एसएमएस में पहली जनवरी

नव वर्षारम्भ पहली जनवरी को मानूँ या नहीं, इस पर शायद कल कुछ कहूँ। लेकिन कोई पाँच दिन पहले से ही बधाइयों और शुभ-कामनाओं के एसएमस आने लगे। यह क्रम बना हुआ है। अधिकांश सन्देश बहुत ही सामान्य हैं जो बताते हैं कि फारवर्डिंग की सुविधा ने कल्पनाशीलता को जकड़ लिया है। किन्तु कुछ सन्देश मुझे अच्छे लगे।


लेकिन एसएमएस केवल पहली जनवरी को लेकर ही नहीं आ रहे। कुछ मित्र नियमित रूप से सन्देश भेजते हैं। एक दिन सबको मिला कर देखा तो लगा, आनेवाले दिनों में साहित्य की दुनिया में ‘एसएमएस साहित्य’ का नया आयाम जुड़ जाए तो आश्चर्य नहीं। सोच रहा हूँ, मुझे मिले ऐसे सन्देशों को पोस्ट के रूप में दे दिया जाए।


लेकिन ऐसा करूँगा तब करूँगा। फिलहाल तो, पहली जनवरी के सन्दर्भ में मिले कुछ सन्देश यहाँ परोसने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ।


जयपुर में रहते हैं श्री अशोक कुमार यादव (मोबाइल नम्बर 099288 69692)। पहले, भारतीय जीवन बीमा निगम में, शाखा प्रबन्धक थे। ‘निगम’ की नौकरी छोड़कर एक निजी बीमा कम्पनी में चले गए। इन दिनों आंचलिक प्रबन्धक के पद पर हैं। ‘निगम’ में बने रहते तो निश्चय ही इस पद पर अभी तो नहीं ही पहुँचते। वे मुझे नियमित और निरन्तर सन्देश भेजते हैं। परिहास प्रिय हैं और गम्भीर बात को भी हलके-फुलके अन्दाज में कहना उनकी अपनी शैली है।


27 दिसम्बर को यादवजी का सन्देश मिला - ‘2010 खत्म होने में 5 दिन बाकी हैं। अगर कोई गलती, गुस्ताखी, खता हो गई हो तोे माफी माँग लेना। मैं आज अच्छे मूड में हूँ।’


इस सन्देश के असर से उबरा भी नहीं था कि 28 दिसम्बर को सन्देश आया - ‘तमाम सबूतों और गवाहों को मद्देनजर रखते हुए आपको धारा 1/1/2011 के तहत 3 दिन पहले ‘हेप्पी न्यू ईयर’ कहते हुए जिन्दगी भर खुश रहने की सजा दी जाती है।’


दो दिन के मौन के बाद 30 दिसम्‍बर की रात यादवजी का सन्देश आया -

‘पहली जनवरी के लिए नोट करें -
हम उठ गए हैं।
जिसको गुड मार्निंग करना है, करो।
धक्का-मुक्की मत करना।
लाइन से विश करना।
हमारे दर्शन बारह बजे तक होंगे,
फिर तो
गुड आफ्टरनून वालों की भीड़ लगेगी।’


भारतीय जीवन बीमा निगम की मेरी शाखा में सहायक के पद पर कार्यरत प्रेम नारायण वासेन (मोबाइल नम्बर 098273 26221) भी यदा-कदा सन्देश भेजता रहता है। यह प्रेमी अपना नाम कभी नहीं लिखता। इसने बहुत ही प्रेमल सन्देश भेजा - ‘हे! ईश्वर, जो इस एसएमएस को पढ़ रहा है उसे दुनिया की हर खुशी देना क्योंकि कुछ लोग हमेशा खुश अच्छे लगते हैं।’


त्यौहारों के दिनों में मोबाइल कम्पनियाँ एसएमस के शुल्क में मनमानी बढ़ोतरी कर देती हैं। एसएमएस के व्यसनी और दास बन चुके लोगों को यह बढ़ोतरी बिलकुल ही अच्छी नहीं लगती। नहीं जानता कि साहिल कुक्कड़ (मोबाइल नम्बर 098109 28505), एसएमस का व्यसनी है या नहीं किन्तु उसका यह सन्देश, मोबाइल कम्पनियों की इस मनमानी के प्रति लोगों की चिढ़ बखूबी बयान करता है -

‘आपको और आपके परिवार को अभी से नए वर्ष की बधाइयाँ और शुभ-कामनाएँ। क्योंकि, 31 और 1 तारीख को दुनिया की 6 याचक कम्पनियाँ टाटा, रिलायन्स, एयरटेल, बीएसएनएल, वोडाफोन, आइडिया अपनी-अपनी असलियत पर आ जाएँगी।’


लेकिन सबसे अच्छा सन्देश मुझे मिला डॉक्टर जयन्त सुभेदार साहब (मोबाइल नम्बर 094251 03822) से। आत्मा को निर्मल कर देनेवाला यह सन्देश सबसे अन्त में जानबूझकर दे रहा हूँ ताकि यह याद में बना रहे -

इस वर्ष के इस अन्तिम दिन -


‘धन्यवाद उन्हें, जिन्होंने मुझसे नफरत की।
उन्होंने मेरा आत्म बल बढ़ाया।


‘धन्यवाद उन्हें, जिन्होंने मुझे प्यार किया।
उन्होंने मेरा हृदय विशाल किया।


‘धन्यवाद उन्हें, जिन्होंने मेरी चिन्ता की।
उन्होंने मुझे अनुभव कराया कि वे वास्तव में मेरा ध्यान रखते हैं।


‘धन्यवाद उन्हें, जिन्होंने मेरा साथ छोड़ा।
उन्होंने मुझे अहसास कराया कि हमेशा के लिए कुछ भी खत्म नहीं होता।


‘धन्यवाद उन्हें, जो मेरी जिन्दगी में आए।
उन्होंने मुझे वैसा बनाया जैसा कि मैं आज हूँ।


‘मेरी जिन्दगी में कहीं न कहीं बने रहने के लिए आप सबको धन्यवाद।’

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

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दो धर्म: दो आयोजन: दो अनुभव


कोई धर्म अपने अनुयायियों के आचरण से कैसे पहचाना जाता है, इसके दो अनुभव मुझे अभी-अभी एक साथ, मेरे मुहल्ले में ही हुए। दोनों ही अनुभव इतने सुस्पष्ट है कि वे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं रहने देते।


मेरे मकान से मात्र तीस कदम दूर मकान है सरदार श्री अमरसिंहजी अरोड़ा का। उन्होंने अपने घर पर, श्री गुरु ग्रन्थ साहब का, तीन दिवसीय अखण्ड पाठ करवाया। उनके परिवार ने पूरे मुहल्ले में व्यक्तिशः घर-घर जाकर, इस पाठ में शामिल होने का न्यौता दिया। आग्रह किया कि तीन दिनों में कभी भी, कम से कम एक बार आने की कोशिश करें और पाठ समाप्ति पर अवश्य आएँ तथा समापनोपरान्त ‘गुरु का लंगर‘ जरूर ‘छकें।’


अखण्ड पाठ अरोड़ाजी के मकान में, बरामदे के ठीक बादवाले कमरे में (ड्राइंग रूम में) हुआ। लाउडस्पीकर लगाया गया। दो ‘बॉक्स स्पीकर’ बरामदे में, मकान की बाउण्ड्री वाल के अन्दर, दीवार की ऊँचाई से तनिक अधिक ऊँचाई पर लगाए गए। अब तक भुगते हुए धार्मिक आयोजनों के अनुभवों के आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि इन तीन दिनों तक मुझे अपने घर के दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द रखने के बाद भी भारी शोर-गुल सहना पड़ेगा। लेकिन आश्चर्य! ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।


पाठ के लिए आए ग्रन्थीजी की आवाज तो सुनाई देती रही किन्तु उनके उच्चारण को समझने के लिए मुझे अपने मकान के दरवाजे-खिड़कियाँ खुली रखनी पड़ीं। ग्रन्थीजी की आवाज इतनी धीमी और बिना किसी आरोह-अवरोह के ऐसी सधी हुई थी मानो कोई शिष्य, अपने गुरु के सामने बैठकर, ‘होम वर्क’ के लिए दिया गया अपना पाठ पढ़कर सुना रहा हो। हिन्दी साहित्य में जिस ‘शान्त रस’ का उल्लेख आता है, उसकी जोरदार मिसाल था यह पाठ।


पाठ समाप्ति वाले दिन, निर्धारित समय पर पूरा मोहल्ला अरोड़ाजी के आँगन में हाजिर था। अपने-अपने जूते-चप्पल, घर के बाहर ही खोलने का लिखित अनुरोध बाउण्ड्री वाल के जंगले पर लटका दिया गया था। हम सबने इस अनुरोध का पालन किया। पाठ की समाप्ति पर हुई आरती और अरदास की आवाज, लाउडस्पीकर लगा होने के बाद भी, बाहर सड़क तक नहीं आ पाई। पाठ समाप्ति के बाद, ‘गुरु का लंगर’ अरोड़ाजी के मकान में ही शुरु हुआ। अन्य सेवकों और उनके पूरे परिवार को मिला कर कोई तीस लोग छोले-भटूरे और गुलाब जामुन परोस रहे थे। किसी भी अतिथि को, कोई भी सामान ठण्डा नहीं मिला और न ही सामान की प्रतीक्षा में किसी को अपना हाथ रोकना पड़ा। दो मंजिला मकान की छत पर रसोई बन रही थी। ड्राइंग रूम से छत तक की, दो मंजिला सीढ़ियों पर अरोड़ाजी के परिजन और सेवक खड़े थे और कढ़ाई से निकल रहे गरम-गरम भटूरे और गुलाब जामुन पहुँचा रहे थे।


हम सबने, जी भर कर लंगर ‘छका’ और अरोड़ाजी को ‘लख-लख बधाइयाँ’ और धन्यवाद देकर बाहर आए तो देखा कि हम सबके जूते-चप्पल, करीने से जम हुए थे। अरोड़ाजी का पूरा परिवार तो आमन्त्रितों की सेवा में लगा था। मालूम हुआ कि सिख समाज के आगन्तुक अतिथियों और उनके बच्चों ने यह ‘सेवा’ की थी। अरोड़ाजी के मकान के मुख्य द्वार के दोनों ओर, करीने से जमाए गए जूते-चप्पलों के चित्र सारी कहानी खुद ही कह रहे हैं।


दूसरा आयोजन था - श्रीमद् भागवत कथा का वाचन। यह आयोजन भी मेरे मुहल्ले में ही, मेरे मकान से लगभग ढाई सौ कदम दूर (याने अरोड़ाजी के मकान की दूरी से, लगभग सात गुना अधिक दूरी पर) था। अरोड़ाजीवाले आयोजन से दो दिन पहले यह आयोजन शुरु हुआ और दो दिन बाद तक चलता रहा। याने, पूरे एक सप्ताह का आयोजन रहा। इसका समय था - दोपहर एक बजे से चार बजे तक। इस आयोजन के लिए सड़क बन्द कर, पाण्डाल खड़ा किया गया। पूरे सात दिन रास्ता बन्द रहा। लाउडस्पीकर यहाँ भी लगे। फर्क इतना ही रहा कि तीस कदम दूर, अरोड़ाजी के मकान पर लगे लाउडस्पीकर की आवाज सुनने-समझने के लिए मुझे अपने मकान के दरवाजे-खिड़कियाँ खुली रखनी पड़ीं जबकि ढाई सौ कदम दूर चल रहे भागवत पाठ को सुनने-समझने के लिए मुझे दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द रखनी पड़ीं। सातों ही दिन लाउडस्पीकर ‘फुल वॉल्यूम’ पर रहा - कर्कश और कर्ण-कटु आवाज में चिंघाड़ते हुए। पण्डितजी इस तरह कथा बाँच रहे थे मानो किसी से झगड़ा कर रहे हों और वह भी इस तरह कि सामनेवाले को बोलने का मौका न मिले। पाण्डाल यद्यपि दिखाई देता था किन्तु चूँकि चारों ओर से बन्द था, इसलिए मुझे सातों ही दिन, प्रति-पल लगता रहा कि पाण्डाल खाली है और कथा वाचक पण्डितजी, अपनी पूरी ताकत से इसलिए बोल रहे हैं ताकि घरों में बैठे लोगों को कथा-श्रवण का पुण्य लाभ करा सकें।


चार घण्टों का यह दैनिक सत्र ‘गीत-संगीत मय’ रहा जिसमें फिल्मी धुनों पर भजन गाए गए। मुझे धुन तो समझ में आती रही लेकिन चिंघाड़ते स्वरों के कारण भजनों के शब्द समझ नहीं पड़े। लिहाजा, मैं फिल्मी गीतों का ही आनन्द लेने को विवश रहा। वैसे भी, इस आयोजन में गीत-संगीत प्रमुख रहा और भागवत कथा मानो, गीत-संगीत की प्रस्तुति का प्रयोजन रही। भागवत कथा समापन वाले दिन फिल्मी धुनोंवाले भजन देर तक बजते रहे और (जैसाकि अगले दिन अखबारों से मालूम हुआ) महिलाएँ भजनों पर ‘जम कर’ नाचीं।


दोनों आयोजनों का मेरा अनुभव मुझे चकित कर रहा है। अरोड़ाजी के घर में आयोजित अखण्ड पाठ के दौरान हम मुहल्ले के लोग अपने-अपने घरों में और घरों के बाहर भी आराम से बातें करते रहे जबकि हमारे मकानों से भरपूर दूरी पर आयोजित भागवत पाठ ने हम लोगों को, मुहल्ले में, बाहर सड़कों पर तो दूर रहा, घरों में भी सहजता से बातें नहीं करने दीं।


मुझे नहीं लगता कि इसके बाद भी कुछ कहने-सुनने को रह जाता है।
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इसलिए ‘इन्हें’ नींद नहीं आती

‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’ कह कर गालिब ने शायद स्थिति का सामान्यीकरण कर दिया। लेकिन हमारा ‘लोक मनीषी’ ऐसा नहीं करता। उसने तो पीढ़ियों के अनुभवों के निचोड़ से विशेषज्ञता प्राप्त की है। इसीलिए वह, अनिद्रा से त्रस्‍त लोगों का, अधिकारपूर्वक वर्गीकरण करते हुए सुस्पष्ट कारण बता देता है।

