मेरी ‘सच्ची-सच्ची’ भाभी

ईश्वर सब सुख एक साथ कभी नहीं देता। इसे चाहें तो ‘कोई न कोई कसर रख ही देता है’ कह दें या फिर यह कि वह किश्त-किश्त में सुख देता है। ऐसा ही इस बार मेरे साथ हुआ-तीन रात और लगभग सवा दो दिनों तक सुख सागर में गोते लगाने के बाद भी एक सुख की कसर रह गई।


बरसों बाद विजय और कल्पना भाभी के सान्निध्य में इस बार इतना समय रहने का मौका मिला। विजय और कल्पना भाभी याने श्री विजय वाते और अ। सौ. कल्पना वाते। जब-जब इनके साथ रात-दिन रहने का मौका मिला तब-तब हर बार ऐसी ही कसर रह गई।


कल्पना भाभी को मैं ‘सच्ची-सच्ची’ भाभी कह सकता हूँ। जब-जब भी वाते दम्पति की मेजबानी एक समय या थोड़ी ही देर के लिए मिलती है तब-तब ‘सच्ची-सच्ची भाभी’ मुझे तब तक झूठा घोषित करती रहती हैं जब तक कि मैं उनसे सहमत न हो जाऊँ। अब तो मुझे असहमति के पहले ही क्षण से मुझे मालूम रहता है कि मुझे अन्ततः सहमत होने के लिए समर्पण करना ही पड़ेगा-यही मेरी नियति है, फिर भी मैं इससे बचने की यथसम्भव, यथाशक्ति कोशिश करता रहता हूँ क्योंकि तब मैं सच बोल रहा होता हूँ जिसे कि ‘सच्ची-सच्ची भाभी’ झूठ ही मानती हैं। मेरा सच उन्हें कभी सच नहीं लगा। सदैव झूठ ही लगा और ऐसी दशा में, जब हारकर, खुद के साथ होने वाली (जो कि वस्तुतः ‘सच्ची-सच्ची भाभी द्वारा की जाने वाली’ होती है) ज्यादती के लिए खुद को तैयार कर मैं उनसे सहमत हुआ, उन्होंने हर बार अपनी जीत से खुश होकर, तपाक् से पूछा - ‘पहले ही सच बोलने में क्या जा रहा था?’
यह सब होता रहा है (और मुझे आकण्ठ विश्वास है कि कल्पना भाभी कभी नहीं बदलेंगी इसलिए आगे भी ऐसा ही होता रहेगा) मेरे भोजन करने को लेकर।



भोपाल यात्रा में मैं जब-जब भी, समय-असमय विजय के यहाँ पहुँचा, तब-तब कल्पना भाभी ने हर बार पूछा -‘विष्णु भैया! खाना खाआगे ना?’ मैंने शायद ही कभी, पहली ही बार में हाँ भरी हो। मैं या तो भोजन करके पहुँचता या कहीं न कहीं मेरा भोजन करना तयशुदा रहता। सो मैं हर बार कहता - ‘नहीं भाभी! मैं खाना नहीं खाऊँगा।’ कल्पना भाभी इस जवाब के लिए तैयार तो रहतीं किन्तु सहमत एक बार भी नहीं रहीं। हर बार बोली - ‘देखो! झूठ मत बोलो। सच्ची-सच्ची बोलो, खाना खाओगे?’ मेरा इंकार और कल्पना भाभी का ‘सच्ची-सच्ची बोलो’ का इसरार देर तक चलता। इस दौरान वे हाथ के काम निपटाती रहतीं लेकिन मुझे ‘टारगेट’ पर बनाए रखतीं। कभी अखबार पढ़ते हुए, कभी तैयार होते हुए विजय इस स्थिति में मेरी दशा के मजे लेता रहता और दो-एक शेर दाग देता। पति-पत्नी एक दूसरे को देख कर हँसते, मुझे अजीब सा लगता। कोई दस-बीस बार कल्पना भाभी ‘देखो! झूठ मत बोलो। सच्ची-सच्ची बोलो’ की चेतावनी देकर मुझे ‘झूठा’ साबित कर चुकी होतीं। मुझे अजीब लगता-मेरे मुँह पर ही मुझे झूठा कहा जा रहा है। बीच में विजय एक-दो बार हँसते-हँसते कहता-‘नतीजा तुम्हें पता है। फिर क्यों वर्जिश कर रहे हो और करा रहे हो?’ मुझे और अजीब लगता। जी करता, जूलीयस सीजर की तरह विजय से पूछूँ -‘विजय! तुम भी?’ किन्तु आज तक नहीं पूछ पाया। जानता हूँ, विजय को मेरे साथ नहीं, कल्पना भाभी के साथ रहना है।



