तो, यह है अपना वास्तविक राष्ट्रीय चरित्र

राष्ट्र और धार्मिक आस्थाओं की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर देने की हमारी दम्भोक्तियों की पोल खुल गई है। प्रथमतः तो हमने ऐसी दुहाइयाँ देनी ही नहीं चाहिए (राष्ट्र और धर्म पर प्राण न्यौछावर करने की अपनी मंशा भी भला कोई गर्वोक्ति का विषय है? यह तो हमारा न्यूनतम कर्तव्य है) किन्तु हम देते रहे हैं। चलिए, कोई बात नहीं। बहुत हो गया। यह ठीक समय है कि हम अपनी इस निर्लज्ज मूर्खता का सार्वजनिक घोष अब अविलम्ब बन्द दें।


मैं बार-बार और बराबर कहता रहा हूँ कि हमारे राष्ट्रीय चरित्र की वास्तविक पहचान तो सदैव ही शान्ति काल में होती है। युध्द काल में तो हर कोई न केवल देश भक्त होता है बल्कि उसे होना ही पड़ता है। आज देश में युध्द काल नहीं है और इसीलिए हमारे राष्ट्रीय चरित्र की वास्तविकता, निर्लज्जता की सड़ांध के साथ सड़कों पर बह रही है।


यह बताने वाली बात नहीं है कि अवर्षा, कम पैदावार, सरकार के निकम्मेपन और राजनीतिक स्वार्थ सिध्दि के चलते पूरा देश शकर और दालों के अभाव से जूझ रहा है। देश के 80 प्रतिशत लोग तो आज भी 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर जीवन यापन कर रहे हैं। किन्तु, जो मध्यम वर्ग, येन-केन-प्रकारेण अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींच रहा है, उसके लिए भी इन दोनों चीजों को अपने रसोई घर में बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती हो गया है। होना तो यह चाहिए कि ऐसे समय में हम अपनी आवश्यकताओं को कम करें किन्तु घर से बाहर बनाई हुई अपनी हैसियत की रक्षा की चिन्ता और ‘लोग क्या कहेंगे’ जैसे जुमले हमें अनुशासित नहीं रहने देते। सो, औसत मध्यमवर्गीय परिवार के लिए तो यह स्थिति किसी ‘राष्ट्रीय आपदा’ से कम नहीं है।


ऐसे में सबसे पहले और सबसे बड़ी उम्मीद सरकार से ही होती है। किन्तु सारा देश देख रहा है कि सरकार के मन्त्री अपनी लाचारी सार्वजनिक करने में जुट गए हैं। ऐसे में, खुद समाज की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। आपात स्थितियों में तो लोग अपने, अनाज के कोठार खोल देते हैं। बेशक, स्थिति अकाल की नहीं है किन्तु सामान्य भी नहीं है। असामान्य स्थितियों में हमारा सार्वजनिक आचरण उदार और परस्पर चिन्ता लिए हुए होना चाहिए। किन्तु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत उजागर हो रही है।


सारे देश की बात छोड़ दें, केवल मध्य प्रदेश में ही करोड़ों रुपयों की लाखों क्विण्टल शकर और दाल का अवैध संग्रह बरामद किया गया है। याने, एक ओर लोग इन चीजों को तरस रहे हैं और दूसरी ओर भाई लोग, नियमों, नैतिकता, धार्मिक उपदेशों को ताक पर रखकर मुनाफे की जुगत में आपराधिक ही नहीं, असामाजिक, अमानवीय और ईश्वर के प्रति अपराध तक कर रहे हैं। बड़ी ही आसानी से कह दिया जाएगा कि यह तो व्यापार का हिस्सा है और व्यापार का अन्तिम तथा एकमेव लक्ष्य मुनाफा होता है। सो, यदि मुनाफे के लिए यह सब किया गया तो इसमें गैर वाजिब क्या? किन्तु ऐसा कहना ‘गुनाह बेलज्जत’ के सिवाय और कुछ भी नहीं है। बेशक, व्यापार मुनाफे के लिए ही किया जाता है किन्तु व्यापार का भी अपना धर्म होता है। उसमें जायज और नाजायज जैसे तत्व काम करते हैं। व्यापारिक बुध्दि सदैव ही मुनाफे के लिए पे्ररित करते हुए मनुष्य को लालची बनाती है। यही वह क्षण और स्थिति होती है जब हमारा राष्ट्रीय चरित्र सामने आता है। किन्तु राष्ट्रीय चरित्र तो हमारे लिए केवल समारोहों में, बढ़ चढ़ कर प्रदर्शित करने की वस्तु है, आचरण की नहीं।