यह सब बताया था मेरे दा' साहब माणक भाई अग्रवाल ने। उन्होंने एक मालवी कहावत भी सुनाई थी जिसे मैंने उत्साहपूर्वक तत्काल ही लिख लिया था लेकिन अपनी असावधानी के चलते, उससे अधिक उत्साहपूर्वक गुमा भी दिया था।

इस बार इन्दौर यात्रा में सबसे पहले दा’ साहब से ही मिला और उसी कहावत की फरमाइश की। उन्होंने तनिक खिन्नता से मुझे देखा और पूछा - ‘पहले लिखी थी तो तूने?’ मैंने कहा - ‘हाँ। लेकिन गुमा दी।’ वे सस्मित बोले - ‘तुझे जरूर गहरी और भरपूर नींद आती होगी।’

दा’ साहब की बताई मालवी कहावत यह है -

‘‘नींद नी आवे नौ जणा।
कणाँ-कणाँ?
गोयरे खेत, मार में चणा।
थोड़ी पूँजी, वणज घणा।
मोटी बेटी, करज घणा।
रोगी, जोगी, धन घणा।’’

मालवी शब्दों के अर्थ जानने के चक्कर में न पड़ते हुए, इस कहावत का अर्थ इस प्रकार है -

इन नौ लोगों को नींद नहीं आती -

- जिसका खेत, गाँव (बस्ती) से सटा हुआ हो।
- जिसके खेत में चने की फसल खड़ी हो।
- जो कम पूँजी से व्यापार कर रहा हो।
- जिसने अपने व्यापार का विस्तार, अपनी क्षमता से अधिक कर लिया हो।
- जिसके घर में अनब्याही जवान बेटी हो।
- जिसके सर पर कर्ज हो।
- रोगी।
- भोगी।
- अत्यधिक धनी/सम्पन्न।

‘लोक मनीषी’ ने जिस सहजता और सुस्पष्टता से यह वर्गीकरण किया है, उसके बाद यह कहावत विस्तृत व्याख्या की माँग नहीं करती।

इस मालवी कहावत में अनिद्रा के केवल कारण ही नहीं बताए गए हैं। बड़ी चतुराई से इन कारणों में ही इस रोग के निदान भी बता दिए गए हैं। कहना न होगा कि ये निदान ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ वाली हमारी हमारी मूल भारतीय अवधारणा को ही पुष्ट करते हैं।

हमारा ‘लोक’ तो हमें सदैव और निरन्तर ही, समझाता और सतर्क करता रहता है। ये तो हम ही हैं जो उससे आँख से आँख मिलाकर, मुस्कुराते हुए, उसकी बातें, अनसुनी, अनदेखी कर अपनी समझ पर इतराते हैं और बाद में दुःख पाते हैं।

इस लोक मनीषी को प्रणाम।
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मेरा ‘बच्चा साधु’

यह तन्मय है। मेरे मझले साले का छोटा बेटा। हम सब इसे तन्ना कहते हैं लेकिन घर में कोई नहीं जानता कि मैं अकेले में इसे ‘बच्चा साधु’ कहता हूँ।

गए छह दिनों में कुछ नहीं लिखा। तीन दिन तो आलस्य के नाम रहे और तीन दिन इस मेरे ‘बच्चा साधु’ के नाम।

यह जब घर में होता है तो घर से बाहर निकलने का या कुछ करने का मन नहीं होता। घर में इसके होने का मुझ पर जो असर होता है उसे व्यक्त कर पाना मेरे लिए बिलकुल ही मुमकिन नहीं। मैं खुद ही आज तक नहीं समझ पाया तो भला बताऊँ कैसे?

मेरा यह ‘बच्चा साधु’ और बच्चों से एकदम हटकर। इतना हटकर कि कभी-कभी डर जाता हूँ - यह बीमार तो नहीं? लेकिन शुक्र है भगवान का कि ऐसा बिलकुल ही नहीं है।

मेरा यह ‘बच्चा साधु’ जल्दी ही ग्यारह बरस का हो जाएगा। इन वर्षों में यह जब-जब भी मेरे घर आया है, मैंने इसे एक बार भी रोते नहीं देखा-सुना। इसने कभी भी घर में धमा-चौकड़ी नहीं मचाई। एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि हम सबसे कहे बिना, चुपचाप घर से बाहर निकला हो। खाने-पीने की किसी भी चीज के लिए जिद नहीं की। इसके माता-पिता को एक बार भी शिकायत करते नहीं सुना कि तन्ना कहना नहीं मानता। घर में होता है तो या तो कार्टून चेनल देखता रहता है या चुपचाप अपने में खोया बैठा रहता है। अपनी ओर से कभी कोई बात, कोई पूछताछ नहीं करता। पूछो तो जवाब दे देता है वर्ना मौनी बाबा बना रहता है। आसपास का कोई बच्चा आकर इसे खेलने के लिए बाहर बुलाता है तो यह अपनी माँ की ओर देखता है। माँ कहती है - ‘जा। जल्दी वापस आ जाना।’ और हर बार मैंने देखा, यह सचमुच में बहुत जल्दी वापस आ जाता है।

घर में इसके होने का अहसास, आम बच्चों के होनेवाले अहसास से एकदम अलग होता है। इसकी नीरव उपस्थिति घर में किलकारियाँ मारती हैं। मानो, इसकी साँसों की धक-धक मेरे घर की धड़कन बन जाती है। यह नजर नहीं आता किन्तु इसके होने का अहसास बराबर बना रहता है - बिलकुल शकर में घुले बताशे की तरह। मैं बिना देखे बता सकता हूँ कि यह घर के किस कमरे में बैठा होगा और क्या कर रहा होगा। तन्ना की यह विचित्र उपस्थिति ही मुझे घर में बाँधे रखती है।

मेरे घर यह हर मौसम और लगभग हर वार-त्यौहार के दिनों में आया है। मेले-ठेलों वाले मौसम में भी। अपने माता-पिता और बुआ के साथ यह जब-जब भी किसी मेले में गया तो मुझे लगता था कि मेले में यह किसी खिलौने के लिए या खाने-पीने की किसी चीज के लिए जिद करेगा। लेकिन एक बार भी ऐसा नहीं हुआ। जो खिलौना दिला दिया, चुपचाप ले लिया। खाने की किसी चीज के लिए पूछा तो या तो हाँ कर दी या इंकार। मेरा कस्बा, ‘खाउओं का कस्बा’ है। यहाँ के नमकीन व्यंजनों और सर्दी के मौसम में गराड़ू (एक जमींकन्द) - जलेबी की महक सारे कस्बे पर तब भी तैरती रहती है जब लोग रजाइयों में दुबके होते हैं। मैं पूछता हूँ - ‘तन्ना! गराड़ू खाएगा?’ निर्विकार, ठण्डे स्वरों में तन्ना कहता है - ‘खा लूँगा।’ मैं पूछता हूँ - ‘और जलेबी?’ उसी निरपेक्ष भाव-मुद्रा में तन्ना कहता है - ‘वह भी खा लूँगा।’ उसकी परीक्षा लेने के लिए पूछता हूँ - ‘कभी जलेबी-गराड़ू नहीं मिले तो?’ तन्ना के स्वरों में और मुख-मुद्रा में रंच मात्र भी अन्तर नहीं आता। जवाब आता है - ‘तो नहीं खाऊँगा।’ मेरा मजा किरकिरा हो जाता है। मैं मन नही मन झुंझला जाता हूँ - ‘कैसा बच्चा है यह? न तो जिद करता है, न चिढ़ता है। न तो खुश होता है और न ही दुखी।’ इसका यह असामान्य व्यवहार मुझे बरबस ही ‘सदा दीवाली सन्त की, बारहों मास बसन्त’ वाली उक्ति याद दिला देता है और शायद इसीलिए मैं इसे ‘बच्चा साधु’ कह बैठता हूँ।

24 की अपराह्न, अपनी माँ (मेरी सलहज) के साथ तन्ना आया था। तीन दिनों की छुट्टियाँ जो थीं! मैंने जिद की तो इसके पिता, (मेरे मझले साले साहब) भी परसों अपराह्न पहुँच गए थे। आज दोपहर ये तीनों अपने घर लौट रहे हैं। मुझ पर उदासी छा रही है।

लेकिन ऐसा न तो पहली बार हो रहा है और न ही आखिरी बार। तन्ना जाएगा नही तो लौटेगा कैसे? तन्ना के लौटने की यही सम्भावना मेरी उदासी को परे धकेल रही है।
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ब्लॉगवाणी: मेरा अभाग्य है यह शोकान्तिका

माननीय मित्रों,
मेरे तकनीकी अज्ञान के कारण आपको तनिक अधिक पढ़ना पड़ेगा। सम्भवतः वह सब भी, जो आप पढ़ चुके हैं - मुझे पर्मालिंक देना जो नहीं आता।
20 दिसम्बर की रात को मुझे माननीया निर्मलाजी कपिला का यह सन्देश मिला -
आदरणीय बैरागीजी, नमस्कार। आपसे सविनय एक अनुरोध है कि आप ब्लागवाणी के संचालन के लिये मैथिलीजी और सिरिल जी से बात करें। अच्छे लोग क्षमादान में आस्था रखते हैं। अगर इतनी संख्या मे लोगों ने उन्हें स्नेह दिया है तो मात्र कुछ लोगों के बुराई करने से वो सब को सजा नही दे सकते। हम जैसे, तकनीक से अनजान कितने लोगों को उन्होंने आगे बढने का अवसर दिया है। आज सब माँग कर रहे हैं कि ब्लागवाणी फिर से वापिस आये तो ये उनका बडप्पन होगा कि इस माँग को मान लें। ये हिन्दी के और साहित्य के भाविष्य के लिये उनका उपकार होगा। मुझे आशा है मैथिली जी सुहृदय व्यक्ति हैं आपकी बात जरूर मानेंगे। आप जोर दे कर सब की तरफ से कहें। मुझे सतीश जी का भी मेल आया था कि आपसे विनती करूँ। अगर आप इसके लिये और लोगों की मेल चाहते हैं तो वो भी ली जा सकती है। आपका ब्लागजगत पर उपकार होगा। धन्यवाद। शुभकामनायें।

उसी रात मैंने उत्तर दिया -
माननीया निर्मलाजी,
सविनय सादर नमस्‍कार,
यह सचमुच में 'ब्‍लॉग' का चमत्‍कार ही है कि आपने मुझे ऐसा सन्‍देश भेजा। ब्‍लॉग की दुनिया में अभी मेरी उम्र ही क्‍या है? मई 2007 में मेरा जन्‍म हुआ है इस दुनिया में और आपने मुझे इतने बडे काम लायक समझा!
ब्‍लॉगवाणी के बन्‍द होने का कारण बना विवाद तो कोसों दूर की बात रही, ब्‍लॉगवाणी के बारे में ही मुझे कुछ पता नहीं है। बस, इतना ही जानता रहा हूँ कि ब्‍लॉगवाणी ने मुझे असंख्‍य लोगों तक पहुँचाया। और यह भी कि ब्‍लॉगवाणी हम सबकी सॉंस की तरह रही है।
मुझे नहीं पता कि मैं आपके विश्‍वास पर कितना खरा उतर पाऊँगा। उतर पाऊँगा भी या नहीं? मैं प्रयत्‍नवादी आदमी हूँ। सो, आपके चाहे अनुसार मैं प्रयत्‍न अवश्‍य करूँगा। मेरा नियन्‍त्रण केवल प्रयत्‍नों पर है। परिणाम पर नहीं। आप ईश्‍वर से प्रार्थना कीजिएगा कि आपकी और आप जैसे तमाम कृपालुओं की मनोकामना पूरी होने का निमित्‍त मैं बन सकँ।
मैं कल सवेरे ही मैथिलीजी से बात करूँगा और आपको बताऊँगा।
ईश्‍वर हम सबकी इच्‍छा पूरी करें।
आपने मुझे इतना अच्‍छा काम बताया, इसके लिए मैं अपने अन्‍तर्मन से आपका आभारी हूँ।
विनम्र,
विष्‍णु
21 की सुबह पौने आठ और आठ बजे के बीच मैंने मैथिलीजी को फोन किया। नो रिप्लाय हुआ।
दोपहर लगभग दो बजे फिर फोन लगाया। उधर से ‘हैलो‘ कहने के साथ ही आवाज आई - ‘मैं सिरिल बोल रहा हूँ।’ मैंने अपना परिचय देना चाहा तो उन्होंने रोक दिया। बोले कि वे मुझे नाम से और मेरे ब्लॉग से जानते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि निर्मलाजी का और मेरा सन्देश आदान-प्रदान ही नहीं, मेरे सन्देश पर सतीशजी की शुभेच्छा का प्रकटीकरण भी वे देख चुके हैं और इन तीनों सन्देशों पर अपना जवाब भी भेज चुके हैं।
मैं फौरन ही मुद्दे पर आ गया। कुल जमा आठ मिनिट और चार सेकेण्ड हुई हमारी बातों को विस्तार में देने का कोई अर्थ नहीं होगा। सिरिलजी ने जो कुछ कहा वह कुछ इस प्रकार है -
- उन्होंने (पिता-पुत्र ने) किसी की बात से खिन्न या दुखी होकर, प्रतिक्रियास्वरूप, ब्लागवाणी का अद्यतनीकरण (अपग्रेडेशन) बन्द नहीं किया है। क्योंकि कहना-सुनना तो चलता रहता है। यह सहज, स्वाभाविक है। ऐसे कहने-सुनने का क्या नोटिस लेना? इस सब पर पर क्या नाराज होना?
- जो तकनीक वे प्रयुक्त करते रहे हैं, उसकी सीमा और क्षमता चुक गई है।
- उनकी व्यस्तताओं में वृद्धि हो गई है। फलस्वरूप वे चाहकर भी अब ब्लॉगवाणी को समय नहीं दे सकेंगे।
- ब्लॉगवाणी का अद्यतनीकरण बन्द करने के पीछे कोई कारण नहीं तलाशे जाने चाहिए। यदि इसे निरन्तर कर पाना मुमकिन होता तो वे पूर्ववत्, प्रसन्नतापूर्वक यह करते रहते।- ब्लॉगवाणी के (अद्यतनीकरण के) बन्द होने के जो-जो कारण बताए, बनाए, कल्पना किए जा रहे हैं, उससे दोनों, पिता-पुत्र दुखी, असहज और कुछ सीमा तक अपरोध-बोध से ग्रस्त हो रहे हैं क्यों कि, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, ऐसा कुछ भी नहीं है। जिन अज्ञात, अनजान लोगों पर दोषारोपण किया जा रहा है, वह अत्याचार है।
- ब्लॉगवाणी (का अद्यतनीकरण) शुरु किए जाने के आग्रह उन्हें व्यथित कर रहे हैं, पीड़ा पहुँचा रहे हैं और उनके अपराध-बोध को गहरा कर रहे हैं।
- यह अध्याय निर्णायक रूप से बन्द किया जाए।
मैं बीमा एजेण्ट हूँ और आसानी से सामनेवाले को नहीं छोड़ता हूँ। ‘प्रयत्नवादी’ होने की अपनी पहचान के चलते, अन्तिम क्षण तक कोशिश करता हूँ, हर दाँव-पेंच वापरता हूँ, वास्तविकता की टोह लेने में कोई कसर नहीं छोड़ता हूँ। मैं स्वीकार करता हूँ कि सिरिलजी के साथ भी मैंने यह सब किया और यह भी स्वीकार करता हूँ कि ऐसा करते हुए मैं सिरिलजी के साथ क्रूरता बरतता रहा। सिरिलजी मुझे क्षमा करें। ‘बहुजन हिताय’ की व्यापक शुभेच्छा के अधीन, अपनी सम्पूर्ण सदाशयता से मैंने यह अत्याचार किया है।
बात हममें से किसी को भी अच्छी नहीं लगेगी किन्तु सच का सामना करने का साहस हमें जुटाना ही चाहिए। इसीलिए, अपने अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ कि ब्लॉगवाणी के अद्यतनीकरण की आशा-अपेक्षा हम लोगों ने छोड़ देनी चाहिए। सिरिलजी के स्वरों में जितनी विनम्रता थी, उससे कई गुना अधिक दृढ़ता थी। मैंने कहा - ‘ब्लॉगवाणी के इस स्थगन को मैं अस्थायी या अल्पविराम मान रहा हूँ, पूर्ण विराम नहीं।’ सिरिलजी ने तत्क्षण उत्तर दिया - ‘यह सब आपकी ओर से है। मैं तो अपनी ओर से तथा पिताजी की ओर से अपनी बात कह चुका।’ मैंने फिर कहा - ‘यदि एक प्रतिशत भी सम्भावना हो तो कृपया शत-प्रतिशत पुनर्विचार करें।’ उन्होंने कहा - ‘मैंने अपना उत्तर शत-प्रतिशत ही दिया है और आप मुझे इस प्रकार संकोच में न डालें। मुझे मानसिक स्तर पर अत्यधिक असुविधा हो रही है।’
रात को अपना लेपटॉप खोला तो निर्मलाजी के और मेरे सन्देशों पर सतीशजी का, 21 दिसम्बर की सुबह आया, शुभेच्छापूर्ण सन्देश और हम तीनों के सन्देशों के उत्तर में सिरिलजी का सन्देश देखा/पढ़ा। सतीशजी का सन्देश तो आप सबने पढ़ा ही होगा। सिरिलजी का सन्देश यहाँ प्रस्तुत है -

