पड़ता है सा’ब! फरक पड़ता है

पहली चूक - कुछ अनुचित करना। दूसरी चूक - अनुचित घटित होते हुए, चुपचाप, बिना बोले देखते रहना। तीसरी - चूक - अनुचित घटित हो जाने के बाद हल्ला मचाना कि यह अनुचित हो गया जो नहीं होना चाहिए था। चौथी चूक - ऐसा हल्ला मचाते हुए अपने कहे की जिम्मेदारी न लेना। पाँचवी चूक - सब कुछ हो जाने के बाद, जो कुछ हुआ उसके लिए खुद के सिवाय बाकी सबको जिम्मेदार घोषित करते हुए दुहाइयाँ देना कि यदि ऐसा ही होता रहा और लोग ऐसा ही करते रहे तो सब कुछ डूब जाएगा, सत्यानाश हो जाएगा।

नहीं। किसी की चूक बताना मेरा अभीष्ट बिलकुल ही नहीं है। यह अलग बात है कि उपरोल्लेखित चूकों में से अधिकांश चूकें (और यदि अधिकांश नहीं तो कोई न कोई चूक) हम आदतन करते रहते हैं। कुछ इस तरह कि यदि न करें तो हमारा पाचन संस्थान गड़बड़ा जाए। ऐसे में यदि कभी, हमारी कोई चूक पकड़ ली जाए और उसकी जिम्मेदारी हमें लेनी ही पड़ जाए तो हमारा सहज जवाब होता है - ‘हाँ हो गई। तो? क्या फरक पड़ता है?’

पता नहीं क्यों, ऐसे ही क्षण मेरी पकड़ में आते हैं और मैं कहता हूँ (जैसा कि अब तक हर बार कहता आया हूँ) - ‘पड़ता  है सा’ब! फरक पड़ता है।’

अभी, इसी 28 जुलाई को, श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर द्वारा प्रकाशित साहित्य केलेण्डर का विमोचन रतलाम में हुआ। मुख्य अतिथि थे रतलाम के लोकप्रिय और प्रभावी वक्ता, प्रोफेसर मनोहर जैन। रतलाम के ही हैं इसलिए ‘घर का जोगी जोगड़ा’ वाली उक्ति के शिकार होते रहते हैं। यह अलग बात है कि मनोहर भाई इस स्थिति का तनिक भी बुरा नहीं मानते। इसके विपरीत, खुल कर हँसते हुए इसका आनन्द लेते हैं - ‘मैं घर का जोगी जोगड़ा ही बना रहना चाहता हूँ। मुझे इसी में मजा आता है। अच्छा लगता है।’ कार्यक्रम की अध्यक्षता, ‘समिति’ के प्रबन्ध मन्त्री प्राफेसर सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी (इन्दौर) ने की। ‘समिति’ के एक सदस्य, इन्दौर के ही श्री राकेश शर्मा भी अतिथि के रूपमें उपस्थित थे। कार्यक्रम की मेजबानी, ‘हम लोग’ नामक संस्था ने की, जिसके अध्यक्ष श्री सुभाष जैन हैं और जिससे मैं भी जुड़ा हुआ हूँ।

अब यहाँ दिया चित्र देखिए। सबसे पहले राकेशजी, फिर सुभाष भाई, फिर चतुर्वेदीजी और सबसे अन्त में मनोहर भाई बैठे हैं जिन्हें गोल घेरे से चिह्नित किया गया है। आयोजन छोटा सा था। बरसात के बाद भी श्रोताओं की संख्या हमारी अपेक्षानुरूप ही थी। लगभग सवा-डेड़ घण्टे में कार्यक्रम पूरा हो गया। ढंग-ढांग से आयोजन सम्पन्न होने की प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, बधाइयाँ और धन्यवाद देने के लिए मैंने अगले दिन, ‘उन्हें’ फोन किया।  काम की बात पूरी होने के बाद ‘वे’ बोले - ‘लेकिन एक काम गलत कर दिया आपने।’ मैंने पूछा - ‘क्या?’ ‘वे’ बोले - आपने मुख्य अतिथि मनोहरजी को तो कोने पर बैठा दिया और मेजबान सुभाषजी को बीच में बैठा दिया।’ इस बात पर मेरा ध्यान बिलकुल ही नहीं गया था। कार्यक्रम के दौरान, मेरे पास बैठे वासु भाई गुरबानी का ध्यान भी शायद नहीं गया था वर्ना वे मेरे कान में कुनमुनाते अवश्य। मैंने पूछा - ‘यह बात आपको कब ध्यान में आई?’ ‘वे’ बोले - ‘जब सुभाषजी बीचवाली कुर्सी पर बैठ रहे थे तभी।’ मैंने कहा - ‘तो आपने उसी वक्त क्यों नहीं टोका? मुझसे ही कह दिया होता। मैं यह अनुचित हरकत नहीं होने देता।’ ‘वे’ बोले - ‘मैं बोलकर बुरा क्यों बनता? मुझे क्या पड़ी थी?’ मैं चकराया। पूछा - ‘तो अब क्यों कहा?’ ‘वे’ बोले - ‘चुप नहीं रह सका इसलिए कह दिया।’ मैंने कहा - ‘आप सही समय पर चुप रहे और गलत समय पर बोल रहे हैं। अब तो जो हो गया उसे दुरुस्त भी नहीं किया जा सकता।’ ‘वे’ बोले - ‘लो बोलो! भलमनसाहत का तो जमाना ही नहीं रहा! चुप रहो तो मुश्किल और बोलो तो मुश्किल। आप से तो कोई बात करना ही बेकार है।’ मैंने कहा - ‘गलत बात हो रही थी और चुपचाप देख रहे थे तो इस गलत में तो आप भी बराबर के शरीक हैं। अब तो यही हो सकता है कि ‘हम लोग’ की अगली बैठक जब भी होगी तो मैं आपकी यह बात रखकर कहूँगा कि आगे से ऐसी चूक न हो।’ जैसे उनके कपड़ों में गिरगिट घुस आया हो, कुछ इसी तरह हड़बड़ा कर, पल्ला झाड़ते हुए ‘वे’ तत्क्षण बोले - ‘मेरा नाम मत लीजिएगा। यदि आपने मेरा नाम लिया तो मैं मना कर दूँगा। कह दूँगा कि बैरागीजी ने झूठ बोला।’

