यह चित्र किसका है ?

अभी-अभी, भैया साहब (श्रीसुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) से बात हुई । वे इन्दौर स्थित सीएचएल अपोलो अस्पताल के कमरा नम्बर 210 से बोल रहे थे । 27 जुलाई रविवार को उन्हें वहां भर्ती कराया गया था, 28 को उनकी एंजियोप्लास्टी हुई । दो-एक दिन बाद उन्हें वहां से छुट्टी मिल जाएगी ।


उन्होंने तो नहीं बताया लेकिन उनके आस-पास से मालूम पड़ा कि वे जब घर लौटेंगे तब तक कोई दो लाख रुपयों का भुगतान कर चुके होंगे । यह आंकड़ा सुनकर मुझे पसीना आ गया । पता नहीं, उनके परिजनों ने कैसे इस रकम की व्यवस्था की होगी ?

भैया साहब ने बताया कि जब वे गहन चिकित्सा इकाई (आईसीयू) में थे, तब वहां पलंग प्राप्ति के लिए मरीजों की कतार लगी हुई थी । इसी तरह, भैया साहब को, आईसीयू से कमरे में शिफ़ट होने के लिए चैबीस घण्टे प्रतीक्षा करनी पड़ी क्यों कि कोई कमरा खाली नहीं था । कम से कम तीन सितारा व्यवस्थाओं वाले इस अस्पताल में कमरों की संख्या तो मुझे नहीं पता लेकिन आईसीयू में 30 बिस्तरों की व्यवस्था है । इससे वहां कमरों की संख्या का अनुमान आसानी से लगाया जा लगाया है ।

मेरे परिचित तीन परिवार, गर्मी की छुट्टियों में हरिद्वार गए थे । तीनों ही परिवार, तृतीय वर्ग शासकीय कर्मचारियों के हैं । तीनों परिवार अलग-अलग गए थे और अलग-अलग लौटे । वे लौटे तो उनके हालचाल पूछने गया । तीनों ने बताया कि इस बार उन्हें हरिद्वार में धर्मशालाओं में जगह मिलने में काफी कठिनाई हुई । यह विचित्र संयोग ही रहा कि तीनों परिवारों को, अलग-अलग धर्मशालाओं में कमरे पाने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी ।

हम बीमा एजेण्टों को, बीमा व्यवसाय का एक निर्धारित स्तर प्राप्त करने के बाद, भारतीय जीवन बीमा निगम प्रबन्धन, यात्रा खर्च में 10 हजार रुपयों तक की सुविधा उपलब्ध कराता है । इस सुविधा के पात्रताधारी चार एजेण्ट, अपनी-अपनी जीवनसंगिनियों के साथ कोलकाता गए थे । वहां उन्हें मध्यम दर्जे के होटलों में जगह प्राप्त करने के लिए घण्टों घूमना पड़ा और उसके बाद कमरे मिले भी तो किराया तो भरपूर था लेकिन सुविधाएं उसके अनुरूप नहीं थीं।

तीनों अनुभव मुझे उलझन में डाल रहे हैं । एक ओर, मुंहमांगी कीमत देने के बाद भी जगह नहीं मिल रही है तो दूसरी ओर धर्मशालाओं के लिए भी प्रतीक्षा करनी पड़ रही हैं । चित्र का तीसरा आयाम तो हताशाजनक है ही - देश की 70 प्रतिशत से अधिक की आबादी मात्र 20 रुपये रोज पर जीवन-यापन करने को विवश है ।

हमारे देश की यह कौन सी तस्वीर है ?

‘विहिप’ का अधूरा विश्व

हिन्‍दुत्‍व और सारी दुनिया के हिन्दुओं की चिन्ता करने का दावा करने वाली ‘विश्व हिन्दू परिषद्’ को ऐसा सुनहरा मौका मिला है जिससे वह सारी दुनिया में अपनी ईमानदारी की मिसाल प्रस्तुत कर सके ।

‘जनसत्ता’ (दिल्ली) के, 28 जुलाई 2008 वाले अंक के दूसरे पृ’ठ पर, ‘पाकिस्तानी हिन्दू अपनी सुरक्षा को लेकर हैं’ शीर्षक समाचार, चार कालम में छपा है । इसे समाचार एजेंसी ‘भाषा’ ने प्रसारित किया है । समाचार के अनुसार, सिन्ध प्रान्त में हिन्दुओं को लगातार लूट और डकैती का निशाना बनाए जाने को लेकर, वहाँ के अल्पसंख्यक समुदाय की प्रतिनिधि संस्था, ‘पाकिस्तान हिन्दू परिषद्’ (पीएचसी) के प्रतिनिधिमण्डल ने चिन्ता जताते हुए, इस्लामाबाद की संघीय सरकार से इन घटनाओं को रोकने के लिए तुरन्त कड़े कदम उठाने और अल्पसंख्यक समुदाय की सुरक्षा करने की माँग की है । समाचार में, पीएचसी के सचिव हरी मोटवानी के हवाले से कहा गया है कि कुछ हथियारबन्द लोग जकोकाबाद स्थित एक मन्दिर में घुस गए और उन्होंने कोई 350 हिन्दू महिलाओं से लाखों रुपये की नगदी एवम् गहने लूट लिए । ऐसी विभिन्न घटनाओं में अब तक लगभग सात करोड़ रुपयों की लूट हो चुकी है । जकोकाबाद मन्दिर में हुई लूट की घटना के विरोध में, कराची में हुए प्रदर्शन में बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने भाग लिया । मोटवानी के अनुसार, लूट की यह घटना दिन के समय हुई, इसके बावजूद पुलिस इसे रोक नहीं पाई । इस घटना के बाद अल्पसंख्यक समुदाय के लोग, खास कर महिलाएँ धार्मिक स्थानों पर जाने से डरने लगे हैं । मोटवानी ने सरकार से माँग की कि डकैतों को तुरन्त पकड़ा जाए और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए ।

सिन्ध के पूर्व सांसद डाक्टर रमेश लाल ने पुलिस और अन्य कानूनी एजेसिंयों पर, नागरिकों, खास तौर पर अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में नाकाम होने का आरोप लगाया है ।

इस समाचार से पहले भी, इसी अखबार में पाकिस्तानी हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों के छिटपुट समाचार छपते रहे हैं । एक समाचार में उन गाँवों/ढाणियों का नामजद उल्लेख किया गया था जहाँ के हिन्दू परिवारों का बलात् धर्मान्तरण किया गया ।

‘विहिप’ ने भारत में अपनी जो पहचान और छवि बनाई है वह न तो सर्वमान्य है और न ही सर्वस्वीकार । उस पर, ‘संघ परिवार’ के निर्देश पर, भाजपा के लिए सत्ता का रास्ता सुगम बनाने के प्रयास करने के आरोप जगजाहिर हैं । कोई हिन्दू लड़की किसी मुस्लिम लड़के के साथ विवाह कर ले तो ‘विहिप’ के लोग ताण्डव मचा देते हैं । हिन्दुओं द्वारा बेची गई गायों से भरे ट्रकों को रोक कर, वाहन चालकों और खरीदी करने वालों की पिटाई करने को उतावले रहते हैं, किसी उपेक्षित-अनजान धार्मिक स्थल को अपवित्र करने के नाम पर छोटे-छोटे गाँवों में तूफान बरपा देते हैं । ‘विहिप’ कार्यकर्ताओं के ऐसे कामों को सम्पूर्ण हिन्दू समुदाय का सम्पूर्ण समर्थन भारत में तो आज तक कहीं भी नहीं मिला है । इसके विपरीत, इसे उपद्रवी संगठन की पहचान आसानी से मिलने लगी है ।

ऐसे में, पाकिस्तान से आया यह समाचार, ‘विहिप’ के लिए सुनहरा अवसर प्रस्तुत कर रहा है । यह ठीक प्रसंग और ठीक अवसर है कि ‘विहिप’ अपने नाम को और अपनी गतिविधियों को तार्किक जामा पहना कर उनका औचित्य साबित कर सके । भारत के हिन्दुओं के हिन्दुत्व को पहली नजर में कोई खतरा नहीं है । लेकिन पाकिस्तान में तो चूंकि हिन्दू प्रारम्भ से ही अल्पसंख्यक हैं और वह एक इस्लामी देश है, सो वहाँ तो हिन्दुत्व रक्षा के लिए निरन्तर और असमाप्त प्रयासों की जरूरत है । ‘विहिप’ को यह काम हाथ में लेने में एक पल का भी विलम्ब नहीं करना चाहिए ।

‘विहिप’ यदि ऐसा नहीं कर पाती है तो उसके नाम ‘विश्व हिन्दू परिषद्’ पर ही सवाल लग जाएगा । तब उसे अपना नाम बदल कर ‘हिन्दुत्व के लिए काम करने वाले गिनती के भारतीयों की हिन्दू परिषद्’ रखने पर विचार करना पड़ सकता है ।

मेरी मूर्खता पर हँसिए

इसी 25 जुलाई शुक्रवार की बात है । ‘उपग्रह’ के कार्यकारी सम्पादक श्रीसुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़ (हम सबके ‘भैया साहब’) सवेरे-सवेरे, लगभग छः-सवा छः बजे हृदयाघात के शिकार हो गए । उन्हें, डाक्टर सुभेदार साहब के ‘आशीर्वाद नर्सिंग होम’ ले जाया गया । यह नर्सिंग होम रतलाम और आसपास के लोगों के लिए अस्पताल से आगे बढ़कर आस्था केन्द्र बन गया है ।

