अन्तिम यात्रा/उठावना/शोक निवारण से पहले चक्का जाम


मेरे कस्बे में, गए कोई दस दिनों में चार घटनाएँ ऐसी हो गईं जिनमें लोगों ने डाक्टरों के साथ हाथापाई, धक्कामुक्की और मारपीट कर दी। इनमें तीन प्रकरणों में, रोगी की मौत हो जाने से मृतक के परिजन आक्रोशित हुए थे। तीनों प्रकरणों में परिजनों का कहना था कि डाॅक्टर ने इलाज करने में असावधानी बरती, फलस्वरूप रोगी की मृत्यु हो गई। इन तीन में से दो प्रकरण निजी चिकित्सालयों के तथा एक प्रकरण शासकीय चिकित्सालय का था। चैथा प्रकरण दुर्घटना का था। इसमें प्रथमतः जिला प्रशासन और बाद में डाक्टर निशाने पर रहे। यह प्रकरण भी शासकीय चिकित्सालय का था। प्रत्येक प्रकरण में लोगों ने तोड़फोड़ भी की।


प्रत्येक प्रकरण में लोगों ने चक्काजाम किया और दोषियों को गिरतार कर, दण्डित करने की माँग की। एक प्रकरण में शव को चैराहे पर रख कर चक्का चाज किया गया, प्रशासन मुर्दाबाद के नारे लगे और कहा गया कि जब तक दोषी को बन्दी नहीं बनाया जाएगा तब तक दाह संस्कार नहीं किया जाएगा। इस प्रकरण में शाम के साढ़े पाँच बज चुके थे और यदि सूर्यास्तपूर्व दाह संस्कार नहीं होता तो बात अगले दिन पर जाती। स्पष्ट है कि प्रकरण न केवल सम्वेदनशील अपितु गम्भीर भी था। प्रशासकीय अधिकारी सक्रिय हुए और जैसे-तैसे बात सम्हाल कर शव की अन्तिम यात्रा प्रारम्भ कराई।


ऐसी घटनाएँ अब प्रत्येक कस्बे, नगर में होने लगी हैं। चिकित्सक और रोगी के परम्परागत सम्बन्धों का स्वरूप बदल गया है। पहले डाॅक्टर पर आँख मूँद कर विश्वारस किया जाता था। अब, डाक्टर को ‘सेवा प्रदाता’ के रूप में लिया जाता है और तदनुसार ही उससे आशा/अपेक्षा की जाती है। किन्तु एक बात में अन्तर नहीं आया। पहले भी डाक्टर को भगवान माना जाता था और आज भी माना जाता है। किन्तु भावनाओं की ऊष्मा और सम्बन्धों की मधुरता को ‘पूँजी’ ने प्रभावित कर दिया है। परिणामस्वरूप, आँख की शर्म चली गई है और सब कुछ व्यापार की तरह लिया जाने लगा है। इसके लिए किसी एक पक्ष को उत्तरदायी ठहराना न तो सम्भव है और न ही उचित। सामाजिक मूल्यों में जब स्खलन अथवा ह्रास आता है तो वह समूचे समाज पर समान रूप से आता है।


मारपीट और तोड़फोड़ की, डाक्टरों में तीखी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक ही थी। डाॅक्टरों की संस्था ‘इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन’ (आईएमए) के माध्यम से डाक्टरों ने, ऐसे प्रकरणों के जिम्मेदार लरोगों के विरुद्ध पुलिस में नामजद रिपोर्टें लिखर्वाइं और ‘डाक्टर प्रोटेक्शन एक्ट’ के अन्तर्गत कार्रवाई करने की माँग की। इस कानून के बारे में मुझे अधिक तो पता नहीं किन्तु मालूम हुआ कि इस कानून के अधीन पंजीबध्द प्रकरणों में जमानत आसानी से नहीं मिलती। सो, जब ‘आईएमए’ का दबाव बढ़ा तो चक्काजाम और डाक्टरों से मारपीट करने वालों में घबराहट फैलना स्वाभाविक ही था।