नमस्कार,

मुझे लगता है कि सबको ऐसा महसूस हो रहा है कि ब्लागवाणी को बंद करने का कारण यह है कि किसी कुछ कहा.

ऐसा नहीं है... ब्लागवाणी न जारी रखने का कारण कोई विवाद नहीं है बल्कि निजी समस्यायें हैं. अगर हमारे लिये संभव होता इसको जारी रखना तो जरूर हम ऐसा करते. लेकिन इस समय यह संभव नहीं है.

आप लोगों के पत्र पढ़कर शर्मिंदगी होती है कि हम आपकी अपेक्षाओं पर पूरे नहीं उतर सके. इस असफलता के लिये कृपया हमें क्षमा करिये. हमारी क्षमतायें इस विशाल ब्लागजगत को नहीं समेट सकीं. इसके लिये बेहतर उपक्रम की आव्यशकता है.

सब दोस्तों से गुजारिश है कि कृपया इस मुद्दे को विराम दें क्योंकि इस पर जारी संवाद बार-बार असुविधाजनक एहसास कराता है.

आपके सहयोग के लिये ह्रदय से धन्यवाद.

आपका दोस्त
सिरिल

सो, मित्रों! मैं सखेद सूचित कर रहा हूँ कि मैं आपकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया। असफल रहा। किन्तु विश्वास कीजिएगा, अपनी ओर से मैंने कोई कसर नहीं रखी। अमानवीयता तक बरत गया।

यह मेरा अभाग्य ही है कि ब्लॉगवाणी का यह ‘शोकान्तिका-पाठ’ मेरे हिस्से में आया।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे airagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.






आना समझ में, बरसों बाद कोई बात

कभी-कभी कुछ बातें काफी देर से समझ पड़ती हैं। तब समझ पड़ता है कि बरसों से उन्हें बिना समझे ही कहते, सुनते और पढ़ते रहे हैं। तब पहले तो खुद पर झेंप आती है और उससे लगी-लगी, सहोदरा की तरह आती है हँसी। अपने आप पर। अपनी नासमझी पर। चार दिन पहले मैं इसी दशा को प्राप्त हुआ था और अब तक उसी दशा में बना हुआ हूँ।
बात है सत्रह दिसम्बर की। मोक्षदा एकादशी, गीता जयन्ती की। मैं इन्दौर में नितिन भाई के यहाँ बैठा हुआ था। उनकी माताजी भी मौजूद थीं। नितिन भाई अपनी भार्या पूर्णिमा को एक धार्मिक पुस्तक केन्द्र का पता बताते हुए, वहाँ के लिए तैयार होने को कह रहे थे। मालूम हुआ कि नितिन भाई गए कुछ बरसों से प्रति वर्ष गीता जयन्ती पर, श्रीमद् भागवत गीता की एक सौ प्रतियाँ अपने परिचितों/मित्रों को भंेट करते चले आ रहे हैं। इन प्रतियों की खरीदी वे गीता जयन्ती पर ही करते हैं। उस दिन भी इसी काम के लिए जा रहे थे।
मैंने सहज भाव से पूछा - ‘नितिन भाई! कभी आपने जानने की कोशिश की है कि जिन्हें आप ये प्रतियाँ भेंट करते हैं, वे इनका क्या करते हैं?’ नितिन भाई के बोलने से पहले ही उनकी माताजी ने निर्विकार भाव से कहा - ‘क्या करते होंगे? किताबों के ढेर में रख देते होंगे और बहुत हुआ तो पूजा में रख देते होंगे।’
नितिन भाई कुछ बोलते उससे पहले ही मैंने दूसरा सवाल उछाला - ‘कभी आपने किसी से पूछा भी है उन्होंने या उनमें से किसी ने इसे पढ़ा भी है या नहीं?’ लेकिन मेरा यह सवाल पूरा भी नहीं हुआ था कि मैं खुद ही असहज हो गया। यह सवाल मैंने नितिन भाई से नहीं, अपने आप से ही पूछ लिया था!
ग्ए साल भर से मैं बच्चों, किशोरों और नव दम्पतियों को गाँधी आत्म कथा की प्रतियाँ भेंट कर रहा हूँ। सीधे नवजीवन प्रेस से इस पुस्तक की एकुमश्त प्रतियाँ मँगवा ली थीं। कोई स्कूली प्रतियोगिता हो, जन्म दिन हो या विवाह प्रसंग पर आयोजित स्वागत/भोज समारोह - व्यवहार के लेन-देन के साथ, इस पुस्तक की एक प्रति भी भेंट करता चला आ रहा हूँ।
जैसे-जैसे गाँधी को पढ़ता जा रहा हूँ वैसे-वैसे मेरा यह विश्वास प्रगाढ़ होता जा रहा है कि गाँधी के रास्ते पर चलकर ही हम अपनी मुश्किलों से पार पा सकते हैं। इसी मनःस्थिति के चलते, गाँधी विचार को अधिकाधिक प्रसारित करने की मंशा से मैं यह काम कर रहा हूँ और पुस्तक भेंट कर हर बार खुश होता रहा हूँ।
किन्तु नितिन भाई से किया सवाल, उनके जवाब देने से पहले ही ‘बूमरेंग’ बनकर मुझ पर वार कर गया। मैंने भी तो कभी कोशिश नहीं की यह जानने की कि जिन-जिन को मैंने गाँधी आत्म कथा की प्रति भेंट की है उनमें से कितनों ने उसे पढ़ा है? पढ़ा भी है या नही?
नितिन भाई की माताजी की बात मुझे गाँधी आत्म कथा पर भी लागू होती अनुभव हुई। श्रीमद् भागवत गीता हमारा पवित्र और पूज्य ग्रन्थ है। किन्तु हम सब उसे लाल कपड़े में बाँध कर रखते हैं। परिहास से आगे बढ़ कर मैं व्यंग्योक्ति कसता रहता हूँ - ‘‘हम ‘गीता को’ मानते हैं। ‘गीता की’ नहीं मानते।’’ और यह भी कि - ‘‘हम उसे कस कर कपड़े में इसलिए बाँध कर रखते हैं ताकि उसके उपदेश/निर्देश पालन करने के झंझट से बचे रह सकें।’’
गाँधी आत्म कथा बेशक धार्मिक ग्रन्थ नहीं है किन्तु उसकी स्थिति कमोबेश ऐसी ही बन गई है। हममें से कोई भी उपदेश सुनना पसन्द नहीं करता और ये दोनों पुस्तकें तो आदमी को उपदेश ही उपदेश देती हैं! उपदेश देने के लिए मैं हरदम तैयार रहता हूँ किन्तु उपदेश सुनने के लिए मुझे फुरसत कहाँ?
मेरी आदर्शवादी भावना धड़ाम् से औंधे मुँह पड़ी हुई है। कहाँ तो मैं गाँधी विचार को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने के अपने ‘सुकृत्य’ पर मन ही मन गर्वित हो रहा था और कहाँ अब परेशान हो रहा हूँ? कैसे जानूँ कि जिन्हें मैंने यह पुस्तक भेंट दी है उन्होंने इसके साथ क्या किया? लग रहा है कि एक ने भी पन्ने भी नहीं पलटे होंगे। मैंने प्रत्येक प्रति पर अपना नाम, पता, मोबाइल नम्बर और ई-मेल पता चिपका रखा है। लगभग साल भर हो गया है प्रतियाँ भेंट करते-करते। एक ने भी पलट कर फोन नहीं किया। मैं खुद को समझदार मानता रहा लेकिन इस इशारे को अब तक नहीं समझ पाया! कैसा समझदार हूँ मैं?
अब क्या करूँ। पुस्तकों के पक्ष में अनेक उक्तियाँ इस समय याद आ रही हैं किन्तु विश्वास किसी पर नहीं हो रहा। कारण भी समझ में आ रहा है कि गाँधी आत्म कथा केवल पुस्तक नहीं है। यह तो ग्रन्थ है! ग्रन्थ भी ऐसा जिसमें आचरण ही केन्द्रीय विषय है। वह सब तो केवल गाँधी ही कर सकते थे! इसीलिए तो वे ‘गाँधी’ बन पाए! गाँधी बेशक आज प्रासंगिक, अपरिहार्य और अनिवार्य हैं किन्तु वैसा बन पाना अब मुमकिन कहाँ?
विचारों के इसी झंझावात में मुझे उस बात का वास्तविक अर्थ समझ पड़ा जिसे अब तक मैं बिना समझे कहता, सुनता और पढ़ता चला आ रहा हूँ। वह यह कि - ‘उससे विवाह मत करो जिसे तुम चाहते/चाहती हो। उससे करो, जो तुम्हें चाहता/चाहती है।’ मैं अपनी पसन्द की पुस्तक भेंट में दिए जा रहा हूँ - यह सोचे, जाने बिना कि जिन्हें मैं यह भेंट दे रहा हूँ, उन्हें यह पसन्द है भी या नहीं? यदि उन्हें यह पसन्द नहीं है तो वे इसे भला क्योंकर पढ़ेंगे?
तो अब क्या करुँ? शेष प्रतियाँ इस तरह से भेंट में दूँ या नही? सवाल मुझ पर भारी पड़ रहा है। बिलकुल कुछ इस तरह कि ‘ये तेरी जुल्फ की लट है, दुनियाँ के पेंच-ओ-खम नहीं कि जिन्हें मैं सुलझा लूँ।’
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छुटकू का क्या दोष?


