जूझना अपने आप से

आज आठवाँ दिन है। इस पोस्ट के प्रकाशित होते-होते नौवाँ दिन हो जाएगा। विचित्र सा अनमनापन छाया हुआ है। कुछ भी करने को जी नहीं होता। लिखने को इतना कुछ है कि अविराम लिखूँ तो पाँच-सात दिन लिखता रहूँ। किन्तु जब-जब भी लिखने की कोशिश की, हर बार असफल रहा। बीसियों बार लेपटॉप खोला, लिखना चाहा किन्तु एक बार भी लिख नहीं पाया। अंगुलियाँ ही नहीं चलीं। लेपटॉप के कोरे, खाली पर्दे को सूनी आँखों से देखता रहा। मन पर कोई बोझ भी नहीं है और न ही किसी से कोई कहासुनी ही हुई। सब कुछ सामान्य। किन्तु विचित्र रूप से असामान्य।

मेरा मेल बॉक्स भरा पड़ा है - सन्देशों से भी और ई-मेल से मिले ब्लॉगों से भी। सन्देश वे ही पढ़े जो बीमे से जुड़े थे या फिर दो अक्टूबर को, ‘हम लोग’ के संयोजन में होनेवाले, प्रोफेसर पुरुषोत्तमजी अग्रवाल के व्याख्यान से जुड़े थे। इन सन्देशों को खोलना मजबूरी थी - धन्धे की भी और आयोजन की जिम्मेदारी की भी।

गिनती तो नहीं की किन्तु कोई तीस-पैंतीस अनपढ़े ब्लॉग तो होंगे ही मेरे मेल बॉक्स में। सबके सब मेरे प्रिय ब्लॉग। पढ़ने की कोशिशों का हश्र भी, लिखने की कोशिशों जैसा ही रहा। भूले-भटके कोई ब्लॉग खोला भी तो एक वाक्य भी नहीं पढ़ पाया। यही हाल अखबारों का भी हुआ। ‘जनसत्ता’ का पाठक केवल मैं ही हूँ मेरे घर में। इन दिनों के, ‘जनसत्ता’ के सारे अंक, बिना खोले ही रखे हुए हैं - जस के तस। कुछ इस तरह मानो उनसे मेरा कोई सरोकार ही न हो। पत्र आते कम हैं और लिखता ज्यादा हूँ। देख रहा हूँ कि इन आठ-नौ दिनों में सात अनुत्तरित पत्रों के अलावा कोई सत्ताईस-अट्ठाईस पत्र अपनी ओर से लिखने के लिए सूचीबद्ध हो गए हैं। यह नहीं कि यह अनमनापन केवल पढ़ने-लिखने तक ही सीमित रहा। इन दिनों में बेची गई पूरी उनतीस बीमा पॉलिसियों की प्रविष्टियाँ भी अपने रेकार्ड में नहीं कर पाया हूँ। समाचार देखने के लिए बुद्धू बक्सा जब-जब भी खोला, तब-तब हर बार अपने आप पर ही हैरान हुआ। पर्दे पर क्या दिखाया जा रहा है और क्या बोला जा रहा है - समझ ही नहीं पड़ा।


क्या हो रहा है मुझे? 27-28 सितम्बर, मंगलवार-बुधवार की सन्धि-रात्रि में, अपने आप से जूझकर यह सब लिख रहा हूँ कुछ इस तरह मानो खुद के साथ जबरदस्ती कर रहा हूँ या खुद को सजा दे रहा हूँ। यूँ तो फटाफट लिखता हूँ किन्तु इस समय मानो अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगानी पड़ रही है। नितान्त अनिच्छापूर्वक करना पड़ रहा हो, ऐसा लग रहा है।

यह उदासीनता है या जड़ता की शुरुआत? मैं सम्वेदनशून्य या सम्वेदनाविहीन तो नहीं हो रहा? अच्छा भला घर से निकलता हूँ, यार-दोस्तों के बीच खूब हँस रहा-हँसा रहा हूँ, जमकर अड्डेबाजी कर रहा हूँ, दोनों समय भोजन कर रहा हूँ। याने कि बाकी सब तो सामान्य और पूर्वानुसार ही। किन्तु केवल लिखने-पढ़ने के नाम पर जड़ता! कहीं यह बढ़ती उम्र का असर तो नहीं?


जानता हूँ कि सारे सवालों के जवाब मेरे अन्दर ही हैं किन्तु भरपूर कोशिशों के बाद भी उन्हें हासिल नहीं कर पा रहा हूँ। क्या इन कोशिशों के मामले में अपने आप से बेईमानी कर रहा हूँ?

यह कैसी दशा है? क्या ऐसा सबके साथ होता है? होता है तो कितने समय तक यह दशा बनी रहती है? क्या किसी वैद-हकीम से मशवरा किया जाना चाहिए? या किसी मनः चिकित्सक से?


कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ। जी करता है कोई मुझे समझाइश दे किन्तु जब भी किसी से बात की और उसने समझाना चाहा तो मुझे चिढ़ छूट गई और झल्ला कर चला आया - ‘मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन, जो मुझे समझाय है’ को चरितार्थ करता हुआ।

देखता हूँ, आगे क्या होता है। लिखने-पढ़ने का सिलसिला शुरु होता है या नहीं? होता है तो कब और कैसे?

