या न लानेवाले?
 
कमल को सन्तोष नहीं हुआ। उन्हीं तेवरों में बोला - ‘पता नहीं तुम लोग देशद्रोहियों का समर्थन क्यों करते हो?’ विमल को अच्छा नहीं लगा। बोला - ‘ऐसा मत बोल यार! तू जानता है कि मैं किसी पार्टी-पोलिटिक्स में नहीं हूँ। मैंने अलग-अलग वक्त पर सबको वोट दिया है - पोपी (काँग्रेसी, जयन्तीलाल जैन) को भी, सेठ (भाजपाई, हिम्मत कोठारी) को भी और दादा (निर्दलीय, पारस सकलेचा) को भी और ये सब तुझे पता है।’ अपनी तड़प यथावत बनाए रखकर कमल बोला - ‘हाँ। वो तो मैं जानता हूँ। लेकिन तेने देशद्रोही परिवारवाले ज्योतिरादित्य की बात कैसे कर दी? तू काँग्रेसियों की तरह बात करता है।’ विमल दुखी हो गया। कमल को समझाते हुए बोला - ‘कौन देशद्रोही है और कौन नहीं, यह तय करना तेरा-मेरा काम नहीं है। सोच-समझ कर बात करनी चाहिए। कभी-कभी वार उल्टा पड़ जाता है।’ विमल की बात कमल को चुनौती लगी। लगभग डाँटते हुए बोला - ‘क्या मतलब है तेरा? मैं देशद्रोही हूँ? देशद्रोहियों का समर्थक हूँ?’ बात खत्म करने की नियत से विमल बोला - ‘देख यार! बात खतम कर। बस! इतना याद रखना चाहिए कि सब तरह के लोग सब जगह होते हैं।’ (सुनकर मैं चौंका। ऐसी बात तो मैं करता हूँ!) लेकिन कमल बात खत्म करने के ‘मूड’ में नहीं था। मानो विमल को ललकार रहा हो, इस तरह बोला - ‘नहीं। बात खत्म नहीं होगी। अब तो तू बता ही दे कि मैंने कब किस देशद्रोही का समर्थन किया या करता हूँ।’ विमल ने फिर कहा - ‘छोड़ यार! चाय पी और छुट्टी कर।’ लेकिन कमल नहीं माना। अड़ा रहा।
 
अन्ततः विमल ने तनिक रोष से कहा - ‘तू सिन्धिया परिवार को देशद्रोही कह रहा है। लेकिन तू जिस पार्टी का हिमायती है उस पार्टी ने ज्योतिरादित्य की दादी, राजमाता विजयाराजे सिन्धिया को जनसंघ के जमाने में माथे पर बैठाए रखा। इस देशद्रोही परिवार की दो बेटियाँ, ज्योतिरादित्य की दो बुआएँ आज भी भाजपा में हैं। एक तो राजस्थान की मुख्यमन्त्री रह चुकी है और इतनी दमदार है कि भाजपा हाईकमान उसके सामने गिड़गिड़ाता रहता है। वो अभी भी विधायक है और शायद राजस्थान विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर है। दूसरी मध्य प्रदेश में ही लोकसभा सदस्य है जिसके नाम के आगे अभी-अभी एक अधिकारी ने ‘श्रीमन्त’ नहीं लिखा तो वह नाराज हो गई। अधिकारी की शिकायत कर दी और हालत यह हो गई कि अधिकारी को माफी माँगनी पड़ी। अब बोल! क्या कहता है?’ सुनकर कमल हक्का-बक्का हो गया। ये सन्दर्भ उसे निश्चय ही याद नहीं रहे होंगे। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। हकलाते हुए (निश्चय ही केवल जवाब देने के लिए) बोला - ‘लेकिन ये तो औरतें हैं। मैं तो मर्द शासकों की बात कर रहा।’ विमल ने फौरन कहा - ‘तेरा मतलब है कि देशद्रोही औरत शासक तुझे कबूल है, मर्द देशद्रोही शासक नहीं?’
 