सुभेदार दम्पति (डाक्टर जयन्त सुभेदार और डाक्टर पूर्णिमा सुभेदार) के जितने ‘अन्ध-भक्त’ इस अंचल में मिलेंगे वह अन्य डाक्टरों के लिए ईष्र्या का विषय हो न हो, जिज्ञासा का विषय जरूर हो सकता है । चिकित्सा क्षेत्र के लगभग तमाम पक्षों की अद्यतन जानकारी रखना इस दम्पति का व्यसन है । लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं कि सामाजिकता से दूर हो जाएँ । व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक व्यवहार निभाने में भी यह दम्पति अपने समूचे परिवार सहित पहचाना और सराहा जाता है । ये जितने उत्कृष्ट चिकित्सक हैं, उतने ही उत्कृष्ट ‘मनुष्य’ भी हैं । व्यावसायिकता, पारिवारिकता, सामाजिकता और नियमित-निरन्तर अध्ययन जैसे समस्त कारकों को यह दम्पति कैसे साध लेता है - यह सबके लिए अब तक अबूझ पहेली बना हुआ है । यह मेरा और मेरे परिवार का सौभाग्य ही है कि सुभेदार परिवार की आत्मीयता, पारिवारिकता और संरक्षण की सुरक्षा हमें मिली हुई है ।

पौने सात बजते-बजते भैया साहब सहित हम लोग आशीर्वाद नर्सिंग होम पहुँच चुके थे । डाक्टर साहब से पहले ही बात हो गई थी, सो वे तो हमसे पहले ही, पहियेदार कुर्सी सहित दरवाजे पर मरीज की प्रतीक्षा कर रहे थे । गहन चिकित्सा कक्ष में तैयारी पूरी थी । डाक्टर साहब और स्टाफ ने भैया साहब को कब्जे में लिया और उपचार शुरु हो गया । हम लोगों के लिए अब ‘रुको, देखो और प्रतीक्षा करो’ के सिवाय और कोई काम नहीं था । लेकिन मरीज के साथ आने वाले हम लोग केवल यही काम नहीं कर सकते थे । सो हम सब अपनी-अपनी डाक्टरी लगाते हुए बतियाने लगे ।

सवा सात बजते-बजे, नर्सिंग होम के रिसेप्शन का फोन घनघनाने लगा । वहाँ कोई मौजूद नहीं था । मैं, सुभेदार परिवार से प्राप्त स्नेहादर-भाव को अपना अधिकार मानता हूँ । घनघना रहे टेलीफोन ने इस अधिकार-भाव वाले सिक्के के दूसरे पहलू, कर्तव्य-बोध को जगा दिया और मैं ने अपनी सीमाओं का (और शिष्टाचार तथा शालीनता का भी) अतिक्रमण करते हुए टेलीफोन अटेण्ड करना शुरु कर दिया । डाक्टर साहब से इलाज कराने वाले अपना नम्बर लगवाने के लिए टेलीफोन कर रहे थे । मैं ने सबके नाम लिखना शुरु कर दिया लेकिन साथ ही साथ यह भी कहता रहा कि वे नौ बजे के आसपास अपने नम्बर की पुष्टि जरूर कर लें क्यों कि मैं खुद एक मरीज लेकर आया हूँ और अस्पताल के स्टाफ की अनुपस्थिति में नाम लिख रहा हूँ । यह सब करते हुए मुझे बहुत अच्छा लग रहा था । डाक्टर साहब की परोक्ष सहायता कर पाने का अवसर पा कर मैं पुलकित, प्रसन्न और आह्लादित था ।

आठ बजे के आसपास रिसेप्शनिस्ट आई तो मरीजों की सूची देखकर हैरत में पड़ गई । उसने अकबकाई नजरों से मुझे देखा । मैं ने सुभेदार साहब से अपनी पारिवारिकता का हवाला तनिक दम्भ से देते हुए ऐसे जताया मानो मैं ने उसकी नौकरी बचा ली है । लेकिन उसकी परेशानी कम होने के बजाय घबराहट में बदलती लगी । मुझे ताज्जुब हुआ कि सवेरे-सवेरे तो उसे ताजगी और स्फूर्ति के चरम पर होना चाहिए था और वह थी कि कुम्हलाई जा रही थी ! तभी मुझे मालूम हुआ कि वहां, ‘सर’ और ‘मैडम’ के मरीजों की सूची अलग-अलग बनाई जाती है जबकि मैं ने दोनों के मरीजों के नाम एक ही सूची में लिख दिए थे । मुझे लगा कि रिसेप्शनिस्ट को मेरी इस गड़बड़ी से घबराहट हुई होगी ।

रिसेप्शनिस्ट ने अपना काम सम्हाल लिया था और मैं एक बार फिर फुरसत में हो गया था । लेकिन इस बार मैं ‘दाम्भिक प्रसन्नता’ से ओतप्रोत था - चलो, सवेरे-सवेरे मैं ने कुछ तो अच्छा काम किया ।

उधर भैया साहब का इलाज चल रहा था । सब कुछ नियन्त्रण में था और वे बेहतर हो रहे थे । भैया साहब का पूरा कुटुम्ब और उनका जनसम्पर्क-जनित हितचिन्तक समुदाय का बड़ा भाग वहाँ जुट चुका था । हम सब मिल कर वहाँ अच्छी-खासी, असुविधाजनक भीड़ बन चुके थे । कोई पौने नौ बजे मैं वहाँ से चला आया ।

अपना, बीमे का कामकाज निपटा कर, दोपहर बाद फिर पहुँचा । नर्सिंग होम में मेला लगा हुआ था । भैया साहब के हालचाल जाने, डाक्टर साहब के बारे में पूछा । मालूम हुआ कि दो-ढाई बजे तक तो उन्होंने मरीज देखे फिर उठ गए । अब उनके निष्णात् सहयोगी डाक्टर समीर व्यास मरीजों से जूझ रहे हैं । मालूम पड़ा कि डाक्टर साहब आज झुँझला रहे थे । लगभग साढ़े चार बजे जब समीर भाई निपटे तब टोकन इण्डिकेटर बता रहा था कि आज दिन भर में 58 मरीज देखे गए हैं ।

भैया साहब की बीमारी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए जब हम लोग चेम्बर में घुसे तो समीर भाई बोले - ‘बैरागीजी ! आज आपने फँसा दिया । सवेरे नौ बजे से जो सिर झुकाया है तो अब साढ़े चार बजे उठा पाए हैं ।’ मैं समझ नहीं पाया । मरीज देखना तो उनका रोज का काम है, भला मैं ने उन्हें कैसे फँसा दिया ? मुझे मूढ़मति की तरह सवालिया नजरों से अपनी तरफ देखते हुए डाक्टर समीर ने बताया कि डाक्टर साहब गई रात कोई ढाई-तीन बजे तक व्यस्त थे । उन्होंने रात को ही सन्देश दे दिया था कि आज मरीज नहीं देखे जाएँगे । सो, वे निश्चन्त होकर बिस्तर में थे और इसीलिए डाक्टर समीर भी अतिरिक्त अनौपचारिकता से अस्पताल पहुँचे थे । लेकिन यहाँ आते ही घबराई रिसेप्शनिस्ट ने बताया कि मरीजों के नाम लिखे जा चुके हैं और लिखे गए नामों में से सबके सब प्रायः रतलाम के आसपास के गाँवों से हैं । समीर भाई ने चिढ़कर पूछा कि डाक्टर साहब के आदेश की अवहेलना क्यों की गई ? रिसेप्शनिस्ट ने बमाया कि आईसीयू में सवेरे-सवेरे भर्ती हुए मरीज के एक अटेण्डेण्ट ने अपनी मर्जी से नाम लिख लिए । समीर भाई ने तलाश की । रिसेप्शनिस्ट बेचारी मेरा नाम तो जानती नहीं थी । लेकिन समीर भाई को जैसे ही भैया साहब के भर्ती होने की जानकरी मिली, वे फौरन समझ गए कि मरीज का यह अशिष्ट अटेण्डेण्ट और कोई नहीं, मैं था । एक तो मेरा लिहाज और दूसरे, मरीजों का नाम लिख लिया जाना - वे मरीज देखने के सिवाय और कुछ भी करने की स्थिति में नहीं थे । उन्होंने फौरन डाक्टर सुभेदार साहब को खबर भिजवाई । वे भन्ना गए । भन्नाते नहीं तो क्या करते ?