किस प्रकरण में क्या हुआ इससे अलग हटकर, डाक्टरों की एक बात ने मेरा ध्यानाकर्षण किया। डाक्टरों का कहना था कि इलाज करने में डाक्टर ने लापरवाही बरती या कि गलत दवा दी, यह बात तो कोई डाक्टर अथवा चिकित्सा विज्ञान में दक्ष व्यक्ति ही कह सकता है। जो लोग डाक्टरों पर गलत उपचार करने का अथवा लापवरवाही बरतने का आरोप लगाते हैं, वे यदि सचमुच में विषय के जानकार होते हैं तो वे खुद ही अपने रोगी परिजन का इलाज क्यों नहीं कर लेते? यदि उन्हें विषय का ज्ञान नहीं है तो ऐसे सुस्पष्ट आरोप कैसे लगाए जा सकते हैं? कोई (अथवा कुछ) डाक्टर लालची या कि लापरवाह हो सकता है किन्तु इलाज के दौरान जब रोगी की दशा प्रारम्भ में सुधरती दिखाई दे रही हो तब तो स्वस्पष्ट है कि डाक्टर ने न तो लालच किया और न ही लापरवाही बरती। किन्तु यदि अचानक ही रोगी की तबीयत बिगड़ने लगे, डाक्टर यथेष्ट प्रयास करे और फिर भी रोगी के प्राणान्त हो जाएँ तो इसमें डाक्टर का क्या दोष? डाक्टरों की इस बात में मुझे वजन लगा।


दस दिनों में चार घटनाओं से मेरा कस्बा उद्वेलित बना रहा। दो प्रभावित परिवारों से मैंने सम्पर्क किया तो नई बात सामने आई। दोनों परिवारों ने कहा कि मारपीट, तोड़फोड़ और चक्का जाम में उनके परिजनों की कोई भूमिका नहीं रही। सहानुभूति में साथ गए लोग, परिजनों से अधिक आक्रोशित हुए और ‘राजा के प्रति खुद राजा से अधिक वफादार’ की तरह व्यवहार करते हुए प्रकरणों को आपराधिक और जनोत्तेजक बना दिया। इन दोनों परिवारों ने, घटना के बाद, डाक्टरों के पास जाकर क्षमा याचना की जिसे डाॅक्टरों ने व्यक्तिगत रूप से स्वीकार करने का बड़प्पन बरता। किन्तु प्रकरण चूँकि ‘आईएमए’ ने प्रस्तुत कर रखा है तो एक सीमा के बाद दोनों डाक्टरों ने भी अपनी असहायता बताई। हाँ, इतना अवश्य कहा कि वे प्रकरण को लेकर अपनी ओर से कोई ‘स्मरण पत्र’ नहीं देंगे।


डाक्टर और रोगी के बीच सबसे पहला रिश्ता होता है विश्वास का। साफ लग रहा है कि इस रिश्ते पर भी भरपूर खरोंचे आ गई हैं। यदि स्थिति को सुधारने (या कि और अधिक खराब न होने देने के लिए) तत्काल ही कोई प्रभावी पहल नहीं की गई तो दस दिन में चार घटनाओं की स्थिति बदल कर एक दिन में दस वाली हो जाएगी।


तब और कुछ हो न हो, एक बात अवश्य होगी। शोक समाचारों वाले अखबारी स्तम्भों में ‘निजी’ के अन्तर्गत आने वाली सूचनाएँ कुछ इस प्रकार होंगी - ‘हमारे फलाँ-फलाँ का आकस्मिक देहावसान दिनांक फलाँ-फलाँ को हो गया है। अन्तिम यात्रा/उठावना/शोक निवारण दिनांक फलाँ-फलाँ को हमारे निवास पर इतने बजे होगा और उससे पहले एक घण्टे का चक्का जाम होगा।’

हम इसी दिशा में बढ़ रहे हैं।

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3 comments:

  1. जब डाक्टर के यहाँ फीस के बगैर घुसना असंभव हो जाए। सरकारी अस्पताल मे डाक्टर देर तक देखने न आए और परिजन द्वारा फीस देने पर तुरंत हाजिर हो जाए। निजि अस्पतालों के दलाल बहका कर लोगों को अस्पतालों तक लाने लगें तो विश्वास भंग की स्थिति तो बन चुकी है। ऐसे में आक्रोश क्यों न पैदा होगा। अब तो खुद डाक्टरों को ही विश्वास पैदा करने के लिए आगे आना होगा।

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  2. यह सब बढ़ी फीस से उत्पन्न अपेक्षाओं के आधिक्य का मामला है। इस तरह का आक्रोश अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलेगा। और जरूरी नहीं कि डाक्टर विलेन और जनता पीड़ित ही हो!

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  3. परिस्थितियाँ बिगड़ी हैं और आक्रोश बाधा है यह तो सच है. मगर न तो गरीबों के संरक्षण के लिए कानून पर्याप्त हैं और न ही परिस्थितियों को हाइजैक कर लेने वाले गुंडा तत्व और नेताओं से बचाव के लिए प्रशासन मुस्तैद है. ऐसे में और क्या उम्मीद राखी जा सकती है, सच तो यह है कि ऐसी परिस्थिति के गरीब मृतकों के लिए हस्पताल और बीमा कंपनियाँ मिलकर किसी समूह-बीमा आदि जैसे हल की शुरूआत कर सकती हैं.

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