इसका शीर्षक आप ही दीजिए

यह सब अनूठी, अनपेक्षित, विचित्र और उल्लेखनीय भले ही न हो किन्तु ‘लेखनीय’ और प्रथमदृष्टया रोचक तो है ही।

आयु में मुझसे छोटे किन्तु मेरे संरक्षक की भूमिका निभा रहे सुभाष भाई जैन के आग्रह पर हम लोगों ने एक संस्था बनाई। यह संस्था क्या करेगी और कैसे करेगी, इस पर बात करूँगा तो विषय भंग हो जाएगा। तनिक (याने भरपूर) सोच-विचार के बाद इसका नाम दिया गया - ‘हम लोग।’ इसका कामकाज कुछ ऐसा कि इससे जुड़ने पर ‘दो पैसे’ भी देने पड़ेंगे, हाजरी भी देनी पड़ेगी और मिल गई तो कोई जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। ऐसी अटपटी शर्तें माननेवाले ‘सूरमा’ कौन-कौन हो सकते हैं, यह याद करते हुए हम लोगों ने अपने-अपने परिचय क्षेत्र के ऐसे साहसी लोगों के नाम लिखने शुरु किए। हम आठ लोग मिल कर ऐसे सौ लोग भी तलाश नहीं कर पाए। आँकड़ा अस्सी को भी नहीं छू सका।

कोई दस महीनों की मशक्कत के बाद छाँटे गए, ‘अपना घर बारनेवाले’ इन्हीं सम्भावित शूरवीरों के साथ पहली बैठक बुलाई गई इसी ग्यारह सितम्बर रविवार को। शनिवार रात से ही अच्छी-खासी बरसात शुरु हो गई थी जो रविवार को भी जस की तस बनी रही। स्थिति कुछ ऐसी कि यदि बैठक हम ने ही नहीं बुलाई होती तो हम भी नहीं जाएँ। बैठक के निर्धारित समय दस बजे से कोई आधा घण्टा पहले मैं पहुँचा तो पाया कि मुझे ही सबकी अगवानी करनी है। हम आठ-दस भी सबके सब लगभग ग्यारह बजे एकत्र हो पाए। धीरे-धीरे लोग आने शुरु हुए। जिन पर खुद जितना भरोसा था ऐसे कुछ लोगों को डाँट-डपट कर तो कुछ से गिड़गिड़ाकर, बैठक में आने को कहा। बारह बजते-बजते हम लगभग चालीस लोग एकत्र हो गए।

बैठक शुरु हुई। संस्था के बारे में मैंने बताया और आमन्त्रितों के विचार जानने का सिलसिला शुरु हुआ। दो को छोड़कर शेष सब बोले। कोई पौने दो बजे बैठक समाप्त हुई। गपियाते हुए और अपने-अपने वक्तव्यों को परस्पर दोहराते हुए सबने सह-भोज का आनन्द लिया। तीन बजते-बजते हम लोग अपने-अपने घरों में थे।

सोमवार के अखबारों ने हमें चकित किया। प्रमुख अखबारों ने हमारी अपेक्षाओं और अनुमानों से कहीं अधिक विस्तार और प्रमुखता से सचित्र समाचार छापे थे। हम आठ-दस ने फोन पर एक-दूसरे को बधाइयाँ दीं। हम सब ‘परम प्रसन्न’ थे। लगा, ‘अच्छी शुरुआत याने आधी सफलता पर कब्जा’ वाली कहावत सच हो गई हो।

सुबह कोई पौने ग्यारह बजे एक परिचित का फोन आया। ‘हम लोग’ के गठन के लिए बधाइयाँ दी और कहा - ‘इसमें मेरा नाम भी लिख लीजिएगा।’ मैंने शर्तें बताईं तो बोले - ‘सुने बिना ही आपकी सारी शर्तें मंजूर हैं।’ उसके बाद, एक के बाद एक कुल जमा सात फोन आए और प्रत्येक ने अपना नाम लिखने और सारी शर्तें मानने की बात कही। अगले दिन, मंगलवार को छः फोन आए और सबने उसी प्रकार ‘आँख मूँदकर सारी शर्तें कबूल’ की तर्ज पर ‘हम लोग’ से जुड़ने की बात कही। मैंने ‘आठ-दस’ में बाकियों से सम्पर्क किया तो मालूम हुआ कि दो के पास ऐसे ही, ‘हम लोग’ की शर्तों पर जुड़ने के लिए एक-एक फोन आ चुके हैं। याने कुल पन्द्रह लोग अपनी ओर से जुड़े, ‘हम लोग’ की शर्तों पर जुड़े और अपनी ओर से फोन करके जुड़े। मेरी प्रसन्नता अब कौतूहल में बदल गई। यह क्या हो रहा है? क्या सतयुग आ गया कि लोग पैसे भी देने, हाजरी भी बजाने और जिम्मेदारी भी कबूलने को तैयार हो रहे हैं! खुद-ब-खुद! आगे होकर फोन करके हैं! मुझे तनिक घबराहट हुई - कहीं समाचारों में ‘हम लोग’ के कामकाज के बारे में कोई भ्रामक बात तो नहीं छप गई कि लोगों ने इसे ‘एण्टरटेनमेण्ट क्लब’ तो नहीं समझ लिया? सारे समाचार एक बार फिर पढ़े - खूब ध्यान से। नहीं। किसी भी अखबार में एक शब्द भी भ्रामक या अनर्थ करनेवाला नहीं था। फिर यह क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? पूछूँ तो किससे पूछूँ?