समीर भाई ने उन्‍हें कुछ भी नहीं बताया । रोज के समय पर डाक्टर सुभेदार साहब को चेम्बर में आना पड़ा । लेकिन आधा दिन बैठकर चले गए । तब भी वे भन्नाए हुए ही थे । रिसेप्शनिस्ट डर के मारे उनके सामने आने से बराबर बचती रही । लेकिन सुभेदार साहब से बात कब तक छुपती ? जल्दी ही उन्हें मालूम हो गया कि यह ‘सदाशयतापूर्ण मूर्खता’ मेरी थी । उन्होंने माथा ठोक लिया । प्रकटतः क्या कहा, यह तो पता नहीं लेकिन मैं अनुमान लगा रहा हूँ के उन्होंने ‘ये विष्णु भाई साहब भी कमाल करते हैं’ जैसा ही कुछ कह कर अपने आप को समझाया होगा ।

पूरा किस्सा सुना कर डाक्टर समीर ठठा कर हँस रहे थे, मेरे साथ बैठे सुशील भाई छाजेड़ और कामरेड आर. पी. सक्सेना मेरी दशा देखकर तय नहीं कर पा रहे थे कि डाक्टर समीर की हँसी में साथ दें या मेरी मिजाजपुर्सी करें । मैं खुद उलझन में था - मैं ने यह क्या कर दिया ? ऐसा तो मैं ने नहीं सोचा था । मैं ने समीर भाई से क्षमा याचना की तो वे असहज हो उठे । बोले - ‘क्षमा मत माँगिए । आपने भला करने की नीयत से ही यह सब किया । 'सर' को और मुझे भले ही थोड़ी असुविधा हुई लेकिन जिन मरीजों को देखा है, उनकी दुआएँ तो आपको मिलेंगी ।’ उम्र में बड़ा मैं था लेकिन बड़प्पन दिखा रहे थे, उम्र में मुझसे काफी छोटे डाक्टर समीर । मैं शर्मिन्दा होने की सीमा तक संकुचित हो गया । मुझसे न तो बोलते बन रहा था और न ही चुप रहते । शब्द गले में अटक रहे थे । अब मुझे सूझ पड़ रहा था कि सवेरे रिसेप्शनिस्ट क्यों कुम्हलाने लगी थी । मैं ने उससे भी माफी माँगी । उसने कहा तो कुछ भी नहीं लेकिन मुस्कुराहट को होठों में सायास कैद करते हुए उसने जिस तरह से मुझे देखा उससे लगा कि वह कह रही थी -आपसे भर पाई । आज मैं तो बच गई लेकिन आगे से ऐसा कहीं भी, किसी के साथ मत करना ।

रात को डाक्टर सुभेदार साहब से मुलाकात हुई तो मैं ने उनसे माफी माँगी । वे खूब हँसे । बोले -‘जो हो गया, उसकी बात क्या करना ?’

रविवार, 27 जुलाई को भैया साहब को नर्सिंग होम से डिस्चार्ज कर सीधे इन्दौर भेज दिया गया । कल, सोमवार 28 जुलाई को उनकी एंजियोप्लास्टी हो गई है । खतरा टल गया है । ईश्वर की कृपा से हमें उनकी छत्र-छाया पूर्वानुसार मिलती रहेगी । मित्र मण्डल को उनकी तबीयत की सूचना देने का काम मेरे जिम्मे है । कल से मैं जिस-जिस को सूचना दे रहा हूँ वह मुझे धन्यवाद देकर फोन बन्द करने से पहले पूछ रहा है - ‘सुभेदार साहब को दिखाने के लिए अपाइण्टमेण्ट लेना है । नाम लिखोगे ?’

सब मेरे मजे ले रहे हैं । मुझे झेंप आ रही है । लेकिन मैं अपने आप को समझा रहा हूँ - ईश्वर की कृपा है कि मुझसे किसी का बुरा नहीं हुआ ।

इसलिए झूठे हैं नेता

नेता की विश्वसनीयता आज की सर्वाधिक अनुपलब्ध ‘चीज’ है । बेशर्मी को गहना बना कर, सीनाजोरी की सीमा तक जाकर नेता किस तरह से सार्वजनिक रूप से झूठ बोलते हैं इसका ताजा उदाहरण इसी 25 जुलाई को, मन्दसौर जिले के छोटे से गाँव ‘बूढ़ा’ में सामने आया है ।

बूढ़ा, एक समृध्द गाँव है । कोई पचीस बरस पहले से ही इसे ‘ट्रेक्टर ग्राम’ का खिताब मिला हुआ है । इसकी आबादी पाँच हजार से कम ही है लेकिन यहाँ ट्रैक्टर ट्राली बनाने की तीस-पैंतीस ‘वर्क शाप’ हुआ करती थी । समृध्दि इस गाँव का पर्याय है । राजनीति इस गाँव में भी खूब होती है । समृध्दि ने इसे अतिरिक्त खाद-पानी दे रखा है । यहाँ के भाजपा कार्यकर्ताओं ने नागरिकों से धन-संग्रह कर, पण्डित दीनदयाल उपाध्याय की, वक्ष तक की मूर्ति (बस्ट) लगवाई । इसका अनावरण बाकी था । कोशिश की जा रही थी कि मुख्यमन्त्री के हाथों इसका अनावरण कराया जाए । इस हेतु, बूढ़ा भाजपा मण्डलाध्यक्ष अपने साथियों सहित एकाधिक बार भोपाल जाकर मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चैहान से मिल चुके थे लेकिन कोई तारीख तय नहीं हो पाई थी । सो, यह मूर्ति, गाँव के चैराहे पर कपड़े से बँधी खड़ी थी ।

मध्यप्रदेश में इन दिनों बिजली कटौती सरकार का सबसे बड़ा सरदर्द बनी हुई है । आम लोगों को तो छोड़िए, बिजली कम्पनी के अधिकारियों तक को पता नहीं कि बिजली कब आएगी और कब जाएगी । प्रदेश में, गाँव-गाँव में किसान और नागरिक सड़कों पर उतर रहे हैं । धरना, चक्का-जाम, घेराव, अधिकारियों की पिटाई और बिजली सब स्टेशनों को जलाने की घटनाएँ अखबारों की स्थायी सुर्खियाँ बनी हुई हैं ।

25 जुलाई को, उमा भारती की पार्टी, भारतीय जन शक्ति (भाजश) ने, बूढ़ा और आस-पास के कोई बीस गाँवों में हो रही बिजली कटौती के विरोध में, बूढ़ा में जंगी प्रदर्शन किया । प्रदर्शन के दौरान, प्रदर्शनकारियों की नजर, कपड़ों में लिपटी, उपाध्याय-प्रतिमा पर पड़ी और सर्वथा अनायोजित स्तर पर, आकस्मिक-अनपेक्षित रूप से, मूर्ति पर लिपटे कपड़े को पूरी तरह से फाड़कर, मूर्ति का अनावरण और लोकार्पण कर दिया । भाजश के कार्यकर्ताओं ने, मौके पर मौजूद ग्रामीणों के हाथों, मूर्ति को फूलमालाएँ पहना कर, अपनी कर्रवाई को अच्छे-खासे समारोह का रूप दे दिया । इस ‘जनता अनावरण-लोकार्पण समारोह’ को हजारों लोगों ने देखा भी और बार-बार तालियाँ बजाकर इसमे भागीदारी भी की । चूँकि समूचा प्रदर्शन पूर्व-घोषित और पूर्व आयोजित था, सो पुलिस और प्रशासन का भरपूर अमला भी मौके पर मौजूद था । उस समय ‘बूढ़ा भाजपा’ के तमाम पदाधिकारी और अधिकांश कार्यकर्ता, जिला मुख्यालय मन्दसौर में, मल्हारगढ़ विधानसभा क्षेत्र के भाजपा कार्यकर्ता सम्मेलन में भाग ले रहे थे । वहीं सबको इस घटना की जानकारी मिली तो हड़बड़ाहट और अफरातफरी मच गई ।

भाजपा कार्यकर्ता, मन्दसौर से लौटते उससे पहले ही सरकारी कारिन्दों ने मूर्ति को फिर से कपड़े में बाँध दिया । खिसियाए और असहाय भाजपाइयों ने कलेक्टर से शिकायत की और फिर अपना सार्वजनिक बयान प्रसारित किया कि मूर्ति का न तो अनावरण हुआ है और न ही लोकार्पण । इस हेतु विधिवत आयोजन जल्दी ही करने की बात भी इन नेताओं ने अपने बयान में कही ।

भाजश कार्यकर्ताओं द्वारा, उपाध्याय प्रतिमा के इस ‘जनता अनावरण-लोकार्पण समारोह’ के सचित्र समाचार अंचल के और स्थानीय अखबारों में विस्तृत रूप से और प्रमुखता से प्रकाशित हुए । हजारों लोगों ने मौके पर इस घटना को देखा, तालियाँ बजाईं । लेकिन बूढ़ा के तमाम भाजपा नेता ऐसा कुछ भी होने से इंकार कर रहे हैं । सामने तो कोई कुछ भी नहीं बोल रहा, लेकिन पीठ पीछे लोग भाजपाइयों की खिल्ली उड़ा रहे हैं और हकीकत को झुठलाने के लिए उन्हें ‘झूठों का सिरमौर’ तक कह रहे हैं । ऐसे प्रसंग पर लोग वह सब कह-कह कर मजे ले रहे हैं जिसकी कल्पना आप-हम आसानी से कर सकते हैं । लेकिन भाजपाइयों पर किसी बात का असर नहीं हो रहा है । वे ऐसी कोई घटना होने से बार-बार इंकार कर रहे हैं ।

यहाँ मुझे, माधवराव सिन्धिया का एक किस्सा याद आ रहा है । तब वे रेल राज्य मन्त्री थे । रतलाम में, सैलाना मार्ग पर रेल्वे-ओवर ब्रिज बन चुका था लेकिन उद्घाटन समारोह आयोजित करने के चक्कर में उसे चालू नहीं किया जा रहा था । लोगों को अत्यधिक कठिनाई और असुविधा हो रही थी लेकिन कांग्रेसी और रेल अधिकारी आँखें मूँदे, उद्घाटन समारोह आयोजित करने की जिद पर अड़े हुए थे । लोगों ने, छुट-पुट स्तर पर ओवर ब्रिज का उपयोग शुरू कर दिया था । देखा जाए तो पुल पर आवागमन की शुरूआत हो चुकी थी । लेकिन ‘आलंकारिक समारोह’ तो बाकी ही था ।

ऐसे में, रतलाम नगर विधान सभा क्षेत्र के विधायक हिम्मत कोठारी एक शाम अपने कुछ कार्यकर्ता साथियों के साथ पहुँचे और पुल का ‘जनता-लोकार्पण’ कर दिया । (तब वे प्रतिपक्ष के विधायक थे और आज वे प्रदेश के गृह तथा परिवहन मन्त्री हैं ।) पेरशान लोग तो उतावले बैठे, पुल की शुरूआत की प्रतीक्षा कर रहे थे । रतलाम के कांग्रेसियों को यह हरकत नागवार तो गुजरी लेकिन वे कर ही क्या सकते थे ? मन मारकर, चुप बैठे रहे । किसी ने कोई वक्तव्य जारी नहीं किया और पुल के ‘जनता-लोकार्पण’ को स्वीकार कर लिया ।

