कलकलवती नदी: सरोज कुमार

पठारों से लेकर
ढलानों की फिसलन तक
बिखरे हैं इस पोथी के पन्ने!
अवसाद के कगारों से
आनन्द के कछारों तक
पसरी है
एक कलकलवती नदी!
फैले हुए चौड़े पाट
कुछ डूबे, कुछ टूटे घाट
कई जगह उथली है
जगह-जगह गहरी है
भीतर से बहती है
ऊपर से ठहरी है!

ऐसी चादर, जिसे मैंने
ओढ़ा है, बिछाया है
लेकिन कबीर साहब की तरह
जैसी की तैसी
नहीं जा सकेगी तहाई!

झरने के सफेद धुएँ से लेकर
नीली आँखों वाली
नदी तक,
नदी से बाँध
बाँध से बिजली
बिजली से लेकर अँधेरों तक फैले
अनुभवों की
कवायद करती चतुरंगिणी!

प्रेम से लेकर प्रेम तक
विवाह से तलाक तक
तलाक से तन्हाई
तन्हाई से
अनाम सम्बन्धों के
मूक रिश्तों को भेदकर
निकलती, सुरंग जैसी
जिन्दगी!

मन तक पहुँचने की कोशिश में
शरीरों से खेलती,
अर्थ की तलाश में
शब्दों को झेलती,
बार-बार मिट-मिट कर
बार-बार बन-बन कर
अनेक आवृत्तियों में
एक ही उपस्थिति को
दुहराती तिहराती
वही-वही जिन्दगी!

कमरे से कक्षा तक
दरी से मंच तक
लिखने से दिखने तक
परिचितों से परायों तक
कितना लम्बा सफर रही है
यह हाँफती जिन्दगी!

दो सौ साल जी लिया लगता है,
वैसे मरना
कौन चाहता है, मुर्दा भी नहीं!
पर और जीने की
जरूरत नहीं लगती!
दुहरा रहा हूँ स्वयम् को!
यह दुहराना
जिन्दगी की रिहर्सल नहीं है!
यह दुहराना
मजबूत होना भी नहीं है!
चीजों के सध जाने के बाद का
ठहराव ठिठका हुआ है
इस हलचल में!

नया खेल चाहिए!
नए के नाम पर-
वही-वही खेल रचती है
नई-नई चालों से जिन्दगी!
इतना चल चुका हूँ, अब
नई चाल नहीं चल पाऊँगा!
इतना ही हो सकता था चालाक!

यों तो जितना
जिया जाए कम है
कब्र में लटका भी
मरना नहीं चाहता,
पुनर्जन्म का ढिंढोरची
पुण्यात्मा भी नहीं!
लौटना सम्भव नहीं है
इस यात्रा में!
यों कुछ पड़ावों पर
लौटने की इच्छा
बराबर रही सुलगती!

कुछ मोड़ याद आते हैं
जहाँ सही-गलत मुड़ा था,
कुछ जोड़ याद आते हैं
जहाँ सही-गलत जुड़ा था।
रिवर्स गियर क्यों नहीं लगता
बहती हुई नदी में?
इतिहास में घुसकर
कुछ पन्ने फाड़ने-चिपकाने की
इजाजत क्यों नहीं है?

यात्रा जो हुई है
और है,
वही एकमात्र है
अनन्त है
शरीर से साँस तक!

लगता है, बस
शरीर ही शरीर है!
मन भी है.....
पर वह हो चुका है मुक्त,
मिल गया है उसे मोक्ष
सब कुछ पा जाने की
अनुभूति ही मोक्ष है!

अनुभूति तो होती है अनुभूति ही,
चट्टानों की छाती पर खड़ी हो
चाहे रेत के बगूलों पर
फर्क नहीं पड़ता है!

दो सौ साल जी चुका
लगता है।
हजार साल भी जी सकता हूँ,
पर जीना
कोई प्रतियोगिता का
मामला नहीं है!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

1 comment:

  1. जीवन के प्रवाह को समझती समझाती नदी।

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