उलझन रात भर बनी रही। सुबह भी उलझन जस की तस थी। चाय के साथ अखबार-पान चल रहा था कि मोबाइल की घण्टी बजी। इस बार भी वही आग्रह था। बात शुरु होते ही मैंने तय कर लिया - इनसे पूछूँगा। वे फोन रखते उससे पहले ही मैंने कहा - ‘आखिर ऐसी क्या बात हो गई कि आप महरबान हो गए?’ उनके जवाब ने मुझे धरती पर ला पटका। वे फोन बन्द कर चुके थे। मुझे सम्पट बँधती कि एक और फोन आया। सब कुछ वही का वही। मैंने इनसे भी पूछा - ‘क्यों?’ इनका जवाब भी वही रहा जो पहले का था। अब मुझे बात समझ में आई। पहले तो मैं खूब हँसा - अकेले ही, किन्तु कुछ ही क्षणों में मेरी हँसी बन्द हो गई। इस बात पर मेरा हँसना वाजिब होगा या चिन्ता करना? मैं खुद से कोई जवाब पाता कि एक के बाद एक तीन फोन लगातार आ गए। तीनों ने मानो पहले आपस में बात की हो और फिर मुझे फोन किया हो। केवल शब्दों का अन्तर किन्तु सन्देश भी और मेरी जिज्ञासा का जवाब भी वही का वही।

मैंने ‘वह बात’ जान बूझ कर अब तक नहीं लिखी है। यकीन मानिए, नामों की सूची बनाते समय हममें से किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। हममें से प्रत्येक ने संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप सम्भावित सहयोगियों के नाम लिखे थे। किन्तु अनजाने में ही हम आठ-दसों ने वह समानता बरत ली जो मेरी जिक्षासा का उत्तर बनी। बाद में मैंने पहले दो दिनों में फोन करनेवाले पन्द्रह लोगों में से कुछ से पूछा तो उनसे भी वही बात सामने आई।


अब तक आपकी जिज्ञासा बढ़ गई होगी और कोई ताज्जुब नहीं कि आप मुझ पर चिढ़ने लगे हों। तो सुन लीजिए वह जवाब जो अलग-अलग शब्दों में कमोबेश एक ही था - ‘आपकी संस्था पर हमें विश्वास है कि आप झाँकीबाजी और दुकानदारी नहीं करेंगे क्योंकि जितने नाम छपे हैं उनमें किसी भी नेता का नाम नहीं है।’

......और माताजी चबूतरे पर स्‍थापित हो गईं

कोई 6 बरस हो गए हैं, आशीष को अब तक नहीं पता कि उसने कितनी पुरानी परम्परा तोड़ दी या कि तुड़वा दी। कौन आशीष? वही आशीष दशोत्तर जिसकी पचास से अधिक गजलें आप, दो बरसों से भी अधिक समय से मृत पड़े मेरे ब्लॉग मित्र-धन परआशीष ‘अंकुर’ की गजलें टैग में पढ़ चुके हैं।



एक संस्था के गठन के लिए बुलाई गई पहली बैठक में खुद आशीष ने जब यह सब बताया तो उसकी बात पर हममें से किसी को विश्वास नहीं हुआ। होता भी कैसे? हम सब तो बस, उपदेश बघारते रहते हैं जबकि आशीष ने तो आसमान में सूराख कर दिखाया!


अफसाना-ए-कामयाबी-ए-आशीष फकत इतना कि जिस दुर्गा माता को उसके मोहल्ले के लोग पता नहीं कितनी पीढ़ियों से, दो गटरों से घिरी, गली की सड़क के बीचों-बीच बैठाते चले आ रहे थे, उसी दुर्गा माता को आशीष ने एक चबूतरे पर ‘शिफ्ट’ करा दिया।


आशीष का मुहल्ला, नागरवास एक सँकरी सड़क के दोनों ओर बसा है। सड़क के दोनों ओर गटरें बनी हुई हैं, उसके बाद मकाने के चबूतरे और फिर चबूतरों से लगे मकान। नागरवास के निवासी, शारदीय नवरात्रि में, अपनी इसी सड़क के बीचों-बीच दुर्गा स्थापना करते आ रहे थे। सड़क पहले ही सँकरी, उस पर बीचों-बीच दुर्गाजी विराजमान! पूरे दस दिन रास्ता बन्द हो जाता था। दुपहिया वाहन तो दूर, पैदल निकलने के लिए भी लोगों को कसरत और सरकस का सहारा लेना पड़ता था।