लेकिन कुछ लोगों ने फिर भी सिन्धिया से सम्पर्क कर न केवल शिकायत की बल्कि ओवर ब्रिज के लोकार्पण समारोह का आग्रह भी किया । तब सिन्धिया ने जो कुछ कहा था उसका मतलब था कि पुल के लोकार्पण में अकारण देरी करना अपने आप में गलती थी । अब यदि लोकार्पण समारोह करेंगे तो यह मूर्खता होगी । सो, उस पुल का कोई औपचारिक और विभागीय लोकार्पण नहीं हुआ । परिणाम यह हुआ कि लोग, कोठारी के ‘जनता-लोकार्पण’ को तो भूल गए और सिन्धिया की यह समझदारी लम्बे समय तक याद रखे रहे । चुप रहकर सिन्धिया ने न केवल समझदारी दिखाई बल्कि खुद को, अपने विभाग और अपनी पार्टी को जग हँसाई से भी बचा लिया ।

यह तो हमारी ही दर्पण छवि है

लोक सभा में कल जो हुआ, जो दिखा उससे हतप्रभ, क्षुब्ध और शर्मिन्दा होने का पाखण्ड करने की हिम्मत मुझमें बिलकुल ही नहीं है । जो भी हुआ और दिखा वह सब पहले से होता चला आ रहा था, सबको पता था । अन्तर यही पड़ा कि वह सब खुलकर सामने आ गया । जो भी हुआ उसमें नया और अनूठा क्या है ? लोकतन्त्र अपने आप नहीं चलता और न ही इसका कोई अन्तिम मुकाम है । यह ऐसी अनवरत यात्रा है जिस में मोड़ आते रहते हैं । कल जिस मोड़ पर हमें हमारा लोकतन्त्र दिखाई दिया, वहाँ वह अपने आप नहीं पहुँचा । इसे इस मुकाम पर हम ही लाए हैं ।

हम एक पाखण्ड-प्रिय, आत्म-मुग्ध और प्रदर्शनप्रिय समाज हैं । इसीलिए हमारे ‘होने’ के मुकाबले हमारा ‘दिखना’ ही महत्वपूर्ण और अन्तिम कसौटी बन गया है । हम लोकतन्त्र में शरीक नहीं होना चाहते लेकिन लोकतन्त्र के पटरी से उतरने पर स्यापा करने और शोकान्तिकाएँ पढ़ने को उतावले रहते हैं । जिस ‘लोकतन्त्र’ में ‘लोक’ ही भागीदार बनने से इंकार कर दे तो फिर वहाँ केवल ‘तन्त्र’ बचा रहता है और ‘तन्त्र’ की अपनी न तो कोई भावनाएँ होती हैं, न मस्तिष्‍क और न ही सम्वेदनाएँ । हम राजनीति को ‘गन्दी नाली’ और राजनेता को ‘देश का अभिशाप’ मानते हैं लेकिन इस गन्दी नाली के सड़ांध मारते पानी का आचमन करने से परहेज नहीं करते, नेताओं को माला पहनाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहते और नेताओं के हाथों सम्मानित होने के अवसर यदि न मिलें तो खुद ऐसे अवसर आयोजित कर लेते हैं । हम चाहते हैं कि हमें लोकतन्त्र के लिए क्षणांश भी कुछ नहीं करना पड़े, बाकी सब लोग इसके लिए अपने प्राण न्यौछावर करें और हमें लोकतन्त्र के सारे मीठे, स्वास्थवर्धक फल खाने को मिलते रहें । हम वह समाज है जो कुछ भी खोना नहीं चाहता लेकिन सब पाना चाहता है । नतीजे में हम, सब-कुछ खो जाने के मुकाम पर आ खड़े हुए हैं । हम निकृष्ट कच्चे माल से उत्कृष्ट उत्पाद की कामना करते हैं और उत्पादन प्रक्रिया में शामिल होने से परहेज करते हैं ।

जब तक राजा थे तब तक ‘यथा राजा, तथा प्रजा’ वाली उक्ति उचित थी । आज राजा नहीं हैं । आज जो भी हैं वे ‘निर्वाचित जन प्रतिनिधि’ हैं । सबके सब हमारे द्वारा चुन कर भेजे गए । कोई भी अपनी मर्जी से विधायी सदनों में नहीं पहुँचा है । जाहिर है कि स्थिति ‘जैसे हम, वैसे हमारे प्रतिनिधि’ (या कि ‘यथा प्रजा, तथा राजा’) वाली उक्ति ही आज का सच है ।

हम सब भले ही ‘राष्ट्र’ की दुहाई देते हों लेकिन कटु-सत्य यह है कि ‘राष्ट्र’ हमारी प्राथमिकता सूची में अन्तिम स्थान पर है । (पता नहीं, वहाँ भी है या नहीं ।) हम अपनी मान्यता, अपनी धारणा को न केवल पूर्ण सत्‍य और अन्तिम मानते हैं अपितु चाहते हैं कि बाकी सब भी उसे जस का तस स्वीकार कर लें । हमें अपनी राजनीतिक अवधारणा में कोई खोट और कमी नजर नहीं आती और सामने वाली की राजनीतिक धारणा में कोई अच्छाई नजर नहीं आती । जब हम खुद को सम्पूर्ण निर्दोष (अन्तिम रूप से ‘पूर्ण’) मान लेते हैं तो किसी परिष्कार की सम्भावनाएँ तत्क्षण ही समाप्त हो जाती हैं ।

हर कोई सामने वाले में सुधार देखना चाहता है जबकि सुधार या कि परिष्कार की शुरुआत केवल खुद से होती है । हम अनाचार करते रहने की सुविधा स्थायी रूप से प्राप्त किए हुए रहना चाहते हैं और चाहते हैं कि दूसरा सदाचरण करे । यह कहीं भी, कभी भी सम्भव नहीं है । इसीलिए, लोक सभा में कल जो कुछ भी हुआ, वह हमारा ही किया-कराया था । वहाँ मौजूद तमाम लोग हमारी ही दर्पण छवि थे । हम अपनी सूरत सुधारना नहीं चाहते और सुन्दर, निष्कलंक दर्पण छवि की उम्मीद करते हैं ।

यह ठीक समय है कि हम राजनीति को और राजनेताओं को कोसना बन्द कर खुद राजनीति में भागीदारी करें । इसके लिए किसी राजनीतिक पार्टी में शामिल होना बिलकुल ही जरूरी नहीं है । जो देश के लिए गलत है, उसे गलत कहने की शुरुआत करें - फिर भले ही वह हमारी मानसिकता को अनुकूल पार्टी द्वारा ही क्यों न की जा रही हो ।

खुद से आँखें चुराते-चुराते हम हमारे लोकतन्त्र को जिस मोड़ पर ले आए हैं, उसे स्थायी मुकाम बनाने से बचाने का एक ही रास्ता है - हम लोकतन्त्र में भागीदारी करें और योगेश्वर कृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता में बताए गए ‘साक्षी-भाव’ से करें ।कुछ पाने के लिए कुछ खोने की शुरुआत करें । यदि ऐसा न कर सकें तो देश की दुर्दशा पर दुखी होने का पाखण्ड तो न करें ।

एक सन्त की वसीयत


कल मैं ने स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज का एक लेख प्रस्तुत किया था । आज यहाँ उनकी वसीयत प्रस्तुत है ।

स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज का स्थान राजस्थान के सिंथल में था लेकिन मृत्युपूर्व कोई पाँच वर्ष से वे ऋषिकेश में ही स्थापित हो गए थे । श्रीरामचरित मानस उनका प्रिय ग्रन्थ और भगवान् श्रीराम उनके आराध्य थे । गीता प्रेस गोरखपुर से, रामचरित मानस और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम से सम्बन्धित प्रकाशित साहित्य में श्री रामसुखदासजी महाराज का योगदान सर्वाधिक है । साधु-सन्तों में वे अपने प्रकार के एकमात्र थे - यह उनकी वसीयत पढ़ने के बाद ही अनुभव किया जा सकता है । उनकी वसीयत पढ़ने के बाद हमें अपने आस-पास के सन्तों का ‘सन्तपन’ अवास्तविक अनुभव होने लगता है । मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व के किसी वर्ष की मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी (गीता जयन्ती) को उन्होंने अपनी वसीयत लिखी थी जिसे गीता पे्रस, गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण’ के अगस्त 2005 अंक में अविकल प्रकाशित की थी । उनकी वसीयत यहाँ जस-की-जस प्रस्तुत है -

सेवा में विनम्र निवेदन (वसीयत)

(शरीर शान्त होने के बाद पालनीय आवश्यक निर्देश)

श्री भगवान् की असीम, अहैतुकी कृपा से ही जीवन को मानव शरीर मिलता है । इसका एकमात्र उद्देश्य केवल भगवत्प्राप्ति ही है । परन्तु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूल कर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है । शरीर को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण उसका शरीर से इतना मोह हो जाता है कि इसका नाम तक उसको प्रिय लगने लगता है । शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है । इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है । शरीर नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है । वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बड़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो । वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता । इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवम् नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है । परन्तु शरीर का मान-आदर एवम् नाम की स्तुति-प्रशंसा का भाव इतना व्यापक है कि मनुष्य अपने तथा अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, प्रत्युत् जो भगवदाज्ञा, महापुरुष-वचन तथा शास्त्र मर्यादा के अनुसार सच्चे हृदय से अपने लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति)-में लगे रहकर इन दोषों से दूर रहना चाहते हैं, उन साधकों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करने लग जाते हैं । अधिक क्या कहा जाय, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाए रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबध्द करते हैं एवम् उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं । विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं । इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बन्धित एकपक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते हैं और प्रकाशित करवाते हैं । कहने को तो वे अपने- आप को उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही कराते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं ।

