सुमनजी का कोई विकल्प नहीं है...... : सरोजकुमार

समय ज्यादा हो गया है
मंच पर बैठे हुए हाकिम-हुक्काम
घड़ियों में बार-बार झाँक रहे हैं,
उधर सुमनजी प्रेमिका के जूड़े में
तबीयत से, गुडाँस का फूल टाँक रहे हैं!
श्रोता रीझ-रीझकर तालियाँ बजा रहे हैं!
इधर तकरीर में
दादू, रैदास और नानक आ रहे हैं!
लंच के लिए अब शायद चीफ सेक्रेटरी न रुकें
आयोजक रो रहा है,
उधर लोकसभा मे कैफी आजमी के साथ
सुमनजी का स्वागत हो रहा है!

बच्चन की आत्मकथा में सहखाटी होने का किस्सा
हॉल मज ले-ले कर सुन रहा है
आयोजक विंग में जाकर सिर धुन रहा है!
सुमनजी युवक समारोह में
खचाखच उपस्थिति को समझा रहे हैं
कि जवानी का कोई सेक्स नहीं होता,
और वो गलती करती है हमेशा!

वे शिकागो पहुँच गए हैं,
संस्कृत के श्लोकों से हॉल गूँज उठा है,
आयोजक बाहर निकल आया है!
भीतर नदी उफान पर है,
लड़के-लड़कियाँ डूब-उतरा रहे हैं,
और अब रवीन्द्रनाथ के सामने उदयशंकर
नृत्य करने आ रहे हैं!
सुमनजी बांग्ला में रवीन्द्र को ‘डाक’ रहे हैं!
नामर्द कौम में मुझे पैदा किया है क्यों?
नई पीढ़ी फटकार सुनती हुई तालियाँ पीट रही है
और मर्दाने भगतसिंह आकर
अहलेवतन को शुभकमनाएँ देकर
सफर पर निकल जाते हैं!
तालियाँ इस तरह बजती हैं,
मानो भाषण खत्म हो गया है,
पर नहीं, सुमनजी की महाकविता में
अभी और और छन्द हैं!
हर छन्द की ताली, समाप्ति का भ्रम देती है!
महाकविता अनन्त है
जिसे श्रोता मुग्धा नायिका की तरह सुने जा रहे हैं!
‘लोहा जब माटी भया, तो पारस का क्या काम?’
सबको लगा कि आया पूर्ण विराम,
पर अचानक गुरुदेव आ गए हैं
अपना चन्द्रमा लिए हुए, जो सुबह कान्तिहीन बनकर भी
सूर्य के दर्शनों को रुकना चाहता है!
आयोजक जल्दी भाषण समाप्त करने की
एक चिट्ठी भेजना चाहते हैं,
पर चिट्ठी सुमनजी को देने, कोई तैयार नहीं,
पब्लिक शॉप दे देगी!

इस बार इन्दिराजी आई हैं
और कर्णसिंह कविता सुनाते मिल गए हैं!
विवेकानन्द विवेक के साथ
बुद्ध अपनी करुणा के साथ
उपस्थिति दर्ज कराकर चले गए हैं!
‘मिट्टी कर बारात’ में सुमनजी खो गए हैं
और अब कालिदास की शेष कथा कहने में
मशगूल हो गए हैं!
हवाई पट्टी पर उतरा हुआ जहाज
आसमान में फिर पेंगें भरता है-
अशोक आते हैं
और गाँवों में आग लगाता अलेक्जेण्डर
बर्बरता से भरा, मंच पर चढ़ता है!
आयोजक कमर झुकाए, फिर मंच से उतरता है!

इन्दिराजी ने इमरजेंसी लगा दी है!
और अलाउद्दीन खाँ का शिष्य कौन हो सकता है?
पूछकर सुमन उत्तर भी देते हैं - रविशंकर!
वयोवृद्ध सुमन के गाल
प्रेम की कविता, सुनाते हुए
अब भी लाल हो जाते हैं!
सिर पर सहेजे गए काँस के फूल
बिखर-बिखर जाते हैं!
श्रोता तालियों पर तालियाँ बजाते हैं!

भाषण खत्म होते ही ऑटोग्राफ की ललक में
लड़के-लड़कियों ने सुमनजी को घेर लिया है!
हाकिम चिढ़ रहे हैं
आयोजक भीड़ से भिड़ रहे हैं!
जब बुलाने गए थे, तब मिमिया रहे थे
अब भिनभिना रहे हैं
कल फिर मिमियाते पहुँचेंगे।
सुमनजी का कोई विकल्प नहीं है!
-----

‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

4 comments:

  1. लाजवाब! बार बार भिनभिनाते हुए भी वहीं पहुँचते हैं। भीड़ भी जुटानी है, टिकट बेचकर दुकान भी सजानी है। ये देश है वीर जवानों का ...

    ReplyDelete
  2. Replies
    1. आपका नाम और चित्र तो आ गया। बस, आपकी टिप्‍पणी नहीं आई।

      Delete
  3. अत्यन्त रोचक विषय और प्रस्तुति..

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.