भाषणों में विरोधी उम्मीदवार का नाम भी नहीं लिया


चुनाव लड़ने का एकमात्र उद्दश्‍य जीतना ही होता है । लेकिन भारतीय राजनीति में वह समय भी था जब इसके लिए उपलब्धियों, नीतियों, कार्यक्रमों और वैचारिकता को सार्वजनिक भाषणों का विषय बनाया जाता था । शालीनता, ”शिष्‍टाचार, विनम्रता बरती जाती थी । अपनी लकीर बड़ी करने के प्रयास किए जाते थे । आज तो स्थिति पूरी तरह से उलट गई है । उपरोक्त सारी बातों के लिए आज भाषणों में कोई जगह ही नहीं रह गई है । विरोधी उम्मीदवार की जन्म पत्रिका बाँचना ही एकमात्र काम रह गया है । ऐसे वातावरण में इस बात पर कोई भी विश्‍वास नहीं करेगा कि किसी उम्मीदवार और उसके प्रचारकों-कार्यकर्ताओं ने, अपने सार्वजनिक भाषणों में विरोधी उम्मीदवार का नाम भी नहीं लिया, और चुनाव जीता था ।


किन्तु यह ‘अनुपम वास्तविकता’ है और मैं इसका भागीदार रहा हूँ ।


यह संस्मरण भी, मध्य प्रदेश विधान सभा के 1980 वाले चुनावों का ही है ।


काँग्रेस पार्टी से दादा की उम्मीदवारी निश्‍िचत होते ही मनासा काँग्रेस की ‘रणनीति समिति’ की बैठक हुई । यह समिति सर्वथा अनौपचारिक और अघोषित थी । डाक्टर वी. एम. संघई साहब, बापू दादा (श्री बापूलालजी जैन), लच्छू दादा (श्री लक्ष्मीनारायणजी विजयवर्गीय), लाली उस्ताद (श्री रामस्वरूपजी विजयवर्गीय) आदि इसके स्वतः नामित सदस्य थे । दादा चूँकि उम्मीदवार थे सो वे तो इसके ‘पदेन सदस्य’ थे ही । समिति का प्रत्येक सदस्य चुनावी व्यूह रचना के किसी न किसी पक्ष का विशेषज्ञ था । बापू दादा को पूरे विधानसभा क्षेत्र के एक-एक मतदान केन्द्र की ‘मतदान वास्तविकता’ की जानकारी होती थी । मतदान सम्पन्न होने के बाद जैसे ही उनके पास मतदान के केन्द्रवार आँकड़े आते, वे बता देते थे कि किस मतदान केन्द्र पर हमें कितने वोट मिलेंगे । उनके आँकड़ों में मुश्‍िकल से एक प्रतिशत का अन्तर आता था ।


सो, रणनीति समिति की पहली बैठक शुरु हुई तो सबसे पहले बोलने का मौका ‘उम्मीदवार’ को मिला । दादा ने विस्तार से अपनी बात कही और अन्त में विचित्र इच्छा प्रकट की । उन्होंने कहा कि इस बार चुनावी आमसभाओं के भषणों में विरोधी उम्मीदवार का नाम नहीं लिया जाए और उसके स्थान पर ‘हमारे विरोधी उम्मीदवार’ या ऐसी ही कोई समानार्थी शब्दावली प्रयुक्त की जाए । दादा की बात इतनी अटपटी और ‘अप्राकृतिक’ लगी कि डाक्टर संघई साहब को छोड़ कर सबके सब एक साथ ही मानो ‘हत्थे से उखड़ गए’ हों । सबका सामान्य मत था कि विरोधी उम्मीदवार का नाम लिए बिना न तो अपनी बात पूरी कही जा सकेगी और न ही जाजम पर बैठी भीड़ को आनन्द आएगा । भाषणों से ‘जन-रोचकता’ तो अनुपस्थित ही हो जाएगी ।


दादा को शायद इस क्षण का पूर्वानुमान भली प्रकार था । लेकिन वे कुछ कहते उससे पहले ही डाक्टर संघई साहब ने हस्तक्षेप कर कहा कि दादा की ‘बुध्दि‘, ‘विवेक’ और ‘सामान्य समझ’ पर भरोसा किया जाना चाहिए । वे तो उम्मीदवार हैं और परिणाम से सबसे पहले वे ही प्रभावित होंगे । इसके बाद भी वे यदि ऐसा ‘विचित्र’ सुझाव दे रहे हैं तो उनकी बात को बिना विचारे निरस्त नहीं किया जाना चाहिए । इस बिन्दु पर उनकी पूरी बात सुनी जानी चाहिए ।