आशीष को कई बातों से बेहद तकलीफ होती थी। सबसे पहली तो यह कि माताजी दो गटरों के बीच स्थापित हैं। याने, शुद्धता और पवित्रता तो पहले ही क्षण से कोसों दूर चली गईं। दूसरी यह कि रात में तो लोग जलसा मनाते किन्तु दिन में, माताजी के पीछे और गटर के बीच वाली खाली जगह में भाई लोग ताश-पत्ती खेलते रहते। पता नहीं इस खेल में मनोरंजन या ‘टाइम पास’ कितना होता था और ‘पैसों का खेल’ कितना? आशीष ने, इलाके के थानेदार से कहा भी िकवे कोई कार्रवाई भले ही न करें पर ऐसे ‘खिलाड़ियों’ को हड़काएँ तो सही। किन्तु थानेदार ने अपने कान पकड़ लिए। कहा - ‘तुम मुझे सस्पेण्ड कराने पर तुले हो। धर्म का मामला है और पुलिसवाले वैसे ही बदनाम। मुझे माफ करो।’ तीसरी बात, पूरे दस दिनों के लिए रास्ता बन्द। जिन्हें पता नहीं होता, वे अपने वाहनों वर सनसनाते आते और ऐन माताजी के मण्डप के पास आने पर उन्हें मालूम होता कि वे आगे नहीं जा सकते-उन्हें दूसरी गली में जाने के लिए लौटना होगा। ऐसे लोग, भुनभुनाते हुए, नागरवास के लोगों का नाम ले-ले कर जो कुछ कहते वह सब आशीष को खुद की बेइज्जती और खुद पर उलाहना लगता।


खुद को और माताजी को इस ‘दुर्दशा’ से बचाने के लिए आशीष ने जब कुछ लोगों से बात की तो माना तो सबने कि आशीष सौ टंच सही बात कह रहा है किन्तु साथ देने की हामी एक ने भी नहीं भरी। ‘धर्म का मामला है’ कह कर सबने अपने-अपने पाँव खींच लिए। अन्ततः आशीष ने तय किया - जो भी करेगा अब वह अकेला ही करेगा। जो होगा, देखा जाएगा।


कोई 6 बरस पहले, हर साल की तरह उस साल भी मुहल्ले के लोग दुर्गा स्थापना का चन्दा लेने के लिए आशीष के पास पहुँचे। आशीष ने साफ इंकार कर दिया। कहा - ‘आप लोग माताजी को साफ-सुथरी जगह, किसी मकान के ओटले पर बिराजित करो तो ही मैं चन्दा दूँगा।’ लोगों ने उसकी बात हँसी में उड़ा दी। समझाने की कोशिश की कि धर्म के पारम्परिक मामलों में ऐसी, नासमझी भरी जिद नहीं की जाती। सबसे बड़ा तर्क आया - ‘माताजी की स्थापना जहाँ होती रही है, वहीं करनी पड़ती है। उनकी जगह नहीं बदली जा सकती।’ लेकिन आशीष अपनी ‘नासमझी’ पर अड़ा रहा। लोगों को बिना चन्दा लिए आशीष के घर से लौटना पड़ा।


अगले साल फिर वही नवरात्रि, वही दुर्गा स्थापना, वे ही चन्दा माँगनेवाले और अपनी शर्तों पर अड़ा हुआ वही आशीष। हाँ, इस बार आशीष ने, ठहरे हुए पानी में कंकर फेंका - ‘मुहल्ले में बैठ कर मुहल्ले के सार्वजनिक काम से दूर रहना खुद मुझे बुरा लगता है। लेकिन मेरी बात कहीं से भी गलत नहीं है। और कुछ भले ही मत सोचो लेकिन गन्दी गटरों के बीच माताजी को बैठाना कहाँ का धर्म है? यदि आप लोग मेरी बात मानो और माताजी को आसपास के किसी भी मकान के चबूतरे पर स्थापित कर दो तो मैं इस साल का ही नहीं, गए साल का भी चन्दा दूँगा और इस साल के आयोजन में दो दिनों का प्रसाद (जो लगभग आठ सौ रुपये प्रतिदिन होता था) भी मेरी ओर से रहेगा। नहीं तो गए साल की तरह इस साल भी मुझे माफ करो।’ इस बार किसी ने भी ‘फौरन इंकार’ नहीं किया। कुछ ने ना-नुकुर की तो कुछ लोगों ने ना-नुकुर करनवालों को टोक दिया। महसूस किया कि आशीष आयोजन के विरोध में तो है नहीं! वह तो माताजी को गटरों के बीच से उठाने की बात कर रहा है! ओटले पर माताजी बैठेंगी तो दिन भर न केवल सुरक्षित रहेंगी बल्कि उनकी पवित्रता भी बनी रहेगी। कुत्ते, सूअर जैसे जानवरों के आने की आशंका भी नहीं रहेगी।


आशीष ने कहा - ‘पता नहीं उन्हें मेरी बातें जँचीं या कि खुद माताजी उनके हिरदे में बिराजमान हो गईं। सबने एक मत से मेरी बातें मान लीं।’