इस किशोर का वास्तविक नाम क्या है, इस पर मत जाईए। इसके नाम से हमें कोई लेना-देना नहीं। बस, काम चलाने के लिए इसे छुटकू कहेंगे। वह भी इसलिए कि अपने कुटुम्ब की, इसकी पीढ़ी में यह सबसे छोटा सदस्य है। इसका कुटुम्ब अपने कस्बे का अग्रणी व्यापारी परिवार है-कस्बे के प्रथम पाँच बड़े व्यापारियों में शामिल।

बरहवीं उत्तीर्ण कर, बी. कॉम. और उसके साथ ही साथ सी ए करने के लिए यह अपने कस्बे के पासवाले, महानगर होने को कुलबुला रहे बड़े नगर में गया था। लेकिन जल्दी ही इसका मन उचट गया। सी ए करने का इरादा छोड़ दिया है। व्यक्तिगत परीक्षार्थी (प्रायवेट स्टूडेण्ट) के रूप में बी. कॉम. की तैयारी अभी भी कर रहा है। किन्तु मुख्यतः अपने पारिवारिक व्यापार में हाथ बँटा रहा है। पढ़ाई बीच में छोड़ने के अपने निर्णय पर इसे और इसके परिवार को रंच मात्र भी कष्ट नहीं है। सब इस बात पर प्रसन्न हैं कि इसने सब कुछ जल्दी ही समझ लिया और ‘समय धन’ बचा लिया।

अपने काम से इसके संस्थान् पर गया तो उस दिन सेठ की कुर्सी पर यही बैठा हुआ था। मैं अपनी बात कहता उससे पहले ही कूरीयर सेवा का आदमी आया और पत्रों का ढेर और पावती के लिए हस्ताक्षर करनेवाला कागज इसके सामने रख दिया। इसे अंग्रेजी में हस्ताक्षर करता देख मैंने टोका - ‘छुटकू! तू हिन्दी में हस्ताक्षर क्यों नहीं करता?’ वह चौंका भी और घबराया भी। तनिक सहम कर बोला - ‘अंकल! हिन्दी में सिगनेचर? बुरा मत मानना, हिन्दी में सिगनेचर करना तो दूर, मैं हिन्दी में छुटकू का छ नहीं लिख पाऊँगा।’ मुझे सदमा लगा। ऐसे उत्तर की तो कल्पना भी नहीं की थी मैंने! पूछा - ‘क्यों भला?’ जवाब मिला - ‘आज से पहले इस बारे में न तो किसी ने कहा न ही मैंने कभी सोचा। अब तो यह पॉसीबल ही नहीं।’

जवाब भले ही मेरे लिए आघात से कम नहीं था किन्तु छुटकू ने कोई बहाना नहीं बनाया। दो-टूक सच कह दिया। उससे ज्यादा पूछताछ करना उसके साथ अत्याचार ही होता। मैं विचार में पड़ गया।

छुटकू के परिवार की पृष्ठभूमि में अंग्रेजी कहीं नहीं है। घर में भी हिन्दी कम और मालवी अधिक बोली जाती है। अंग्रेजी में कोई सम्वाद, कोई व्यवहार नहीं होता। इसके परिवर के प्रायः समस्त पुरुष सदस्य, हिन्दी में ही हस्ताक्षर करते हैं। इसकी माँ एक सरकारी माध्यमिक विद्यालय में, बरसों से प्रधानाध्यापिका है और पिता ठेठ मालवी।

फिर वह क्या कारण रहा होगा कि छुटकू ने ऐसा जवाब दिया? शायद किसी ने, कभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया होगा। ध्यान देना तो दूर की बात रही होगी, इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता भी अनुभव नहीं की होगी। बच्चा पढ़ रहा है और परीक्षाओं में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो रहा है - इतना ही पर्याप्त रहा होगा। लेकिन भाषा के भी संस्कार होते हैं, इस बारे में किसी ने, कभी नहीं सोचा होगा।

निश्चय ही, घर-घर का यही किस्सा होगा। होगा क्या, है ही। हम अपने बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता करते हैं और उसी पर सारा ध्यान केन्द्रित करते हैं। किन्तु परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के अतिरिक्त भी तो उसका जीवन है! उसके सामाजिक व्यवहार, भाषिक संस्कार आदि के बारे में हम कभी नहीं सोचते। मान कर चलते हैं कि इन बातों पर सोचनेे की आवश्यकता ही नहीं। ये बातें तो या तो बच्चा खुद-ब-खुद सीख-समझ जाएगा या फिर इन बातों को सीखने-समझने की जरुरत ही क्या?

मुझे लग रहा है कि हिन्दी के नाम पर स्यापा करनेवाले और आत्म धिक्कार में जीनेवाले हम तमाम लोगों को अपने-अपने घर में ही सबसे पहले देखना चाहिए। हम तब चिन्तित होते हैं जब सुधार की सम्भावनाएँ लगभग धूमिल हो जाती हैं। बच्चे जब कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं तभी हमने इन सन्दर्भों में उनकी तरफ देखना चाहिए। लेकिन तब हमें फुरसत नहीं होती। हमें फुरसत मिलती है तब तक वे हाँडे पक चुके होते हैं और उनमें मिट्टी न लगा पाने की अपनी अक्षमता को हम हिन्दी की अस्मिता का सवाल बना कर प्रलाप शुरु कर देते हैं।

दोष तो हमारा ही है। छुटकू का क्या दोष?

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एक मन्दिर: धार्मिकतावाला

उत्तर भारत के मन्दिरों के बारे में बनी मेरी धारणा टूटने की मुझे बहुत खुशी है। यह अलग बात है कि यह धारणा मध्य भारत में टूटी। यह भी अलग बात है कि मुझे यह खुशी देने में हमारे पारम्परिक सनातनी (जिसे हम आदतन ‘हिन्दू’ कहते हैं) समाज का कोई योगदान नहीं है।

उत्तर भारत के जितने भी मन्दिरों में मुझे जाने का अवसर मिला है, उनमें से एक की भी व्यवस्था से मैं ‘मुदित मन’ नहीं लौटा। रखरखाव हो या पण्डों-सेवकों का व्यवहार, वहाँ अव्यवस्था ही व्यवस्था है और दर्शनार्थियों/भक्तों/पर्यटकों के साथ मनमानी ही धर्मिकता है। इसके सर्वथा विपरीत, दक्षिण भारत के मन्दिरों ने मुझे सदैव प्रभावित भी किया और दूसरी बार आने के लिए आकर्षित भी।

लेकिन उज्जैन के इस्कान मन्दिर ने मेरी धारणा बदली। इस मन्दिर को मैं परम्परागत सनातनी समाज का मन्दिर नहीं मानता।

मेरे मामिया ससुरजी की बरसी-प्रसंग पर गए दिनों उज्जैन जाना हुआ। हम लोग समय से बहुत अधिक पहले पहुँच गए। इतने पहले कि वहाँ आए सारे रिश्तेदारों से भली प्रकार मिल लेने, उनके साथ नाश्ता और भरपूर गप्प गोष्ठी करने के बाद चर्चाओं के लिए मौसम के अतिरिक्त कोई विषय नहीं बचा फिर भी कार्यक्रम शुरु होने में घण्टों बाकी थे। मिलने और गपियाने के उत्साह का उफान उतर जाने से उपजे खालीपन ने ही मेरी उत्तमार्द्ध (जीवनसंगिनी) को इस्कान मन्दिर जाने की प्रेरणा दी। मैं उनके साथ चला तो किन्तु बिलकुल ही बेमन से। एक तो मन्दिरों के बारे में मेरे अपने पूर्वाग्रह उस पर मन्दिर इस्कान का! इस्कान के बारे में मेरी धारणा यही है कि वहाँ सब कुछ विदेशी है। भारतीय और भारतीयता वहाँ दूसरे क्रम पर आती है। मेरे मन में इस्कान मन्दिर की छवि में विदेशी भक्तों/भक्तिनों की प्रचुर उपस्थिति, प्राधान्य और देसी समाज के प्रति उपेक्षाभरा बर्ताव ही बन हुआ रहा।

सुबह लगभग साढ़े नौ बजे हम मन्दिर पहुँचे तो वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं पाया जैसा मैं मन में लेकर गया था। पूरा मण्डप खाली था। दस-बारह स्त्री-पुरुष भक्त मौजूद थे। कोई साष्टांग दण्डवत मुद्रा में था, कोई सुमरिनी में माला जप रहा तो कोई ध्यान मग्न था। कोई भी आपस में बतिया नहीं रहा था। सब अपने में और अपने काम में मगन। ‘विदेशी’ के नाम कुल जमा एक महिला थी जिसे बहुत ध्यान से देखने पर ही मालूम हो पा रहा था कि वह विदेशी है। गेरुआ वस्त्रों में कुछ पण्डित किस्म के नौजवान और अधेड़ इधर-उधर आते-जाते दिखे। सब किसी न किसी काम में व्यस्त। फुरसत में बैठा कोई नहीं मिला।

जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह थी वहाँ की ध्वनि व्यवस्था। विशाल मण्डप में, आमने-सामने की दीवारों पर कुल-जमा आठ स्पीकर लगे हुए थे - प्रत्येक दीवाल पर चार-चार। बंगाली संगीत प्रभाववाले, ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ की पहचान जतानेवाले भजन बज तो रहे थे किन्तु आवाज इतनी मद्धिम कि भजनों के बोल सुनने-समझने के लिए शरीर के रोम-रोम को कान बनाना पड़ जाए। इतनी धीमी और मन्द ध्वनि मानो कोसों दूर, किसी गाँव मे हो रहे जलसे की रेकार्डिंग की आवाज आ रही हो। मुझे भजन का एक भी शब्द समझ नहीं आ रहा था किन्तु इससे रचा वातावरण जो शान्ति, जो आनन्दानुभूति दे रहा था वह मेरे लिए किसी स्वर्गीय सुख से कम नहीं थी। भजनों की रेकार्डिंग इतनी सुखदायी और मन को ठण्डक देनेवाली भी हो सकती है, यह मुझे पहली बार ही अनुभव हुआ।

इस व्यवस्था से उपजी मेरी प्रसन्नता का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि यहाँ मैं देव-मूर्तियों की, उनकी दिव्यता-भव्यता की, उनके समृद्ध श्रृंगार की, मन्दिर की भव्यता-सुन्दरता, किसी की भी चर्चा नहीं कर पा रहा हूँ। मुझे सचमुच में बड़ी खुशी है कि उत्तर भारत के मन्दिरों को लेकर मेरी धारणा टूटी।

मन्दिरों को लेकर मेरी चिढ़ से भली प्रकार परिचित मेरी उत्तमार्द्ध ने थोड़ी ही देर में कहा - ‘चलिए। घर चलें।’ मेरे जवाब ने उन्हें चौंका दिया। मैंने कहा - ‘थोड़ी देर और बैठते हैं। अच्छा लग रहा है।’ वे खुश हो गईं। मुझमें आए इस परिवर्तन को उन्होंने निश्चय ही ‘प्रभु की देन’ समझा होगा और मन ही मन कहा होगा - ‘चलो! आखिरकार भगवान ने इस आदमी को कुछ तो अकल दे दी।’ मेरा जवाब सुनकर उन्होंने दुगुने भक्ति-भाव से मूर्तियों को प्रणाम किया।
काश! मन्दिरों के रख-रखाव और व्यवस्थाओं के बारे में हमारा पारम्परिक सनातनी समाज, इस्कान मन्दिरों से कोई सबक ले।

मैं इस मन्दिर में फिर जाना चाहूँगा।
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भ्रष्टाचार: परछाई पर प्रहार

