सच हो गई एक लोकोक्ति

रमेश पांचाल ने साबित कर दिया कि लोकोक्तियाँ यूँही नहीं बनतीं। उनके पीछे जीवन के अनुभूत सत्य होते हैं।


एक ही सन्देश देनेवाली लोकोक्तियाँ शायद पूरी धरती पर पाई जाती होंगी। फर्क होता होगा उनकी भाषा, उनके प्रतीकों और कहने के अन्दाज का। ऐसी ही एक लोकोक्ति है जिसका भावानुवाद कुछ ऐसा हो सकता है - ‘एक इंकार, मिटाए आफत हजार।’ रमेश ने इसी लोकोक्ति को साकार किया।


सामान्य स्थिति होती तो कहता - ‘रमेश भी मेरी ही तरह बीमा अभिकर्ता है।’ किन्तु रमेश का मामला तनिक असामान्य है। उसने मुझसे बाद में काम शुरु किया किन्तु आज वह मुझसे कोसों आगे है। वह ग्रामीण क्षेत्र में काम करता है। रतलाम से लगभग पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर, शिवगढ़ में रहता है और अपने ग्राहकों को विक्रयोपरान्त सेवाएँ देने हेतु लगभग प्रतिदिन उसे रतलाम आना पड़ता है। भारतीय जीवन बीमा निगम की जिस शाखा से मैं सम्बद्ध हूँ (जिसे आगे मैं ‘मेरी शाखा’ कहूँगा), उस शाखा में सर्वाधिक पॉलिसियाँ बेचनेवाला एजेण्ट रमेश ही होगा। इस वर्ष वह, एक और मामले में, मेरी शाखा में सर्वोच्च स्थान पर रहा। वित्तीय वर्ष 2010-11 में सर्वाधिक कमीशन प्राप्त करनेवाला एजेण्ट भी रमेश ही रहा। जैसे-जैसे हम लोगों को यह जानकारी मिलती गई वैसे-वैसे, एक के बाद एक, हम सबने रमेश को बारी-बारी से बधाइयाँ दीं।


जब-जब भी अवसर आता है, ‘निगम’ प्रबन्ध हम अभिकर्ताओं को ‘नींव के पत्थर’ कहकर हमारा महिमा मण्डन करता है। यह अलग बात है कि अधिकांश अभिकर्ता इस महिमा मण्डन को वाणी विलास या ‘दिल बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है’ ही मानते हैं। इसके समानान्तर ही एक स्थिति और है। नियमित रूप से काम करनेवाले प्रत्येक अभिकर्ता की मित्रता, शाखा के प्रत्येक कर्मचारी से होती है किन्तु ‘वर्गीय’ आधार पर कर्मचारी लोग नींव के इन पत्थरों से परहेज ही करते हैं। कड़वा सच होने के बाद भी मुझे यह अच्छा नहीं लगता। मैं भली प्रकार जानता हूँ कि इस ‘जन्नत की हकीकत’ को मैं बदल नहीं सकता, परहेज का यह भाव ‘आनुवांशिक गुण’ की तरह स्थायी बन चुका है। फिर भी मेरी कोशिश रहती है कि कुछ क्षणों के लिए ही सही या खुद को भरमाने के लिए ही सही, इस दूरी को ढँक दिया जाए। इसलिए, जब भी कोई अभिकर्ता कोई उपलब्धि प्राप्त करता है तो मैं उसे, पूरी शाखा में मिठाई बाँटने के लिए प्रेरित करता हूँ। अभिकर्ता मित्रों का बड़प्पन और उपकार है कि वे मेरे इस अनुरोध को प्रायः ही मान लेते हैं। ऐसे प्रयासों के कुछ न कुछ तो ‘मीठे परिणाम’ मिलते ही हैं। मैं खुद भी ऐसा करने के अवसर ढूँढता रहता हूँ।


सो, जब रमेश ने, शाखा में सर्वाधिक कमीशन अर्जित करने की उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की तो उसे बधाई देते हुए, लगभग आदेशित किया - ‘कल आते ही सबसे पहला काम करना - शाखा में मिठाई बाँट देना।’ रमेश बोला कुछ नहीं। स्वीकारोक्ति में गरदन हिला दी। यह बात थी अप्रेल के दूसरे सप्ताह की। अगले तीन दिनों तक मैं शाखा कार्यालय नहीं जा पाया। चौथे दिन पहुँचा तो मालूम हुआ कि रमेश ने मिठाई नहीं बाँटी। अपराह्न में रमेश आया तो मैंने पूछा - ‘मिठाई नहीं बाँटी?’ उसने नजरें झुका कर कहा - ‘हाँ, यार सा‘ब! नहीं बाँटी।’ मैंने कहा - ‘आज बाँट ही देना।’ कह कर, रमेश के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मैं अपने काम में लग गया।