वह दिन और आज का दिन। माताजी हर साल चबूतरे पर स्थापित की जा रही हैं। दिन भर पर्दे से ढँकी, चबूतरेवाले मकान मालिक की चौकीदारी में बनी रहती हैं। अब रास्ता बन्द नहीं होता। पैदल तो क्या, दुपहिया वाहन सर्राटे से निकल जाते हैं। उल्टे, फायदा यह हुआ कि आरती के समय सब लोगों को खड़े रहने के लिए पूरी सड़क मिल जाती है जबकि पहले सामनेवाली गली में खड़ा होना पड़ता था।


इस तरह मेरे कस्बे के एक मोहल्ले में, एक आदमी ने क्रान्ति कर दिखाई - वह भी ‘धर्म’ जैसे सम्वेदनशील मामले में, जिसमें बड़ा से बड़ा समझदार, ताकतवर और प्रभावी आदमी भी हाथ डालने की कल्पना मात्र से ही चिहुँक उठता है, हाथ जोड़ लेता है।


नीयत साफ हो, इरादे बुलन्द हों और अपने प्रयत्नों पर विश्वास हो तो परिणामों को तो अनुकूल होना ही पड़ता है। मैंने आशीष को बधाई नहीं दी - उसे सलाम किया। कहा - ‘तुम मुझसे बेहतर नहीं, मेरे आदर्श हो। मैं अपने प्रयत्नों के लिए तुमसे प्रेरणा लूँगा।’


उम्र में मेरे छोटे भतीजे से भी छोटे आशीष ने हँसते हुए कहा - ‘सुनो भाई साहब की बातें! इसमें मैंने क्या किया। वो तो माताजी खुद चबूतरे पर बैठना चाहती थीं, सो बैठ गईं। यह तो जगदम्बा की ही माया और प्रताप है।’


मैंने एक बार फिर आशीष को सलाम किया। वह संस्कारवश संकुचित हो गया। कुछ नहीं बोला। किन्तु यदि आप उसे मोबाइल नम्बर 98270 84996 पर उसे शाबासी देंगे तो उसे बोलना ही पड़ेगा - आपको धन्यवाद देने के लिए।

हिन्दुत्व की सच्ची रक्षा

उनके जाने के बाद समझ पड़ा कि अनुजवत मेरे वे मित्र अपना अहम् तुष्ट करने के सुनिश्चित उद्देश्य से आए थे किन्तु मेरा दुर्भाग्य कि मेरी अल्पज्ञतावश, यह सुख प्राप्त करने के स्थान पर वे आहत-अहम् लौटे।

हम ‘असहमत मित्र’ हैं। वे ‘कट्टर हिन्दुत्ववादी’ और मैं ‘औसत हिन्दुत्ववादी।’ ‘मुझे चिढ़ाने और खिजाने में उन्हें बड़ा आनन्द आता है’ यह बात मुझे दीर्घावधि में समझ आई और मैंने ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ पर अमल करने की समझदारी बरतते हुए चिढ़ने-खीझने के बजाय चुप रहना शुरु कर दिया। मेरी चुप्पी को उन्होंने हर बार मेरी मात माना और हर बार ‘कोई जवाब नहीं है मेरी बातों का आपके पास’ कहते हुए, खुश-खुश लौटते रहे। किन्तु इस बार ऐसा नहीं हो पाया।

वे पोलीथीन की छोटी सी थैली में दो पेड़े लेकर आए थे। बोले - ‘मुँह मीठा कीजिए। भतीजे का विवाह हो गया।’ प्रत्युत्तर में मैंने बधाइयाँ तो दी ही, विवाह में न बुलाने का उलाहना भी दिया। मेरी बात से अप्रभावित हो जवाब दिया - ‘उसने अवसर ही नहीं दिया। हमें भी तभी मालूम हुआ जब वह प्रेम विवाह कर, बहू के साथ घर आया।’ मैं प्रेम विवाह का (और विशेषतः अन्तर्जातीय विवाह का, क्योंकि मेरा विश्वास है कि जाति प्रथा के रहते हमारा उद्धार सम्भव नहीं) समर्थक हूँ। सो, बहू की पारिवारिक पृष्ठ भूमि के बारे में पूछताछ कर ली। जिस तत्परता से उन्होंने उत्तर दिया, उससे लगा कि मैंने यह सवाल पूछने में बड़ी देर कर दी थी। उन्होेंने सगर्व सूचित किया - ‘अन्तर्जातीय ही नहीं, अन्तर्धर्मी विवाह किया है उसने। एक मुसलमान लड़की को हिन्दू बनाने का कारनामा किया है उसने।’ मुझे अवाक् नहीं होना चाहिए था किन्तु उनकी मुख-मुद्रा और दर्पित-वाणी ने कुछ क्षण तो मुझे सचमुच में अवाक् कर दिया। उसी मुद्रा और वाणी में वे बोले - ‘चौंक गए ना आप? आप तो हमारे पीछे हाथ धोकर और लट्ठ लेकर पड़े रहते हैं। मेरे भतीजे ने हिन्दू धर्म की जो सेवा की है, वैसा तो आप सोच भी नहीं सकते।’