श्रद्धातत्व अविनाशी है । अतः उन साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि विनाशी देह या नाम में । नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । परन्तु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं । अतः भगवान् के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक श्रीविग्रह की पूजा तथा उनके अविनाशी नाम की स्मृति को छोड़ कर इन नाशवान् शरीरों तथा नामों को महत्व देने से न केवल अपना जीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत् अपने साथ महान् धोखा भी होता है ।

वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है । इसको उत्तम-से-उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो तो वह मल बनकर निकल जाएगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पिला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जाएगा । जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है । वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता । चित्र लिया जाता है तो उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है । इसलिए चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था । इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’)- की ही पूजा हुई । चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ ।

हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वदा सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण । शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं । अतः महात्मा के कहे जाने वाले शरीर का आदर करना, मल का आदर करना हुआ । क्या यह उचित है ? यदि कोई कहे कि जैसे भगवान् के चित्र आदि की पूजा होती है, वैसे ही महात्मा के चित्र आदि की पूजा की जाए तो क्या आपत्ति है ? तो यह कहना भी उचित नहीं है । कारण कि भगवान् का शरीर चिन्मय एवम् अविनाशी होता है, जबकि महात्मा कहा जाने वाला शरीर पाञ्चभौतिक शरीर होने के कारण जड़ एवम् विनाशी होता है ।

भगवान् सर्वव्यापी हैं, अतः वे चित्र में भी हैं, परन्तु महात्मा की सर्वव्यापकता (शरीर से अलग) भगवान् की सर्वव्यापकता के ही अन्तर्गत होती है । एक भगवान् के अन्तर्गत समस्त महात्मा हैं, अतः भगवान् की पूजा के अन्तर्गत सभी महात्माओं की पूजा स्वतः हो जाती है । यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम भगवान् की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो महात्माओं के सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीत है । महात्मा तो संसार में लोगों को भगवान् की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए । जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है । वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं ।

वास्तविक जीवनी या चरित्र वही होता है जो सांगोपांग हो अर्थात् जीवन की अच्छी-बुरी (सद्गुण, दुर्गुण, सदाचार, दुराचार आदि) सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन हो । अपने जीवन की समस्त घटनाओं को यथार्थ रूप से मनुष्य स्वयम् ही जान सकता है । दूसरे मनुष्य तो उसकी बाहरी क्रियाओं को देखकर अपनी बुद्धि के अनुसार उसके बारे में अनुमान मात्र कर सकते हैं, जो प्रायः यथार्थ नहीं होता । आजकल जो जीवनी लिखी जाती है, उसमें दोषों को छुपाकर गुणों का ही मिथ्यारूप से अधिक वर्णन करने के कारण वह सांगोपांग तथा पूर्णरूप से सत्य होती ही नहीं । वास्तव में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के चरित्र से बढ़कर और किसी का चरित्र क्या हो सकता है । अतः उन्हीं के चरित्र को पढ़ना-सुनना चाहिए और उसके अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए । जिसको हम महात्मा मानते हैं, उसका सिद्धान्त और उपदेश ही श्रेष्ठ होता है, अतः उसी के अनुसार अपना जीवन बनाने का यत्न करना चाहिए ।

उपर्युक्त सभी बातों पर विचार करके मैं सभी परिचित सन्तों तथा सद्गृहस्थों से एक विनम्र निवेदन प्रस्तुत कर रहा हूँ । इसमें सभी बातें मैं ने व्यक्तिगत आधार पर प्रकट की हैं अर्थात् मैंने अपने व्यक्तिगत चित्र, स्मारक, जीवनी आदि का ही निषेध किया है । मेरी शारीरिक असमर्थता के समय तथा शरीर शान्त होने के बाद इस शरीर के प्रति आपका क्या दायित्व रहेगा- इसका स्पष्ट निर्देश करना ही इस लेख का प्रयोजन है ।

(1)

यदि यह शरीर चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में असमर्थ हो जाए एवं वैद्यों-डाक्टरों की राय से शरीर के रहने की कोई आशा प्रतीत न हो तो इसको गंगाजी के तटवर्ती स्थान पर ले जाया जाना चाहिए । उस समय किसी भी प्रकार की ओषधि आदि का प्रयोग न करके केवल गंगाजल तथा तुलसीदल का ही प्रयोग किया जाना चाहिए । उस समय अनवरतरूप से भगवन्नाम का जप कीर्तन और श्रीमद्भगवत्गीता, श्रीविष्णुसहस्त्रनाम, श्रीरामचरितमानस आदि पूज्य ग्रन्थों का श्रवण कराया जाना चाहिए ।

(2)

इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद इस पर गोपीचन्दन एवं तुलसीमाला के सिवाय पुष्प, इत्र, गुलाल आदि का प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए । निष्प्राण शरीर को साधु-परम्परा के अनुसार कपड़े की झोली में ले जाया जाना चाहिए न कि लकड़ी आदि से निर्मित वैकुण्ठी (विमान) आदि में ।जिस प्रकार इस शरीर की जीवित अवस्था में चरण-स्पर्श, दण्डवत् प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नामकी जयकार आदि का निषेध करता आया हूँ, उसी प्रकार इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद भी चरण-स्पर्श, दण्डवत् प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध समझना चाहिए ।इस शरीर की जीवित- अवस्था के, मृत्यु-अवस्था के तथा अन्तिम संस्कार आदि के चित्र (फोटो) लेने का मैं सर्वथा निषेध करता हूँ ।

(3)

मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि अन्य नगर या गाँव में इस शरीर के शान्त होने पर इसको वाहन में रखकर गंगाजी के तट पर ले जाया जाना चाहिए और वहीं इसका अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए । यदि किसी अपरिहार्य कारण से ऐसा होना कदापि सम्भव न हो सके तो जिस नगर या गाँव में शरीर शान्त हो जाए, वहीं गायों के गाँव से जंगल की ओर जाने-आने के मार्ग (गोवा) अथवा नगर या गाँव से बाहर जहाँ गायें विश्राम आदि किया करती है, वहाँ इस शरीर का सूर्य की साक्षी में अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए ।इस शरीर के शान्त होने पर किसी की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए ।अन्तिम संस्कारपर्यन्त केवल भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप आदि ही होने चाहिए और अत्यन्त सादगी के साथ अन्तिम संस्कार करना चाहिए ।

(4)

अन्तिम संस्कार के समय इस शरीर की दैनिकोपयोगी सामग्री (कपड़े, खड़ाऊँ, जूते आदि)-को भी इस शरीर के साथ ही जला देना चाहिए तथा अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि)-को पूजा में अथवा स्मृति के रूप में बिलकुल नहीं रखना चाहिए, प्रत्युत् उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिए ।

(5)

जिस स्थान पर इस शरीर का अन्तिम संस्कार किया जाए, वहाँ मेरी स्मृति के रूप में कुछ भी नहीं बनाना चाहिए, यहाँ तक कि उस स्थान पर केवल पत्थर आदि को रखने का भी मैं निषेध करता हूँ । अन्तिम संस्कार से पूर्व वह स्थल जैसा उपेक्षित रहा है, इस शरीर के अन्तिम संस्कार के बाद भी वह स्थल वैसे ही उपेक्षित रहना चाहिए । अन्तिम संस्कार के बाद अस्थि आदि सम्पूर्ण अवशिष्ट सामग्री को गंगाजी में प्रवाहित कर देना चाहिए ।मेरी स्मृति के रूप में कहीं भी गौशाला, पाठशाला, चिकित्सालय आदि सेवार्थ संस्थाएँ नहीं बनानी चाहिए । अपने जीवनकाल में भी मैं ने अपने लिए कभी कहीं किसी मकान आदि का निर्माण नहीं कराया है और इसके लिए किसी को प्रेरणा भी नहीं की है । यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदि को मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणा से निर्मित बताए तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिए ।

(6)

इस शरीर के शान्त होने के बाद सत्रहवीं, मेला या महोत्सव आदि बिलकुल नहीं करना चाहिए और उन दिनों में किसी प्रकार की कोई मिठाई आदि भी नहीं करनी चाहिए । साधु-सन्त जिस प्रकार अब तक मेरे सामने भिक्षा लाते रहे हैं, उसी प्रकार लाते रहना चाहिए । अगर सन्तों के लिए सद्गृहस्थ अपने-आप भिक्षा लाते हैं तो उसी भिक्षा को स्वीकार करना चाहिए जिसमें कोई मीठी चीज न हो । अगर कोई साधु या सद्गृहस्थ बाहर से आ जायँ तो उनकी भोजन व्यवस्था में मिठाई बिलकुल नहीं बनानी चाहिए, प्रत्युत् उनके लिए भी साधारण भोजन ही बनाना चाहिए ।

(7)

इस शरीर के शान्त होने पर शोक अथवा शोक-सभा आदि नहीं करना चाहिए, प्रत्युत् सत्रह दिन तक सत्संग, भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप, गीता पाठ, श्रीरामचरित मानस पाठ, सन्तवाणी-पाठ, भागवत-पाठ आदि आध्यात्मिक कृत्य ही होते रहने चाहिए । सनातन-हिन्दू-संस्कृति में इन दिनों के ये ही मुख्य कृत्य माने गए हैं ।