भले ही यह सच हो कि भ्रष्टाचार देश की सबसे बड़ी समस्या है और यह भी कि इसी के चलते विकास (वह जितना भी, जहाँ भी हो पा रहा है) के लाभ वाजिब लोगों तक नहीं पहुँच पा रहे हैं किन्तु इससे भी बड़ा सच यह है कि हममें से कोई भी भ्रष्टाचार को शायद ही नष्ट करना चाहता है। भ्रष्टाचार निर्मूलन के लिए ईमानदारी भरा निरपेक्ष अभियान अपरिहार्य होता है और इस बारे में हम सब सापेक्षिक सोच से काम करते हैं।
एक रोचक उदाहरण मेरी बात को तनिक अधिक प्रभाव से स्पष्ट कर सकेगा।
मेरे कस्बे के पास करमदी नामका एक गाँव है। अखबारों के अनुसार यहाँ ‘करमदी विकास समिति’ के नामसे एक समिति काम कर रही है। समिति की विशेषता यह है कि इसमें जितने लोग करमदी के हैं उनसे यदि ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं, करमदी से बाहर के लोग सदस्य हैं। शायद करमदी के लोगों में इतनी सूझ-समझ-क्षमता नहीं रही होगी कि वे अपने गाँव के विकास के बारे में समुचित रूप से सोच-विचार सकें, काम कर सकें। इसीलिए बाहर के लोगों की आवश्यकता अनुभव हुई होगी।लेकिन इस समिति के काम को इसके नाम से जोड़ कर वैसी ही शुभ धारणा बनाना तनिक जल्दीबाजी होगी। शायद अविवेक भी। इस समिति ने मेरे कस्बे में (याने अपने गाँव से कुछ किलो मीटर दूर आने का विकट परिश्रम कर) 16 दिसम्बर से, ‘बड़े घोटालों के विरुद्ध, भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम’ छेड़ी है। इसके तहत, जन सामान्य से, राष्ट्रपति को एक हजार पोस्ट कार्ड भिजवाए जाएँगे जिनमें यह जन भावना राष्ट्रपति तक पहुँचाई जएगी कि भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले सामने आने के बाद भी प्रधान मन्त्री द्वारा कोई कार्रवाई न करने से आम जनता त्रस्त है। यह रोचक और ध्यानाकर्षित करनेवाला संयोग है कि समिति के सारे के सारे सदस्य संघ और/या भाजपा से जुड़े हैं। जाहिर है कि समिति का यह अभियान ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध’ न होकर ‘केन्द्र की कांग्रेस नीत सरकार के भ्रष्टाचार’ के विरुद्ध है। यही इस देश का संकट है और इसी कारण मैं कह पा रहा हूँ कि भ्रष्टाचार से दुखी इस देश मे कोई भी भ्रष्टाचार समाप्त करने को उत्सुक नहीं है।
यदि हम सचमुच में भ्रष्टाचार के विरोध में हैं तो हमें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए कि भ्रष्टाचार कौन कर रहा है या किसने किया है। किन्तु यदि हमारे विरोध का आधार निरपेक्ष नहीं है, केवल सामनेवाले को अपराधी करार देना है या केवल सामनेवाले के भ्रष्टाचार को उजागर करना है तो यह अभ्यिान और ऐसी कोई भी लड़ाई कभी भी कामयाब नहीं हो सकती क्योंकि इसका लक्ष्य भ्रष्टाचार निर्मूलन नहीं, सामनेवाले के भ्रष्टाचार से अपना राजनीति लाभ लेना होता है। सुनिश्चत और निहित राजनीतिक लाभ के लिए चलाए जानेवाले ऐसे अभियान न केवल अन्ततः भ्रष्टाचार को ही मजबूत करते हैं अपितु ईमानदार लोगों/संगठनों द्वारा चलाए जानेवाले भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों को कमजोर भी बनाते हैं।
सारे राजनीतिक दलों ने देश पर एक उपकार अवश्य किया है। उन्होंने एक दूसरे की पोल खोलकर सारे देश को बता दिया है कि नागरिकों को इनमें से किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए। देश के तमाम राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के मामले में एक दूसरे को पछाड़ने की प्रतियोगिता में लगे हुए हैं। हर कोई प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए जी-जान से लगा हुआ है। इसीलिए इनमें से किसी को भी अपना भ्रष्टाचार नजर नहीं आता। अपने भ्रष्टाचार का औचित्य साबित कर खुद को निरपराध साबित करने के लिए वे अपने प्रतिस्पर्धी (ध्यान दीजिए, मैं यहाँ ‘विरोधी’ शब्द प्रयुक्त नहीं कर रहा हूँ) को अपराधी साबित करने में ही लगे हुए हैं।
आदर्शों की दुहाइयाँ देने में हम भारतीयों का कोई मुकाबला नहीं। दुहाइयाँ देने की किसी भी वैश्विक प्रतियोगिता में हम प्रथम स्थान पर, आजीवन अधिकार बनाए रखने की क्षमता और दम-कस रखते हैं। किन्तु आचरण की बात आते ही हम पुरुस्कार-सूची में, सबसे अन्तिम स्थान पर आ जाते हैं। श्रीमद् भागवत गीता की दुहाई देना हमारा फैशन और उसके निर्देशों की अवहेलना हमारा आचरण बन गया है।गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने कहा है - ‘केवल प्रयत्नों पर तुम्हारा नियन्त्रण है, परिणामों पर नहीं। इसलिए, कर्म करो।’ हमारे राजनीतिक दलों ने इसे ‘केवल दूसरों को सुधारने के प्रयत्नों ही पर तुम्हारा नियन्त्रण है’ बना लिया है जबकि योगीराज श्रीकृष्ण ने यह नियन्त्रण ‘स्वयम्’ के लिए उल्लेखित किया है। याने, तुम्हारा नियन्त्रण यदि है तो केवल तुम पर ही है। दूसरों पर नहीं। इसलिए यदि सुधार करना चाहते हो तो खुद को सुधारो। दूसरों को सुधारने की कोशिशें मूर्खता के सिवाय और कुछ भी नहीं। इसलिए, हमारे राजनेता यदि सचमुच में भ्रष्टाचार समाप्त करने में ईमानदार हैं तो यह शुभारम्भ अपने-अपने घरों से करें। कांग्रेसियों पर भाजपाइयों का और भाजपाइयों पर कांग्रेसियों का क्या नियन्त्रण? लेकिन कांग्रेसियों का कांग्रेसियों पर और भाजपाइयों का भाजपाइयों पर तो नियन्त्रण है। दूसरे के भ्रष्टाचार की दुहाई देकर अपने भ्रष्टाचार का औचित्य सिद्ध करने के बजाय खुद को भ्रष्टाचार रहित कीजिए। यह अधिक आसान है क्योंकि यदि आप अपना सुधार करेंगे तो आपको रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं होगा। यदि आप भ्रष्टाचारविहीन होंगे तो आपकी बात हर कोई न केवल ध्यान से सुनेगा बल्कि आपके साथ शरीक भी होगा। दूसरे की गरेबान में झाँकने के लिए आपको अधिक तथा अतिरिक्त श्रम करना पड़ेगा जबकि अपनी गरेबान में झाँकने में तो पल भर भी नहीं लगेगा। दूसरे को दुरुस्त करने के मुकाबले खुद को दुरुस्त करने में समय भी कम लगेगा और मेहनत भी। सामनेवाले के भ्रष्टाचार की गन्दगी बताकर आप कोई अनोखा काम नहीं कर रहे। सबको पता है। उसकी सड़ाँध को समाप्त करने के लिए आपको अपनी खुशबू फैलानी पड़ेगी।
हमारे दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल, कांग्रेस और भाजपा, गाँधी की दुहाई देने का कोई मौका नहीं छोड़ते। किन्तु गाँधी की कही बात पर अमल करने को कोई भी तैयार नहीं। गाँधी ने आत्म-चिन्तन से शुरु होकर आत्म-निरीक्षण, आत्म-परीक्षण, आत्म-विश्लेषण से गुजरते हुए आत्मोन्नयन की बात कही थी। गाँधी का प्रत्येक विचार खुद से शुरु होकर खुद पर समाप्त होता है। गाँधी विचार में जो भी है वह है - आचरण। वहाँ आरोप, प्रत्यारोप, आग्रह, अपेक्षा का कोई स्थान नहीं है। सत्याग्रह का आग्रह भी वहीं है जब सत्याग्रही स्वयम् उस विकार से मुक्त हो जिसके विरोध में वह सत्याग्रह कर रहा है।
इसे मैं यूँ कहना चाहूँगा कि रिश्वत देना मेरी मजबूरी हो सकती है किन्तु लेना नहीं। यदि मैं रिश्वत लेने की स्थिति में हूँ और रिश्वत नहीं लेता हूँ तभी मैं रिश्वत देने का विरोध करने का नैतिक अधिकार और आत्म बल पा सकता हूँ। बेटे के विवाह में दहेज लेकर, बेटी के विवाह में दहेज विरोधी कैसे हो सकता हूँ?
इसलिए, बेहतर यही होगा (और आवश्यक भी यही है) कि विरोधी के भ्रष्टाचार को नहीं, अपनी भ्रष्टाचारविहीनता को अपनी ताकत बनाएँ। तभी आपकी लड़ाई वास्तविक भी होगी और अपेक्षित परिणामदायी भी। तभी आपकी लड़ाई ईमानदार और नैतिक स्तर बलशाली होगी। यदि ऐसा नहीं है तो आप जो भी कर रहे हैं, वह झूठ है, ढोंग है, पाखण्ड है।
सारे राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को समझना चाहिए कि जरूरत जडों को काटने की है। आप फुनगियों पर प्रहार कर रहे हैं। आप खलनायक पर नहीं, उसकी परछाई पर तलवारें भाँज रहे हैं और चाहते हैं कि लोग आपकी ईमानदारी पर शक न करें।
यह आपकी मासूमियत नहीं, निर्लज्ज सीनाजोरी है।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे airagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

मास्टरों! दुर्दशा तो अभी बाकी है

दोपहर के साढ़े बारह बज रहे हैं और ये दोनों इस समय यहाँ? इस समय तो इन्हें स्कूल में होना चाहिए था? जिस बस्ती में दोनों खड़ी हैं, वहाँ इनका कोई रिश्तेदार भी नहीं हो सकता! यह ऐसी जगह भी नहीं कि तफरी या खरीदी करने के लिए, काम से तड़ी मार कर यहाँ आया जाए! फिर दोनों यहाँ क्यों?
दोनों ही मेरी परिचित। मेरी पॉलिसीधारक। दोनों का मेरे घर और दोनों के घर मेरा आना-जाना होता रहता है। सो, पूछताछ करने में न तो झिझक हुई और न ही देर। भँवे उचका कर मैंने निशःब्द प्रश्न किया - ‘इस समय यहा कैसे? क्यों?’ दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा - मानो तय कर रही हों कि उत्तर कौन दे। आँखों ही आँखों में दोनो ने निर्णय किया। एक बोली - ‘ड्यूटी कर रहे हैं सर।’ मैंने ध्यान से देखा - दोनों के हाथ खाली। न कोई रजिस्टर न ही प्रश्नावली के कागज और न ही रसीद कट्टों जैसी कोई किताब। मेरी नजरों में उभरे सवाल को ताड़ने में उन्हें देर नहीं लगी। लेकिन उनकी हिचकिचाहट बता रही थी कि वे कुछ कहने से अपने आप को रोक रही थीं। शायद मुझे बताना नहीं चाह रही थीं। ऐसे में उत्सुकता अपने आप ही बढ़ जाती है। मैंने अपनी गाड़ी साइड स्टैण्ड पर लगा दी और उनके पास इत्मीनान से खड़ा हो गया।
अब मैं मुखर था। मन मारकर उन्होंने जो कुछ बताया वह सुनकर मुझे कोई ताज्जुब नहीं हुआ। वे दोनों अवश्य असहज थीं। उन्हें शायद कल्पना नहीं रही होगी कि उन्हें इस काम के लिए, इस तरह, इस बस्ती में आना पड़ेगा और ऐसी उपेक्षा, अवहेलना और प्रताड़ना झेलनी पड़ेगी। निश्चय ही यह सब उन्हें मनोनुकूल नहीं लग रहा था और इसीलिए मुझे बताने में संकोच कर रही थीं।
दोनों एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में अध्यापिकाएँ हैं। विद्यालय का समय सुबह साढ़े दस बजे से शाम साढ़े चार बजे तक का है। विद्यालय में कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं। निरीक्षण के लिए किसी न किसी का आना रोज ही लगा रहता है। उस दिन उनका जन शिक्षक आया था। बच्चों की उपथिति बहुत ही कम थी। वह नाराज हो गया। तीनों को हड़काया - ‘कुछ नजर आता है कि नहीं? अकल घास चरने चली गई? बच्चे कहाँ हैं?’ तीनों ने स्पष्टीकरण देने की कोशिश की तो जन शिक्षक का गुस्सा और बढ़ गया। आदेशित करते हुए बोला कि एक अध्यापिका विद्यालय में रहे और बाकी दो अध्यापिकाएँ, घर-घर जाकर, बच्चों को लाएँ। सुनसान दोपहरी और गलियों में फैले सन्नाटे के चलते, अकेली जाने की हिम्मत दोनों में से किसी की नहीं हुई। सो दोनों, साथ-साथ, बच्चों के घर जा रही थीं और बच्चों से तथा पालकों से गुहार कर रही थी - ‘स्कूल चलो। बच्चों को स्कूल भेजो।’
जहाँ हम तीनों मिले थे, वह रेलवे पटरी के पास, सुभाष नगर की झुग्गी-झोंपड़ी बस्ती थी। चारों ओर सन्नाटा था। एक इसी झोंपड़ी में चहल-पहल थी। छत दुरुस्त करने में पूरा परिवार लगा हुआ था। दोनों बच्चे अपनी अध्यापिकाओं से आँखें चुराने की कोशिशों में बार-बार उनसे नजरें मिला रहे थे और झेंप कर गरदनें फेर रहे थे। मुखिया दोनों अध्यापिकाओं की ओर देख ही नहीं रहा था। मैंने उसे टोका तो तनिक नाराज होकर बोला - ‘बाबूजी! आप देख रहे हो! घर के हम सब के सब काम में लगे हुए हैं। आज हम दोनों धणी-लुगाई मजदूरी पर भी नहीं गए हैं। मैंने दोंनो मैडमजी से कहा कि आज बच्चे नहीं आएँगे। दोनों नहीं मान रही हैं। इन्होंने कहा कि इनकी नौकरी का सवाल है। तो मैंने भी कहा कि मेरी झोंपड़ी का सवाल है। आप मेरा काम करा दो, मैं आपका काम करा देता हूँ। मैं दोनों बच्चों को अभी स्कूल भेज देता हूँ। ये दोनों मेरे काम में मदद कर दें। इनकी नौकरी बच जाएगी और मेरी झोंपड़ी भी। दोनों का काम हो जाएगा। है कि नहीं?’
बात सुनते-सुनते ही मुझे समझ आ गई कि उसे इन दोनों अध्यापिकाओं की मजबूरी पता चल गई है। उसे यह भी पता चल गया है कि यदि उसके बच्चे स्कूल नहीं जाएँगे तो दोनों अध्यापिकाओं की नौकरी खतरे में भले ही न आए किन्तु दोनों को डाँट-फटकार जरूर सुननी पड़ेगी। हो सकता है, छात्र संख्या कम होने के कारण दोनों का तबादला किसी गाँव में हो जाए। वह यह भी जानता था कि दोनों शिक्षिकाएँ उसका प्रस्ताव कभी नहीं मानेंगी। फिर भी वह अपने प्रस्ताव पर जोर दे रहा था तो शायद इसी कारण कि वह इन दोनों के माध्यम से उन सबको खरी खोटी सुना रहा था जिन्हें वह अपनी इस दशा के लिए जिम्मेदार मानता है। लग रहा था, मानो उसे बदला लेने का, अपने मन की भड़ास निकालने का दुर्लभ अवसर मिल गया है। उसके शब्द तो सहज थे किन्तु उसके चेहरे पर छाई नफरत और लहजे से मूसलाधार बरसता हिंसक प्रतिशोध, उस सुनसान दोपहर और गली के सन्नाटे पर भारी पड़ रहा था।
दोनों अध्यापिकाओं का संकट मुझे तत्क्षण ही समझ में आ गया। एक झुग्गी-झोंपड़ीवाले के सामने अपनी इसी दशा को वे छुपाना चाह रही होंगी। झोंपड़ीस्वामी की बात पूरी होते ही, एक अध्यापिका की रुलाई छूट गई। दूसरी की आँखें डबडबा रही थीं। झोंपड़ीस्वामी कनखियों से सब देख रहा था और उसकी शकल पर अजीब सी तसल्ली या कि खुशी की परत चढ़ने लगी थी। मुझे उस पर गुस्सा नहीं आया। उसका बयान तो सही था किन्तु बेचारा नहीं जान रहा था कि उसकी इस दशा के लिए वे दोनों तो बिलकुल ही जिम्मेदार नहीं हैं जिन्हें वह यह सब सुना रहा था।
लेकिन यह अन्त नहीं है। अध्यापकों/अध्यापिकाओं को तो अभी और काफी-कुछ सहना पड़ेगा। शिवराज सरकार के हवाले से अखबारों में खबर है कि अब प्रत्येक अध्यपक/अध्यापिका को प्रति माह 5 नसबन्दियाँ करने का लद्वय दिया जा रहा है और जिस महीने में जितने ‘केस’ कम होंगे वे अगले महीने के लक्ष्य में जोड़ दिए जाएँगे।
साफ लग रहा है कि मध्य प्रदेश के मास्टरों/मास्टरनियों की दुर्दशा का चरम तो अभी बाकी है।
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जरूर आना मेरी शोक सभा में