दादा ने कहा कि आम सभा की सारी व्यवस्था और संसाधन हम जुटाते हैं । डोंडी हम पिटवाते हैं, दरी, माईक, बिजली का खर्च हम उठाते हैं, आमसभा में भीड़ जुटाने के लिए सारा परिश्रम हम करते हैं और प्रचार करते हैं विरोधी उम्मीदवार का - उसका नाम लेकर और उसके बारे विस्तार से सूचनाएँ देकर । दादा ने कहा - ‘हम अपनी बात कहें, सामने वाले का नाम भी न लें । इस सुझाव पर अमल करने से यदि परिणाम हमारे प्रतिकूल जाता है तो उसकी सारी जिम्मेदारी मेरी ।’ दादा ने कहा - ‘मेरी बात पर बिना सोचे अपनी राय मत दीजिएगा ।’


दादा की बात ने धीरे-धीरे प्रभाव करना शुरु किया और भरपूर समय लेने वाले विमर्श के बाद ‘रणनीति समिति’ ने दादा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । इसे स्वीकार करना जितना कठिन था, उससे कई गुना अधिक कठिन था इसका क्रियान्वयन । लेकिन चूँकि चुनाव के ‘प्रारम्भिक से भी पहले वाले दौर’ में यह निर्णय ले लिया गया था सो हमारे पास पर्याप्त से भी अधिक समय था । इस निर्णय की जानकारी, गाँव-गाँव के स्थानीय कांग्रेसी वक्ताओं को ‘भली प्रकार’ देकर इसका पालन सुनिश्‍िचत करने के प्रयास किए गए । लोगों के गले यह बात नहीं उतर रही थी लेकिन ‘स्थानीय हाईकमान’ की इच्छा का उल्लंघन कौन करे ? सो, प्रस्ताव ने वास्तविकता ग्रहण करनी शुरु कर दी ।


रणनीति के अन्तर्गत हमने गाँवों से आम सभाएँ प्रारम्भ कीं । एक दिन में कम से कम पाँच गाँवों में आम सभाएँ होने लगीं । चुनावी रंग जमने लगा । कार्यकर्ता ‘मूड’ में आने लगे । उम्मीदवारों का जनसम्पर्क शुरु हो गया ।


जनसम्पर्क अभियान के तीसरे या चौथे ही दिन दोनों प्रमुख उम्मीदवार आमने-सामने हो गए । दो गाँवों के बीच, जंगल में दोनों की जीपें आमने-सामने हुईं । अपने स्वभावानुसार दादा ने दोनो जीपें रुकवाईं । सामनेवाले उम्मीदवार का अभिवादन किया, कुशलक्षेम पूछी, ‘मेरे जैसा काम बताइएगा’ जैसा ‘आदर्श वाक्य’ उच्चारित किया । ‘सामनेवाला’ उम्मीदवार मानो इसी वाक्य की प्रतीक्षा में था । उसने ‘सरोष’ कहा कि दादा और उनके समर्थक/प्रचारक इस बार एक अनुचित काम कर रहे हैं । वे उनका (सामनेवाले उम्मीदवार का) नाम भी नहीं ले रहे हैं और इसी बात पर उन्हें आपत्ति है । उन्होंने कहा - ‘दादा ! आप काम पूछ रहे हैं ? बताता हूँ । आप और आपके लोग अपने भाषणों में मेरा नाम भी ले रहे हैं । यह अच्छी बात नहीं है । आप लोग मेरा नाम लेकर अपने भाषण दीजिए ।’ ‘सामनेवाले’ की इस बात ने, जीप में लदे-फँदे तमाम कार्यकर्ताओं का ध्यानाकर्षित किया । सबके सब मानो अपने रोम-रोम को कान बना बैठे । दादा ने कहा - ‘आपको तो खुश होना चाहिए कि आपको लेकर कोई व्यक्तिगत बात नहीं कही जा रही है । आपका नाम भी नहीं लिया जा रहा है ।’ ‘वे’ बोले - ‘यही तो तकलीफ है । आप लोग मेरा नाम भी नहीं ले रहे हैं । अपनी-अपनी कहे जा रहे हैं । आपकी इस हरकत के कारण दशा यह हो गई कि लोग मुझसे ही पूछने लगे हैं कि बैरागीजी के सामने कौन चुनाव लड़ रहा है ?’