अवैध संग्रह के जितने मामले सामने आए हैं उनकी विस्तृत नहीं, सामान्य जानकारियाँ ही बता देंगी कि इनमें लिप्त लोग किसी न किसी राजनीतिक दल से, किसी इन किसी धर्म से, किसी न किसी सामाजिक संगठन से जुड़े होंगे और राष्ट्र पे्रम तथा धर्म की दुहाइयाँ देने में पीछे नहीं रहते होंगे। किन्तु, चूँकि हमारे समाज में ‘होने’ के बजाय ‘दिखना’ अधिक आवश्यक है इसीलिए लालच के मारे और लालच से अन्धे हुए इनमें से एक को भी, लोगों के कष्टों की बात तो छोड़िए, न तो राष्ट्र याद आया और न ही धर्म।


यहाँ मुझे रामचरित मानस की एक चैपाई याद आ रही है -

पर हित सरिस, धरम नहीं भाई।

पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।


शकर-दाल के अवैध संग्रहियों को तो कोई ‘पर हित’ भी करना था। वे अपना वाजिब मुनाफा लेकर व्यापार करते। ऐसा कर वे ‘पर पीड़ा’ के अधर्म से बच ही सकते थे। पर ‘वाजिब’ से हमारा काम नहीं चलता। हमारी बुध्दि तो हमें ‘गैर वाजिब’ की ओर धकेलती है। जिन क्षणों और स्थितियों में हमें विवेकवान बनना चाहिए, हम केवल लालची बन कर सामने आते हैं।


सो, हम राष्ट्र और धर्म के लिए प्राण न्यौछावर करने की दम्भोक्तियाँ भले ही करते रहें किन्तु वह सब हमारा दोगलापन, पाखण्ड और आत्म-वंचना है।


यही है हमारा वास्तविक राष्ट्रीय चरित्र।

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5 comments:

  1. महोदय मैं आपसे पूर्णतः सहमत हू . हम हिन्दुस्तानियो की ये विशेषता है कि हम देशभक्ति की सिर्फ़ बाते करते है स्वन्त्रता दिवस पर देशभक्ति के ज़रूरत से ज़्यादा ही गीत गाते है पर जबा देश क़ी बात आती है तो हम से बड़ा देश का दुश्मन कोई नही होता. सब अपनी ज़ेब भरने क़ी सोचते है. सही कहा है आपने कि असली परीक्षा तो अभी होती है जिसमे शायद ही कोई खरा उतरे.

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  2. aapka lekh achha laga

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  3. लेख लिख लिया, नौकरी भी कर रहे हैं

    अगर आप उन "दूसरे भाई लोग" को निश्चयपूर्वक जानते हैं, तो उनके घर के आगे या उनकी दुकान के आगे सत्याग्रह या भूख हड़ताल के बारे में क्या विचार है। और लोग भी जुड़ जाएंगे, पहल का इंतजार कर रहे हैं।

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  4. विष्णु जी,
    आपकी लिखी बात अक्षरशः सत्य है. अगर हमारा राष्ट्रीय चरित्र धवल होता तो सैकडों वर्षों तक तिरस्कृत क्यों हुए होते. हमारा संकीर्ण स्वार्थ ही हमारा सबसे बड़ा शत्रु नहीं है. प्रशासन का निकम्मापन उससे भी बड़ा शत्रु है. आँखें खोलने वाला आलेख, बधाई.

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