जगत् की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए मरना आवश्यक है या मरने के बाद आदमी पूरी दुनिया के लिए प्रशंसनीय हो जाता है? मरने के बाद जिसकी प्रशंसा में हमारे गले रुँध जाते हैं और वाणी विगलित हो जाती है, उसके जीते जी, हम उसकी प्रशंसा, अभिनन्दन क्यों नहीं करते? ये और ऐसी ही कुछ बातें मेरा पीछा कर रही थीं जब मैं स्वर्गीय सरदार हरदयालसिंहजी वाधवा की शोक-सभा से लौट रहा था।
हरदयालसिंहजी के बारे में काफी कुछ कह सकता हूँ और वह सब कहने के बाद भी काफी कुछ कहने को रह जाएगा। इसलिए इतना ही कि उनकी मृत्यु से वे लोग भी प्रभावित हुए जो उन्हें नहीं जानते थे और वे भी जिन्हें हरदयालसिंहजी भी नहीं जानते थे।
किसी भी व्यक्ति के प्रति पूर्णतः निरपेक्ष होकर सोच पाना हमारे लिए न तो सम्भव है और न ही ऐसा करने की हमारी इच्छा ही होती है। अपने साथ किए गए उपकारों को याद रखने में हमारी नानी मरती है जबकि कटु व्यवहार को हम सपने में भी नहीं भूल पाते। यह अनुपात सौ और एक का भी हो तो सदैव ही सौ पर एक भारी पड़ता है। सामनेवाले ने हमारे बताए सौ काम कर दिए और एक नहीं किया तो हम उस एक को ही याद करते हैं और उसीके लिए सामनेवाले को कोसेंगे।
किसी का अपने से बेहतर होना भी हमें कम ही रास आता है। ऐसे बेहतरों के सामने हम, चाहें न चाहें, हीनता बोध से ग्रस्त हो ही जाते हैं जिसे छुपाने के लिए श्रेष्ठता बोध प्रकट करने की मूर्खतापूर्ण चेष्टा करते हैं जो अन्ततः हमारे हीनता बोध का ही प्रकटीकरण होता है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि अपने से बेहतर की प्रशंसा करने का साहस हम नहीं जुटा पाते। हमें लगता है कि सामनेवाले की प्रशंसा करने में हमारी हेठी हो जाएगी, हम छोटे हो जाएँगे।
यह भी होता है कि किसी का हमारे साथ रहना, हमारे आसपास होना भी हमें उसकी प्रशंसा करने से रोकता है क्योंकि हमें उसकी अनेक कमजोरियों, कमियों की जानकारी होती है - बिलकुल पति-पत्नी की तरह। अपने साथ, अपने आसपास रहनेवाले की अच्छाइयाँ हमें याद नहीं रह पाती हैं। इसलिए जब किसी अपनेवाले की प्रशंसा कोई अनजान, अपरिचित, पराया करता है तो हमारी आँखें फैल जाती हैं और हम ‘आप उसे नहीं जानते। हमसे पूछो क्यों कि हम भुगत रहे हैं’ जैसे जुमले कह कर अपनी झेंप मिटाते हैं। हमारे बच्चे इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। हमारे बच्चे हमारा बताया काम टाल जाते हैं जबकि पड़ौस वाले अंकल/आण्टी द्वारा बताया वही काम दौड़ कर करते हैं। कारण - जिस काम के लिए हम अपने बच्चों की झूठी प्रशंसा भी नहीं करते उसी काम के लिए अंकल/आण्टी उनकी तारीफों के पुल बाँध देते हैं।
लेकिन यही बात अन्तिम सच नहीं है। सिक्के का दूसरा पहलू भी तो होता है! ऐसा भी होता है कि अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट भूमिका निभानेवाले व्यक्ति अपने व्यक्तिगत आचरण में अत्यन्त निकृष्ट होते हैं। मैं मालवा के ऐसे रचनाकार को जानता हूँ जिनके उल्लेख के बिना समकालीन हिन्दी कविता का इतिहास अधूरा रहेगा। किन्तु व्यक्ति के रूप में वे निहायत ही घटिया हैं। सामनेवाले पर हावी होने, उसे नीचा दिखाने में उन्हें स्वर्गीय सुख मिलता है। उन्हें किसी आयोजन में मुख्य अतिथि या अध्यक्ष के रूप में आमन्त्रित करने पर वे वाहन तथा सम्मान की माँग करने में चौथे दर्जे के घटिया अंग्रेज अफसर को भी पीछे छोड़ देते हैं। लोग उन्हें ‘उत्कृष्ट रचनाकार और निकृष्ट व्यक्ति’ निरुपित करते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर अपने नगर को पहचान दिलानेवाले एक प्रखरवक्ता को अपने नगर से बाहर ही सम्मान मिलता है। अपनी गली में कोई उनसे बात करना पसन्द नहीं करता। अपने पड़ौसियों को वे तुच्छ, हेय, कीड़े-मकोड़ों की तरह देखते और व्यवहार करते हैं। सवा घण्टे के अपने व्याख्यान में पौन घण्टा खुद पर ही बोलते हैं और शेष आधे घण्टे में अपने विरोधियों को निपटाते हैं। उनके नगर के एक परिचित से जब मैंने इन प्रखर वक्ता की प्रशंसा कर उन्हें ‘आपके नगर का गौरव’ कहा तो परिचित बोले - ‘आप उन्हें अपने साथ रतलाम ले जाईए। वहीं बसा लीजिए।’
लेकिन मरने के बाद ये सारी बातें गौण हो जाती हैं। जो रहा ही नहीं, उससे कैसी दुश्मनी और कैसा बैर भाव? इसी ‘भारतीय संस्कारशीलता’ के चलते हम निकृष्ट की भी प्रशसंा करते हैं और अपने हीनता बोध के कारण, उत्कृष्ट की जीते जी प्रशंसा नहीं करते।
निष्कर्ष पर पहुँचते-पहुँचते मुझे राहत तो मिलने लगी किन्तु अपनी गरेबान में झाँकते ही
घबराहट होने लगी। मेरे मरने के बाद मेरे बारे में क्या कहा जाएगा? फब्तियाँ कसने, उपहास करने, पत्थर-मार जवाब देने, नीम जबान से पलटवार करने के सिवाय मैंने अब तक और किया ही क्या है? अपनी ही खिल्ली उड़ाते हुए विचार आया - जैसे कुछ लोग जीते-जी अपना मृत्यु भोज करते हैं, उसी तरह क्यों न मैं, अपनी शोक सभा करवा लूँ? इसी क्षण टेलीफोन घनघनाया। इन्दौर से सरोज भाई (प्रो. सरोज कुमार) बोल रहे थे। ‘कचंन को कसौटी से भय’ आलेख के लिए पीठ भी थपथपा रहे थे और उसमें किए गए व्यर्थ उल्लेखों पर अप्रसन्नता भी जता रहे थे। (यह आलेख ‘उपग्रह’ में प्रकाशित हुआ था जिसके कुछ अंश मैंने यहाँ हटा दिए हैं। सरोज भाई उन्हीं अंशों पर मुझे हड़का रहे थे।) बातों ही बातों में मैंने अपनी शोक सभावाली बात कही तो बोले - ‘अपना फैक्स नम्बर दो। मेरी एक कविता तुम्हें भेजता हूँ जो तुम्हारे इस विचार में सहायक होगी।’
‘मरणोपरान्त’ शीर्षकवाली, ‘गागर में सागर’ या कि ‘सतसैया के दोहरे’ को चरितार्थ करनेवाली यह कविता, वह सब कुछ कह देती है जो मैं यह पूरी रामायण बाँचने के बाद भी नहीं कह पाया -

‘तुम जरूर आना मेरी शोक-सभा में,
मेरे शोक के लिए नहीं,
तो अपने किसी शौक के बतौर।
तुम्हें मजा आएगा मेरी शोक-सभा में,
जैसा मुझे आता रहा है ऐसे अवसरों पर।
शादी-ब्याह के जलसे और
शोक-सभाएँ अगर न हों
तो लोग तरस जाएँ,
मिलने-जुलने-बतियाने को।
तुम जरूर आना मेरी शोक-सभा में,
तभी मैं इत्मीनान से मर सकूँगा।
क्या तुम नहीं चाहोगे कि वह शख्स
इत्मीनान से मर तो सके,
जो इत्मीनान से जिन्दा रहना चाहता था?
तुम नहीं आए तो, शोक
साकार नहीं हो पाएगा सभा में,
शोक से ज्यादा जरूरी है शाक-सभा,
शोक तो घर-घर के मना लेंगे
पर सभा असम्भव है तुम्हारे बिना।
एक ही तो बची है अब जगह
जहाँ इंसान अपने बारे में
इतने सारों के बीच
अपनी तारीफ के
दो शब्द सुन पाता है,
मरणोपरान्त ही सही।
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कंचन को कसौटी से भय ?

मध्‍य प्रदेश सरकार के बाबुओं (कर्मचारियों) का यह विरोध मुझे अनुचित और चकित करने वाला ही नहीं, उनके अपराध-बोध की स्वीकृती भी लगा।
बाबुओं द्वारा काम न करने, और फाइलों को दबाकर बैठ जाने की शिकायतों की बढ़ती संख्या को देख सरकार ने बाबुओं का परफारमेन्स ब्यौरा (याने किस बाबू ने दिन भर में कौन सा और कितना काम किया) लेने का निर्णय लिया है।
प्रदेश के मुख्य सचिव द्वारा गत दिनों कराए गए विभिन्न विभागों के निरीक्षण के दौरान यह तथ्य सामने आया कि प्रत्येक विभाग में फाइलों का अम्बार लगा हुआ है। ये सारी फाइलें अन्ततः जनसमान्य के ही कामों से जुड़ी हैं। इसलिए सरकार ने अनुविभागीय स्तर तक के अधिकारियों को निर्देश दिए कि वे अपने अधीनस्थों से प्रतिमाह उनके (बाबुओं) द्वारा किए गए कामों का ब्यौरा लें। अब बाबुओं को बताना होगा कि उन्हें मुख्यमन्त्री या/और मन्त्रियों-अधिकारियों सहित अन्य व्यक्तियों/राजनेताओं से कितने पत्र मिले, कितने पत्र निपटाए, इस सबके बीच कोई विशेष काम किया हो आदि-आदि।
इसके समानान्तर ही अधिकारियों से कहा गया है कि वे तलाश करें कि बाबुओं को नियमों की जानकारी है या नहीं, वे नियमों का पालन करते हैं या नहीं, उन्हें प्रकरणों की समीक्षा करना आता है या नहीं, मामले को निपटाने में वे कितना समय लेते हैं, उन्हें फाइल बनाना आता है या नहीं, वे कार्यालय में कितना समय काम करते हैं, सहकर्मियों के साथ उनका व्यवहार कैसा है, उनकी टाइपिंग गति क्या है आदि-आदि।
अपनी जन-छवि और सुपरिचित ‘बाबू मानसिकता’ के अधीन, कर्मचारी संगठनों ने सरकार की इस इच्छा का विरोध किया। यहाँ तक तो ठीक था किन्तु बाबुओं ने इसे ‘सरकार द्वारा अपने ही कर्मचारियों की योग्यता पर सन्देह’ माना तो मुझे आश्चर्य हुआ। इस सबमें मुझे न तो कर्मचारियों की योग्यता पर सन्देह लगा और न ही सरकार की कोई अपेक्षा अनुचित-अनावश्यक लगी। कर्मचारियों की यह प्रतिक्रिया मुझे ‘विरोध के लिए विरोध’ तो लगी ही, मुझे यह उनके ‘अपराध बोध की स्वीकृती’ भी लगी - जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा।
यदि आप काम करते हैं तो उसका ब्यौरा देने में क्या कठिनाई ? क्या आपत्ति ? आपत्ति क्यों ? इसके प्रतिकूल, आपको तो खुश होना चाहिए कि आपको आपकी मेहनत साबित करने का सुअवसर मिल रहा है। हमारे कर्मचारी मित्रों की यही तो शिकायत रहती है कि उनकी मेहनत का मूल्यांकन कोई नहीं करता ? सरकार की इस इच्छा को कर्मचारियों की योग्यता पर सन्देह मानने का कोई कारण मुझे अनुभव नहीं होता। यदि आप योग्य हैं तो आपको तो सरकार की इस इच्छा को चुनौती की तरह लेकर सरकार की मंशा को झूठा, अनावश्यक साबित कर, धूल चटा देनी चाहिए ? कर्मचारियों की प्रतिक्रिया और व्यवहार ऐसा लग रहा है मानो कंचन को कसौटी पर परखे जाने से भय लग रहा है।

कर्मचारियों की कमी का तर्क समझा और स्वीकारा भी जा सकता है। किन्तु इसे योग्यता से कैसे जोड़ा जा सकता है ? कर्मचारियों की कमी दूर करने के लिए आन्दोलन किया जा सकता है किन्तु उसका स्वरूप ऐसा हो कि आम लोगों को सजा न भुगतना पड़े। अभी हो यह रहा है कि कर्मचारियों को शिकायत तो होती है अधिकारियों से किन्तु इसकी सजा वे उस आम आदमी को देते हैं जो कर्मचारियों के वेतन का भुगतान करता है।
कर्मचारी मित्रों को वे तमाम बातें स्वीकार करने का साहस बरतना चाहिए जो वे भली प्रकार जानते हैं। आम आदमी के बीच उनकी छवि बहुत अच्छी नहीं है। यह विचित्र विसंगति और विरोधाभास है कि कर्मचारियों को जिन अधिकारियों से शिकायत होती हैं उनक सारे उचित-अनुचित काम वे (कर्मचारी) सबसे पहले निपटाते हैं और टैक्स चुकाने वाला आम आदमी उपेक्षित - प्रताड़ित होता है। होना तो यह चाहिए कि कर्मचारी अधिकाधिक जन-समर्थन, जन-सहानुभूति अर्जित करें क्योंकि दोनों (नागरिकों और कर्मचारियों) का शत्रु एक ही है- अधिकारी वर्ग। ऐसे में ‘दुश्मन का दुश्मन, अपना दोस्त’ वाली रणनीति प्रत्येक समझदार आदमी अपनाता है। किन्तु हमारे कर्मचारी ऐसा न कर दोहरा आश्चर्य उपस्थित करते हैं- वे अधिकारियों की सबसे बड़ी ताकत भी बनते हैं और टैक्स चुकाने वाले आम आदमी की उपेक्षा, अवहेलना भी करते हैं। फलस्वरूप उन्हें एक की प्रताड़ना और दूसरे की नफरत झेलनी पड़ती है।