अब तक मैं अपने आप में लौट आया था। उनकी बात, उनका तर्क, उनकी दर्प भरी मुख मुद्रा और गर्वित-गर्जना पर मुझे सहानुभूति हुई जो अगले ही क्षण दया में बदल गई। मेरी नजरों में अपने प्रति दया भाव ताड़ने में उन्हें पल भी भी नहीं लगा। तनिक आवेश में बोले - ‘आप तो ऐसे देख रहे हैं जैसे मेरे भतीजे ने कोई जघन्य पाप कर लिया है?’ मैंने कहा - ‘पता नहीं आप क्या समझेंगे किन्तु मुझे ताज्जुब तो इस बात का है कि जिस कृत्य पर आपको चरम आत्मग्लानि और परम अपराध बोध होना चाहिए था उस पर आप गर्व कर रहे हैं?’ मानो वज्र प्रहार हुआ हो, कुछ इसी तरह वे हड़बड़ाए और तमतमा कर सवाल किया - ‘क्या मतलब आपका?’ अब मैं पूरी तरह संयत और वे आपे से बाहर थे।

मैंने कहा - ‘आप तो हिन्दू परम्पराओं के अच्छे-भले जानकार हैं। जरा बताइए कि हिन्दू धर्म में तीन ऋण कौन-कौन से बताए गए हैं?’ अविलम्ब जवाब आया - ‘गुरु ऋण, मातृ ऋण और पितृ ऋण।’ ‘अब जरा यह भी बता दीजिए कि इन ऋणों से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है?’ मैंने पूछा। उन्होंने परम आत्म विश्वास और आधिकारिकता से मेरी ज्ञान वृद्धि की - ‘गुरु को उनके द्वारा चाही गई दक्षिणा दे कर गुरु ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है जबकि मातृ ऋण से आदमी मृत्यु पर्यन्त उऋण नहीं हो पाता और रही पितृ ऋण से मुक्ति की बात तो पिता का वंश बढ़ा कर आदमी उससे मुक्त हो जाता है।’

जवाब मुझे पहले से ही मालूम था। सो, मनोनुकूल जवाब से अब बाजी पूरी तरह से मेरे नियन्त्रण में थी। मैंने कहा - ‘पितृ ऋण से मुक्त होने की हिन्दू धर्म की परम्परा निभाने के लिए आपके भतीजे को एक यवन कन्या पर आश्रित होना पड़ रहा है। क्या यह उचित और धर्मानुकूल है? फिर, मेरी बात को अन्यथा बिलकुल मत लीजिएगा, यह एक सन्दर्भ मात्र है कि मातृत्व तो प्राकृतिक और जैविक सत्य है जबकि पितृत्व केवल ‘विश्वास’ और आप तो जानते-समझते हैं कि विश्वास भले ही भंग हो जाए, प्राकृतिक और जैविक सत्य तो रंचमात्र भी संदिग्ध नहीं होता।’

हमारा सम्वाद इस मुकाम पर पहुँच जाएगा, यह हम दोनों के लिए अकल्पनीय था। वे हक्के-बक्के और मैं अपनी इस अशालीन हरकत पर अकबकाया था। किन्तु जो होना था, हो चुका था। दुरुस्ती की कोई गुंजाइश बची ही नहीं थी। हम दोनों ही मौन थे। कौन बोले और क्या बोले?

सन्नाटा मैंने ही तोड़ा। हिम्मत जुटा कर बोला - ‘आप तो बात को दिल पर ले बैठे। ये तो तर्क हैं जो आसानी से जुटाए जा सकते हैं और तर्कों से हम वहीं पहुँचते हैं जहाँ हम पहुँचना चाहते हैं।’ मन्द स्वर में, कुछ इस तरह मानो स्वगत कथन कर रहे हों, बोले - ‘बात तो आपकी यह भी ठीक है किन्तु मेरे पास तो कोई तर्क ही नहीं है।’ मैंने कहा - ‘चलिए! छोड़िए इस बात को। यह बताइए कि आप शाहनवाज हुसैन को जानते हैं?’ ‘व्यक्तिगत स्तर पर नहीं जानता। बस इतना जानता हूँ कि वे भाजपा के बड़े नेता हैं। बिहार से हैं और अटलजी की सरकार में मन्त्री थे।’ जवाब दिया उन्होंने। मैंने कहा - ‘हाँ। वही। उन्हीं की बात कर रहा हूँ मैं। आपको उनकी पत्नी के बारे में पता है?’ उन्होंने इंकार में मुण्डी हिलाई। मैंने कहा - ‘उनकी पत्नी हिन्दू है। रेणु नाम है उनका। इन दोनों ने भी अन्तर्धार्मिक प्रेम विवाह किया है। किन्तु शाहनवाजजी ने रेणु का धर्म नहीं बदला। उनका हिन्दुत्व जस का तस बनाए रखा।’ उन्होंने अविश्वास से मेरी ओर देखा। मैंने कहा - ‘आप अपनेवालों से पूछिएगा।’ मन्द स्वर में जवाब आया - ‘पूछूँगा जरूर किन्तु आप कह रहे हैं तो सच ही होगा। मैंने अगला सवाल किया - ‘अच्छा! यह तो आपको पता है ना कि इस साल ईद और हरतालिका तीज एक ही दिन थी।’ उन्होंने हामी भरी। मैंने कहा - ‘उस दिन शाहनवाजजी के बंगले पर दो आयोजन हुए थे। पहला आयोजन ईद का था और दूसरा आयोजन तीज पूजन का था। उधर मेहमान सेवइयों का मजा ले रहे थे, उधर रेणुजी हाथों में मेंहदी लगाए, महिलाओं से घिरी बैठी थीं।’ सुनकर उनकी आँखें फैल गईं - ‘अच्छा? सच्ची में?’ मैंने कहा - ‘आप यह भी तलाश कर लीजिएगा।’ वही जवाब इस बार भी आया - ‘जरूर तलाश करूँगा। लेकिन आप कह रहे हैं तो सच ही होगा।’

