सड़कछाप आदमी आदमी की बातें


‘जब खुद ही ऐसे प्रपंच करते हैं तो वे झूठ और भ्रष्टाचार का विरोध किस मुँह से करते हैं?’ यह सवाल दाग कर वह चला गया।


यह सत्रह दिसम्बर की बात है। उससे तीन दिन पहले, चौदह दिसम्बर को मेरे कस्बे के नगर निगम के चुनावों के लिए मतदान हुआ था। सत्रह को मतगणना हो रही थी । मैं घर से निकलने को ही था कि वह आ गया-बीमा पाॅलिसियों की जानकारी लेने। बीमा से शुरु होकर बात चुनाव से गुजरते हुए अखबारों पर आ गई।


‘ये ऐसा क्यों करते हैं?’ उसने पूछा।


‘क्या करते हैं?’ मैंने प्रति प्रश्न किया।


उत्तर में उसने जो कुछ कहा वह मेरे लिए नया नहीं था किन्तु रतलाम जैसे मझौले कस्बे का एक औसत आदमी इस दिशा में सोचता है, चिन्ता करता है! यह मेरे लिए नई बात थी।


उसे, चुनावी विज्ञापनों को छापने को लेकर अखबारों के चाल-चलन पर आपत्ति थी। विज्ञापनों को समाचारों की तरह प्रस्तुत करने से वह अप्रसन्न था। ‘यह तो हम पाठकों की जगह पर अतिक्रमण है!’ उसने सरोष कहा। ‘विज्ञापन छापने से उन्हें कौन रोकता है? रोक सकता है भला? यह तो उनका धन्धा है? अपना धन्धा करने से उन्हें कौन रोकता है? अरे! विज्ञापन छापना है तो खूब छापो, धड़ल्ले से छापो लेकिन समाचार बनाकर तो मत छापो।’ उसकी इस समझ पर मुझे हैरत ही हुई। सड़कछाप आदमी को नासमझ मानने की भूल करनेवालों के लिए वह सशक्त उत्तर था। उसका कहना था कि अखबारवाले जब विज्ञापनों को समाचार की तरह छापते हैं तो इसका सबसे पहला मतलब तो यही है कि वे खुद जानते हैं कि वे गलत कर रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो वे उसे विज्ञापन के रूप में ही छापते। यह अनुचित आचरण है। मुनाफा जब सोच-विचार के केन्द्र में आ जाता है तो आदमी उचित-अनुचित नहीं देख पाता। विज्ञापनों को समाचार की तरह छाप कर वे सारे उम्मीदवारों को एक साथ लोकप्रिय और भारी बहुमत से जीतता हुआ बताते हैं। अब भला, सारे उम्मीदवार कैसे जीत सकते हैं? जीतेगा तो कोई एक ही! सबको जीतता हुआ बताना ही पाठकों के साथ बेईमानी है। पाठकों तक जानबूझकर सही बात नहीं पहुँचाई जा रही है।


उसका कहना था कि अखबार जब तक नहीं छपता तभी तक वह अखबार मालिक की मिल्कियत होता है। छपने की प्रक्रिया शुरु होते ही पाठकों की मिल्कियत बन जाता है। पाठकों की मिल्कियत के साथ बलात्कार करना अपने आप में अपराध है।