भ्रष्टाचार से अब किसी को परहेज नहीं रह गया है। यह तो अब ‘संस्था’ हो गया है। इसइिए कर्मचारियों की रिश्वतखोरी पर किसी को न तो शिकायत होती है और न ही अचरज। ये तो वैसे भी बहुत-बहुत छोटी मछलियाँ हैं। भारतीय मगरमच्छों के करिश्मे सारी दुनिया देख रही है। किन्तु जिस ‘आम आदमी’ के लिए आप बैठाए गए हैं वही आम आदमी आपके लिए प्रतीक्षा करे, आपके लिए चक्कर काटे, भिखारी की तरह आपके सामने गिड़गिड़ाए यह सब न तो शोभनीय है, न स्वीकार्य और न ही क्षम्य।
चुनौती का जवाब भय से उपजा पलायन नहीं होता। प्रत्यारोप तो बिल्कुल ही नहीं। कंचन यदि कसौटी से परहेज करे, भयभीत हो तो लोग कंचन पर ही सन्देह करेंगे।
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कांग्रेस के बाल ठाकरे


चिदम्बरम के वक्तव्य पर गुस्सा मत कीजिए। उन पर दया भी मत कीजिए। सहानुभूति तो बिलकुल ही मत जताईए। वे अपना अपराध स्वीकार तो कर रहे हैं? और अपराध ही स्वीकार नहीं कर रहे! अपनी और अपनी पुलिस की अकर्मण्यता और विफलता को भी स्वीकार कर रहे हैं।

नासमझ लोगों के साथ यही दिक्कत है। असाहित्यिक नासमझों के साथ यह दिक्कत कई गुना हो जाती है। वे केवल लिखे, छपे, बोले शब्दों को ही पकड़ते हैं। जो नहीं लिखा गया है, जो छापा नहीं गया है और जो नहीं बोला गया है उसे समझने के लिए ये नासमझ क्षण भर की भी मेहनत नहीं करना चाहते। ये लोग अपने प्रेमी या प्रमिका से भी पत्थरमार शैली में ही ‘आई लव यू’ सुनना चाहते हैं। नफासत बरतना और नाजुक मिजाजी से बात करना-सुनना बिलकुल नहीं जानते।

चिदम्बरम की बातों को समझने के लिए पहले यह शेर पढ़ें और समझने की कोशिश करें। यदि समझ लेंगे तो चिदम्बर पर बरसने के बजाया उनकी पीठ थपथपाएँगे -

जिन्हें हम कह नहीं सकते, जिन्हें तुम सुन नहीं सकते।
वही कहने की बाते हैं, वही सुनने की बातें हैं।

लेकिन जो लोग चिदम्बर के शब्दों को पकड़े बैठ गए हैं, उनसे क्या उम्मीद करना? चलिए, पत्थर मार शैली में ही सुन लीजिए।

चिदम्बर साफ कह रहे हैं कि उन्हें खूब पता है कि दिल्ली में अपराध कौन कर रहे हैं। दिल्ली में हो रहे अपराधों के लिए दिल्लीवाले जवाबदार नहीं हैं। दिल्लीवाले तो निरपराध हैं। ये तो दिल्ली से बाहरवाले हैं जो दिल्ली में लूटमार और मारकाट मचाए हुए हैं। चिदम्बरम यह भी कह रहे हैं कि इन अपराधियों के रहने की जगहें भी उन्हें मालूम हैं। ये सारे अपराधी, अवैध झुग्गी-झोंपड़ियों में रहते हैं। झुग्गी-झोंपड़ियों की बात कह कर चिदम्बरम ने यह भी कह दिया है कि अन्य प्रान्तों से आकर सम्भ्रान्त बस्तियों में बस जानेवालों पर नजरें न डाली जाएँ। याने, कम से कम चिदम्बरम पर तो नजर नहीं ही डाली जाए। हालाँकि उनके वक्तव्य के लिए नादान, नासमझ लोग चिदम्बरम को ही अपराधी करार देने पर तुले हुए हैं। नहीं, चिदम्बर अपराधी नहीं हैं। दिल्ली सरकार या दिल्ली नगर निगम या दिल्ली महा नगर पालिका का रेकार्ड उठाकर देख लो - झुग्गी-झोंपड़ीवाली किसी भी बस्ती में चिदम्बरम के नाम की झुग्गी या झोंपड़ी नहीं मिलेगी। अपना पक्का दावा।

यह वक्तव्य देकर चिदम्बर ने महाराष्ट्र में नए राजनीतिक समीकरण के रास्ते भी खोल दिए हैं। वहाँ की, अपने मर्द-मराठा शरद पँवार वाली एनसीपी, जब जी चाहे, यूपीए सरकार को हिला देने के लिए कांग्रेस को आँखें दिखाने लगती है। बिलकुल उसी तरह जिस तरह गरीब की जोरु को भौजाई कह कर कोई भी मनचला छेड़ देता है। चिदम्बरम ने इशारा नहीं किया, साफ-साफ कह दिया है कि जो काम मुम्बई में बाल ठाकरे कर रहे हैं, वही काम कांग्रेस अब दिल्ली में करेगी। जाहिर है, महाराष्ट्र में कांग्रेस और शिवसेना में दूरी कम होगी तो मर्द-मराठा वाली एनसीपी की रातों की निंदिया और दिन का चैन छिन जाएगा। राजनेता निर्जीव होकर रह लेगा। कुर्सी के बिना नहीं रह सकता। सो, चिदम्बरम ने कांग्रेस में ‘बाल ठाकरे शैली’ की शुरुआत कर, यूपीए की नींव पक्की करने का नेक काम भी कर दिया है।

इसलिए चिदम्बरम के वक्तव्य पर गुस्सा मत कीजिए। उन पर दया भी मत कीजिए। सहानुभूति तो बिलकुल ही मत जताईए। सवाल उठाना है तो पूछिए कि जब सब कुछ चिदम्बरम को मालूम है तो उनकी पुलिस अपराधियों को पकडती क्यों नहीं? लेकिन यह टुच्चा सवाल करने से पहले खूब सोच लीजिएगा। चिदम्बरम के पास इसका दो-टूक, पत्थरमार शैली में जवाब तैयार है - दिल्ली पुलिस राजनीतिक अपराधियों की सुरक्षा में लगी हुई है। उनसे फुर्सत मिलेगी तो आपके सवाल का जवाब देने पर विचार करेगी।

सो, अपने आप को नासमझों, नादानों की जमात में शामिल मत कीजिए। चुप रहकर चिदम्बरम को सुनिए। उनकी साफगोई की दाद दीजिए, अपनी विफलता की साहित्यिक स्वीकृती के लिए उनकी सराहना कीजिए और उनसे सहमत हो जाईए।
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मिलना अपने ‘बीमा उस्ताद’ से - 2


26 नवम्बर की पूर्वाह्न लगभग साढ़े ग्यारह बजे जब हम नोएडा के बॉटनीकल गार्डन स्टेशन पर उतरे तो मेरे सहयात्री तीनों एजेण्टों डॉक्टर जानकीलाल पाटीदार, राधेश्याम राठौर और रमेश पांचाल को मेरे मन की बात मालूम नहीं थी। स्टेशन से निकल कर हम लोग जैसे ही सड़क पर पहुँचे, मैंने कहा - ‘साहनी साहब यहीं, नोएडा में कहीं रहते हैं। मैं तो उनसे मिलूँगा। आप तीनों एक्सपो सेण्टर पहुँचो।’ (भा. जी. बी. नि. के अध्यक्ष द्वारा, अभिकर्ताओं हेतु गठिक क्लब के सदस्य अभिकर्ताओं का अधिवेशन वहीं हो रहा था। हम चारों को उसमें भाग नहीं लेना था। हमें तो बस, ‘मेले की मौज’ लेने के लिए वहाँ जाना था।) सुनकर जानकीलालजी और राधेश्याम ऐसे भड़क मानो मैंने उनकी बेइज्जती कर दी हो। जानकीलालजी बोले - ‘आपने ऐसा कैसे कह दिया? साहनी साहब से तो हम भी मिलेंगे।’ रमेश ने भी दोनों की हाँ में हाँ मिलाई। वस्तुतः, जानकीलालजी और राधेश्याम, पुराने (मुझसे वरिष्ठ) एजेण्ट हैं-साहनी साहब के रतलाम आने से पहले से ही। वे शाखा क्रमांक-1 से, अपने विकास अधिकारी के साथ, शाखा क्रमांक-2 से सम्बद्ध किए गए थे और इस तरह, साहनी साहब के आने से पहले ही नई शाखा के एजेण्ट बने हुए थे। रमेश की एजेन्सी, साहनी साहब के स्थानान्तर के बाद की है। उसने साहनी साहब के बारे में सुना ही सुना था, उन्हें देखा कभी नहीं था। किन्तु शायद सुन-सुन कर ही उसे, साहनी साहब से मिलने की जिज्ञासा हुई होगी। मेरी इच्छा में तीनों की इच्छा समाहित जानकर मेरा उत्साह और खुशी दुगुनी हो गई।

सेक्टर 62 स्थित एक्सपो सेण्टर पहुँचने के लिए भाव-ताव कर ऑटो रिक्शा में बैठे। मुझे इतना ही पता था कि साहनी साहब नोएडा में हैं। बस। अता-पता मुँह जबानी याद नहीं था। ऑटो में ही मैंने अपनी, टेलीफोन नम्बर और पतेवाली डायरी खोली तो देखकर उछल पड़ा। साहनी साहब भी सेक्टर 62 में ही थे। उन्हें फोन लगाया और सारी बात बताई तो उन्होंने फोन पर ही जो गर्मजोशी जताई, वह अकल्पनीय और अवर्णनीय रही। लगा, साहनी साहब अभी फोन में ही हाथ बढ़ा देंगे। उनके स्वरों में व्याप्त आतुरता कह रही थी - लगी हुई है आग दोनों तरफ बराबर।

चूँकि नोएडा हम लोगों के लिए दूसरी ही दुनिया था और जैसा कि साहनी साहब ने बताया, उनकी दिनचर्या भी अभी पूरी नहीं हुई थी, इसलिए तय हुआ कि हम सीधे एक्सपो सेण्टर पहुँचें। साहनी साहब वहीं से हम लोगों को ले लेंगे।

एक्सपो सेण्टर तक के लिए ऑटो रिक्शावाले ने जब हमसे एक सौ रुपये ठहराए थे तब हमें लगा था कि उसने हमें लूट लिया है। लेकिन गन्तव्य पर पहुँचने से पहले ही हमें लगने लगा कि ऑटोवाले ने वाजिब से भी कम दाम लिए हैं। जी तो किया कि उसे कुछ अधिक भगुतान किया जाए किन्तु बुद्धि ने विवेक को, बिजली से भी तेज गति से ढाँप दिया।

एक्सपो सेण्टर पर अच्छी खासी चहल पहल थी। हमने अधिवेशन हॉल के बजाय प्रथम तलवाले हॉल का रुख किया। एजेण्टों के लिए औजार (साफ्टवेयर) उपलब्ध करानेवाली कम्पनियों के स्टॉल वहीं लगे थे। हमें उन्हीं का जायजा लेना था और यदि कोई परिचित मिल जाएँ तो उनसे ‘हैलो-हाय’ करना था। औजारोंवाली कम्पनियाँ प्रायः सब पुरानी और परिचित ही थीं। दो-एक स्टालों पर परिचित विक्रेता मिले और कुछ परिचित अभिकर्ता भी। हमारे लिए वहाँ न तो कोई आकर्षण नजर आ रहा था और न ही कोई परिचित। इसी क्षण साहनी साहब ने फोन पर पुकारा। वे मुख्य द्वार पर प्रतीक्षारत थे। हम तेजी से पहुँचे।

साहनी साहब को देख कर मैं ठगा सा रहा गया। वे मुख्य द्वारा पर, अपनी कार के सामने खड़े थे। उनमें तनिक भी अन्तर अनुभव नहीं हो रहा था। बिलकुल वैसे के वैसे थे जैसे जुलाई 93 में विदा हुए थे। लगता था, उन्होंने आयु और समय के प्रभाव को परे धकेल दिया था। वही ताजगी, वही ललछौंहा गोरा-चिट्टा प्रसन्न वदन। मुहावरों में कहूँ तो उन्होंने एक ग्राम वजन भी नहीं बढ़ने दिया था। उनके सामने अपनी थुलथुल काया से मुझे शर्म हो आई। मुझे ठगा देखकर वे हँसे और भरपूर गर्मजोशी से मुझे बाँहों में भर लिया। उस क्षण का आनन्द जता पाना मेरे लिए उतना ही कठिन है जितना गूँगे से गुड़ का स्वाद का बखान सुनना। एक ही शब्द है - आनन्द। न कोई रिश्ता-नाता, न कोई स्वार्थ, न कोई काम-काज। हम दोनों एक दूसरे के लिए शायद ही उपयोगी हों। फिर वह क्या था जिसने यह जुड़ाव पैदा कर दिया? उस उदृश्य धागे को कोई नाम दे पाना मेरे लिए न तब मुमकिन था न ही अब।

कुछ ही पलों में हम अपने में लौटे। उन्होंने जानकीलालजी, राधेश्याम और रमेश से मिलनी की, उनके हालचाल पूछे और कहा - ‘बैठिए। सारी बातें कर लेंगे। अभी तो बैठिए।’