(8)

इस शरीर के शान्त होने के बाद सत्रहवीं आदि किसी भी अवसर पर यदि कोई सज्जन रुपया-पैसा, कपड़ा आदि कोई वस्तु भेंट करना चाहें तो नहीं लेना चाहिए अर्थात् किसी से भी किसी प्रकार की कोई भेंट बिलकुल नहीं लेनी चाहिए । यदि कोई कहे कि हम तो मन्दिर में भेंट चढ़ाते हैं तो इसको फालतू बात मानकर इसका विरोध करना चाहिए । बाहर से कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की कोई भेंट किसी भी माध्यम से भेजे तो उसको सर्वथा अस्वीकार कर देना चाहिए । किसी से भी भेंट न लेने के साथ-साथ यह सावधानी भी रखनी चाहिए कि किसी को कोई भेंट, चद्दर किराया आदि नहीं दिया जाए । जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिए ।

(9)

इस शरीर के शान्त होने के बाद इस (शरीर)-से सम्बन्धित घटनाओं को जीवनी, स्मारिका, संस्मरण आदि किसी भी रूप में प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए ।

अन्त में मैं अपने परिचित सभी सन्तों एवं सद्गृहस्थों से विनम्र निवेदन करता हूँ कि जिन बातों का मैंने निषेध किया है, उनको किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए । इस शरीर के शान्त होने पर इन निर्देशों के विपरीत आचरण करके तथा किसी प्रकार का विवाद, विरोध, मतभेद, झगड़ा, वितण्डावाद आदि अवांछनीय स्थिति उत्पन्न करके अपने को अपराध एवं पाप का भागी नहीं बनाना चाहिए, प्रत्युत् अत्यन्त धैर्य, प्रेम, सरलता एवं पारस्परिक विश्वास, निश्छल व्यवहार के साथ पूर्वोक्त निर्देशों का पालन करते हुए भगवन्नाम-कीर्तनपूर्वक अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए । जब और जहाँ भी ऐसा संयोग हो, इस शरीर के सम्बन्ध में दिए गए निर्देशों का पालन वहाँ उपस्थित प्रत्येक सम्बन्धित व्यक्ति को करना चाहिए ।

मेरे जीवनकाल में मेरे द्वारा शरीर से, मन से, जान में, अनजान में किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट पहुँचा हो तो मैं उन सभी से विनम्र हृदय से क्षमा माँगता हूँ । आशा है, सभी उदारतापूर्वक मेरे को क्षमा प्रदान करेंगे ।

राम.....राम.....राम ।

-हस्ताक्षर रामसुखदास

वास्तविक गुरु

कल गुरु-पूर्णिमा है । सारे देश में यह पर्व पूरे कर्मकाण्ड से मनाया जाएगा । गुरु-पूजा के नाम जो न हो जाए वह कम । यूँ तो परामर्श दिया गया है कि किसी को गुरु बनाने से पहले उसके बारे में भरपूर छानबीन कर ली जानी चाहिए । लेकिन इस काम के लिए इतनी फुरसत किसी के पास नहीं है । सब भेड़ियाधसान में लगे हुए हैं । हर कोई किसी न किसी के कहने से या मौजूदा गुरुओं की आक्रामक मार्केटिंग से प्रभावित होकर गुरु बना रहा है और श्रद्धान्ध होकर गुरु-पूजा किए जा रहा है । ऐसे में स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज का प्रस्तुत लेख न केवल गुरु की तलाश में लगे लोगों को रास्ता दिखाता है बल्कि हमारे आसपास पसरे हुए गुरुओं की वास्तविकता भी बड़ी ही सहजता और सूक्ष्मता से सामने लाता है ।

यह लेख मैं ने, इन्दौर से प्राकशित हो रही त्रैमासिक पत्रिका ‘यथार्थ आरोग्य’ के ‘वट पूर्णिमा-2008’ अंक से लिया है । यह लेख पढ़ने के बाद स्वामी रामसुखदासजी महाराज के बारे में जानने की जिज्ञासा पैदा होगी ही । वे तो अब अब नहीं रहे किन्तु उनकी वसीयत मुझे पढ़ने में आई है जो उनके बारे में सब कुछ कह देती है । वह वसीयत यथा सम्भव, कल प्रस्तुत करुँगा ।

फिलहाल तो यह विचारोत्ततेजक लेख पढ़िए -

गुरु तत्व होता है, शरीर नहीं

स्वामी रासुखदासजी
गुरु बनाने से कल्याण नहीं होता प्रत्युत् गुरु की बात मानने से कल्याण होता है क्यों कि ‘ गुरु शब्द होता है, शरीर नहीं ।

’जो तू चेला देह को, देह खेह की खान ।

जो तू चेला सबद को, सबद ब्रह्म कर मान ।।

गुरु शरीर नहीं होता और शरीर गुरु नहीं होता । न मत्र्यबुद्धयासूयेत । इसलिए गुरु कभी मरता नहीं । अगर गुरु मर जाए तो चेले का कल्याण कैसे होगा ? शरीर को तो अधम कहा गया है -

छिति जल पावक गगन समीरा ।

पंच रचित अति अधम सरीरा ।।

अगर किसी का हाड़-मांसमय शरीर गुरु होता है तो वह अधम होता है, कालनेमि होता है । इसलिए गुरु में शरीर - बुद्धि करना और शरीर में गुरु-बुद्धि करना अपराध है ।

सन्त एकनाथजी के चरित्र में यह बात बहुत विशेषता से मिलती है । शास्त्र की प्रक्रिया के अनुसार पहले तीर्थयात्रा की जाती है, फिर उपासना की जाती है और फिर ज्ञान होता है । परन्तु एकनाथजी के जीवन में उलटा क्रम मिलता है । पहले ज्ञान हुआ, फिर उन्होंने उपासना की और फिर गुरुजी ने तीर्थयात्रा की आज्ञा दी ।

जब वे तीर्थयात्रा में थे, तब उनके गाँव पैठण का एक ब्राह्मण उनके गुरुजी के पास देवगढ़ पहुँचा और बोला कि महाराज ! आपके यहाँ जो एकनाथ था, उनके दादा-दादी बहुत बूढ़े हो गए हैं और एकनाथ को याद कर-कर रोते रहते हैं । सुनकर गुरुजी को आश्‍चर्य हुआ कि एकनाथ मेरे पास इतने वर्ष रहा, पर उसने अपने दादा-दादी के विषय में कभी कहा ही नहीं ! उन्होंने एक पत्र उस ब्राह्मण को दिया और कहा कि वह (एकनाथ) तीर्थयात्रा करते हुए जब पैठण आएगा, तब उसे मेरा यह पत्र दे देना । मैं ने कहा है इसलिए वह पैठण जरूर आएगा ।

पत्र लेकर ब्राह्मण चला गया । घूमते-घूमते जब एकनाथजी पैठण पहुँचे तो वे दादा-दादी से मिलने गाँव में नहीं गए, प्रत्युत् गाँव के बाहर ही ठहर गए । उस ब्राह्मण ने जब एकनाथजी को देखा तो उनको पहचान लिया और उनके दादाजी का हाथ पकड़कर उनको एकनाथजी के पास ले चला । संयोग से एकनाथजी रास्ते में ही मिल गए । दादाजी ने स्नेहपूर्वक एकनाथजी को गले से लगाया और गुरुजी का पत्र निकाल कर कहा कि यह तुम्हारे गुरुजी का पत्र है । यह सुनते ही एकनाथजी गदगद हो गए । उन्होंने कपड़ा बिछा कर, उसके ऊपर पत्र रखा, उसकी परिक्रमा करके दण्डवत् प्रणाम किया, फिर उसको पढ़ा । उसमें लिखा था कि एकनाथ ! तुम वहीं रहना । एकनाथजी वहीं बैठ गए । फिर उम्र भर वहाँ से कहीं गए ही नहीं । वहीं मकान बन गया । सत्संग शुरु हो गया । दादा-दादी उनके पास आकर रहे ।

एकनाथजी फिर कभी गुरुजी से मिलने भी नहीं गए । विचार करें, गुरु शरीर हुआ कि वचन हुआ ? जब गुरुजी का शरीर शान्त हो गया तो वे बोले कि गुरु मरे और चेला रोए तो दोनों को क्या ज्ञान मिला ? तात्पर्य है कि गुरु मरता नहीं और चेला रोता नहीं ।

एकनाथजी के चरित्र में जैसी गुरु-भक्ति देखने में आती है, वैसी और किसी सन्त के चरित्र में देखने में नहीं आती । श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध पर उन्होंने मराठी में जो टीका लिखी, उसके प्रत्येक अध्याय के आरम्भ में उन्होंने विस्तार से गुरु की स्तुति की है । ऐसे परम् गुरु-भक्त एकनाथजी ने गुरु से बढ़कर उनके वचन (आज्ञा) को महत्व दिया ।भगवान् से लाभ उठाने की पाँच बाते हैं - नाम-जप, ध्यान, सेवा आज्ञापालन और संग । परन्तु सन्त-महात्माओं से लाभ उठाने में तीन ही बातें उपयुक्त हैं - सेवा, आज्ञा पालन और संग । इसलिए गुरु का नाम-जप और ध्यान न करके उनकी आज्ञा का पालन कर, उनके सिद्धान्त के अनुसार अनुसार अपना जीवन बनाना ही वास्तविक गुरु-पूजा और गुरु-सेवा है । कारण कि सन्त महात्माओं को शरीर से बढ़कर सिद्धान्त प्यारा होता है । वे प्राण छोड़ देते हैं पर सिद्धान्त नहीं ।