अब मुझे बाजी समेटनी थी। कहा - ‘तलाश कीजिएगा। मेरी बात सच पाएँगे।’ मेरे पूर्वानुमान को सच करते हुए वे कुछ नहीं बोले, चुप ही रहे। मैंने कहा - ‘बन्धु! आप मेरी इस बात से कभी सहमत नहीं हुए कि धर्म नितान्त निजी मामला है। आज भी मत मानिएगा किन्तु मेरी बात पर विचार जरूर कीजिएगा।’ अब उनकी चुप्पी अकेली नहीं थी। दयनीयता उसकी सहेली बन कर उनके चेहरे पर आ बैठी थी।


शह और मात के अन्दाज मैंने अन्तिम चाल चली - ‘आपके भतीजे ने हिन्दुत्व की कितनी रक्षा या सेवा की यह तो आप तय करते रहिएगा किन्तु शाहनवाज ने साबित कर दिया कि हिन्दुत्व की सच्ची और पूरी-पूरी रक्षा तो उसी ने की। इतनी कि कोई हिन्दू भी क्या करेगा?’


बिना किसी भूमिका के वे उठ खड़े हुए। वे पूरी तरह असहज हो गए थे। इतने कि जब चलने को हुए तो ‘अरे! अरे!! इन्हें कहाँ लिए जा रहे हैं? ये तो मुझे दे दीजिए’ कहते हुए मुझे उनके हाथ से पेड़े झटकने पड़े।

छोटी बात, बड़ी बात

बात तो बस, बात होती है। न छोटी, न बड़ी। बस, देखनेवाले की नजर ही उसे छोटी या बड़ी बनाती है। इसीलिए ऐसा होता है कि जो बात किसी एक के लिए कोई मायने नहीं रखती वही बात किसी दूसरे के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाती है। यह ‘बात’ ही तो है जो कहीं महाभारत करवा दे तो कभी राजा भर्तहरि को जोगी बना दे। बस, सब कुछ देखनेवाले की नजर पर निर्भर करता है।


कोई बाप अपनी बेटी को एक दिन स्कूल जाने से रोक दे तो रोक दे! कौन सा पहाड़ टूट गया होगा? लेकिन यही बात मुझे लग गई। अब, बात लगी तो मुझे है लेकिन झेलनी आपको पड़ रही है। भला यह भी कोई बात हुई? नहीं हुई ना? लेकिन मेरे लिए तो यह बहुत बड़ी बात हो गई।


वह, श्वेताम्बर जैन समाज के पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व का अन्तिम दिन था - क्षमापना दिवस। अपराह्न कोई साढ़े तीन/चार बजे प्रेस पहुँचा तो सचिन मानो थकान दूर कर ताजादम हो रहा था और उसकी बड़ी बेटी महक अपनी स्कूल की कॉपी से कोई पाठ पढ़ रही थी। शायद प्रश्नोत्तर के लिए पाठ याद कर रही थी। महक को देखकर मुझे अटपटा लगा। वह समय तो उसके स्कूल में होने का था? पहली बात जो मन में आई वह यह कि कहीं महक अस्वस्थ तो नहीं? किन्तु महक को पाठ याद करते देख बात जैसे अचानक आई थी उससे अधिक अचानक खत्म हो गई। मैंने सचिन से पूछा - ‘आज महक यहाँ कैसे? स्कूल नहीं गई?’ सचिन ने सस्मित उत्तर दिया - ‘आज मैंने इसे स्कूल जाने से रोक लिया। आज सुबह से यह मेरे साथ है।’ मुझे तनिक विस्मय हुआ। आज तो क्षमापना दिवस है! सचिन तो आज ‘उत्तम क्षमा याचना’ हेतु सुबह से घूमता रहा होगा? भला इसमें महक का क्या काम?