गाड़ी में बैठते ही बोले - ‘पहले अपना प्रोग्राम बताईए।’ मैंने कहा - ‘आपके साथ एक प्याला चाय पीना और आपसे गपियाना।’ वे हँस दिए। बोले - ‘चाय आपको घर पर नहीं, यहीं पिलाऊँगा।’ कह कर गाड़ी मुख्य सड़क से उतार दी और थोड़ी ही दूर, सेक्टर 63 में, ‘हल्दीराम’ के आगे रोक दी। बोले - ‘चाय यहीं पीएँगे।’ लेकिन उन्होंने मात्र चाय नहीं पिलाई। हल्दीराम का रेस्टोरेण्ट हो और केवल चाय? वह भी तब साहनी साहब से बरसों बाद मिलना हो रहा हो? हम चारों से अलग-अलग पूछा - ‘क्या लेंगे?’ साहनी साहब हमें सीधे घर ले जाने के बजाय रेस्टोरेण्ट में लाए हैं, इसे मैंने संकेत के रूप में लिया और कहा - ‘ये तीनों जो चाहें लेकिन मैं तो छोले भटूरे लूँगा।’ राधेश्याम थोड़ा कुनमुनाया लेकिन साफ-साफ बोला कुछ नहीं। साहनी साहब ने मेरी ओर प्रशंसा भरी नजर से देखा और बोले - ‘आपका फैसला सही भी और टाइमली भी। छोले भटूरे यहाँ की सबसे अच्छी डिश है और यह समय भी कुछ चखने का नहीं, कुछ खाने का है। छोले भटूरे, भोजन का काम करेंगे।’ वे उठे और काउण्टर पर जाकर बड़ी देर तक पूछताछ कर, आर्डर देकर लौटे।

रेस्त्राँ भव्य भी था और साफ-सफाई के मामले में पहली ही नजर में प्रभावित करनेवाला भी। मैंने पहली बार किसी रेस्त्राँ में कर्मचारियों को दस्ताने पहन कर सामान लाते, लेते-देते देखा। रेस्त्राँ में उस समय हम तीस पैंतीस लोग रहे होंगे लेकिन शोरगुल बिलकुल ही नहीं था। मैंने देखा, ग्राहक अपना सामान खुद ला रहे थे। याने कि व्यवस्था ‘स्वयम् सेवा’ वाली थी। लेकिन साहनी साहब जिस इत्मीनान से बैठे थे, उससे साफ लग रहा था कि वे इस रेस्त्राँ के नियमित ग्राहक हैं और उनके आर्डर का सामान कर्मचारी लाएँगे। लेकिन रेस्त्राँ में भीड़ बढ़ने लगी थी। दोपहर के भोजन की छुट्टी का समय हो गया था और आसपास के दफ्तरों में काम करनेवाले नौजवान कर्मचारियों की भीड़ बढ़ने लगी थी। एलआईसी के ऐजण्ट बड़ी संख्या में पहले से ही वहाँ बैठे थे। सामान आने में देर होती देख साहनी साहब उठे तो मैंने रमेश को सहायता के लिए कहा। प्रत्युत्तर में रमेश के साथ राधेश्याम भी उठा। दोनों ने साहनी साहब को रुकने को कहा तो साहनी साहब बोले - ‘स्टाफवाले तुम दोनों को नहीं जानते।’ वे भी साथ गए और दो मिनिटों में चार प्लेट छोले भटूरे ले आए। मैंने साहनी साहब की ओर सवालिया नजरों से देखा तो बोले - ‘मेरा आर्डर आ रहा है।’ उन्होंने अपने लिए लहसुन के जायकेवाली चीज-ब्रेड मँगवाई थी जो उन्होंने खुद तो कम खाई, चखने के नाम पर हम लोगों को ज्यादा खिलाई। मालवा के मिजाज को भाँप कर उन्होंने गरम-गरम जलेबियाँ भी मँगवाई तो जानकीलालजी, राधेश्याम और रमेश की तो मानो मनोकमना ही पूरी हो गई। मैंने 31 मार्च तक के लिए मिठाई बन्द कर रखी है। सो, तीनों ने जलेबियाँ ‘सूँत’ कर खाईं। साहनी साहब ने केवल चखीं।

अल्पाहार के नाम पर भर पेट खाकर हम लोग चाय की प्रतीक्षा करने लगे। देर होती देख मुझे लगा कुछ गड़बड़ हो रही है। साहनी साहब से पूछा तो हड़बड़ा कर बोले - ‘अरे! यह आप लोगों से मिलने का असर हुआ कि मैं चाय भूल ही गया। अच्छा हुआ जो आपने याद दिला दिया।’ और फटाफट अपनी जेब से चाय के कूपन निकाल कर कर्मचारी को दिए।

खा-पी कर हम लोग बाहर निकले। साहनी साहब ने पूछा - ‘अब क्या कार्यक्रम है?’ मैंने कहा - ‘आपसे मिलना था और आपके साथ एक प्याला चाय पीनी थी। दोनों काम हो गए। अब आप हमें निकटतम मेट्रो स्टेशन बता दीजिए और ऐसी जगह छोड़ दीजिए जहाँ से स्टेशन जाने के लिए वाहन मिल सकें।’ साहनी साहब ने मुझे ऐसे घूरा जैसे किसी ‘एलीयन’ को देख रहे हों। मेरी बुद्धि पर तरस खाते हुए और लगभग हड़काते हुए बोले - ‘मेट्रो तो आपको सेक्टर 32 से मिलेगी लेकिन आपने यह कैसे कह दिया कि मैं आपको रास्ते में कहीं छोड़ दूँ? मैं आपको स्टेशन पर ही छोड़ूँगा।’ कह कर गाड़ी की गति बढ़ा दी। वे हमें नोएडा के बारे में बता रहे थे और हम चारों चुपचाप बैठे उन्हें सुन-देख रहे थे। थोड़ी ही देर में उन्होंने कार सर्विस रोड़ पर उतार दी। मुझे लगा, स्टेशन आ गया है। लेकिन ऐसा नहीं था। साहनी साहब बोले - ‘आपको मेरा घर तो दिखा दूँ।’ और अगले ही मिनिट हम लोग ‘जीवन आश्रय सोसायटी’ में प्रवेश कर रहे थे।

चार खण्डों वाली इस विशाल सोसायटी के बी खण्ड में साहनी साहब निवास करते हैं। दरवाजा शशि भाभी ने खोला। वे पहली ही नजर में अस्वस्थ लगीं। कुशल क्षेम की औपचारिकता में इस बात की पुष्टि भी हो गई। घुटने उन्हें परेशान करते हैं, चलने-फिरने में बाधा खड़ी करते हैं। किन्तु तसल्ली की बात यही थी कि उनकी खुश मिजाजी जस की तस बनी हुई थी।

घर में उनकी परिचारिका थी। बेटा सौरभ और बहू सोनालिका अपनी-अपनी नौकरी पर गए हुए थे। सौरभ नोएडा में ही और बहू दिल्ली में नौकरी करती है। साहनी साहब का पोता ऋजुल सोया हुआ था। हमारे बैठते ही शशि भाभी ने चाय की मनुहार की तो साहनी सहब ने ही मना कर दिया कि सीधे चाय पीकर ही तो आ रहे हैं! हमसे बोले - ‘आईए! आपको हमारा फ्लेट दिखाऊँ।’ उन्होंने अपना फ्लेट ऐसे और इतने चाव से दिखाया मानो उनकी गृहस्थी अभी-अभी ही बसी है। उनका ‘चूजी’ और ‘स्टाइलिश’ होना, घर के कण-कण से प्रकट हो रहा था। उन्होंने एक फ्लट में डेड़ फ्लेट की जगह निकालने का करिश्मा किया हुआ था। आप-हम आलमारी में कपड़े टाँगने की व्यवस्था करते हैं। लेकिन साहनी साहब ने आड़े खाँचे बनवा कर, प्रेस किए कपड़े रखे हुए थे। स्नानागार में पंखे देख कर मुझे ताज्जुब हुआ। साहनी साहब ने बताया कि वहाँ सब घरों के स्नानागारों में पंखें मिलेंगे क्योंकि गर्मी इतनी तेज होती है कि स्नान कर, बदन पोंछते-पोंछते ही पूरा शरीर पसीने से भीग जाता है। मुझे अपना कैमरा खराब होने का बहुत दुःख हुआ।

मुझे लगा था कि घर दिखाना एक खानापूर्ति मात्र होगा। किन्तु साहनी साहब खुद ‘धम्म’ से बैठ गए, हम चारों को भी बैठा दिया और शुरु हो गए। बातें शुरु हुईं तो हम दो पक्ष बन गए। साहनी साहब एक पक्ष और हम चारों दूसरा पक्ष। वे बीमे की बातें किए जा रहे थे और हम चारों उनके बारे में बात करने की कोशिशें कर रहे थे। स्थिति यह हो गई कि मुझे दहशत होने लगी। लगा, साहनी साहब अभी कह देंगे - ‘आज कितने बीमे लाए?’ उन्हानें हमारी कोशिशें नाकाम कर दीं। हममें से प्रत्येक से हमारे कामकाज के बारे में विस्तार से जानकारी इस तरह से और इतनी जानकारी ली मानो खातरी कर रहे हों कि उनके तबादले के बाद हम लागों ने कहीं बीमा करना बन्द तो नहीं कर दिया? यह विचित्र स्थिति थी। वे सेवा निवृत्त हो चुके थे और उम्मीद की जाती है कि ऐसी स्थिति में आदमी अपने बारे में ही अधिकाधिक बातें करना पसन्द करे। इसके विपरीत वे (सेवा निवृत्त होकर भी) हमारी और हमारे धन्धे की चिन्ता किए जा रहे थे और हम थे कि बीमे के धन्धे में होते हुए भी इसकी बातों से बचना चाह रहे थे! मैंने सामने तो कुछ नहीं कहा किन्तु मन ही मन कहता रहा - ‘साहनी साहब! आप सचमुच में बीमा-उस्ताद हैं।’

बातों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था। अचानक ही शशि भाभी से बोले - ‘भई शशि! तुमने पूछा था तो मैंने मना कर दिया था। लेकिन अब हमें चाय पिला दो।’ और शशि भाभी ऐसे उठीं मानो या तो वे इस बात का इन्तजार कर रही थीं या उन्हें पता था कि साहनी साहब ऐसा कहेंगे ही। वे जिस तेजी से चाय लेकर आईं तो लगा, मानो चाय तैयार रखी हुई थी।

हम लोग चाय पी ही रहे थे कि ऋजुल उठ गया। शशि भाभी उसकी सेवा में लग गईं। मुझे लगा था कि नींद से उठते ही ऋजुल रोना शुरु कर देगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। वह उठा और हुमक कर दादी की गोद में चला गया।

कब तीन बज गए, पता ही नहीं लगा। किन्तु आखिरकार हर बात की हद होती है। शराफत की भी। हम लोग कहीं वह हद पार न कर जाएँ, सो उठ खड़े हुए। शशि भाभी को चाय के लिए धन्यवाद दिया, हमारे कारण उन्हें हुई असुविधा के लिए क्षमा माँगी और विदा ली।

साहनी साहब के फ्लेट में जाने के लिए हम लोगों ने लिफ्ट प्रयुक्त की थी किन्तु उतरते समय अपनी आदत के मुताबिक मैंने सीढ़ियाँ ही चुनीं। उतरते-उतरते ही मैंने अनुभव किया कि सीढ़ियों की चौड़ाई, अन्य बहुमंजिला भवनों की सीढ़ियों की अपेक्षा अधिक चौड़ी हैं। बीच में तनिक रुक कर मैंने इस ओर इशारा किया और कहा - ‘लगता है, अन्तिम समय तक की चिन्ता की गई है।’ साहनी साहब ने कहा - ‘आपने ठीक भाँपा।’ यहाँ रिटायर्ड लोग ज्यादा हैं।’ और ठठा कर हँस पड़े।

वे हमें सेक्टर 32 वाले मेट्रो स्टेशन तक छोड़ने आए। रास्ते भर वे बराबर बातें किए जा रहे थे। लग रहा था कि वे 1993 से 2010 तक की सारी बातें जान लेना चाह रहे हैं। लेकिन तेजी से कार चलाने की उनकी आदत (जो उनकी पहचान भी है) के कारण स्टेशन जल्दी ही आ गया। दिल्ली-नोएडा मार्ग पर यह मेट्रो का अन्तिम स्टेशन था। पटरियों के आधार बने खम्भों का आखिरी सिरा आसमान में सर उठाए ऐसे खड़ा था मानो मेट्रो यहाँ से सीधी आकाश में समा जाएगी। उन्हीं खम्भों की छाँव में, सड़क किनारे साहनी साहब ने कार खड़ी की। ये विदाई के क्षण थे। हम लोग जकड़े पाँवों और उदास मन से परस्पर विदा ले रहे थे। मेरे कहने पर जानकीलालजी ने अपने मोबाइल से मेरा और साहनी साहब का फोटो लिया। मैंने कहा - ‘कार का नम्बर भी आना चाहिए।’ यह फोटो लेने के बाद उन चारों का फोटो मैंने लिया। हम चारों ने पीठ फेरी। मेरे कान पीठ पर उग आए थे। मैं प्रतीक्षा कर रहा था - कार की फाटक खुल कर बन्द होने और एंजिन स्टार्ट होने की आवाज सुनने की। आवाज नहीं आई। जी तो किया किन्तु हिम्मत नहीं हुई मुड़ कर देखने की। अब मेरी आँखें भी पीठ पर चस्पा हो गई थीं। मैं देख पा रहा था कि साहनी साहब कार के पास खड़े हो, हमें जाते देख रहे हैं। मैंने सोचा, मुड़ कर, हवा में हाथ हिला कर उनसे विदा लूँ। लेकिन ऐसा नहीं कर पाया। साफ लग रहा था कि मुड़ गया तो आँखें बोलने लगेंगी और ऐसे क्षणों में बोलती आँखें बेहद तकलीफ देती हैं। मैं यह तकलीफ नहीं झेल पाऊँगा।

सो, नमी से बन्द आँखों के सहारे, सेक्टर 32 के स्टेशन की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैं अपने बीमा उस्ताद को प्रणाम कर रहा था। मुझे विश्वास है, ‘उस्ताद’ ने मेरे प्रणाम देखे भी होंगे और स्वीकार भी किए होंगे।
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