गुरु शरीर नहीं प्रत्युत् तत्व होता है । अतः सच्चे गुरु अपना पूजन-ध्यान नहीं करवाते हैं । सच्चे सन्त अपनी आज्ञा का पालन भी नहीं करवाते प्रत्युत् यही कहते हैं कि गीता, रामायण आदि ग्रन्थों की आज्ञा का पालन करो । जो गुरु अपना फोटो देते हैं, उसको गले में धारण करवाते हैं, उसकी पूजा और ध्यान करवाते हैं - वे धोखा देने वाले होते हैं । कहाँ तो भगवान् का चिन्मय शरीर और कहाँ हाड़-मांस का जड़, अपवित्र शरीर ! जहाँ भगवान् की पूजा होनी चाहिए वहाँ हाड़-मांस के पुतले की पूजा होना बड़ा भरी दोष है । जैसे राजा से वैर करने वाला, उसके विरूद्ध चलने वाला राजद्रोही होता है, ऐसे ही अपनी पूजा करवानेवाला, भगवद्द्रोही होता है ।

गीता प्रेस के संस्थापक, संचालक और संरक्षक सेठश्री जयदयालजी गोयन्दका से एक सज्जन ने कहा कि हम आपकी फोटो लेना चाहते हैं तो उन्होंने कहा कि पहले अपनी जूती लाकर मेरे सिर पर बाँध दो, पीछे फोटो ले लो ! अपनी पूजा कराना मैं (अपने को) जूता मारने की तरह समझता हूँ ।

एक बार सेठजी ने एक सन्त से पूछा कि आप पुस्तकों में अपना चित्र दिया करते हैं, अपने नाम, चित्र आदि का प्रचार करते हैं तो इससे आपका भला होता है या शिष्‍यों का भला होता है अथवा संसार का भला होता है ? किसका भला होता है ? इस प्रश्‍न का उत्तर उन सन्त से देते नहीं बना ।

....और एक लिखी

फोन पर उधर से ओम प्रकाशजी मिश्र बोल रहे थे । ‘उपग्रह’ में प्रकाशित, ‘पिछड़े लोग’ वाली मेरी टिप्पणी की प्रशंसा भी कर रहे थे और ‘प्रेमपूर्वक प्रताड़ित’ भी । पूछ रहे थे अपने नाम और चित्र के साथ, मैं क्या समझ कर अपना ई-मेल पता देता हूँ ? देश के कितने लोगों के पास कम्प्यूटर है और यदि कम्प्यूटर है भी तो उनमें से कितनों के पास इण्टरनेट कनेक्शन है ? इसलिए मैं ने अपना अता-पता, फोन नम्बर और मोबाइल नम्बर देना चाहिए । पहली नजर में यह बात सबको ठीक लगेगी । लेकिन मुझे नहीं लगती ।

‘उपग्रह’ के पाठकों को मेरी बातें अपनी और अच्छी लगती हैं तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ? और प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती ? उससे तो देवता भी नहीं बचते ! लेकिन ‘उपग्रह’ के माध्यम से ही तो मेरा स्तम्भ ‘बिना विचारे’ पाठकों तक पहुँचता है । इसलिए मेरा मानना है कि उचित तो यही है कि पाठक मेरा उत्साहवर्धन ‘उपग्रह’ के माध्यम से ही करें । मिश्रजी मेरे वरिष्ठ हैं और एन.सी.सी. केम्पों में मैं ने उनकी ‘कमान’ में खूब परेड की है, सो उनसे फोन पर तो कहने का साहस नहीं हुआ लेकिन यहाँ उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठा कर कह रहा हूँ । बेशक कम्प्यूटर और इण्टरनेट की सुविधा गिनती के घरों में है लेकिन जिन भी घरों में यह सुविधा है, वहाँ इसका नित्य उपयोग हो रहा है । इसके विपरीत, कलम और कागज घर-घर में हैं लेकिन पत्र लिखने को कोई तैयार नहीं । पत्र लिखना आज शायद सबसे कठिन और फोन पर बात कर लेना सबसे आसान काम हो गया है । लेकिन हमें याद रखना पड़ेगा कि कही बात हवा में गुम हो जाती है और लिखी बात बार-बार पढ़ी और पढ़वाई जा सकती है ।


पाठकों को कैसे बताऊँ कि उनका एक पत्र न केवल उनकी भावनाओं को सार्वजनिक करेगा बल्कि उससे उनकी, ‘उपग्रह’ की और मेरी भी इज्जत बढ़ेगी । एक पोस्ट कार्ड की बात है । काम कठिन जरूर है, नामुमकिन नहीं । समय तो हम सबके पास है लेकिन लिखने की आदत नहीं । सो, मेहनत कौन करे और जहमत कौन उठाए ? सो, 'उपग्रह' के पाठकों को मैं ने कहा - ‘‘हुजूर-ए-आला ! यह सब आप ही करेंगे क्यों कि केवल आप ही यह सब कर सकते हैं । ‘उपग्रह’ आपकी बात छापने को उतावला है । लिल्लाह ! आप कलम तो उठाईए !’’

ये व्यापारी और वे व्यापारी

राम मन्दिर के पीछे, जवाहर नगर में लगने वाली सब्जी मण्डी के समस्त सब्जी विक्रेताओं ने, पहली जुलाई से पोलीथीन की थैलियों में सब्जी देना बन्द कर दिया । अब जिसे भी सब्जी लेना हो, अपनी थैली लेकर आए । यह उनका सामूहिक निर्णय है और जो भी सब्जी विक्रेता इस निर्णय का उल्लंघन करेगा उस पर पाँच सौ रुपये दण्ड किए जाएँगे । दण्ड की यह राशि गौ शाला में दी जाएगी । इनमें से किसी की दुकान पक्की नहीं है । सड़क किनारे, सबके ठीये तय हैं । प्रतिदिन सवेरे आकर अपने ठीये पर, बाँस-छप्पर से अपनी दुकान सजाते हैं और शाम को अपना डेरा-तम्बू समेट कर साथ ले जाते हैं । दुकानदार की धार्मिक आस्था जताने वाला कोई चित्र किसी भी दुकान पर नजर नहीं आता । बोली से भी अनुमान लगाना कठिन है कि इनमें से कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान । बस, सब एक जैसे सब्जी विके्रता हैं - रोज दुकान सजाने वाले और रोज कुआ खोद कर रोज पानी पीने वाले । यह निर्णय इन्होंने अचानक क्यों लिया - यह जानने के लिए मैं इनमें से कुछ से मिला । सबने एक जैसी बातें तो नहीं बताईं लेकिन एक बात सबने बताई - ‘बाबूजी ! पन्नी से गायें और जनावर मरते हैं ।’ लेकिन यह बात तो बरसों से जग जाहिर है ! नई बात क्या है ?

क्या पर्याप्तता के अभाव और धर्माचरण या ईश्‍वर के प्रति आस्थावान होने में कोई सम्बन्ध है ? शायद हाँ । मेरा शहर रतलाम तीन चीजों के लिए पहचाना जाता है - सोना, (बेसन से बनी, नकमीन) सेव और साड़ी । तीनों चीजों की जितनी बड़ी-बड़ी दुकानें हैं, दुकानदार भी उतने ही बड़े हैं - अधिकांश भव्य भवनों और शो-रूम जैसी दशा में । इनमें से साड़ी और सेव की दुकानों में पन्नी (पोलीथीन) का उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है । प्रायः प्रत्येक दुकान पर, मालिक की धार्मिक आस्थाओं वाले और सम्बन्धित देवी-देवताओं और गुरुओं के, फूल मालाओं से सजे, धूप-दीप से पूजित, सुगन्धित चित्र बिना प्रयास ही दिखाई दे जाते हैं । सबके सब न केवल धार्मिक हैं बल्कि जीव-दया, करुणा, अहिंसा के प्रति अपनी प्रतिबध्दता जताते-बताते रहते हैं । अपने-अपने धर्म की शोभा यात्राओं, समागमों में सबसे आगे रहने को प्रयत्नरत रहते हैं और इनके धर्मोपदेशक भी इन्हें न केवल अग्रिम पंक्ति में बैठाते हैं अपितु अपने प्रवचनों में इनमें से किसी न किसी का नामोल्लेख भी यथासम्भव करते हैं ।

कोई साल-डेढ़ साल पहले मैं ने इनमें से कुछ लोगों से सम्पर्क कर पोलीथीन का उपयोग बन्‍द करने का आग्रह किया था । पोलीथीन से हो रही पर्यावरण और पशु हानि से सब न केवल भली भाँति परिचित थे अपितु इसके उपयोग को प्रतिबन्धित करने की अनिवार्यता से भी सहमत थे । लेकिन इसका उपयोग छोड़ने को एक भी तैयार नहीं था । अलग-अलग दुकान पर, सबने एक बात समान रूप से कही - ‘ग्राहकी पर असर पड़ता है । लोग सामान लेने से ही इंकार कर देते हैं ।’ कुछ ने ‘हम कहाँ देते हैं ? ग्राहक माँगता है तो देना पड़ता है’ जैसा लचर तर्क दिया । मजे की बात यह है कि ऐसे तमाम व्यापारी अपने माल की क्वालिटी पर गर्व करते हैं और उसकी दुहाई भी देते हैं लेकिन पोलीथीन के सामने उनकी क्वालिटी ‘टें’ बोल जाती है ।

जिनसे मैं ने बात की थी उन सबका टर्नओवर यदि करोड़ों में नहीं तो बीस-पचास लाख से कम का नहीं है । किसी कारणवश सप्‍ताह-पन्द्रह दिन दुकान बन्द रखनी पड़ जाए तो केवल मुनाफे में कमी होगी, बाकी कोई दिक्कत नहीं होगी ।

