पार्टी हाईकमान याने.....


मौसम चुनाव का। एक पद पर अनेक दावेदार। प्रत्येक दावेदार खुद को पार्टी हाईकमान का अधिकृत उम्मीदवार बताए। ऐसे में लोगों को लगने लगता है कि पार्टी हाईकमान की नींद हराम हो जाती होगी।

नादान, नासमझ लोग! भावुक हो कर परेशान हो जाते हैं। टसुए बहाने लगते हैं। उधर पार्टी हाईकमान है कि इन सारी बातों से बेखबर, बेफिकर।

प्रत्येक पार्टी का अपना हाईकमान होता है। अलग-अलग। लेकिन चाल, चलन, चेहरा, चरित्र, व्यवहार, भाषा सबकी एक जैसी। सबके सब एक जैसे। बिलकुल हमाम के नंगों की तरह।पार्टी का एक भी आदमी ऐसा नहीं जो पार्टी हाईकमान के बारे में कुछ जानने का दम भर सके। जानता तो पार्टी हाईकमान भी किसी को नहीं किन्तु पार्टी के लोग एक दूसरे की फिकर करते हुए, सबकी विस्तृत कुण्डलियाँ पार्टी हाईकमान को पहुँचा चुके होते हैं। सो, पार्टी हाईकमान को जिसके भी बारे में जानना होता है, जान लेता है। सो, कहा जा सकता है कि पार्टी हाईकमान किसी को भी नहीं जानते हुए सबको जानता है।

पार्टी हाईकमान का अपना कोई रूप-रंग, स्वरूप, आकार नहीं होता। वह एकाकार भी हो सकता है और अनेकाकार भी। वह सबके लिए समान रूप से उपलब्ध है। साकार भी और निर्गुण-निराकार भी। जिसे जिस नजर से देखना हो, देख ले। कोई भी पार्टी हाईकमान कभी गलती नहीं करता। इसीलिए सफलता के साफे सदैव हाईकमान को बँधते हैं और असफलता के ठीकरे स्थानीय नेतृत्व के माथे फूटते हैं।

पार्टी हाईकमान को अपने समर्पित, ईमानदार, चरित्रवान, निष्ठावान कार्यकर्ता की बहुत चिन्ता होती है। बिलकुल वैसी ही जैसी कि किसी सुहागन को अपने माथे की बिन्दिया की। अपने ऐसे कार्यकर्ताओं का मान-सम्मान, सार्वजनिक छवि और प्रतिष्ठा को बनाए और बचाए रखने के लिए वह ऐसे कार्यकर्ता को कभी भी, किसी भी पद पर नहीं बैठाता। आज पद पर बैठाया और कल वह भ्रष्ट, बेईमान, घपलेबाज हो जाए तो? इसलिए जब भी ऐसा कोई मौका आता है तब किसी बेईमान, भ्रष्ट, घपलेबाज, गबन करने में माहिर आदमी को पद परोसता है। इस तरह वह बेईमानों और भ्रष्टों की संख्या में इजाफा नहीं होने देता और ईमानदारों की संख्‍या में कमी नहीं होने देता।

इस नेक काम के लिए वह ऐसे कार्यकर्ता की भी उपेक्षा, अनदेखी कर देता है जो दस-दस बरसों से पार्टी के लिए सदन में और मैदान में जूझता रहता है, पार्टी को जिन्दा बनाए रखता है, गाँठ का पैसा खर्च कर पार्टी का झण्डा ऊँचा फहराए रखता है। पार्टी हाईकमान अच्छी तरह जानता है कि ऐसे कार्यकर्ता पार्टी की धरोहर, पार्टी की इज्जत बढ़ानेवाले होते हैं। ऐसे कार्यकर्ताओं के कुर्तों पर एक भी दाग न लगे इसलिए, ‘काजल की कोठरी’ में किसी को भेजने का मौका आने पर पार्टी हाईकमान, आठ-दस साल पहले दफन हो चुके आदमी को, कब्र खोदकर ला खड़ा कर देता है या फिर कोयले की दलाली में काले किए हाथ, दिल, दिमागवाले आदमी को।


पार्टी हाईकमान खूब जानता है कि कितनी ही मेहनत क्यों न की जाए, पानी की तरह रुपया बहाया जाए, ईमानदार, सद्चरित्र, भला आदमी चुनाव नहीं जीत सकता। ये सारे गुण इज्जत दिला सकते हैं सत्ता नहीं। सो, पार्टी हाईकमान को ‘गुनाह बेलज्जत’ करते हुए ऐसे आदमी को उम्मीदवार बनाना पड़ता है जिसकी इज्जत दो कौड़ी की नहीं होती।


पार्टी हाईकमान की अपनी मजबूरियाँ हैं। इस मजबूरी के कारण ही मतदाता भी मजबूर हो जाता है - कम बेईमान, कम भ्रष्ट, कम घपलेबाज को चुनने के लिए।
हमें अपने लोकतन्त्र पर गर्व करना चाहिए कि ये दोनों मजबूरियाँ यत्नपूर्वक, ईमानदारी से निभाई जा रही हैं। आगे भी निभाई जाती रहेंगी।
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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 30 नवम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)

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4 comments:

  1. हाय हाय ये मजबूरी!!....

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  2. अब हाईकमान क्या करे
    चुनाव देखे कि बंदे या फिर चंदे

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  3. धारा प्रवाह आलेख बहुत अच्छा चल रहा है । लोक तन्त्र? या हाईकमान मन्त्र? शुभकामनायें

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  4. पार्टी हाईकमान यह देखता है कि इस बार कौन बेवकूफ मतदाताओं को ज्यादा बेवकूफ बना सकता है।

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