मुझे हँसी आ गई। कहा - ‘आपको जो कहना-करना हो, कर लीजिएगा। मुझे जो कहना-करना होगा, कर लूँगा। लेकिन आगे से ध्यान रखिएगा। ऐसी हरकत होती नजर आए तो फौरन टोकिएगा और गलती को वहीं पर, हाथों-हाथ ही दुरुस्त कराने की कोशिश कीजिएगा।’ ‘वे’ बोले - ‘उससे क्या फरक पड़ेगा?’ मैंने कहा - ‘यह फरक पड़ेगा कि एक अनुचित और अशालीन आचरण, परम्परा नहीं बनेगा। यदि आपने उसी समय कह दिया होता तो मनोहर भाई को न केवल तत्काल ही बीचवाली कुर्सी पर बैठा दिया जाता बल्कि इस चूक के लिए क्षमा-याचना कर ली जाती। खुद सुभाष भाई ही क्षमा माँग लेते। इससे यह सन्देश जाता कि भविष्य में कोई और ऐसी चूक नहीं करता। सबसे बड़ी बात यह होती कि श्रोताओं में उपस्थित बच्चे/किशोर देखते कि उनके  बड़े-बूढ़े भी गलती कर सकते हैं किन्तु अपनी गलती अनुभव होते ही वे बड़े-बूढ़े किस तरह क्षमा-याचना करते हुए अपनी गलती सुधारते हैं। वे आजीवन याद रखते कि मुख्य अतिथि और मेजबान को कहाँ बैठाया-बैठना चाहिए।’

मेरी बात ‘उन्हें’ ‘भाषण’ लगी। बोले - ‘आपको तो मौका मिलना चाहिए। आप तो चिन्दी का थान बना देते हो। ये तो ऐसा ही चलता रहेगा। कोई फरक नहीं पड़ता।’

अवस्था में वे मुझसे अवश्य कम हैं किन्तु विद्वत्ता, अनुभव, परिपक्वता और दुनियादारी के मामले में ‘विराट’ हैं जबकि उनके सामने मैं तो ‘वामन’ भी नहीं हूँ। कैसे कहता कि सा’ब! ऐसा नहीं है। फरक पड़ता है। जिस तरह आप लोग बीज में वृक्ष देखते हैं, उसी तरह मैं छोटी-छोटी बातों के बड़े और व्यापक प्रभाव देखता हूँ। पहला कदम बहकने पर ही यदि सम्हाल लिया जाए तो शेष जीवन सधा रहता है, कभी नहीं लड़खड़ाता। इसीलिए फिर कह रहा हूँ - ‘पड़ता है सा’ब! फरक पड़ता है।’

पता नहीं मेरा यह लिखा ‘उन’ तक पहुँचेगा या नहीं। और यदि पहुँचेगा तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी। किन्तु हम यदि इसी तरह ‘सही समय पर चुप’ रहते रहेंगे तो परिष्कार कैसे होगा? संस्कारों का विस्तार कैसे होगा?

बागडोर : सरोजकुमार

हम प्यार नहीं करते
हमारी शादी हो जाती है
शादी के बाद की करनी को
हम प्यार कहते हैं!
हमारा प्यार
हमारे माता-पिता तय करते हैं
माता-पिता का प्यार
उनके माता-पिता ने तय किया था!



खुफिया आँखों से
जँचा हुआ प्यार
कभी अन्धा नहीं होता!


! वयस्क युवक-युवतियों,
तुम मनपसन्द विधायक चुनो
मनपसन्द संसद बनाओ
देश की बागडोर तुम्हारे हाथ में है,
उसी हाथ में,
जिसे अपने प्यार को
वोट देने की इजाजत नहीं है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.