मेरे सवाल का जवाब शायद इन्हीं बातों में कहीं छुपा हुआ है । जिसके पास कल की व्यवस्था नहीं है वह ईश्‍वर के होने में विश्‍वास कर उसे पुकारता है और उससे डरता है । जिसके पास पर्याप्त से अधिक है उसके लिए ईश्‍वर और धर्म शायद जगत दिखावे के लिए अनिवार्य तत्व हैं - आचरण के नहीं । ऐसी ही बातों से निष्‍कर्ष निकलते हैं - ‘धार्मिक होने की अपेक्षा धार्मिक दिखना ज्यादा जरूरी है ।’

वास्तविक धार्मिक कौन है - इस फतवेबाजी में मैं नहीं पड़ूँगा ।

(यह पोस्‍ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे, साप्‍ताहिक उपग्रह के 10 जुलाई 2008 के अंक में, 'बिना विचारे' शीर्षक स्‍तम्‍भ में भी प्रकाशित हुई है ।)

जल्दी पढ़ लीजिएगा








‘दैनिक भास्कर’ के आज के फिल्मी परिशिष्ट ‘नवरंग’ में प्रकाशित, यूनुस भाई का स्तम्भ ‘स्वर पंचमी’ अपनी पहली फुरसत में पढ़ लीजिएगा । ‘यहाँ बादल इबादत कर रहे हैं‘ शीर्षक वाला इनका आज का आलेख अत्यन्त परिश्रम से लिखा गया है जिसमें उन फिल्मी पावस गीतों की जानकारी दी गई है जो दुर्लभ भी हैं और इतने अनसुने कि उन्हें फौरन ही सुनने की हूक मन में उठने लगेगी ।




रघुवीर सहाय भी फिल्मी गीतकार हो सकते हैं - यह अनूठी जानकारी इस आलेख में दी गई है ।




दैनिक भास्कर का यह फिल्मी परिशिष्ट देश भर के इसके समस्त संस्करणों के साथ उपलब्ध कराया जाता है सो अनुमान लगाता हूं कि यह इसके इण्टरनेट संस्करण पर भी उपलब्ध होगा जिसे www.bhaskar.com पर पढ़ा जा सकता है ।




मुझे अच्छा लिखना नहीं आता सो अच्छे ब्लागरों की अच्छी बातें सब तक पहुंचाने का अच्छा काम करके खुद के लिए तसल्ली ढूंढ लेता हूं ।




यूनुस भाई ने इस आलेख के लिए कितना परिश्रम किया होगा, यह आलेख पढ़ने के बाद ही अनुभव हो पाएगा ।




यूनुस भाई पर गर्व करें - वे ब्लाग जगत को गौरवान्वित कर रहे हैं ।

75 वर्ष का पुरुषार्थी



‘उपग्रह’ की डाक में आया एक मनी आर्डर देख कर भैया साहब (श्रीयुत सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) अचरज से चिहुँक पड़े - ‘अरे ! लाड साहब का मनी आर्डर ?’ अनजाने-अनिष्ट से तनिक आशंकित और खिन्न मन से मनी आर्डर का, सन्देश वाला कूपन अलटा-पलटा । लाड साहब ने लिखा था - ‘मेरा पत्र देखें ।’ पत्र भी साथ ही साथ मिल गया । कठिनाई से दस पंक्तियों वाला वह पत्र पढ़कर भैया साहब, सजल नेत्रों से, देर तक शून्य में देखते रहे ।

मैं जे. सी. लाड साहब को शकल से बिलकुल ही नहीं जानता । उनके बारे में सुना है कि वे रतलाम महाविद्यालय के ऐसे प्राध्यापक थे जो ‘असाधारण रूप से साधारण’ थे । अपने विषय के आधिकारिक ज्ञाता होने का दम्भ उन्हें छू भी नहीं पाया था । अपने छात्रों को अधिकाधिक देने की ललक के अधीन जो जतन वे किया करते थे वह सब अब बड़े अचरज के साथ, अविश्वसनीय किस्सों की मानिन्द सुना जाता है । उनके पढ़ाए छात्र उनका जिक्र करते हुए भाव विभोर हो जाते हैं और सूने आसमान में देखते हुए, मानो अनन्त शून्य में अपने ‘सर’ को साक्षात् देख रहे हों, बताते हैं कि जब वे पढ़ाते थे तब ही वे प्रोफेसर होते थे । वर्ना अपने पहनावे और व्यवहार से उन्होंने कभी भी खुद को प्रोफेसर नहीं जताया-बताया । वे कर्मणा प्रोफेसर और आचरण में श्रेष्ठ मनुष्य बने रहे । उनकी हमपेशा अनेक ‘अध जल गगरियाँ’ जब अकारण छलक-छलक कर खुद को हास्यास्पद बनाती रहती थीं तब लाड साहब अपने ज्ञान सागर की अतल गहराइयों से उठती विद्वत्ता की लहरों को किनारों तक आने की अनुमति नहीं देते थे । लाड साहब के बारे में सुन-सुन कर, उन्हें देखने की, उनसे मिलने की इच्छा जब-तब मन में उठती रहती रही । लेकिन जैसा कि हम सबके साथ होता है, इच्छा इतनी बलवती कभी नहीं हो पाई कि उनसे मिलने के लिए घर से निकल पड़ें । इस बीच, ‘बिना विचारे’ की मेरी कुछ टिप्पणियों पर उनके पत्र मिले । वे पत्र मेरे लिए किसी अभिनन्दन पत्र से कम नहीं रहे । अभी-अभी, ‘पाँखी की छुट्टियाँ’ पर लिखे पत्र से उन्होंने जिस तरह से मेरी पीठ थपथपाई है, वह मेरे जीवन का उल्लेखनीय और अविस्मरणीय प्रसंग है । वे बड़े तो हैं ही लेकिन उनका बड़प्पन यह है कि उन्होंने अत्यन्त कृपापूर्वक मुझे अपने ‘पत्र-मित्र परिवार’ में शरीक किया । इस सबके बावजूद मैं यह कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि मैं उन्हें जानता हूँ । लेकिन अब उन्हें जानने की जिज्ञासा, इस ‘मनी आर्डर काण्ड’ से उछालें मारने लगी है ।

मनी आर्डर के साथ मिले पत्र में लाड साहब ने सूचित किया कि अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे करने के साथ ही उन्होंने कुछ संकल्प लिए हैं उनमें से एक है - किसी से कोई सामग्री, भेंट, उपहार निःशुल्क नहीं लेना । इसी संकल्प के पालन में उन्होंने ‘उपग्रह’ का वार्षिक शुल्क भेजते हुए लिखा - ‘अब आप मुझे सशुल्क सदस्य/पाठक की सूची में शामिल करने की कृपा करें । अन्यथा नहीं लें और मेरे संकल्प निर्वाह में सहयोग करें ।’

आयु के ऐसे मुकाम पर आहार-संयम और वानप्रस्थ आचरण के संकल्प लेते हुए अनेक लोगों को हम सबने अब तक कई बार देखा-सुना होगा और कहना न होगा कि ऐसे संकल्पों की प्रत्येक सार्वजनिक घोषणा का उपहास भी किया होगा क्यों कि ऐसी आयु में ऐसे संकल्प स्वेच्छा से कम और विवशता में अधिक लिए जाते हैं । जब कुछ खा-पी ही नहीं सकते, कुछ कर ही नहीं सकते तो ऐसे संकल्प व्यक्ति को उपहास का ही पात्र बनाते हैं । लेकिन डाड साहब का यह संकल्प मुझे तनिक अनूठा और अचरज भरा ही नहीं, असुविधाजनक भी लगा है । उम्र के 75वें वर्ष में व्यक्ति शरीर से ही नहीं, जेब से भी अशक्त (साफ-साफ कहूँ तो ‘आश्रित’) हो जाता है । पढ़ना-लिखना आज सर्वाधिक मँहगे व्यसनों में शरीक हो गया है । साहित्यिक पत्रिकाओं की प्रसार संख्या कम होने से उनकी कीमतें स्वतः ही अधिक होती हैं । फिर, कागज इन दिनों सबसे मँहगी चीजों में शरीक हो गया है सो लिखने-पढ़ने वालों को भी आटे-दाल का भाव मालूम होने लगा है । ऐसे में लाड साहब का यह संकल्प उनके अपरिमित आत्म-बल का ही परिचय देता है । इस संकल्प से लाड साहब के दैनन्दिन अर्थ-प्रबन्धन पर कितना-क्या असर पड़ेगा यह जानने से अधिक महत्वपूर्ण यह जानना होगा कि ऐसा संकल्प वे कैसे ले पाए ! हम, मध्यमवर्गीय भारतीय, मुफतखोरी के लिए खूब अच्छी तरह जाने जाते हैं । और बात यदि अखबारों-पत्रिकाओं की हो तो ऐसी खरीदारी को तो हर कोई फालतू और मूर्खतापूर्ण ही मानता है । रेल-बस यात्राओं के दौरान ऐसे असंख्य सहयात्री मिलते हैं जो यात्रा के दौरान पचास रूपयों के गुटके खा लेते हैं लेकिन दो-तीन रूपयों के अखबार के लिए पड़ौसी यात्री की दया पर निर्भर रहते हैं । ऐसे में लाड साहब का ‘मुफतखोरी से मुक्ति’ का यह संकल्प (वह भी आयु के इस मुकाम पर !) उन्हें ‘सच्चा पुरुषार्थी’ के सिवाय और क्या साबित करता है ?