पता ही नहीं देते तो पैसा क्या देंगे?

आज मुझे ‘दिनमान’ की याद हो आई। बाद-बाद की तो याद नहीं किन्तु उसके शुरुआती दिनों में उसके मुखपृष्ठ पर एक वाक्य छपा होता था जिसकी इबारत कुछ यूँ थी - ‘आप इससे असहमत हो सकते हैं किन्तु इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते।’ मुझे लगता है कि यह वाक्य, ब्लॉग पर जस का तस लागू हो रहा है।


ब्लॉग को लेकर हर कोई अपनी इच्छा और सुविधानुसार टिप्पणी कर देता है। कोई इसे कूड़ा-कचरा कह देता है तो कोई इसे निठल्लों की बकवास। इसके बावजूद, इसके बिना किसी का काम चलता नजर नहीं आता। और कुछ नहीं तो इसने ‘अपरिहार्य बुराई’ की हैसियत तो प्राप्त कर ही ली है। आखिर, इसका जिक्र किए बिना इसकी बुराई भी कैसे की जाए? सो, कोई इसे माने न माने लेकिन इसके चर्चे के बिना महफिल काम चलता नजर नहीं आता।



साथवाला चित्र देखिए। यह ‘पीपुल्स समाचार’ के 30 अप्रेल 2011 के अंक के पृष्ठ 8 के अन्तिम कॉलम का है। यह अखबार इन्दौर, भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर से प्रकाशित होता है। मेरे यहाँ इसका इन्दौर संस्करण आता है। कहने को यह दैनिक है किन्तु मेरे घर यह सप्ताह में तीन-चार दिन ही आता है। शेष दिनों मे यह छपता है या नहीं, ईश्वर जाने या इसका मालिक।


इसके आठवें पृष्ठ के अन्तिम कॉलम में ‘ब्लॉग बोले’ शीर्षक स्तम्भ लगभग नियमित रूप से छपता है जिसमें सामान्यतः तीन ब्लॉगों के अंश दिए जाते हैं। यहाँ दिए गए चित्र में ‘जनोक्ति’ (पवन कुमार अरविन्द), ‘महाजाल’ (सुरेश चिपलूनकर) और ‘अजदक’ (प्रमोद सिंह) के अंश साफ देखे और पढ़े जा सकते हैं। आज जब मेरा ध्यान इस ओर गया तो मैंने, मेरे घर में रखे, इसके तमाम पुराने अंक देखे और पाया कि किसी भी ब्लॉग का पता देने का न्यूनतम शिष्टाचार एक दिन भी नहीं निभाया गया है। याने, यह अखबार विभिन्न ब्लॉगों का उपयोग खुद तो करता है किन्तु इतनी शराफत भी नहीं बरतता कि जिस पोस्ट का अंश यह छाप रहा है, उस पूरी पोस्ट को पाठक पढ़ सके।

पत्रकारिता को लेकर इस अखबार की मान्यताएँ क्या हैं यह तो अखबार चलानेवाले ही जानें किन्तु सौजन्य-शिष्टाचार निभाने के मामले में यह अखबार नैतिकता के नए मापदण्ड निर्धारित करता अवश्य दिखाई दे रहा है।


अनेक ब्लॉगर मित्र, ब्लॉग सामग्री के छपने पर, पारिश्रमिक न दिए जाने को लेकर आपत्ति जताते हैं। वे इस ओर अवश्य ध्यान दें। जहाँ आपके ब्लॉग का पता देने का न्यूनतम शिष्टाचार भी नहीं निभाया जाता वहाँ पारिश्रमिक की बात करना कितना मौजूँ होगा?

6 comments:

  1. आपका सवाल जायज़ है मगर यह बात समझ नहीं आति कि क्या अखबार चलाने के लिये कोई न्यूनतम अर्हतायें नहीं हैं जैसे कि प्रशिक्षित पत्रकार, सम्पादक आदि और यदि हैं तो क्या उनके प्रशिक्षण में न्यूनतम शिष्टाचार, नकल कानून और व्यवसायिक प्रतिबद्धता नहीं सिखाई जाती? कविता कोश वाले ललित कुमार ने भी पिछले दिनों अपने ब्लॉग पर बिल्कुल ऐसा ही मुद्दा उठाया था

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  2. पत्रकारिता को लेकर इस अखबार की मान्यताएँ क्या हैं ...
    डाका डालो आगे बढ़ो

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  3. अखबारों पर हावी हो रहे ब्‍लॉग.

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  4. नकल कर दें लेकिन उसका पता तो दे दें।

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  5. अगर ब्लागर आवाज उठाये, इन पर केस कर दे तो देखो इन अखवार वालो को नानी याद आ जाये, लेकिन जब किसी ब्लागर की कोई रचना अखबार मे छपती हे तो वो वैसे ही बहुत खुश हो जाता हे,फ़िर बधाईयां उसे ओर भी ऊपर चढा देती हे...इसी बात का लाभ यह अखबार वाले उठाते हे

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  6. इस व्यवसाय में अब चोरी रोज़मर्हीरा की चीज़ हो गई है... किस किस का गला पकडेंगे:)

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