किन्तु वह दिन और लगभग पौने तीन महीने बाद आज का दिन। रमेश ने मिठाई नहीं बाँटी। इस बीच मैंने बार-बार उसे टोका, डाँटा, प्रताड़ित किया, अभिकर्ताओं के बीच उसकी खिल्ली उड़ाई, उसे कंजूस साबित करने के लिए सहयोग राशि के एक रूपये का चन्दा देने का ढोंग किया। याने कि क्या-क्या नहीं किया? किन्तु रमेश ने न तो बुरा माना और न ही मिठाई बाँटी।


किन्तु समस्या को कब तक स्थगित रखा जा सकता है? एक दिन पहले जब मैंने तनिक अधिक तीखेपन से रमेश की फजीहत करनी चाही तो इस बार उसने मुझे टोक दिया। बोला - ‘आज आप सुन लो कि मैं मिठाई क्यों नहीं बाँट रहा हूँ।’ कह कर उसने अपना कारण बताया। मैंने उसके कारण को अनुचित या अपर्याप्त बताने की कोई कोशिश नहीं की। बस, इतना पूछा - ‘जब मैंने तुझसे, मिठाई बाँटने के लिए पहली बार कहा था तभी यह कारण बता कर मना क्यों नहीं कर दिया?’ रमेश ने कहा - ‘मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँ। आपकी बुजुर्गीयत का लिहाज करके चुप रहा।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर आज वह लिहाज कहाँ चला गया? आज मेरी बुजुर्गीयत कहाँ चली गई? आज मेरी बेइज्जती क्यों कर दी?’ तनिक सकपकाकर रमेश बोला - ‘आज मेरी सहनशक्ति ने जवाब दे दिया।’ मैंने कहा - ‘भैया! जब लिहाज तोड़ना ही था और मेरी बुजुर्गीयत का, मेरी इज्जत का फलूदा करना ही था तो पौने तीन माह तक प्रतीक्षा क्यों की? बार-बार तेरी मजाक उड़ाने का अपराध मुझसे क्यों कराया? कोई मुहूर्त देख रहा था?’ रमेश के पास कोई जवाब नहीं था। बात ही नहीं, पूरा मुद्दा ही यहीं समाप्त हो गया। हम दोनों अपने-अपने काम पर लग गए।


कुछ देर बाद मैंने रमेश को लोकोक्ति सुनाई तो बोला - ‘यार सा’ब! गलती हो गई। अब यह गलती नहीं दुहराऊँगा। जो काम नहीं कर सकूँगा, उसके लिए पहली ही बार में मना कर दूँगा।’


रमेश की बात सुनकर मुझे अच्छा तो लगा लेकिन मन में अपराध बोध भी उग आया। मैंने उसकी कितनी खिल्ली उड़ाई? कितनी अवमानना की? मैं इस सबसे बच सकता था। लेकिन अपने आप को यह कह कर तसल्ली दे रहा हूँ कि मुझे उस गलती की सजा मिली जो मैंने नहीं, रमेश ने की थी। रमेश का एक इंकार उसे ही नहीं, मुझे भी इस अपराध बोध से बचा सकता था।

4 comments:

  1. लेकिन यह हर जगह लागू होने वाला अंगुष्‍ठ नियम (thumb rule) नहीं हो सकता, कुछ अन्‍य परिस्थितियों का उदाहरण ले कर विचार करें. (जैसे मौन सहमति होती है, वैसे मौन असहमति भी होती है.)

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  2. पर, कभी कभी ये भी होता है -
    एक इंकार, लाए आफत हजार!

    शायद आपके संस्मरण के कोने में इसे भी सार्थक करता वाकया होगा. वो भी दिलचस्प. नहीं तो आपकी लेखनी दिलचस्प तो बना ही देगी.
    याद आया?

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  3. कभी कभी तुरन्त कह देना ठीक रहता है पर सदा नहीं।

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  4. पहली ही बात में या तुरंत मना कर देना शायद हमेशा अच्छा न हो...फिर भी अच्छा लगा इनके बारे में जानकर.

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