इसके बाद के सम्वाद यहाँ प्रस्तुत करने का अब कोई अर्थ नहीं होगा । ‘रणनीति समिति’ में प्रस्तुत, दादा के प्रस्ताव का अर्थ, उसकी गम्भीरता और उसके गहरे प्रभाव का उदाहरण सबको मिल चुका था । दादा ने ‘सामनेवाले’ से सविनय क्षमा-याचना की कि वे (दादा) उनका अनुरोध स्वीकार नहीं कर पाएँगे । दादा ने नमस्कार कर विदा ली । दोनो जीपें, धूल उड़ाती, अपने-अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गईं ।


जीप में बैठे तमाम लोग (उनमें ‘रणनीति समिति’ के दो सदस्य भी थे) चकित और हतप्रभ बैठे थे । कुल दो लोग हँस रहे थे - दादा और जीप का चालक । जीप का चालक जोर-जोर से (ठहाकों के समीप पहुँचते हुए) हँस रहा था और दादा, मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे ।


चुनाव परिणाम के बारे में मैं अपनी कल वाली पोस्ट में बता चुका हूँ - दादा , अपेक्षा से अधिक मतों से विजयी हुए ।


आज के चुनावी वातावरण में यह संस्मरण ‘परि-कथा’ के समान रोचक, मोहक और अविश्‍वसनीय ही लगेगा । लेकिन इसका समानान्तर सच यह भी है कि दादा का यह विचार सचमुच में ‘दुस्साहसी’ ही था - आत्मघाती की सीमा तक दुस्साहसी । इस सन्दर्भ में दादा ‘असाधारण’ और 'आत्‍मविश्‍वास के अद्भुत धनी व्‍यक्ति' ही साबित हुए ।


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कृपयामेरा दूसरा ब्‍लाग 'मित्र-धन' (http://mitradhan.blogspot.com) भी पढें

4 comments:

  1. किसी के अस्तित्व को ही नकार दिया जावे तो क्या तिलमिलाहट नहीं होगी. नाम का ना लिया जाना सीधे सीधे अस्तित्व को नकारना ही तो हुआ. आभार.
    http://mallar.wordpress.com

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  2. असल में उपेक्षा ही ऐसी चीज है जिसे इंसान सहन नही कर सकता ! और यहाँ उसी का उपयोग सफलतापूर्वक किया गया है ! बाल कवि जी हमारे प्रदेश के सबसे सम्मानित और प्रखर इमानदार राजनीतिज्ञ रहे हैं ! उनकी राजनितिक कुशलता के किस्से तो अखबारों से मालुम पड़ते रहे हैं ! उनके कवि मन को प्रत्येक व्यक्ति जानता है ! उनके कवि सम्मेलनों को सिर्फ़ उनकी वजह से सुनने गया हूँ ! असल में ऐसे व्यक्तित्व बहुत कम होते हैं ! दादा को प्रणाम ! आजकल उनकी गतिविधियों की ख़बर नही मिल रही ! कृपया कुछ रोशनी डालियेगा ! आपके संस्मरण पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ! शुभकामनाएं !

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  3. "भारतीय जीवन बीमा निगम का पूर्णकालकि एजेण्ट । इस एजेन्सी के कारण धनपतियों की दुनिया में घूमने के बाद का निष्कर्ष कि पैसे से अधकि गरीब कोई नहीं । पैसा, जो खुद अकेले रहने को अभिशप्त तथा दूसरों को अकेला बनाने में माहिर । "

    मैंने आपके द्वारा लिखी ये लाइनें जब पढीं, तो रोक नहीं सका अपने आपको.. बहुत ही करीब से देखा है आपने सब कुछ... ऐसा ही प्रतीत हुआ.. बहुत बड़ा सच है ये.. पर न जाने क्या नशा है.. कि लोग बिना किए मानते ही नहीं हैं...

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  4. लाजवाब संस्मरण!

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