मेरी आँखों में उभरा सवाल सचिन ने आसानी से पढ़ लिया। आलस झटकते हुए बोला - ‘‘अंकल! ‘क्षमापना’ से परिचित कराने के लिए मैंने आज इसे स्कूल नहीं जाने दिया और सुबह से अपने साथ लिए घूम रहा हूँ ताकि यह पर्यूषण का मतलब और महत्व समझ सके। दिन भर से मैं इसके सवालों का जवाब दे रहा हूँ। यह छोटी से छोटी बात पर सवाल कर रही है और मैं जवाब दिए जा रहा हूँ। अब यह पर्यूषण का मतलब और महत्व पूरा का पूरा न सही, काफी कुछ तो समझेगी।’’


सचिन की बात सुनकर मुझे रोमांच हो आया। झुरझुरी छूट गई। सचिन अभी पैंतीस का भी नहीं हुआ है। उसे इस बात मलाल है कि वह अपने धर्म की कई बातों, परम्पराओं से अनजान है। वह सहजता से स्वीकार करता है कि वह इन सारी बातों को जानने की कोशिश कर रहा है, सीख रहा है। अपना यह अधूरापन उसे अच्छा नहीं लगता। इसी बात ने उसे प्रेरित किया। हम समझते हैं कि बच्चे स्कूल में सब कुछ सीखते हैं। यह हमारा भ्रम है। वहाँ तो वे किताबी बातों से परिचत होते हैं, अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण करने के गुर सीखते हैं। वहाँ वे ‘जिन्दगी’ नहीं सीखते। ‘जिन्दगी’ तो बच्चे अपने घर में ही सीखते हैं। हम बड़े-बूढ़े बच्चों को डाँटते हैं कि वे हमारा कहा क्यों नहीं मानते। उस समय हम भूल जाते हैं कि उनके लिए हमारा ‘कहा’ कम और हमारा ‘किया’ अधिक मायने रखता है। बच्चे, अपने बड़ों की ही तो नकल करते हैं? घर में जो कुछ देखते हैं, वही तो वे भी करते हैं? जरा याद करें, हमारे घर की बातें बच्चों के जरिए ही सड़कों तक आती हैं! इसीलिए ऐसा होता है कि जब समूचा नगर अपने निर्वस्त्र राजा की जय-जयकार रहा होता है तो एक बच्चा कहता है - ‘राज तो नंगा है।’ बच्चे ने नगरवासियों के जयकारे में अपनी आवाज नहीं मिलाई। उसने तो वही कहा जो उसने देखा!


हम अपने बच्चों की शिकायत करते हैं कि वे हमारी संस्कृति, हमारी परम्पराओं से दूर हो रहे हैं। वे हमारे देवी-देवताओं की हँसी उड़ाते हैं। उनकी यह अगम्भीरता, परम्पराओं की यह अवहेलना हमें कचोटती है। किन्तु उस समय हम भूल जाते हैं कि अपनी परम्पराओं से हम ही उन्हें दूर करते हैं - कभी बच्चों की जिद मानकर तो कभी उनके कैरीयर का हवाला देकर। कुटुम्ब में कोई मांगलिक प्रसंग हो तो हम सपरिवार जाने की सोच ही नहीं सकते। कभी बच्चे की परीक्षा तो कभी टेस्ट तो कभी उसके स्कूल का कोई आयोजन आड़े आ जाता है। यह सब न हो तो उसकी कोचिंग कक्षा तो आड़े आ ही जाती है। तब, बच्चे को घर में छोड़कर हम उत्सव, त्यौहार में शामिल होते हैं। हमारे बड़े-बूढ़े और हमारे बच्चे आपस में एक दूसरे की शकल भी नहीं पहचानते। उन्हें (बच्चों को) रिश्ते समझाने पड़ते हैं। बरसों-बरस बीत जाने के बाद अचानक जब हमारे बच्चों का आमना-सामना हमारे कुटुम्बियों से होता है तो हमें खिसिया कर रह जाना पड़ता है। कहना पड़ता है - ‘ये तुम्हारे फूफाजी हैं। इनके पाँव छुओ।’ तब बच्चा पाँव छूता तो है किन्तु फूफाजी को पहचानने की जरूरत ही अनुभव नहीं करता - बरसों में आज पहली बार मिले हैं, पता नहीं आज के बाद फिर कितने बरसों में मिलेंगे? याद रखने का झंझट कौन पाले? जब मिलेंगे तक देखा जाएगा। यही हाल हमारे सांस्कृतिक, पारम्परिक सन्दर्भों का भी है। पंगत में बैठ कर भोजन करना तो हमारे बच्चे भूल ही गए हैं। कभी पंगत में बैठ कर भोजन करते भी है तो पंगत-परम्परा की जानकारी उन्हें नहीं होती। पंगत में जीम रहा प्रत्येक व्यक्ति जब तक जीम न ले, तब तक नहीं उठने की परम्परा हमारे बच्चों को कैसे याद रहे?


सचिन का महक को स्कूल जाने से रोक लेना मुझे ये सारी और ऐसी ही अनेक बातें याद दिला गया। यदि हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराओं से वाकिफ बनाए रखना चाहते हैं तो हमें उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी और आज के हालात में यह कीमत, कैरीयरवाद से आंशिक मुक्ति पाए बिना मुझे सम्भव नहीं लगती। सचिन ने महक को एक दिन स्कूल जाने से रोका। मुमकिन है, महक को उस दिन का होम वर्क करने के लिए अगले दिन ज्यादा वक्त लगाना पड़ा होगा। किन्तु तीसरी कक्षा में पढ़ रही सात-आठ साल की बच्ची, पर्यूषण और क्षमापना पर्व का महत्व अपने जीवन में शायद ही कभी भूल पाए।


बात तो छोटी सी ही है किन्तु देखिए न, कितनी बड़ी बन गई? कहाँ पहुँच गई?