उसे इस बात पर भी आपत्ति थी कि विज्ञापनों को ‘इम्पेक्ट फीचर’ या ‘प्रायोजित प्रस्तुति’ या फिर ऐसा ही कोई नाम देकर छापते हैं। गोया, बन्दूक को आइस्क्रीम का नाम देकर वे चाहते हैं कि पाठक उसे आइस्क्रीम ही समझ लें। ऐसा करके अखबारवाले शुतुरमुर्ग की तरह रेत में चोंच गड़ा लेते हैं। वे समझते हैं कि पाठक कुछ नहीं समझता। यह उनकी नासमझी है। पाठक तो वह भी समझ लेता है जो अखबार मालिक खुद भी नहीं जानता या छुपाना चाहता है। जिस अखबार मालिक को अपने पाठकों की बुद्धि पर भरोसा नहीं वह सबसे बड़ा निर्बुद्धि है। जब समाचार की तरह छपे विज्ञापन को भी पाठक विज्ञापन समझ लेता है तो फिर वह कोई भी नाम दे दे, पाठक उसकी (अखबार मालिक की) और खबर की असलियत तो पहली ही नजर में जान लेता है। इन्हें समझना चाहिए कि ऐसे प्रपंच रचने से उनकी साख खराब होती है और विश्वसनीयता पर शंका होने लगती है।


‘अब आप ही बताइए! पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा खम्भा कहते हैं। खम्भे ऐसे होते हैं? अगर खम्भे ऐसे ही हैं तो चल लिया अपना लोकतन्त्र। भट्टा ही बैठना है ऐसे तो।’ उसका गुस्सा थम नहीं रहा था।


मैंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी। लेकिन उसे मेरा चुप रहना भी खल रहा था। बोला - ‘आप भी तो पत्रकार हो। आप क्यों नहीं कुछ बोलते, करते?’ मैंने कहा कि मैं वैसा पत्रकार नहीं हूँ जैसा वह समझ रहा है। अखबारवालों से भी मेरी दोस्ती ऐसी नहीं कि मैं उनके निर्णय को प्रभावित कर सकूँ। मेरी बात उसे बहाना लगी। बोला - ‘आपकी बातों में कोई दम नहीं है। आप तो हम सबको चुप न रहने के लिए, अनुचित के विरुद्ध बोलने के लिए कहते हैं। फिर आप चुप क्यों हैं?’ मैंने कबूल किया कि उसकी बात सच है। मैंने चुप नहीं रहना चाहिए। बोलना चाहिए। मैंने कहा - ‘मैं कोशिश करूँगा।’ ‘यहीं तो इण्डिया मात खा गया। जिन पर भरोसा होता है वे ही भरोसा तोड़ते हैं। हम जैसे सड़कछाप लोग क्या कर सकते हैं? आप जैसों से कहने के सिवाय हमारी पहुँच आगे नहीं है। लेकिन आप भी कोशिश करने की बात करके अपनी चमड़ी बचा रहे हैं।’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था उसकी बातों का। बड़ी मुश्किल से मैंने कहा - ‘ये लोग भले ही कितने ही खराब क्यों न हों। अपने को काम तो इन्हीं से चलाना पड़ेगा।’


उत्तर में वह झल्ला कर वही बात कह कर उठ गया जो मैंने शुरु में लिखी है - ‘जब खुद ही ऐसे प्रपंच करते हैं तो वे झूठ और भ्रष्टाचार का विरोध किस मुँह से करते हैं?’


इस सबमें आप अपने आप को किस जगह पाते हैं-मेरी जगह या उसकी जगह?
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6 comments:

  1. आपकी संस्मरण लिखने की शैली बहुत रोचक है। हम अपने को शायद इन दोनो के बीच पाते हैं। भ्रश्टाचार करते नहीं मगर सहना पडता है । धन्यवाद

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  2. जरूरी पोस्ट,बधाई । पिछले लोक सभा चुनाव के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश के अखबारों की ऐसी ही भूमिका पर चुनाव आयोग और प्रेस परिषद दोनों को लिखा था । केन्द्रीय चुनाव आयोग ने प्रेस परिषद से ' पेड न्यूज़’ की परिभाषा पूछी है ।

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  3. बहुत दिन बाद पढ़ पाया आपको ! शुभकामनायें !

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  4. ये चौथा खंबा तो चल ही विज्ञापनों से रहा है।

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  5. निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय
    बिन पानी साबुन बिना निर्मल करत सुभाय

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