बोलने की कीमत


इस चित्र में सबसे बांये है राकेश, मध्‍य में अविनाश और सबसे दाहिने है अशोक सिंह। प्रदेश के मूलत: भिण्ड निवासी, अशोक सिंह, स्‍टेट बैंक आफ इन्‍दौर में परिवीक्षाधीन अधिकारी के पद पर कार्यरत है। अविवाहित है (अभी-अभी सगाई हुई है) और घर से सैंकड़ो किलोमीटर दूर, ‘परदेस’ में नौकरी कर रहा है।


अशोक के बीमा प्रस्ताव के लिए लिपिडोग्राम परीक्षण कराना था। एजेण्ट की जिम्मेदारी होती है कि प्रस्तावक को साथ ले जाए, उसकी पहचान की पुष्टि करे। हम दोनों सवेरे-सवेरे ही पैथालाजी लेब गए। कर्मचारी ने अशोक के रक्त का नमूना लिया। परीक्षण शुल्क का भुगतान अग्रिम करना था। कर्मचारी को पाँच सौ रुपयों का नोट दिया। हम सम्भवतः पहले ही ग्राहक थे। उसके पास छुट्टे नहीं थे। सो वह लेब-स्वामी के पास गया। उसकी वापसी तक हम दोनों फुर्सत में थे। हम दोनों की नजर, लेब के पारदर्शी दरवाजे पर चिपके उस पोस्टर पर गई जिसका चित्र यहाँ दिया गया है।



हमने चारों ‘सुभाषित’ परामर्शों पर मन्थन शुरु कर दिया और जल्दी ही इन निष्‍‍कर्षों पर पहुँच गए - ‘न बोलना तो असम्भव प्रायः है ही, कम बोलना भी कम कठिन नहीं।’ और ‘आदमी को बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है।’ छुट्टे लेकर कर्मचारी लौटा। अपनी बकाया रकम लेकर हम लोग लौट आए।



अशोक का निवास रास्ते में ही था। मैंने अपनी मोटर सायकिल धीमी की। अशोक ने उतरने की तैयारी करते हुए कहा-‘सर! आधा-आधा कप चाय हो जाए।’ सुनकर, इससे पहले कि अशोक उतर पाता, मैंने तत्क्षण ही गाड़ी बढ़ा ली। मैंने विचार किया कि अकेला आदमी कहाँ चाय बनाने का खटकरम करेगा? मैं भले ही बैरागी हूँ किन्तु हूँ तो 'बाल-बच्चेदार, गृहस्थ बैरागी'! पत्नी फटाफट चाय बना देगी। अशोक व्यर्थ के परिश्रम से बच जाएगा और चाय भी मिल जाएगी।



जैसे ही मैंने गाड़ी बढ़ाई, अशोक ने कहा-‘अरे! सर। माँ ने खाना बना लिया होगा। अभी चाय पी लूँगा तो खाना खराब हो जाएगा।’ मैं तो अशोक को रतलाम में ‘फक्कड़’ ही मान रहा था। लेकिन मालूम हुआ कि उसकी माँ साथ ही है। किन्तु माँ के साथ होने की सूचना से अधिक मुझे अशोक के तर्क पर अचरज हुआ।



मैंने गाड़ी धीमी कर पूछा - ‘यह क्या बात हुई? यदि तुम्हारे घर चाय पीते तो तुम्हारा खाना खराब नहीं होता। और तुम्हारी चिन्ता कर मैं तुम्हारे लिए मेरे घर चाय बनवाऊँगा तो (चाय पीने से) तुम्हारा खाना खराब हो जाएगा?’



अशोक कोई जवाब देता उससे पहले ही मेरा घर आ गया। हम दोनों उतरे। अशोक का एक परम मित्र अविनाश मेरे ही मकान मे रह रहा है। वह भी उसी बैक में परीविक्षाधीन अधिकारी है और पटना से हजारों किलोमीटर दूर, अशोक की ही तरह ‘परदेस’ में नौकरी कर रहा है। मैंने अशोक से कहा कि अविनाश को भी बुला लाए। तीनों साथ-साथ चाय पीएँगे।



मैंने मेरी श्रीमतीजी को चाय बनाने को कहा। वे दोनों आए और हमारी बातें शुरु हो गईं। बात फिर ‘न बालने’ और ‘कम बोलने’ पर आ गई। मैंने एक लोक कथा सुनाई जिसमें, एक चेला अपने गुरु की अनुपस्थिति में एक राजा को (राजा पर अपना प्रभाव जताने की नीयत से) ‘पुत्रवान भवः’ का आशीर्वाद दे देता है, यह जानते हुए भी कि राजा को पुत्र योग नहीं है। लौटने पर गुरु को चेले की करनी मालूम होती है तो वे कहते हैं कि अपना आशीर्वाद फलित करने के लिए चेले को प्राण त्याग कर राजा के यहाँ जन्म लेना पड़ेगा। अर्थात् चेले को बोलने की कीमत चुकानी पड़ेगी। इस कथा में, बोलने के कारण एक हिरण को अपनी जान से हाथ धोने पड़ते हैं और बोलने के कारण ही राजा के महामन्त्री की जान पर बन आती है।
लोक कथा सुन कर अशोक और अविनाश खूब हँसे। कहानी कहने-सुनने में हमारी चाय हो चुकी थी। दोनों को नौकरी पर जाना था और मुझे भी अपने काम-धन्धे से लगना था। सो मैंने दोनों को विदा किया।



चाय के लिए धन्यवाद देकर, विदा-नमस्कार करते हुए अशोक ने सस्मित कहा-‘सर! कहाँ तो मैं चाहता था कि आप मेरे निवास पर चाय पीएँ। लेकिन मैंने खाना खराब होने की बात बोली तो मुझे आपके यहाँ चाय पीनी पड़ी। आपका मेजबान बनने के बजाय मैं आपका मेहमान बन गया। आपके साथ चाय तो पी ली किन्तु मेरी भावना धरी रह गई और मेरी भूमिका बदल गई। वाकई में बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है।’



अशोक ने अत्यन्त प्रभावशीलता से सन्दर्भ को जोड़ते हुए जिस परिहासपूर्ण शैली में यह सब कहा उससे हम तीनों ही, दरवाजे पर खड़े रह कर देर तक हँसते रहे।



हम सब, एक लोक कथा को साकार होने के साक्षी बन गए थे।
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4 comments:

  1. इसलिए कहते हैं, तौल कर बोलो!

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  2. बढ़िया (बहौत कम बोल कर टिपियाया है)

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  3. रहिमन जिव्हा बावरी, कहि गै सरग पाताल।
    आपु तो कहि भीतर रही, जुती खाये कपाल।

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