सच पर मेरा अड़ा रहना एक बार भी सफल नहीं हो पाया। भरपूर जोर आजमाइश के बाद अन्ततः मैं कहता-‘हाँ। खाना खाऊँगा।’ कल्पना भाभी बस ताली नहीं बजाती, अपनी मनुहार का मनोनुकूल परिणाम मिलते ही खूब खुश होकर कहती-‘मैं तो शुरु से ही जानती थी कि झूठ बोल रहे हो। पहले ही सच बोलने में क्या जा रहा था?’ ऐसे प्रत्येक अवसर पर मैं रुँआसा होकर, असहाय, बेबस होकर चुपचाप सब कुछ देखने-सुनने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर पाता। किन्तु कल्पना भाभी के चेहरे पर खुशी का बरगद उग आता। जानती तो वे भी रहती होंगी कि मैं झूठ नहीं बोल रहा किन्तु मैं उनके यहाँ से भोजन किए बगैर नहीं लौटूँ, यह उनकी अदम्य इच्छा रहती रही होगी जिसकी पूर्ति के लिए ही वे मुझे सहजता से असत्यवादी साबित और घोषित करती रहतीं, देर तक, लगातार, बार-बार।



किन्तु कल्पना भाभी ने इस बार एक बार भी मुझे झूठा साबित नहीं किया। मुझे अच्छा तो लग रहा था किन्तु समझ नहीं आ रहा था कि भाभी ऐसा क्यों कर रही हैं। दो समय का भोजन मैंने कर लिया और भाभी ने एक बार भी ‘सच्ची-सच्ची बोलो’ नहीं कहा! अचेतन में इच्छा होने लगी कल्पना भाभी एक बार तो मुझे झूठा साबित कर दे। उनका व्यवहार मुझे असहज लग भी रहा था और असहज कर भी रहा था। आशंका हुई - भाभी बीमार तो नहीं? लेकिन देख रहा था कि वे पूर्ण स्वस्थ और सामान्य, सहज बनी हुई हैं।



अठारह जनवरी की रात वहाँ पहुँचा था और इक्कीस की सवेरे उनसे बिदा ली। दिन में ‘लियाफी’ (भारतीय जीवन बीमा निगम के एकमात्र राष्ट्रीय संगठन) के झोनल प्रतिनिधियों और भाजीबीनि के क्षेत्रीय प्रबन्धक की संयुक्त बैठक थी। वह निपटा कर शाम पाँच बजे, रतलाम के लिए रेल में बैठा तब भी कल्पना भाभी का यह बदला हुआ व्यवहार मन पर छाया हुआ था।



रेल चली और बैरागढ़ पहुँचती उससे पहले ही मेरी ट्यूब लाइट चमकी और अपनी कमअक्ली पर मैं खुद ही ठठा कर हँस पड़ा-इतने जोर से कि आसपास बैठे यात्री मेरी ओर देखने लगे। मैंने खुद से कहा -‘हे! मूर्ख श्रेष्ठ, तुम जब वहीं रुके हुए हो तो यह तो तय है कि तुम्हें भोजन वहीं करना है। ऐसे में पूछताछ की गुंजाइश ही कहाँ बनती? इसके उल्टे, कल्पना भाभी भोजन के लिए पूछती तो वह अटपटा ही नहीं, अशालीन भी होता। बच्चू! भोपाल यात्रा में जब भी कभी केवल मिलने जाओगे तो कल्पना भाभी को उनके उसी ‘सच्ची-सच्ची’ वाले मूलस्वरूप में पाओगे।’



अपने आप से हुए इस एकालाप के चलते, कब मेरी आँखें धुँधला गईं, मुझे पता ही नहीं चला। अपनी इस दशा पर, टेलीविजन पर सुना एक शेर अचानक ही याद आ गया - ‘जिन्हें हम कह नहीं सकते, जिन्हें तुम सुन नहीं सकते। वही कहने की बाते हैं, वही सुनने की बाते हैं।’ इस समय जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तब ऐसी ही न कही जा सकनेवाली बातें मन पर छा गई हैं।



कल्पना भाभी के सामने शायद नहीं कह पाऊँ। यहीं लिख देता हूँ - ‘शुक्रिया मेरी सच्ची-सच्ची भाभी! खुद को आपसे झूठा साबित करवाने मैं जल्दी ही भोपाल आऊँगा।’


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2 comments:

  1. Bhabhi MAA jaisa behwar kar jaaye to isme achmbha nahi hota kayon ki hamare samaj ka ye ek purana pratha raha hay.

    Bhabhi Dewar ka rishta sahi me duniya ka sabse khubsurat rishta hay..jisme Dosti,apnapan,aadar,chulbulapan,mil jul kar is rishte ko mahan bana jata hay.

    Aapka post padha aur apni bhabhi jo mumbai me rahti hayn ko bahut miss kiya..unse ph par baat karne ke baad tippani de raha hun.

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  2. सुंदर और आत्मीय पोस्ट!
    सब को ऐसी भाभियाँ मिलें।

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