अब पाँसा पलट चुका था। बातें उस मोड़ पर आ चुकी थी जिससे विमल बचना चाह रहा था। झुंझला कर कमल बोला - ‘मेरा तो यही कहना है कि देशद्रोही कोई भी हो, उसके साथ देशद्रोहियों जैसा ही व्यवहार करना चाहिए।’ विमल बोला - ‘देख! देशद्रोही को या तो फाँसी पर चढ़ाया जाता है या देश निकाला दिया जाता है। काँग्रेसियों पर तो तेरा कोई कण्ट्रोल नहीं है। तू ज्योतिरादित्य का कुछ नहीं कर सकता। लेकिन तेरी पार्टी में तो आवाज उठा सकता है कि ज्योतिरादित्य की दोनों बुआओं को पार्टी से फौरन निकाल कर देशद्रोहियों से पल्ला छुड़ाए। मैं जानता हूँ कि तेरी बात कोई नहीं मानेगा। लेकिन एक बार प्रेस नोट तो जारी कर।’ कमल कुछ नहीं बोला।  समझाइश के स्वरों में विमल बोला - ‘तू हाँ-ना, कुछ नहीं कह रहा। तेरा मतलब है ‘काँग्रेसी सिन्धिया’ तो देशद्रोही है और ‘भाजपाई सिन्धिया’ देशभक्त हैं? ऐसा नहीं है यार! सिन्धिया खानदान के लोगों पर अलग-अलग पैमाने मत लगा। और वैसे भी कोई भी सीएम बने, इससे अपन दोनों को क्या फरक पड़ता है?’
विमल की इस बात के उत्तर में वह हो गया जो नहीं होना चाहिए था। पता नहीं क्यों और कैसे कमल ने जवाब दिया - ‘तेरी नजरों में खोट है। सिन्धिया घराने की औरतें देशद्रोही नहीं हैं। मैं तो बस एक ही बात जानता हूँ कि ज्योतिरादित्य देशद्रोही परिवार से है और देशद्रोहियों को शासन में नहीं आना चाहिए।’ सुनकर विमल को गुस्सा आ गया। बोला - ‘देख कमल! तेरी यह बात अच्छी नहीं है। मैं तो किसी पार्टी-पोलिटिक्स में नहीं हूँ। लेकिन मेरी नजरों में खोटवाली तेरी यह बात गलत है। मैं तो एक बात जानता हूँ - जिसका बाप एक, उसकी बात एक। अब तेरी तू जान।’
 
विमल की इस बात के प्रभाव की कल्पना आप कर लीजिए। कमल आपे से बाहर हो गया। उसने विमल से जो कुछ कहा वह लिख पाना न तो सम्भव है और न ही उचित। जेब से पाँच रुपयों का सिक्का निकाल कर चायवाले को देते हुए, ‘मेरी चाय के पैसे इस टुच्चे से मत लेना।’ कहते हुए तेजी से चला गया।
 
विमल ने गहरी निश्वास ली। करुण दृष्टि से मेरी ओर देखा। बोला - ‘आज वह घड़ी आ गई जिसे मैं बरसों से टाल रहा था। अब तक मैं उसकी झूठी बातें सह-सहकर उसके साथ बना रहा और आज मेरी एक सच बात सुनकर वह मुझे छाड़कर चला गया।’ उसने हम दोनों की चाय का भुगतान किया। तब तक उसकी आँखें भर आई थीं। उसने आकाश की ओर देखा। हाथ जोड़े। अनदेखे-अनचिह्ने को नमस्कार किया। फिर मुझसे बोला - ‘अच्छा बैरागीजी! चलें। आज मैंने अपना बड़ा नुकसान कर लिया। प्रभु इच्छा।’
 
विमल भी चला गया। अब मैं अकेला ही चाय के ठीये पर बैठा था। हतप्रभ - एक लोकोक्ति को साकार होते देखने का अभाग्य लिए।
 

आत्मसम्वाद : सरोजकुमार

मैं जब-जब अपने से
बातें करना चाहता हूँ
न जाने कौन-कौन
बीच में आ जाता है
आत्म-सम्वाद बाधित करते हुए!


उन्हें दूर तक धकियाता हूँ
मुक्त होता हूँ!
पर जब वापस लौटता हूँ अपनी जगह
तब स्वयम् को वहाँ नहीं पाता
जहाँ अभी-अभी
छोड़कर गया था!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

वाहन और सापेक्षतावाद : सरोजकुमार

मैं जब मोटर में बैठता हूँ
मुझे ताँगे-बुर्जुआ
ऑटोरिक्शे फड़तूस
टेम्पो सड़कछाप
और साइकिलें सर्कसिया लगती हैं!


मैं जब ताँगे में बैठता हूँ
मुझे मोटरें सफेद हाथी
रिक्शे आवारे
टेम्पो भोंडे
और साइकिलें छिछोरी लगती हैं!


ऑटोरिक्शे में बैठने पर
मुझे मोटरें स्नॉब
ताँगे ऐतिहासिक
टेम्पो रिडक्शन-सेल
और साइकिलें कंजूस लगती हैं!


मुझे टेम्पो में बैठने पर
मोटरें दुश्मन
ताँगे तमाशा
रिक्शे फिजूल खर्च
और साइकिलें दयनीय लगती हैं!


जब मैं साइकिल पर होता हूँ
मुझे मोटरें वर्ग-भेद
ताँगे सामन्ती
रिक्शे चोंचले
और टेम्पो यमदूत लगते हैं!


मुझे पाँव-पाँव होने पर
मोटरें, ताँगे, रिक्शे, टेम्पो या सइकिलें
खरगोशी आपाधापी के नुमाइन्दे
और फुटपाथ, कछुआ दौड़ की
सुरक्षित गैलरी सा लगता है!


कभी, मन गति को
कभी मन, दृश्यों को ठगता है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

ये शीर्षक मेरी कविता का नहीं : सरोजकुमार

ये हाथ:
मेरी चेतना ने नहीं उठाया है!
ये मुस्कान:
मेरी प्रसन्नता की नहीं है!
ये आभार:
किसी अनुग्रह का नहीं है!
ये प्रशंसा:
किसी करतब की नहीं है!
ये नारे:
मेरे संकल्प के नहीं हैं!
ये आवाज:
मेरी आत्मा की नहीं है!
ये हड़बड़ी:
मेरे आवेश की नहीं है!
 
ये मुस्कान, ये प्रशंसा,
ये हड़बड़ी, ये आवाजें
ये नारे, ये नजारे
मेरे जीवन की शैली हैं
‘‘शैली ही जीवन है’’-
शेष सभी कुछ कालपात्र में गाड़ दो
जिसे मेरे विरोधी जरूर उखाड़ेंगे
और रोएँगे मेरे नाम को!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

गुस्सा कविता नहीं बन पा रहा है : सरोजकुमार

मेरा गुस्सा नहीं बदल पा रहा है
कविता में!
कविता की नस-नस में
व्याप जाए लावा
कविता की धड़कनों में
खड़कने लगे शंखध्वनि-
तब तो बात बने!
शायद मेरे बस का नहीं
कि लपलपाता गुस्सा
उतार सकूँ कविता में!


लोग वाह-वाह करें
और गुस्सा उन्हें उबाल न पाए,
यह मुझे बरदाश्त नहीं!
क्विता पहले और गुस्सा बाद में
मुझसे नहीं होगा!


मैं पालकी का नहीं
प्रतिमा का जुलूस चाहता हूँ!


आखिर गुस्सा लेकर
मुझे कविता में
घुसना ही क्यों चाहिए,
यह भी सोचता हूँ!
गुस्से के कपड़ों में
पगलाती कविता के
गाल लाल हो जाते हैं
भुजाएँ फड़कने लगती हैं
आँखें बरसाती हैं अंगारे
पर
उन्हें सुनकर
श्रोता मजा लेने लगते हैं
वीर रस का!


और-और मजा चाहते हुए
वंस मोर, वंस मो चीखते हैं
पर खलनायकों के खिलाफ
खड़े होते नहीं दीखते हैं!


कविता को छोड़कर
क्या शस्त्रागार में घुसना
ठीक होगा?
पर वहाँ इन दिनों
योग की कक्षाएँ लग रही हैं!


गुस्सा कविता नहीं बन पा रहा है,
और मेरे पास
कविता के अलावा कोई शस्त्रागार
नहीं है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
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